रविवार, 31 अक्टूबर 2021

मैं हूं दर्द आदमी कब हूं----- ===================== डॉ.कारेन्द्र देव त्यागी "मक्खन मुरादाबादी"

मैं हूं दर्द आदमी कब हूं-----
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                          डॉ.कारेन्द्र देव त्यागी
                          "मक्खन मुरादाबादी"

        सन् 1973-74 की बात है,जब मैं हास्य-व्यंग लेखकत्रयी ( हरीशंकर पारसाईं , शरद
जोशी व रवीन्द्र नाथ त्यागी ) में से रवीन्द्र नाथ त्यागी से मेरठ स्थित उनके सरकारी कार्यालय में मिला था। मेरा पूरा परिचय पा लेने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा था , 'रामावतार त्यागी को जानते हो।' मैं नहीं जानता था,' नहीं कह दिया।'
उन्होंने कहा था , ' तुम्हें उनसे अवश्य मिलना चाहिए।' मुझमें रामावतार त्यागी जी से मिलने की उत्कंठा वहीं से पनप गई थी।
        इसके चार - पांच महीने बाद ही हल्द्वानी एक कवि सम्मेलन में जाना हुआ। शाम को तैयार होकर हुल्लड़ मुरादाबादी मुझे होटल के उस कमरे में ले गए जिसमें रामावतार त्यागी ठहरे थे। मेरा परिचय कराया गया। पूरा परिचय मुझसे भी जानबूझ कर उन्होंने कहा था कि तुम तो घर के ही बालक हो। कवि सम्मेलन में ले जाने के लिए आयोजक बंधु आ गये थे। रामावतार त्यागी ने हुल्लड़ मुरादाबादी से कहा कि तुम अन्य कवियों को लेकर चलो, मैं थोड़ी देर में अपने बालक के साथ आता हूं। सब चले गए थे और वह मुझसे बतियाते हुए अपने कार्य में लगे रहे। कार्य निपटा कर बोले,'अब चलो।' कार्यक्रम होटल के बगल में ही था।हम लोग टहलते हुए ही पंडाल में प्रवेश कर जैसे ही मंच पर पहुंचे तो मंच  तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था,यह था रामावतार त्यागी का अद्भुत स्वागत। मेरे कविता-पाठ पर
उन्होंने मेरी मन भरकर प्रशंसा की थी और खूब आशीर्वाद दिया था।जब वह कविता पाठ के लिए उठे तो फिर तालियां। पढ़ना शुरू किया तो पंडाल तालियों से गूंज उठा था। कई गीत पढ़े थे, उन्होंने। मैं हतप्रभ था। मुझे वहीं उनके दो - तीन गीतों की पंक्तियां याद हो गईं थीं। रामावतार त्यागी यहीं से मेरे भीतर बैठ गये। तत्पश्चात वह कई बार मुरादाबाद मेरे संयोजन में हुए कार्यक्रमों में आये और अन्यत्र बीसियों काव्य- मंचों पर उनका सान्निध्य और आशीर्वाद मुझे खुले मन से प्राप्त हुआ। मैं सौभाग्यशाली रहा कि मुझे ऐसी गीत विभूति के श्रीचरणों में प्यार भरा स्थान मिला। उनसे परिचित होने की मेरी इतनी भर कहानी है।

रामावतार त्यागी का जन्म जिस समय में हुआ,वह भयंकर वाली आर्थिक तंगी का रहा होगा, क्योंकि उनके जन्म के 26 साल बाद सन् 1951 में मेरे जन्म के चार-छ:साल बाद भी, जब मुझे कुछ समझ हुई ,तब भी तंगी ही तंगी पसरी हुई थी। खेती-बाड़ी से कमाये गये दानों का ही आाासरा था। पढ़ाई महत्त्वपूर्ण नहीं थी। विरले ही पढ़ते थे। तंगहाली में भी पुरखों को बालकों की नौकरियों का लालच नहीं था। कितने ही परिवार अपने बालकों की लगी-लगाई नौकरियां छुड़वाकर घर के काम में लगा लेते थे। परिवारों में बस यही भाव बसा हुआ था कि अपनी आंखों का तारा अपनी आंखों सेअलग न हो , आंखों के सामने ही रहे। इस भाव में तो पारिवारिक प्रेम ही नहीं अपितु प्रेम की पराकाष्ठा थी। फिर भी रामावतार त्यागी इससे वंचित रहे , क्यों ? क्योंकि उनमें बचपन से ही मनमानी भी थी और मनमानी में जिद भी। तत्कालीन सामाजिक ढांचागत व्यवस्थाओं ने कहीं न कहीं उन्हें उद्वेलित करके रख दिया था। इसीलिए उनके भीतर रूढ़ीगत राह के विपरीत बहने और डंडाठोक अपने मन की कहने के बेझिझक साहस में निडरता बचपन से ही भर गई थी। सच के दर्शन को कहने में ऐसी ही निडरता जीवन में काम आती है और वही एकमात्र उनके जीवन में काम आई भी। उसी ने उन्हें जीवन भर न झुकने दिया और न ही रुकने दिया, अपितु एक ऐसे गीत कवि के रूप में तराश कर हीरा बनाया, जिसके गीतों ने उदित होते ही तहलका मचा दिया। ऐसे ही नहीं, अपितु उनके गीतों ने दुख भरी जिंदगी की कितनी ही शर्मिंदगियों को ज़िन्दगी दे दी। पूरे दुख- दर्शन को मात्र तीन पंक्तियों में ऐसे कह गए रामावतार त्यागी जैसे कि त्रिदेव को अभिव्यक्त कर गये हों------------------------
     ज़िन्दगी से मरा, मौत से जी गया।
    आंधियों में पला,सांस से बुझ गया।।
    मैं जनम को मरण को बहुत जानता हूं----उनकी ये पंक्तियां उन्हीं का तो सकल निचोड़ हैं-------
जन्म लेने का भी,जीवन जीने का भी और मरण को जानने- पहचानने का भी। मुझे लगता है,इस निचोड़ जाने बिना ही बुद्ध तक मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए निकल लिए। रामावतार त्यागी ने पलायन को नहीं अपितु समायन के साथ अपने पूरे खपायन को जिया।
मनुष्य का जन्म प्राप्त करना किसी परम सत्ता की कृपा पर निर्भर हो सकता है, किन्तु उसका मनुष्यत्व के गुणों को अपने भीतर प्रस्फुटित करने की क्षमता प्राप्त कर लेना अर्थात मनुष्य हो जाना अथवा मनुष्यत्व पाने की दिशा में अग्रसर होने की शक्ति जुटा लेना, बहुत कठिन है। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्यत्व का मार्ग देवत्व के मार्ग से जटिल है।वह इसलिए कि उसके साधन और क्षमताएं सीमित हैं और देवत्व के अपरिमित।
  फिर भी रामावतार त्यागी ने जनम और मरण को जाना है, इसलिए मुझे मरण का अर्थ मृत्यु नहीं लगता। यदि मरण मृत्यु नहीं तो फिर और क्या है? रामावतार त्यागी को पढ़ कर मुझे तो यही समझ में आया है कि सांसें चलती भी न हों और सांसें रुकती भी न हों अर्थात न मनुष्य जीता सा लगे और न ही मरता सा, यही मरण है- जीवन और मृत्यु से साथ- साथ जूझते रहना ही। रामावतार त्यागी इससे जूझे हैं, इसीलिए वह जाने भी हैं। इसी जूझन को उन्होंने गीत बनकर और गीत बनाकर जिया है। मृत्यु को तो केवल वही जानता है,जो मरता है और उसे वही बता भी सकता  है, जबकि बताने के लिए वह बचता नहीं है। अतः मृत्यु को किसी के भी जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। ऊपर वाला ही जानता होगा। नचिकेत प्रयास से भी उसके रहस्य भर को ही जाना जा सका है,उसको नहीं। इसीलिए तो त्यागी जी भी मरण को ही जाने हैं। उसे वह केवल जाने ही नहीं बल्कि उससे आंख मिलाकर सीना तानके साफ-साफ कह भी गए हैं----- 
मैं तो अपने बचपन में ही इन महलों से रूठ 
 गया / मैंने मन का हुक्म न टाला चाहे जितना टूट गया / रोटी से ज्यादा अपनी आज़ादी को सम्मान दिया।
        जिसे घर-परिवार का लाड़,प्यार और दुलार न मिला हो, जिसे अपने मित्रों और जीवन में आए करीबी हुए विचित्रों से अपनत्व भरा संसार न मिला हो, जिसे जीवन साथी के सौंदर्य सुख का व्यापार न मिला हो, जिसे जीवन के सपने सच करने का आधार न मिला हो,वह व्यक्ति चलती-फिरती लाश से अलग और अधिक क्या होता है? यही तो मरण है - बंदरिया की भांति मरे हुए बच्चे को पेट से चिपकाए फिरना। ऐसी सघन पीड़ाओं से भरे जीवन का डटकर मुकाबला करना ही  तो उनकी कविता का बेमिसाल कमाल है। फिल्म आंधी और  तूफान का चर्चित गीत ज़िन्दगी से याचना नहीं करता अपितु उसे ललकार कर साहस के साथ चुनौती देता हुआ ही प्रतीत होता है----------------------
मैंने चाहा था कि आंचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
तेरे दामन में बता मौत से ज्यादा क्या है
मेरी कश्ती तेरा तूफान से वादा क्या है
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है।।---------
          ज़िन्दगी से जुड़े अनर्थ और बुरे भावों के जितने भी शब्द व्यवहार में हैं, उन सभी को उनके दुख- भाव के बदले में रामावतार त्यागी से विछावन हुए सत्कार के साथ अभिनव अभिव्यक्ति मिली है। उनकी कविता में उन सबके भाव का प्रभाव तो है और उनको लेकर अपने भीतर पश्चाताप भी,पर कहीं भी निराशा नहीं है, अपितु उनके प्रति मन का अपनत्व भाव ही उमड़ा पड़ा है ------
दर्द तुम भी दूसरों के काव्य में रहने लगे हो
अब तुम्हें मेरे भजन इतने बुरे लगने लगे।।
इतना ही नहीं उन्हें तो आपदाओं को उत्सव बना लेने की वह कला भी खूब आती है, जो भारतीय संस्कृति का अपना अद्भुत गुण है। वर्तमान में हमने कोरोना जैसी आपदा से उत्सव निकाल कर ही तो जिया है-------
छोड़ो कि कौन हममें कितना विशेष घायल
आओ बबूल वन में मिलकर गुलाब बोयें------
उन्होंने बबूल वन की जगह गुलाब बोने की बात कही है। कांटे बबूल में भी होते हैं और गुलाब में भी। भले ही गुलाब के रंग-विरंगे फूलों का सौंदर्य मन को सर्वाधिक भाता हो,पर बबूल के पीले फूलों का आकर्षण भी कम नहीं होता। दोनों में बस उनके कंटकों की अलग-अलग प्रकृति का ही विशेष अंतर है। गुलाब के कांटो में ज़िन्दगी बसती है, क्योंकि उसके कांटे ही फूल कर टहनियां बनते हैं, जिन पर मनमोहक फूल आते हैं। यह मेरा बारीकी से देखा-भाला सत्य है। दुख-दर्दों में भी आशाओं के अंकुर फुटा लेना रामावतार त्यागी की अपनी कविता कला का वैशिष्ट्य है, एकदम गुलाब के रंगों और सुगंधों जैसा ही।
 रामावतार त्यागी के गीतों में जो पीड़ा छलछलाई है वह यूं ही नहीं छलछलाई,अपितु परिवेशगत भोगी- भागी जो उनमें समाई थी, वही निकल कर बाहर आई है।          उनकी अपनी आंखों के सामने प्रतिदिन हर पल उनका मन मरा था, आकांक्षाएं मरी थीं, संभावनाएं मरी थीं, कल्पनाएं मरी थीं, अल्पनाएं मरी थीं, यहां तक कि मरते-मरते उनके वर्तमान में ही उनका भविष्य मरा था। संसार में सबसे बड़ा दुख पुत्र की अर्थी को कंधा देना माना गया है, किन्तु उनका दुख तो इससे भी बहुत सघन था। उनके ऐसे मरण को लेकर उनके पास रही मरा-मरा की निरंतरता ने ही उनमें रामांश का संचार किया, क्योंकि नाम से तो वह रामावतार ही थे न। उनमें बैठे इसी भावांश ने ही उनको वह शक्ति और साहस दे दिया जो दिल्ली में क्षेम चन्द्र सुमन की अध्यक्षता में हो रहे कवि सम्मेलन में उनसे मुखर होकर उनकू पहले-पहले काव्य-पाठ से काव्य जगत में एक सुरसुरी पैदा कर गया -----
पुरातन व्यवस्था बदलती नया युग
नया खून लेकर चला आ रहा हूं।
नयी नाव जर्जर पुराने पुलिन पर
मिलन को उतरना नहीं चाहती है।
नयी वायु सूखे हुए उपवनों में
ठहर कर गुजरना नहीं चाहती है।।
विद्रोह का यह स्वर, काव्य में क्रांति का स्वरलेख लिख गया, जिसने बता दिया था कि रामावतार त्यागी भी इस पटल पर प्रवेश कर गया है------ 
तुम समझोगे मैं बागी हूं विद्रोही हूं
तुम कहकर मुझको पागल एक पुकारोगे।
तुम महा नास्तिक कहकर गाली भी दोगे
हो सका अगर तो मुझ पर पत्थर मारोगे।।
पर मैं तो बन्धन तोड़ ज़माने भर के
इस एक बगावत को सुलगाने आया हूं।
मैं चमचम करते फाड़ समाजी परदे को
अन्दर सड़ती तस्वीर दिखाने आया हूं।।
          अपनी कंगाली में इस तेवर के बादशाही
 मिजाज वाले रामावतार त्यागी के बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उनकी कृति 'आठवां स्वर 'की भूमिका में यह कह कर उन्हें धन्य ही तो किया है ------
" ऐसे विरल लम्बे अंतराल में जन्म लेते हैं और कभी तो फिर नहीं भी लेते। ×××××× गीत का
ज़माना हमेशा बरकरार रहेगा। महादेवी वर्मा और बच्च्न ने जो परंपरा चलाई वह जनता को आज भी पसंद है। यही परंपरा नीरज, त्यागी, वीरेन्द्र,राही आदि में प्रसार कर रही है----

महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने यहीं पर रामावतार त्यागी की ही गीत पंक्तियां उद्धृत की हैं,जोकि एक गहरा संदेश है जिसे दिनकर जी शांत मन-भाव से कह कर अपने दायित्व के धर्म का निर्वाह कर गये --------
इस सदन में मैं अकेला दिया हूं,                   
मत बुझाओ!
जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी ।
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं,                    
मत बुझाओ!
जब जलेगी आरती मुझसे जलेगी ।।×××××
उसके रोने, उसके हंसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहां तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है जो मन को मोह लेती है।" और क्या कहते दिनकर जी? रामावतार त्यागी के लिए कहने को उन्होंने अपने पास जब बचाया ही कुछ नहीं। किसी भी रचनाकार की ऐसे क्षणों से बड़ी अन्य कोई धन्यता नहीं होती।
         पद्मसिंह शर्मा कमलेश ने अपने कथन से रामावतार त्यागी की रचना धर्मिता के मानदंड निर्धारित करके हिन्दी रचना संसार के सामने स्पष्टत: उघाड़ कर रख दिए,जो रामावतार त्यागी के प्रति दुरावी साहित्यिक समाज को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त हैं-------- "अछूती उपमाएं, ताज़ी सूक्तियां, और मौलिक प्रयोग त्यागी जी की कविता के ऐसे गुण हैं जो गीतकारों के लिए ही नहीं, प्रयोगवादियों के लिए भी आदर्श हो सकते हैं।"
डॉ. हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में----------
"रामावतार त्यागी आज की पीढ़ी के कवियों में भारत भर में अकेला है। वह तो गीतों का बादशाह है।"और बाल स्वरूप राही तो स्पष्ट यह घोषणा ही करने में अपना गौरव मानते हैं-------"कि आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास रामावतार त्यागी के गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता।" इस कथन में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने रामावतार त्यागी को 'सम्मलित किए बिना' नहीं कहा अपितु उन्होंने उनके गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना' कहा है। साहित्य में इसका अर्थ सामान्य से बहुत अलग होकर बहुत गहरा होता है।
         क्षेम चन्द्र सुमन कहते हैं----" त्यागी ने अपने जीवन में जितनी पीड़ा, वेदना और कसक झेली है यदि इतनी किसी और ने झेली होती तो कदाचित वह पागल हो जाता।×××××
त्यागी से आंख मिलाये बगैर गीत काव्य से परिचय करना संभव नहीं है।" यह कथ्य भी साधारण से बहुत परे अपने में असाधारण ही है क्योंकि साहित्य में ' आंख मिलाये बगैर " के अर्थ बहुत गूढ़ और गहरे होते हैं। सुमन जी ने 'आज के लोकप्रिय कवि: रामावतार त्यागी' कृति  की भूमिका में जो लिख दिया वह रामावतार त्यागी पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण गद्यकाव्य है। उनका यह महत्त्वपूर्ण शिलालेख इस अंक में समाहित है ही, इसलिए मुझे उनका कहा और अधिक कहने की आवश्यकता यहां पर नहीं लगती।
   पद्मसिंह शर्मा कमलेश द्वारा रामावतार त्यागी की अछूती उपमाओं, ताज़ा सूक्तियों और 
उनके मौलिक प्रयोगों को प्रयोगवादियों के लिए भी आदर्श बताया जाना इसलिए महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि निराला की आह्वान्वित नवता का प्रथम भंडार तो रामावतार त्यागी के ही पास है। बिंबों प्रतीकों,उपमाओं और भाषा की नवता में रामावतार त्यागी जैसी निजता उनके बाद किशन सरोज के अतिरिक्त गीत जगत में अभी तक तो अन्यत्र किसी के पास नहीं ही मिलती। जबकि नवगीत इन दो नामों के उल्लेख भर से भी थरथराता सा ही लगता रहा है -------------
 डॉ. सुरेश गौतम एवं वीणा गौतम ने सन्      
1985 में " नवगीत : इतिहास और उपलब्धि " नामक शोधात्मक आलोचना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी आलोचना को देकर निश्चित ही समालोचना-शास्त्र की श्रीवृद्धि की थी किन्तु नवगीत मठों नेउसे इसलिए दरकिनार कर दिया क्योंकि उसमें रामावतार  त्यागी सहित कुछ अन्य उन समर्थ गीत कवियों को समाहित किया गया था, जिन्हें डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने किन्हीं कारणों से नवगीत दशक में स्थान नहीं दिया था। नवगीत के तात्कालिक लंगड़ेपन ने अपने से समर्थ गीत कवियों को टंगड़ी मारकर अपने यूनाइटेड बल पर ही अपना हित साधने का मार्ग प्रशस्त किया और स्व- हित साधक इसके बहुत से अनेक कारणों में से ठुकराए गये कवियों की एक आदत को दोषी ठहरा कर खुद अपना काफिला लेकिन सफ़र पर बढ़ लिए।
       नवगीत कवि,विवेचक और विश्लेषक स्वयं
 रामावतार त्यागी के गीतों की बराए मेहरबानी इन पंक्तियों पर भी ईमानदारी से दृष्टि डालें--- 'ग़ज़ल जब पिट रही हो तो रूबाई को ज़रा चल
दूं ,' ' हमारी राह का कोई सिरा मंज़िल नहीं होता,' ' हमें हस्ताक्षर करना न आया चैक पर माना,मगर दिल पर बड़ी कारीगरी से नाम लिखते हैं,' ' बूंदों की तकदीर पी गईं,ये कैसी जलभरी घटाएं।' कोकिल का संगीत डस लिया,
कलियां हैं या विष कन्याएं,' 'जीवन का अमृत निचोड़कर कर,प्यासे यम को पिला दिया,' पीड़ा को गालियां नहीं दो,यह मेरे गीतों की मां है,' ' मैं हूं दर्द आदमी कब हूं,' ' सह भी लिया  दर्द
यदि मैंने, अपने संबंधी सपनों का। बोलो क्या जवाब दूंगा मैं,चादर के अबोध प्रश्नों का।', ' मैंने दुख को आमंत्रित नहीं किया, लेकिन उसकी आदत का क्या कहना।,' ' कर ली पूर्ण अधूरी माला, दुख में उसने मुझे पिरोकर,' 'हम पंडित जी की नज़रों में व्यक्ति नहीं हैं, सामग्री हैं,' ' तुमने तो समुद्र के हाथों पहनी थी सुहाग की चूड़ी,' 'जैसी गीत-गीत में नवनीत पंक्तियां भरी पड़ी हों तो कोई कैसे कह सकता है कि नवगीत रामावतार त्यागी में नहीं पड़ा हुआ था?
           नई कविता की भांति नवगीत का उद्गम स्रोत भी निराला जी की सरस्वती वन्दना में प्रयुक्त नव  पद ही है। निराला का नव मात्र नव नहीं अपितु नव पर नव है - डॉ.मनोहर अभय। यह 
उचित ही प्रतीत होता है। रामावतार त्यागी में नवता और मौलिकता का मनोहारी समन्वय निरंतर विद्यमान है।    निराला जी को लेकर बड़े संस्मरण प्रचलित हैं। उनमें से एक यह है जो मैंने कइयों से सुना है- ' निराला, महादेवी को बहन मानते थे। एक बार रक्षाबंधन के दिन वह बग्घी में बैठकर महादेवी के घर पहुंचे और महादेवी से कहा,' दो रुपए दो।' महादेवी ने पूछा,' 'किसलिए ?' तो उन्होंने  कहा कि एक रुपया इस बग्घी वाले को देना है और एक रुपया राखी बंधाई का तुमको। क्षेमचंद्र सुमन के अनुसार--' हद दरजे के किसी ग़मगीन आदमी की शक्ल यदि किसी ने न देखी हो तो वह रामावतार त्यागी के चेहरे को देख ले ×××× ××××××× किन्तु आपकी किसी भी परेशानी में वह आहिस्ता से आपके कंधे पर हाथ रख कर कहेगा-- ' मैं जानता हूं आपको क्या चाहिए,मेरे पास एक ही है, पर आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है, इसलिए इसे आप ले लें।तब उसके चेहरे की वह बदसूरती किसी जादुई प्रभाव से अचानक गायब हो जायेगी और वह आपको संसार का सबसे सुन्दर इंसान दिखाई देगा। निराला और रामावतार त्यागी से जुड़े हुए ये दोनों अलग-अलग संस्मरण वैसे तो विपरीत ध्रुवों वाले हैं किन्तु दोनों में दोनों का  धाकड़पन एक जैसा होकर न्यौछावर होने लायक है। बड़े लोगों के ये ऐसे गुण होते हैं जो सामान्यतः ढूंढें नहीं मिलते। दोनों में ही अपने- अपने निश्छल मन का अपनत्व घुला हुआ है, जो सभी को कुछ न कुछ शिक्षा देता है।
       शिव ने विषपान किया और कंठ में ही उसे सोख भी लिया। अपने इस सत्कर्म से ही वह नीलकंठ हो गये। निराला ने पीड़ाओं को ओढ़ा-
बिछाया और उनकी छाया में ही जीवन काटकर महाप्राण हो गये। रामावतार त्यागी पीड़ाओं को जीकर उन्हें आत्मसात कर गये और पीड़ाओं के महागायक होकर उभरे तथा हिन्दी गीत के महानायक हो गये। पीड़ाओं को दुलार-पुचकार
कर सजाने और संवारने का जो साहित्यिक कर्म उन्होंने कर दिखाया वह अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं , अपितु खोजे से भी हाथ नहीं लगने वाला। उन्होंने जीवन भर अपने को संपूर्ण खपाकर गीत प्रसाधनों से पीड़ाओं का मोहक श्रृंगार किया है। वर्तमान की भाषा में कहें तो वह पीड़ाओं का सर्वोत्तम व्यूटी पार्लर हैं।
    प्रत्येक मनुष्य में स्वयं को प्रस्तुत करने का अपना अलग तेवर होता है। पीड़ाओं से जूझकर मनुष्य भले ही अपना सबकुछ बचा ले जाय, किन्तु यह तेवरी भाव नहीं बचता। फिर भी रामावतार त्यागी की कहन में यह भाव बेधड़क होकर जीवित रह पाया है, वह इसलिए कि उन्होंने जीवन भर पीड़ाओं की सेवा उनमें रमकर की है। रामावतार त्यागी के भाग्य पड़ा यह सेवाफल उन्हीं पीड़ाओं की देन है। पीड़ाएं 
उनकी पीर-भक्ति से प्रसन्न होकर जीवन भर उनके आगे-पीछे वैसे ही लगी रही हैं जैसे कि किसी बहुत सुन्दर युवक के आगे-पीछे सुंदरियां लगी रहती हैं। रामावतार त्यागी ने पीड़ाओं को गाया अथवा पीड़ाओं ने रामावतार त्यागी को। मुझे तो यह विभेद करना भी बहुत कठिन लग रहा है--------
छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला दर्द का आंगन ।
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन।।
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक से दुनिया,
मेरी पीड़ा अगर गा उठी
दूषित सारे छंद हो गये।××××××× उनकी पीड़ा का यह गान तब ही मुखर हुआ है जब वह ऐसी ही पीड़ाओं की गलियों से गुजरे----
सारी रात जागकर कर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता,
मैं पहुंचा जब दर्शन करने
तब दरवाजे बंद हो गये।×××××ऐसी द्रवित हुई -हुई सी बहती जाती पीड़ाओं की धाराओं को आठवां स्वर देने वाले कालजयी गायक ने इनमें से ही एक ऐसा जीवन दर्शन निकाल कर अपने समाज को सौंप दिया, जिससे आत्मबल प्राप्त करके आत्महत्या को तैयार बैठा भी कोई अपने दुर्विचार को त्यागकर जीवन की पगडंडियों पर आगे बढ़ लिया और वह रामावतार त्यागी तथा उनके गीतों का होकर रह गया। ऐसी जीवनदायिनी प्रभावोत्पादक कविता तो बस रामावतार त्यागी में ही मिलती है---------
खड़ी हैं बांह फैलाए हुए मजबूत चट्टानें
गुजरती आंधियां अपनी कमानें हाथ में तानें
ग़ज़ब का एक सन्नाटा कहीं पत्ता नहीं हिलता
किसी कमजोर तिनके का समर्थन तक नहीं मिलता
कहीं उन्माद हंसता है कहीं उम्मीद रोती है
यहीं से, हां यहीं से, ज़िन्दगी आरंभ होती है।।
       रामावतार त्यागी गीत के ऐसे महोदधि हैं,
जिसमें उठती हुई लहर-लहर पीड़ा है। इन्हीं पीड़ाओं के
गहन ताप से सारा सागर जल खौल उठने को 
विवश है। अंततः उसे खौलना ही पड़ता है और क्रिया वाष्पीकरण से उन बादलों में तब्दील होता है जिनसे बरसती हैं वह अमृत बूंदें जो मन मिट्टी को शीतलता देती हैं। पीड़ा को खुशी और सुखी रखकर उन्होंने दुख को सुख में पिरोने का
अनूठा कार्य किया है। पीड़ाओं को उन्होंने गाया ,पर यह सच है कि कड़वे को बहुत मीठा गाया है।' मैं हूं दर्द आदमी कब हूं ' गाने वाला जब यह गाता है कि
' पीड़ा को गालियां नहीं दो,यह मेरे गीतों की मां है ' तब वह आदमी हो न हो पर आदमियत का सबसे बड़ा पैरोकार होकर उभरता है।' यह मेरे गीतों की मां है'
से पीड़ा के प्रति जो सम्मान भाव उभरता है वह उन्हें सच्चा पीर-भक्त सिद्ध करता है।उनकी इस पीर- भक्ति के परिणाम स्वरूप रोते हुए शब्दों में भी अर्थ को गाना पड़ा क्योंकि अर्थ को वहां तक पहुंचाना होता है जहां तक उसे पहुंचना चाहिए-' शब्द रोता रहा अर्थ गाना पड़ा।'
    उन्होंने अपनी संगी-साथी पीड़ाओं से पिंड छुड़ाने का कोई भी कृत्य कभी नहीं किया अपितु अपने लाड़, प्यार, दुलार और पुचकार से उनकी परवरिश की है। रोते हुए शब्दों के अर्थ गौरव के लिए वह उन सबको जीवन भर अपनी वाणी से ललकारते रहे हैं जिनके भी भीतर उनके प्रति कोई खुसर-फुसर बसती थी---' मेरी पीड़ा गा उठी तो दूषित सारे छंद हो गये।
       कालजयी सूक्तपंक्तियों के कालजयी गीत कवि रामावतार त्यागी ने जिस आत्माभिमान और आत्म सम्मान को जीया उसे जीने में मैंने ही बड़े-बड़ों को टूटते और बिखरते देखा है।वह न टूटे और न ही बिखरे बल्कि अडिग बढ़ते रहे अपनी राह पर, निरंतर।उनकी राह की मंज़िल का सिरा तो होता ही नहीं।बह चले जाते रहे हैं, बस इस भाव के साथ-----
' प्यार आंसू मन सृजन को छोड़कर मैं
जो झुका तो देवता के ही चरण में।
मैं कलंकित क्योंकि मैं यह कह न पाया
जी रहा हूं मैं तुम्हारी ही शरण में।।

           मैंने रामावतार त्यागी की पीर-भक्ति का जिक्र किया है। यद्यपि हमारी कविता का भक्ति
काल कविता की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न है, फिर भी यह धारा अपने क्षीणकाय रूप में ही सही,आगे भी अन्य कवियों की भाव-भूमि में संचरित होती रही है। पीड़ा को मां कहकर उसकी भक्ति का जो उद्रेक रामावतार त्यागी ने अपने काव्य में पैदा किया है वह हिन्दी कविता की बड़ी पूंजी है, क्योंकि वह अन्यत्र नहीं ही हो सका है। धूम-धाम से इसके गायक तो अकेले वही हैं। संगीत के सात सुरों से परे जाकर उन्होंने पीड़ा गान का आठवां स्वर उसमें जोड़ा हु। ऐसी उथल-पुथल कर देने वाले 
अधिसंख्य नहीं होकर विरले ही होते हैं।जिनका
फिर से आना शायद ही संभव होता है। इसको राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने त्यागी जी के भीतर बहुत पहले ही पहचान लिया था।उनका वही कथ्य यहां दोहराना आवश्यक प्रतीत होता है-
' रामावतार त्यागी गीत के बड़े कवि हैं। ऐसे विरल अंतराल में जन्म लेते हैं और कभी-कभी 
फिर नहीं भी लेते।' क्योंकि---------------
मेरे पीछे इसीलिए तो धोकर हाथ पड़ी है दुनिया
मैंने किसी नुमाइश घर में सजने से इंकार कर दिया ।
चाहा मन की बाल अभागिन
पीड़ा के फेरे फिर जाएं ,
उठकर रोज़ सबेरे मैंने
देखी हाथों की रेखाएं ,
जो भी दंड मिलेगा कम है, मैं उस मुरली का गुंजन हूं,
जिसने जग के आदेशों पर बजने से इन्कार कर दिया ।

                            
                          
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कांठ रोड, मुरादाबाद(उ.प्र.)
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शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

धूप भरकर मुठ्ठियों में : कृति समीक्षा क्षितिज जैन

कृति चर्चा में क्षितिज जैन जी की समीक्षा
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     संग्रह : धूप भरकर मुट्ठियों में 
     नाम- धूप भरकर मुट्ठियों में
     लेखक- मनोज जैन 
प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, गाज़ियाबाद
मूल्य- 250-/-

संवेदना की रश्मियों से प्रकाशित नवगीत

                   वरिष्ठ नवगीत श्री मनोज जैन जी का दूसरा प्रकाशित नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ पढने का अवसर इन दिनों प्राप्त हुआ. फेसबुक के माध्यम से मनोज जी के गीतों को पढ़कर उनके रचना कर्म से परिचित होने का अवसर मिला है किन्तु यह संग्रह उनके साहित्यिक चिंतन के सभी पक्षों को एक उभार के साथ पाठक के समक्ष लाता है। 
       अपने साहित्यिक नाम ‘मधुर’ के समान ही मनोज जी सरल और मधुर शैली में नवगीतों की रचना करते हैं जिनका कथ्य और शिल्प सहज होने के साथ साथ विशिष्ट व्यंजनाओं से युक्त होता है। कवि की सहज शैली का अनुमान इस गीत से हो जाता है जहाँ वे सरल शब्दों में गंभीर बात कर देते हैं-
हम धनुष से झुक रहे हैं 
तीर-स तुम तन रहे हो 
हैं मनुज हम, तुम भला फिर 
क्यों अपरिचित बन रहे हो।
           हर घड़ी शुभ है चलो, मिल 
           नफरतों की गाँठ खोलें।
मनोज जी के नवगीत उनके दार्शनिक चिंतन से विशिष्ट हो जाते हैं। जहाँ कुछ लोग भारतीय दर्शन से युक्त सृजन को पिछड़ा कहकर नकृति के भाव में रहते हैं, वहीँ मनोज जी का चिंतन स्पष्टतया भारतीय दर्शन में रचा पगा है।
           यह भावना संग्रह के दूसरे गीत में दिखती है-
जिन्हें प्रकृति ने करुणा करके
नीर-क्षीर का ज्ञान दिया 
‘ब्रह्मानंद-सहोदर’ संज्ञा से 
जिनको अति मान दिया।
       इस एक बंद से कवि की आध्यात्मिक प्रवृत्ति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है जो उनके गीत ‘बूँद का मतलब समंदर है’ का कथ्य बन जाता है. जैन दर्शन का कवि के ह्रदय पर गहरा प्रभाव है और वे अपने लेखन में इस अध्यात्म को लाकर निश्चय ही विशेष प्रयोग करते हैं-
ब्रह्म-वंशज हम सभी हैं 
ब्रह्ममय हो जाएंगे 
बैन सुनकर अरिहंत भाषित 
शिव अवस्था पाएंगे।
         जीतकर खुद को हमें 
         बनना सिकंदर है।
अगले गीत में यह भावना और भी मुखर हो जाती है और निश्चय ही कवि इस गीत को रचते समय साहित्यिक नहीं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में विचरण कर रहें हैं-
भव -भ्रमण की वेदना से
मुक्ति पाना है 
अब हमें निज गह 
शिवपुर को बनाना है।
          मनोज जी के अनेक गीत श्रृंगार की कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत हैं, लेकिन इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकला जाए कि वे सुकुमारिता के कवि हैं. मनोज जी की रचनाओं में एक दृढ आत्म-विश्वास है, जग को चुनौती देने का दुस्साहस है और गर्व भरा संकल्प है जिससे वे कहते हैं- 
लहर मिलेगी, कूल मिलेंगे 
सब रस्ते प्रतिकूल मिलेंगे 
लीक छोड़कर चलने वाले 
तुझको पग-पग शूल मिलेंगे.
               संघर्षों में राह बनाने वाला 
               मेरा मन अगुआ है।
साथ ही, कवि के मन में सहज स्वाभिमान है जो उन्हें किसी भी स्थिति में झुकने नहीं देता। इसी भाव को ये पंक्तियाँ दर्शातीं हैं-
वहम से आरम्भ होकर
अहम पर आकर खड़ी है
बात छोटी-सी नहीं है
बात सचमुच ही बड़ी है।
               तुम अभी जीते नहीं हो 
               और मैं हारा नहीं हूँ।
मनोज जी के नवगीतों को पढ़ते हुए पाठक को अनुभव होगा कि उनमे सृजनात्मक उत्साह और शक्ति भरी हुई है। अपनी रचनाधर्मिता का शिव संकल्प लेकर वे कुछ सार्थक रचने की बात करते हैं, एक साहित्यकार होने के कर्तव्यों के पालन की बात करते हैं. उनका नवगीत ‘करना होगा सृजन,बंधुवर! इसी भाव को दर्शाता है-
छंदों में हो आग समय की 
थोड़ा-सा हो पानी 
हंसती दुनिया संवेदन की 
अपनी बोली-बानी।
          कथ्य आँख में आलोचक की 
          रह-रह कर जो खटके।
मनोज जी की इन रचनाओं का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष उनकी जन-संवेदना है जो आज की परिस्थितियों को देख-बूझ कर सृजन करती है और विसंगतियों पर प्रहार करती है. साहित्यिक क्षेत्र में प्रचलित ‘जनवादी कविता’ का प्रयोग करके मैं इन कविताओं को किसी लेबल या टैग के नीचे नहीं रखना चाहूंगा पर निश्चय ही कवि ने अपने समय की बात कहकर और जनता के पक्ष में आवाज़ उठाकर साहित्यकार होने का कर्तव्य पूरा किया है. उनके मन का संचित आक्रोश इन पंक्तियों में दिखता है-

पाँव पटकते ही मगहर में 
हिल जाती क्यों काशी 
सबके हिस्से का जल पीकर 
सत्ता है क्यों प्यासी
           कथनी करनी में क्यों अंतर 
           है बातों में झोल
समसामयिक विसंगतियों पर कवि की पैनी नज़र है और वे इस दृष्टि से आधुनिक प्रजातंत्र के नेताओं को देख उनपर भरपूर प्रहार करते हैं-
पल-भर में राई को पर्वत 
पर्वत को कर डाले राई 
जो इसके कद को बढ़ाता
उसको दिखाता ये खाई.
             समझा कब इसको किसी ने 
             द्वापर रहा हो या त्रेता।
सत्ता के ठेकेदारों के इसी दोहरे चरित्र पर कवि राजा को प्रतीक बनाकर तीखा व्यंग्य करते हैं और दिखलाते हैं कि कैसे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होकर प्रजा का शोषण करते हैं-

क्षत्रप सब राजा के
संग-संग नाचे
परजा के हाव-भाव 
एक-एक जाँचे
        आया जी चमचों का 
        कैसा यह दौर.
आम आदमी के दुखों को मनोज जी की जन-संवेदना बहुत अच्छे से समझती है और उसे व्यक्त करती है। कवि का यह कथ्य झूठ-मूठ का दिखावा नहीं वरन् स्वयं अनुभव किया होता है-

सुरसा जैसा मुंह फैलाया 
महंगाई ने अपना 
हुई सुदामा को हर सुविधा 
ज्यों अंधे को सपना।
            शकुनी सरीखी नया सुशासन
            चलकर चाल गया.
कवि के कथ्य की विवेचना के अंत में, उनके शिव संकल्पों युक्त ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना का उल्लेख करना अनिवार्य हो जाता है जो उनकी गीत ‘दीप जलता रहे’ में उभर कर आई है. कवि सब के कल्याण के साथ साथ सत्य की प्रबलता की कामना करते हैं जो भारतीय संस्कृति के मूल्यों से ओत-प्रोत है-
शीश पर सिंधुजा का 
वरद हस्त हो 
आसुरी शक्ति का 
हौसला पस्त हो.
       शुभ लाभ की घरों में    
       बहुलता रहे।
कवि ने कहीं कहीं कठोर संज्ञाओं यथा ‘होता है कितना कमीना’ या ‘चिंदीचोर विधायक के घर’ का प्रयोग किया है जो पाठक को खटक सकती है लेकिन, अवसर के अनुसार सुई या तलवार का प्रयोग करना आना भी आवश्यक है. हाँ, मेरा व्यक्तिगत मानना है कि शायद कोई अन्य व्यंग्यात्मक उपमाएं बेहतर रहतीं।
मनोज जी की विशेषता उनकी ईमानदारी है जिससे वे ‘जैसे को तैसा’ कहने में और अपने मन की बात करने में हिचकते नहीं। जहाँ एक ओर उनका मन हमारी संस्कृति में रमा हुआ है तो वहीँ, उनकी दृष्टि समसामयिक पृष्ठभूमि पर है. इसी कारण पाठक उनके रचना-कर्म में विविधता आसानी से देख सकता है।
                   मनोज जी का नवगीत संग्रह यथार्थत: विविध संवेदनाओं की रश्मियों से आलोकित है और मै कामना करता हूँ कि ‘दीप जलता रहे’ की भांति उनका सृजन भी ऐसे ही आलोकित रहे. उत्कृष्ट नवगीत संग्रह के लिए कवि को हार्दिक बधाई एवं बहुत बहुत शुभकामनाएं!

क्षितिज जैन
____________
जयपुर

कृति धूपभर कर मुठ्ठियों में : टिप्पणीकार डॉ जगदीश व्योम जी

वरेण्य नवगीतकार डॉ जगदीश व्योम जी का
कृतज्ञ मन से मेरी कृति
"धूप भरकर मुठ्ठियों में"
पर उनकी महत्वपूर्ण
प्रतिक्रिया के लिए आभार

          वर्तमान समय में नवगीत के सशक्त रचनाकार मनोज जैन जी का नवगीत-संग्रह "धूप भरकर मुट्ठियों में" की प्रति डाक से प्राप्त हुई.  2021 में प्रकाशित 120 पृष्ठ के इस नवगीत संग्रह में मनोज जैन की 80 गीत/नवगीत रचनाएँ हैं. 
मनोज जैन के नवगीत सहज ग्रहणीय होते हैं और उनके अधिकांश नवगीत जनसाधारण के पक्ष में खड़े प्रतीत होते हैं, शोषण के विरुद्ध स्वर मनोज जी के गीतों का मुख्य स्वर रहता है.
जनसाधारण या आम आदमी की विनम्रता यूँ तो उसकी पहचान सी बन गई है परन्तु उसकी विनम्रता को जब उसकी कमजोरी समझ लिया जाता है तो वह इसका प्रतिरोध करना भी जानता है-

"हम धनुष-से झुक रहे हैं
तीर-से तुम तन रहे हो
हैं मनुज हम, तुम भला फिर
क्यों अपरिचत बन रहे हो"

दुनिया में जो कुछ विकास का उजियारा है, सब जानते हैं कि वह किसान और मजदूर के ही श्रम का प्रतिफल है लेकिन इनका श्रेय उसे नहीं दिया जाता, यह विडम्बना ही तो है, श्रमजीवी के इसी मूकभाव को मनोज जैन का नवगीत 
मुँहतोड़ जवाब देता हुआ दिखाई देता है-

"उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं"

नवगीत संग्रह के प्रकाशन पर मनोज जैन को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ. 

-डा० जगदीश व्योम

बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

कृति धूपभर कर मुठ्ठियों में : टिप्पणीकार डॉ जगदीश व्योम जी

वरेण्य नवगीतकार डॉ जगदीश व्योम जी का
कृतज्ञ मन से मेरी कृति
"धूप भरकर मुठ्ठियों में"
पर उनकी महत्वपूर्ण
प्रतिक्रिया के लिए आभार

          वर्तमान समय में नवगीत के सशक्त रचनाकार मनोज जैन जी का नवगीत-संग्रह "धूप भरकर मुट्ठियों में" की प्रति डाक से प्राप्त हुई.  2021 में प्रकाशित 120 पृष्ठ के इस नवगीत संग्रह में मनोज जैन की 80 गीत/नवगीत रचनाएँ हैं. 
मनोज जैन के नवगीत सहज ग्रहणीय होते हैं और उनके अधिकांश नवगीत जनसाधारण के पक्ष में खड़े प्रतीत होते हैं, शोषण के विरुद्ध स्वर मनोज जी के गीतों का मुख्य स्वर रहता है.
जनसाधारण या आम आदमी की विनम्रता यूँ तो उसकी पहचान सी बन गई है परन्तु उसकी विनम्रता को जब उसकी कमजोरी समझ लिया जाता है तो वह इसका प्रतिरोध करना भी जानता है-

"हम धनुष-से झुक रहे हैं
तीर-से तुम तन रहे हो
हैं मनुज हम, तुम भला फिर
क्यों अपरिचत बन रहे हो"

दुनिया में जो कुछ विकास का उजियारा है, सब जानते हैं कि वह किसान और मजदूर के ही श्रम का प्रतिफल है लेकिन इनका श्रेय उसे नहीं दिया जाता, यह विडम्बना ही तो है, श्रमजीवी के इसी मूकभाव को मनोज जैन का नवगीत 
मुँहतोड़ जवाब देता हुआ दिखाई देता है-

"उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं"

नवगीत संग्रह के प्रकाशन पर मनोज जैन को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ. 

-डा० जगदीश व्योम

धूप भरकर मुट्ठियों में : मेरी नजर में : डाक्टर मृदुला सिंह



 धूप भरकर  मुट्ठियों में : मेरी नजर में 
                                 : डाक्टर  मृदुला सिंह प्राध्यापक हिन्दी शासकीय विज्ञान महाविद्यालय जबलपुर मध्यप्रदेश ।

              'धूप  भरकर मुट्ठियों में ' शीर्षक  पंक्ति से हम तथ्य  की सार्थकता  सिद्ध  करते हैं ।कवि  ने आनंद और उत्साह,  सकारात्मक  भाव  संचेतना  को  मुट्ठी में कैद करने  की बात  की। जीवन के दो ही पहलू हैं तो क्यों  न हम जीवन के सुखात्मक पहलुओं  के साथ  जीवन  को गति प्रदान  करें ।'कर लो आकाश  मुट्ठी में 'हम दुनिया  को  खुशियाँ ही खुशियाँ  दे सकते  हैं, यदि  हमारा  नजरिया सर्व हितग्राही हो,सर्व चिन्तन  संलग्न  हो।बहुत  आवश्यक है कि तीर-सा तनाव  नहीं बल्कि  धनुष-सा झुकाव हो।यही विनम्रता  हमारे संपूर्ण  परिवेश  को उत्तम  उर्जा  से परिपूरित करती है । क्योंकि  झुकना ऊँचे उठने का प्रतीक  है ।हम हार के भी जीतते  हैं ।समाज  हमसे मात्र 'प्यार  के  दो बोल ' की अपेक्षा  करता  है । 'बैर की बुनियाद ' के कारक हम नहीं  हो सकते।ईर्ष्या-द्वेष का शमन उपयुक्त  सामाजिक  व्यवस्था  हेतु  आवश्यक  है ।करुण भाव  से परिपूरित  व्यक्ति पर दुख कातरता को महसूस  करता है और इसीलिए  वह प्राणिमात्र  को आहत करना नहीं  चाहता ।ईश्वरीय  सत्ता  सर्वोपरि है और वह प्राणिमात्र   का हित चिन्तन  चाहने  वालों  का ही समर्थन  करती है ।कवि  के हम इस मूल भाव  के पक्ष  में हैं  कि 'शब्द  को  वश में  करें हम/ आखरों की शरण हो लें।' और हम कह सकें- आज हसरत यहाँ  हर्ष के छाँव  की/आओ सौगात  दे  धर्म  के  नाम  की/याद  आती रही  प्यार  की रोशनी/दीप जलते रहे नफरतें  बुझ गई।
        संकलन की दूसरी  प्रमुख  कविता 'घटते देख  रहा हूँ 'भी हमारा ध्यान  अपनी  ओर आकर्षित करती है । समाज  की  विषम स्थिति, पूर्व  और पश्चिम की मिश्रित जीवन  शैली  को बयां  कर  रही है ।आज का आदमी  बढने की  कोशिश  में  घटता ही जा रहा है ।' चाँद  सरीखा मैं अपने को घटते  देख  रहा हूँ ।' अच्छा  प्रयोग  है कवि  का,जहाँ  आम आदमी  आधुनिकता  की  दौड़ में भागता हुआ  अपने  मूल अस्तित्व  को खो रहा है । 'संस्कृति  के  गीले  नयन' इस बात  का संकेत  दे रहे हैं  कि बदलाव  ने हमारी  अस्मिता  पर प्रश्न चिह्न अवश्य  लगाये  हैं । भूमंडलीकरण  की यह स्थिति हमारी परंपराओं को छिन्न-भिन्न करने के साथ-साथ हमारी  सोच  को भी आहत कर रही  हैं ।विकास  के  नाम  पर, आधुनिक  होने  के नाम  पर हम अपनी  बुनियाद को  ही विस्मृत करते जा रहे हैं और इसीलिए  हमारी परिवर्तित अवधारणा 'हर कंकर में शंकर  वाला चिन्तन  पीछे  छूटा ' का स्वरूप  स्थापित  कर रही है ।
मिश्रण की परिपाटी काव्य-रचनाओं  के  क्षेत्र  में  भी दिखाई  देती है ।समाचार-पत्रों  के  माध्यम  से  प्रचार-प्रसार  की  कला'नकली कवि ' की विशेषता  है । आवरणमयी आचरण  की प्रस्तुति कवि के साथ-साथ सत्यगामी मानस को भी तकलीफ  देती है ।'आचरण  अनोखे देख-देख /अंतस का क्रोध  फूटता है ।' कवि हमें  संदेश  देते हैं  कि'लिख लेख ऐसे' ' कि हम हमेशा  याद  किये जायें ।मनुज-तन और जीवन- सुमन हमें  बमुश्किल  प्राप्त  होता  है उसे अर्थ युक्त  कार्यो  से सार्थक  किया  जाए ।संघर्ष  और चुनौतियों  का सामना  निश्चित ही हमारे  हिस्से  में  विजय की पताका  फहरायेगा।
'इस जमीन  को छोङो अब' काव्य-पंक्तियाँ इतिहास  रचने  की  बात करती  हैं और यह तभी  संभव  है कि जब हम उन अवधारणाओं को, परंपराओं  को तोड़ने  की  हिम्मत रख सकें जो हमारे  विकास  के  मार्ग में  बाधक  है ।'दृढ़  इच्छाशक्ति, समर्पण  से' असंभव लगने वाले  कार्य  भी संभव  हो पाते हैं ।और ऐसा  कर पाने  में  जो सक्षम  होते है वे 'सृजन-पंथ' के  राही  होते हैं, जमाना  उन्हें  हमेशा  याद  रखता है । आलोचक  भी वही श्रेष्ठ  कहलाते  हैं जो नीर- क्षीर विवेक की नजर  रखते  हैं ।जौहरी बनकर हीरे की  परख कर  पाते  हैं ।राग-द्वेष से ऊपर उठकर 'अमरत की धार' की पहचान  कर पाते हैं ।आलोचक  की उत्तम  छवि समदर्शी  बनकर  ही हो सकती है । राजनीति  जीवन  से जुङे एक महत्वपूर्ण  पक्ष  है । इतिहास  गवाह  हैं  और समसामयिक  परिदृश्य  यह स्पष्ट करता  है कि राजनीतिक भंवरजाल पदधारियों को लाभ  भले ही  दे पर आम जनता  निरंतर  सत्ता धारियों  के  कुचक्रों का शिकार  होती रहती है ।'हम हक की लङाई  लङना चाहते है ',अपना अधिकार  चाहते हैं  पर पदलोलुपता और स्वार्थपरकता समरसता  को समाप्त  कर अन्याय  का कारक बनती है ।
कुछ  भी हो पर  अंत  में 'मंगल  हुआ 
।'एक सकारात्मक  चेतना  साथ हो तो फिर शुभ ही शुभ  है। कुछ  ऐसा  ही  ये पंक्तियाँ  कहतीं  हैं-'लाभ शुभ ने धर दिये हैं/ द्वार पर अपने चरण/ विश्व  की हर स्वस्ति ने आकर किया मेरा वरण।' शुभ उर्जा, शुभ चेतना जिन्दगी  की  सारी समस्याएं हल कर देती हैं । इस तरह संपूर्ण  संकलन नवगीत  की मूल  प्रकृति  का  आईना  है ।वह आध्यात्मिक  संचेतना  को भी जगह-जगह  व्यक्त   कर पाने में  सफल  है।'वाणी वंदना ' से लेकर ' साध कहाँ  पाता हर कोई','हम काँटों  से  खिले फूल  से','बोल कबीरा बोल ','दीप जलता रहे','कांप  रहे गाँव 'और फिर 'पूछकर तुम  क्या  करोगे, ' सहित  सारी की सारी  कविताएँ जनमानस  का, पाठक  का संस्कार  करतीं हैं ।आदरणीय  मनोज  जैन  जी ने हमें  अपनी  सृजन धर्मिता से   चिन्तन  और मनन के अवसर  प्रदान  किये, हम आपके  प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं और यह विश्वास  करते हैं  कि  आप साहित्य-जगत को  नित नयी कृतियाँ सौंपकर दिशा-दर्शन  करते  रहेंगे।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

चर्चा अनामिका सिंह

अनामिका सिंह के नवगीतों से गुज़रने का मौक़ा मिला। पहले ही नवगीत से वे समय की नब्ज़ पर उँगली रखे मिलीं। इन रचनाओं में जहाँ आज के साहित्यिक विमर्शों के छद्म होते जाते रूपों की अच्छी खोज-ख़बर ली गयी है, वहीं दुर्वह परिस्थितियों में भी संघर्ष जारी रखने की बात केंद्र में है। 'अम्मा की सुधि आई' में लोकजीवन की झाँकी ने बहुत कुछ कह दिया है, लेकिन कवयित्री ने निराशा को पास फटकने का अवसर नहीं दिया। यह आश्वस्ति सुखद लगती है। 'जोखू-जैसी प्यास'  में प्रेमचंद के 'ठाकुर का कुआँ' के हवाले से टटकी रचनाधर्मिता दिखाई देती है। "समरसता की भेदभाव से मिट्टी हुई पलीद" पँक्ति में आज का सच जैसे शब्दायित हो गया है। आगे के नवगीतों में, लोकतंत्र का लोक रुआँसा, सड़कों पर अंजर-पंजर, लालक़िले की सीख सयानी बना रही परतंत्र, राजा निकले पाथर तुम, मला अँधेरा सबकी आँखों और विहानों पर, जैसी सहज व्यंजनाएँ न केवल वैविश्यपूर्ण और मार्मिक अभिव्यक्तियों को धार देती हैं, बल्कि तमाम अनकहा भी कहती हैं जो किसी भी साहित्यिक विधा के रूप की कलात्मक सफलता होती है। दोज़ख हो माहौल भले ही, नहीं छोड़ती आस/ पहन मुखौटे फिरें भेड़िए, नहीं लगेगी दाँव।" जैसी उक्तियाँ कवयित्री के आशावादी स्वर की पहचान हैं। इन नवगीतों में अन्य विशेषताएँ भी हैं जो चर्चा की माँग करती हैं, लेकिन यहाँ उन पर चर्चा करना संभव नहीं। लय, तुकांत और भाषा को लेकर एकाध जगह मुझे असहज होना पड़ा, जैसे- तीसरे नवगीत में, 'पैरहन बदल रही सत्ता के...'और दसवें नवगीत में 'संघर्ष सभी तुम जारी रखना' पदों में लय बाधित लगी। तुकांत के लिहाज से पहले नवगीत में 'विमर्श' के तुकांत 'उत्कर्ष, निष्कर्ष' और 'संघर्ष' हैं। ये एक नज़र में खटकते हैं। इससे तो अच्छा होता कि 'विमर्श' को ही बदल दिया जाता। पाँचवें नवगीत में, 'धन-वैभव के कासे ख़ाली' उक्ति में कासा का प्रयोग खटका। कासे तो रोटी-पानी के लिए ही होते हैं, धन-वैभव रखने के लिए नहीं। अंतिम गीत में ‘हारिल’ पंछी का प्रयोग भी उपयुक्त नहीं लगता, क्योंकि वह नकारात्मकता का प्रतीक नहीं है। तीसरे गीत में प्रयुक्त 'समरसता की भेदभाव' पद की जगह 'समरसता के भेदभाव' होना चाहिए था। इसी प्रकार, 'नहीं लगेगी दाँव' में क्रियापद लगेगा होना चाहिए था। इन छोटी-मोटी कमियों को अगर नज़रअंदाज़ कर दें तो, ये नवगीत अनामिका सिंह के रचना-कर्म को प्रतिष्ठा दिलाते हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएंँ।

            - राजेन्द्र वर्मा, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
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आम जन जीवन के इर्द-गिर्द मंडराते सूक्ष्म भावों से पिरोये अनामिका सिंह के दस नवगीत विशेषांक में पटल की शोभा बढ़ा रहें हैं। गाँव-गिराँव की सोंधी मिट्टी से उपजे कुछ शब्द जहाँ नवगीतों का लालित्य को बढ़ा रहें हैं, वहीं धर्म, राजनीति के मामले में बेबाक होकर माहौल को जीवन्तता प्रदान कर उजागर कर रहे हैं! अम्मा की सुध आई... नवगीत का सृजन शिल्प अद्भुत है। जोखू जैसी प्यास में...शोषण के सामन्तवाद के घाव हरे दिखते हैं। उम्मीदों के कैसे होंगे'/भारी फिर से पाँव...एक कलम पर सौ खंजर हैं... घना कुहासा आँगन फैला/औंधी पड़ी परात...बड़े रूप के चिन्तन में भी/जातिवाद का जाला.. बेशर्मी भी शर्मसार है.. छल के हारिल करके धोखा/देगें आँखें मींच।" जैसी पंक्तियाँ थोड़े में ही बहुत कुछ कहने का सामर्थ्य रखती हैं। सत्ता की महाराब नवगीत से हाल में ही किसान आंदोलन के व्यथित करने वाले दृश्य उपस्थित हो जातें हैंI सभी दसों नवगीतों के कथ्य अलग-अलग हैं जो पाठकों को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। युवा कवयित्री अनामिका सिंह को हार्दिक बधाई। संवेदनात्मक आलोक समिति का भी धन्यवाद, जिसके चयन से अनामिका सिंह जी के नवगीत पढ़ने को मिले और नई प्रतिभा मुखरित होकर सुधी पाठकों के समक्ष आई।

             - महेन्द्र नारायण, शामली उ०प्र०
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EAGLE - EYE की नई खोज
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        नवगीत के उद्भव और विकास की इस महत्वपूर्ण यात्रा में तब से लेकर अब तक महिला नवगीत लेखन में सूक्ष्म दृष्टिपात किया जाए तो अनामिका सिंह जी के पटल पर प्रस्तुत नवगीत अन्य समकालीन महिला नवगीतकारों की तुलना में अनूठे और अछूते हैं। दरअसल में अनामिका सिंह जी की ख़ूबी यह है कि उनके यहाँ नवगीत-कविता का कथ्य ठोस और दमदार देखने को मिलता है। भले ही उनके समकालीनों के खाते में नवगीत और कृतियों की संख्या ज्यादा हों। पर, उनमें नवगीत- कविता कितनी है? यह कहने की मुझे आवश्यकता नहीं है।

        अनामिका सिंह जी के नवगीतों का अछूता और प्रभावी कथ्य पाठक को कविता के अंत तक बाँधे रखकर उसे मंथन करने पर विवश करता है। अपनी इस अप्रतिम प्रतिभा से अनामिका सिंह जी ने नवगीत के क्षेत्र में तीव्र गति से अलग पहचान बनाई है। उनके नवगीत रूपाकार की दृष्टि से भी प्रभावित करते हैं। लोकभाषा, लोक संवेदना और यथार्थ समकालीन सन्दभों से जुड़ी जनपक्षधरता की गंध प्रस्तुत नवगीतों में चार चाँद लगाती है। यह तो हुई अनामिका सिंह जी की बात अब दो एक बातें खोजी प्रवृत्ति के व्यक्तित्व और सिद्ध नवगीतकार एवं विश्व नवगीत पटल के संचालक अग्रज रामकिशोर दाहिया जी के सन्दर्भ में यहाँ प्रासंगिक हैं। दाहिया जी की तुलना प्रतिभा खोज के मामले में ईगल आई  EAGLE- EYE से करना चाहूँगा। ईगल की तरह दाहिया जी की निगाह भी बहुत दूर का देख लेती है। प्रतिभा कहीं भी हो वह खोज ही निकालते हैं। आज उन्होंने अनामिका सिंह जी के जिन दस नवगीतों का चयन किया है, वे अनूठे हैं।

      इन नवगीतों में समकालीनता है। आज की तल्ख सच्चाइयाँ हैं। ये नवगीत अपने आप में उनके लिए भी आदर्श हैं जो नवगीत लेखन में प्रयासरत हैं। आदरणीय अशोक शर्मा जी का अग्रलेख यूनिक और पूरी प्रस्तुति का सहायक बनता है। अनामिका सिंह जी को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएंँ। अग्रज रामकिशोर दाहिया जी को इस उपक्रम और खोज के लिए अनंत आभार! आगे भी हमें आपके माध्यम से इस विश्व नवगीत पटल पर नई-नई प्रतिभाओं के नवगीत पढ़ने को मिलते रहेंगे। 
इसी आशा के साथ।

मनोज जैन, 106, विठ्ठल नगर, भोपाल
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अनामिका जी का दसवाँ नवगीत 'चाल-चलन' प्रगति चेतनाधर्मा नवयुग की शिक्षित नारी को नवदिशा बोध से न केवल परिचित कराता है बल्कि अवरोधों से सुरक्षा कैसे करना है इसकी प्रेरणा भी देता है । मुखड़ा देखिए- परिधि तुम्हारे पंखों की लो/रहे हितैषी खींच/चिरैया बचकर रहना/
प्रगतिशील शिक्षित नवयुवती के लिए चिरैया प्रतीक बिल्कुल सार्थक है इस पुरुषप्रधान समाज में आज भी प्रगतिशील स्त्रियों की टाँग खींची जाती है इस यथार्थ को उक्त पँक्तियाँ सहज ही व्यक्त कर देती हैं ।
प्रगतिशील के पाँवों में वे/ बेड़ी डालेंगे/
बिल्कुल सही बात है बल्कि यह घिनौना कृत्य किसी स्वतंत्र विचारों बाली शिक्षित स्त्री के लिए सबसे पहले परिवार से ही प्रारंभ होता है जहाँ परिवार उसको अपना स्वतंत्र मुकाम बनाने के बजाय विवाह के लिए जोर-जबरदस्ती करता है 
नियम कायदे बाले अपने मंतर फूँकेंगे/
करने वश में तुझे नहीं वे जंतर चूकेंगे/ उक्त पँक्तियाँ. सरलता से नारी जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्ति दे रही हैं। छल के हारिल करके धोखा/देंगे आँखें मीच/चिरैया बचकर रहना/उक्त पँक्तियों में छल के लिए हारिल की उपमा तर्कसंगत नहीं लगती क्योंकि हारिल मीठे फल खाने बाला शाकाहारी वह पक्षी है जो चोंच में लकड़ी दबाए एक दिशाबोध के साथ उड़ान भरता है जिस लकड़ी ने उसे बैठने का सहारा दिया वह भी उसका साथ अंतिम समय तक नहीं छोड़ता इसलिए हारिल को वचन निभाने बाले पक्षियों की श्रेणी में रखा जाता हैं ।
छल के लिए कौआ या बगुला ही प्रतीक हो सकते हैं ऐंसा मेरा मानना है बहरहाल कवयित्री जो बात उक्त पँक्तियों में कहना चाहती है वह पूर्णतः सही है कि प्रगतिशील नारी के आसपास ही छल का एक अदृश्य जाल बिछा रहता है इसलिए उससे बचकर चलने में ही समझदारी है ।
साँसें कितनी ली हैं कैसे/बही निकालेंगे/ चाल-चलन की पोथी पत्री/
सभी खँगालेंगे/
उक्त पँक्तियाँ कटु यथार्थ को सरलता से अभिव्यक्त कर कथ्य को समृद्ध बनाने में सफल हुई हैं ।
युद्ध सभी तुम जारी रखना/भले उछालें कीच/
यह भी समाज का सत्य है कि हम संघर्ष कर प्रगति करने बाली नारियों पर अक्सर कीचड़ उछालते हैं जबकि पुरुषों के संदर्भ में हमारा व्यवहार ऐंसा नहीं है । इसलिए सावधान रहना एक प्रगतिशील शिक्षित नारी के लिए बहुत आवश्यक है ।
कवयित्री का नारी जागरण का संदेश वंदनीय है यह एक कालजयी नवगीत है ।

        -- ईश्वर दयाल गोस्वामी
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   "संवेदनात्मक आलोक" विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच का 106 वां अंक नवगीत की चर्चित हस्ताक्षर अनामिका सिंह जी के दस नव गीतों पर एकाग्र है। इस विशेषांक को प्रस्तुत करते हुए अशोक शर्मा कटेठिया जी का भूमिका आलेख अनामिका सिंह की रचना धर्मिता के संदर्भ में उल्लेखनीय है। इन गीतों की विषय वस्तु के साथ ही गीतकार की अंतर्दृष्टि तथा गीतों की आत्मा तक पहुँचने में यह आलेख सहयोगी सिद्ध हुआ है। इस हेतु कटेठिया जी का आभार।
 प्रस्तुत दस गीतों को पढ़ते हुए यह अनुभव हुआ कि गीतों में जो कहा गया है उसके पीछे जितना अनकहा है वह भी हृदय प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। प्रत्येक गीत ठहरकर पढ़ने और चिंतन करने को विवश करता है। अपने समय को, अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देख कर,अपने नवीनतम बिंब,और उसे नवगीत के शिल्प में अभिव्यक्ति बहुत प्रभावी है। कठपुतली जैसे तनी डोर पर चलती जिंदगी, सामंतों के छल बल, मुखौटे पहने भेड़िए, कलम पर सौ खंजर, दो जून की रोटी के लिए आंत करें उत्पात, चेलों का पाखंड, आत्ममुग्धता नहीं छूटती, भूखा किसान और चिरैया बच कर रहना आदि विसंगत वातावरण के परिदृश्य मार्मिक हैं और यह दृश्य असहाय निर्बल जन सामान्य के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। सभी गीत अछूते कथ्य के अनूठे नवगीत हैं। इस हेतु  अनामिका जी का हार्दिक अभिनंदन। संवेदनात्मक आलोक परिवार और दहिया जी का हृदय से आभार  
                         रघुवीर शर्मा
                          खंडवा म.प्र.
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पटल पर आदरणीय दहिया जी ने अनामिका जी के गीतों को प्रस्तुत कर हमें पढ़ने का अवसर दिया है। पटल की कार्यकारणी का हृदय से आभार धन्यवाद।
प्रथम गीत से ही अनामिका जी की लेखनी के ताप को महसूस किया जा सकता है ।
गीत में कोरे हुए विमर्श हमारी व्यवस्था के छदम को उजागर करने का सार्थक प्रयास है । इस माहौल में हमारे लिए संघर्ष ही रास्ता है।
अम्मा की सुध आई गीत उनके मातृ प्रेम का गीत है । माँ से गहरे जुड़ाव की भावना से ओतप्रोत गीत में माँ की पीड़ा को बड़ी ही सहज और सहृदयता से अभिव्यक्ति किया है।
जौखु जैसी प्यास में आम आदमी की दुख परेशानियों की कराह है ।उसी तरह अगले गीत भी आम आदमी दुःख तकलीफों का चित्र खींचता है।
इन सारी परेशानियों के बीच उन्होंने कलम कार की बाधाओं को भी सिद्दत से भोगा और महसूस की है । आज सच को सच लिखना ही सबसे बड़ी चुनौती है । 
आज के छदम समय में झूठ का प्रचार बड़े जोर शोर से किया जा रहा है। जिसकी बजह से सच्चाई हाशिये पर है।लोकतंत्र की आड़ में बढ़ती तानाशाही से हम सभी बाख़बर हैं। राम का असली चेहरा लेखका ने बखूबी उजागर किया है।
इन सारी अव्यवस्थाओं के बीच लोकतंत्र की लाज बचाने की गुहार राजा से की गई है। लेकिन जब सत्ता का नशा हो तो इन बातों की तरफ कौन ध्यान देता है।किसानों के साथ हो रहा अन्याय किसी से छुपा नहीं है। तो वहीं दूसरी और चिरैया बचकर रहना नारी को सावधान करने का प्रयास है।
कुल मिलाकर इन गीतों में दुःख पीड़ा और व्यवस्था की गहरी पड़ताल है।और उससे सावधान करने की कोशिश भी । बहुत बहुत बधाई अनामिका जी

- दौलतराम प्रजापति, लटेरी जिला विदिशा म प्र
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पटल पर नवगीत कवयित्री अनामिका सिंह जी की दस नवगीत रचना पढ़ने का सुअवसर मिला।गीतों से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि कवयित्री में सूक्ष्म निरीक्षण की शक्ति बेजोड़ की है।अपने आसपास से कथ्यों को लेकर अपनी अनुभूति से भोगे हुए सत्य को अपने गीतों में बखूब बुनाई की है जो पाठकों तक सहज  सम्प्रेषणीय है। सत्ता बदलती रही है लेकिन आदमी के हालात नहीं बदले।ऐसे में संघर्ष जारी रखने की सलाह प्रथम गीत का संदेश है।दूसरा गीत पारिवारिक और माँ की यादों में आने वाले भाव को बड़ी कोमलता से उकेरा गया है और मर्मस्पर्शी है। गरीबी, विषमता, सामाजिक विद्रूपताओं, जातीय भेदभाव धार्मिक अंधविश्वासों की परत दर परत खोलते ये गीत मानवीय मूल्यों की चिंता से लैश हैं। कृषक समाज की दयनीय दशा और स्त्री- स्वतंत्रता की चिंता को भी गीतों में बहुत बेहतर अभिव्यक्ति मिली है। मेरी शुभकामना है कि कवयित्री को नवगीत के आगे का मैदान मिलता रहे और दाहिया जी को ऐसे गीतों को पटल पर लाने के लिए शतवार बधाई।

             डॉ.चन्द्रदेव सिंह, मुजफ्फरपुर बिहार।
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युवा कवयित्री अनामिका सिंह के दस नवगीतों से गुजर रहा हूँ। अलग अलग संदर्भों के ये नवगीत कहन और शिल्प के स्तर पर नितांत मौलिक हैं। अनामिका जिस समाज में रहतीं हैं, वहां की परिस्थितियों को बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रदान करतीं हैं। उनका लेखन उन्हें उनके अनुभवों से होकर गुजारता है। यही कारण है कि उनके गीत माँ की स्नेहिल स्मृतियों से संपन्न होकर तमाम जीवन संघर्षों से रूबरू होते हैं। 
भाषा सरल और सहज होने के कारण संप्रेषण के स्तर पर ये गीत पाठकों के बेहद करीब हैं। उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ है , और किसी भी रचनाकार के लिए उसके विज़न की स्पष्टता बहुत आवश्यक है। अल्लम गल्लम कुछ भी लिखकर कचरा जमा करने वाले असंख्य स्वनामधन्य कवियों - नवगीतकारों और नवगीत के सामंतों की भीड़ से अलग अनामिका का रचनाकर्म बहुत संभावनाएं जगाता है। वे मेरी बहन हैं , इस नाते मैं यह कह सकता हूँ कि  यदि वे अपने आप को नवगीत के मठाधीशों और सामंतशाहों के गिरोह  से  स्वयं को बचाकर, सिर्फ अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित रख सकीं, तो यकीनन  बहुत दूर तक जाएंगी।
मेरी अनंत शुभकामनाएं!

            - जय चक्रवर्ती, रायबरेली, उ.प्र.
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युवा कवयित्री आदरणीया अनामिका जी ने अपने अनूठे नवगीतों में सामाजिक पीड़ा की सूक्ष्म-सत्यता को गहरे पैठ इतने प्रभावशाली शिल्प से प्रस्तुत किया है कि पाठक इनमें समाहित भावों की गहराई व विशेषता को पूर्णतया आत्मसात् करने के लिए लगभग बाध्य हो जाता है। बधाई!
मुझ में इनकी परख की क्षमता तो है ही कहाँ, मात्र ह्रदय की प्रतिक्रिया को विनम्र भाव से उँडेलने की कोशिश की है। 
इनकी विशेषता स्वर-तेवर, पैनापन, व्यथा का समग्र आँकलन और आशा-निराशा का सन्तुलन! 
अनन्य बानगीयाँ मेरे विचार में: 
[१] - आहों व कराहों की पीड़ा को जीकर भी मन्द हास मुखड़े पर - संघर्ष का आह्वान!
[२] -अम्मा की आँखों में भले पीर की काई जमी हो पर वो इकाई कुनबे की दहाई को जोड़ती! अम्मा की सुध लेती बेटियाँ!
[३]- समरसता व सद्भाव की हुईं मिट्टी पलीद, बंध्या है हर उम्मीद, ऊँच नीच की पटी नहीं खाई, दोज़ख़…तब भी नहीं छोड़नी आस! 
[४]- पढ़ी-लिखी मुनिया - आशा की परिभाषा! 
[६]- वादों की नंगी तकली इक दिन राज मुकुट बेध देगी !
[७]- बचपन भले कट्टर धर्म की मथानी से घायल हुआ हो, जवानी से उम्मीद बाक़ी है!
[८]- मानुष चोले में घातक मानव जाने कब कितने मुंड चबाकर अफ़राएगा, पर ठगा तो वो भी जाएगा इक दिन!
[९]- चोपायों से किसान अपनी फसल बचाना तो जानता है, इन दोपायों की लूट से नहीं। तथापि जनसत्ता खेतों में से होकर आना निश्चित है!
[१०]- चल के हारिल जन्तर मन्तर फूँक लें, बही खंगालें या कीच उछालें, चिरैया के इन पंखों की परिधि का नाप लेने की क्षमता नहीं है इनमें!

सादर प्रणाम व हार्दिक बधाई! 💐🙏🏽
- राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया
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युवा गीत कवयित्री अनामिका सिंह के नव गीतों में ताज़गी है, जो उनके संभावनाशील होने की आहट है. बने - बनाए ढाँचों से बाहर निकलने की छटपटाहट साफ दिखाई पड़ रही है. उनके गीतों में लोक और उसकी संवेदना अधिक परिपुष्ट हुई है. प्रयुक्त बिंबों के स्वरूप और तेवर बिलकुल अलहदा हैं. रूढ़ियों को तोड़ती वैज्ञानिक सोच का प्रवाह है. उनके नवगीतों में समय से दो - दो हाथ करने का जज़्बा भी है और सामर्थ्य भी. 
ये नवगीत जनमानस के बहुत करीब हैं. कवयित्री ने इन नवगीतों को अपने अनुभव के फलक पर उगाए हैं.  इनमें अनुभूति की गहन पीड़ा भी है और एक उम्मीद भी. इनमें समय की सापेक्षता के स्वर स्पष्ट रूप से सुने जा सकते हैं. 
इनके गीत पीड़ा सहकर भी संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा देते हैं. अम्मा की सुधि के बहाने उन तमाम माँओं की जीवनगाथा कह दी गई है, जिनका जीवन दिन - रात चूल्हे, चक्की और घर - गृहस्थी को संवारने में कटता रहता है. सदियों से चली आ रही शोषण की कुत्सित परंपरा पर भी उन्होंने कुठाराघात किया है. युवतियों को सजग भी करती हैं. सत्ताधारियों की कुटिल नीतियों का खुलासा भी करती हैं. 
कुछ प्रयोग बहुत अच्छे और उल्लेखनीय हैं ---

अनपढ़ बाँचे, मौन पढ़ी थी
बढ़ता रहा परास
बंध्या हर उम्मीद
वादों की नंगी तकली पर
मैं अनामिका जी को उनके बेहतर नवगीतों के लिए बधाई देता हूँ.

अरविंद अवस्थी
मीरजापुर
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आदरणीया अनामिका सिंह जी के नवगीत पढ़ने का अवसर मिला है। समयाभाव की वजह से गीतों का रसास्वादन करते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ।
कोरे हुए विमर्श - आम जनजीवन की पीड़ा को बखूबी उकेरा गया है। 
तनी डोर पर चले जिंदगी, साध संतुलन मन को।
बदल रही भूगोल चूक भी,
टूटे हुए बदन का।। सटीक बिंब और भाव,,
भारतीय नारी जो इस समाज की बुनियाद मजबूत करने में अपने पूरी जिंदगी के समर्पण और प्रतिफल का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्र खींचा गया है।

 जोखू जैसी प्यास - व्यवस्था एवं सत्ता के दोगलेपन पर पूरी ताकत से प्रहार करने का प्रयास किया है इस गीत के माध्यम से, किन्तु यह ढीठ और निर्लज्ज व्यवस्था बदलने का नाम ही नहीं लेती है।
यौवन की दहलीज गीत के माध्यम से इस देश के शोषित, वंचित, और दीनहीन जनता के त्रासदी भरे जीवन का बड़ा ही प्रभावी चित्र खींचा है। धँसी आँख का जिंदा मुर्दा,, यह पंक्ति पूरे गीत का सार कहने में समर्थ है। नहीं बाँधना मौला मुझको पथवारी ताबीज,, शिक्षा के लंगड़ेपन की कहानी बयान करती है।
एक कलम पर - हम अफगान तालिबान पर कटाक्ष करने से चुकते नहीं है किंतु देश के जाति और धर्म के नाम पर अपने पौरुष का प्रदर्शन करने वाले लोगों के गाल पर एक तमाचा है।
आँत करे उत्पात - रिक्त उदर में जले अँगीठी, आँत करे उत्पात,, वादों की नंगी तकली पर रहे सूत को कात,,, राजनीति के मुख पर चढ़ी छल और कपट की परतों को उधेड़ने का सराहनीय प्रयास
कट्टर धर्म मथानी
लानत रख लो
सत्ता की महराब और चाल-चलन
सभी नवगीत आक्रोश और मारक तेवर लिए हुए है। आप की समर्थ लेखनी को सादर नमन एवं हार्दिक बधाई,,,

भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल
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अनामिका सिंह जी के नवगीतों में जहाँ "अम्मा की सुध आई " में मधुर स्मृतियों की शीतल छांँव में ले जाती है। वहीं अन्य नवगीत हमें जीवन के पथरीली राहों से परिचय कराते हैं। अद्भुत प्रतिबिंब, आकर्षक शिल्प से संपृक्त ओजपूर्ण रचनाएँ हर काल में सत्य रही है और आज भी हैं ...

पीड़ा के दर्पण में दिखते/कोरे हुये विमर्श/उठे हाथ के यहाँ देख लो/गिरे हुये निष्कर्ष।'' पैनी धार से सधी कलम ने सच्चाई लिखी सत्ताधीशों की असफलताओं की कहानी दो पंक्तियों में ही लिख दी। जीवन कितना कठिन हो रहा है आपने यह भी दर्शा दिया। "तनी डोर पर चले जिन्दगी/साध संतुलन मन का/बदल रही भूगोल चूक भी/टूटे हुये बदन का।" और अंत में "पीड़ा जीकर/सुख की खातिर/जारी रख संघर्ष।" यही तो कर रहे थे हम और आगे भी हमको यही करना है। इस कटु सत्य की ओर इंगित करती पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गईं।
 
अम्मा की सुध आई में अप्रतिम बिंबों के प्रतीक के माध्यम से अम्मा की सुध के साथ ही ममता बरसाती अम्मा के होने पर परिवार को कितना सहारा देती है यह भी स्पष्ट कर दिया आपने। सच में कितनी ही पलकें भीगेगीं इस नवगीत ने अम्मा को साक्षात मिला दिया। शाम-सबेरे शगुन मनाती/खुशियों की परछाई/अम्मा की सुध आई/एक इकाई ने कुनबे की/जोड़े रखी दहाई/अम्मा की सुध आई।" अम्मा पर लिखा यह अत्यन्त प्रभावी नवगीत है।

*जोखू -जैसी प्यास*
शोषण की गति मंद हुई कब/हुआ दीन से दीन/पैरहन बदल रही सत्ता के/ बढते रहे विकार/दृश्य न दीखे सद्भावों के/बंध्या हर उम्मीद।" सदियों से चली आ रही भेदभाव के बीच शोषण की फैली हुई बेल को पोषित करते सत्ताधीशों की करनी और कथनी में अंतर से उपजी पीड़ा के मध्य भी आस जगाये रखने की प्रेरणा दे रही ये पंक्तियांँ। "दोज़ख हो/ माहौल भले ही/नहीं छोड़नी आस।'' 

*यौवन की दहलीज* में आजादी के इतने बरसों बाद भी गरीबी-भुखमरी के बीच पलती जिदगी का मार्मिक चित्रण। देखें- "धंसी आँख का/जिन्दा मुर्दा/लगी पेट से पीठ/मिली प्रौढता आजादी को/हुई भूख है ढीठ/कड़वा तेल नहीं शीशी में /चुका घरों का नून/टिक्कड़ दो अँतड़िया दे दो/कहे पेट दो जून.. l जीवन की आपाधापी में उलझी बिटिया यौवन की दहलीज पहुंँचकर पढा़ई करने उपरांत कह दिया मुझे कोई ताबीज नहीं पहनना। चाहे जितने मुखौटे पहनकर भेड़िये फिरें वह उनका शिकार नहीं बनेगी। वे अपने स्वार्थ के लिये उसे दांँव पर नहीं रख सकते हैं। युवा कवयित्री अनामिका सिंह की लेखनी ने सूक्ष्म दृष्टि से गरीबी में पिसते जीवन की व्यथा-कथा को रेखांकित किया है....।

*एक कलम पर*
एक कलम पर/सौ खंजर हैं/सच के सुआ भेदती कीलें/घात लगाये वहशी चीलें/गुलशन सारा धुआँ -धुआँ है/बदहवास सारे मंजर हैं/एक कलम पर सौ खंजर हैं ..सच को ज्यों का त्यों लिखना कितना कठिन है, जिसे कवयित्री सहज रूप में व्यक्त कर रही है। आगे देखें- 'विध्वसों की/भू उर्वर है/सद्भावी चिंतन बंजर है/एक कलम पर सौ खंजर हैं।'' सद्भाव, भाईचारा, आपसी जुड़ाव सब कुछ तो खत्म हो गया है-"लोकतंत्र में लोक रूआँसा/खल वजीर ने/ फेका पाँसा/लिखी दमन की/चंट कहानी/सख्ते में है/चुनर धानी।" शासन प्रशासन की कुव्यवस्था के कारण फैलती हुई अराजकता को बेखौफ यह नवगीत उजागर कर रहा..l

*आँत करे उत्पात*
नवगीत की प्रत्येक पंक्ति ने आज के हालात को बखूबी अभिव्यक्ति दी है-"रिक्त उदर में जले अंगीठी/आंँत करे उत्पात/वादों की नंगी तकली पर/रहे सूत को कात।" एहसान और प्रदर्शनवादी मानसिकता को को रेखांकित करते हुए कंबल वितरण का एक छोटा सा उदाहरण देकर मदद के लिए आगे बढ़ते मददगारों की कलई अधेड़ी है। जिन्हें मदद से ज्यादा जरूरी अपनी तस्वीर खिंचवाना होता है। आगे एक और नंगा सच देखें- "राजमुकुट के चाल -चलन को/देख रहा गणतंत्र/लाल किले की सीख सयानी/बना रही परतंत्र ...l

*कट्टर धर्म मथानी*
राम राज की/जय हो, जय हो/आग लगा दी/पानी में/घायल बचपन हुआ बिलोते/कट्टर धर्म मथानी में।'' वातवरण में जहर घोलती ये जातिवादी मानसिकता की भावना, जो धर्मांधता के बीज से उत्पन्न होकर विध्वंस रूप लेती है। कोई भी धर्म संप्रदाय मानवता के नाम पर मानवता को ही बांँटने और काटने का काम करता है.. यह दो टूक सत्य है।

 *लानत रख लो*
लानत रख लो/जन गण मन की/राजा निकले पाथर तुम/हाहाकार मचा हर घर में/रेंगी जूँ कब कानों पर/मला अंधेरा तुमने सबकी/आँखों और विहानों पर..। सत्ताधीशों को की करनी और कथनी के अंतर को कलम ललकार उठी है..l

*सत्ता की महराब*
धरती का भगवान/हुये क्यों सपने लहूलुहान/सत्ता की महराब/पीर क्या समझें छप्पर- छान/खड़ी फसल चौपाये चरते/दोपाये लुटें/विपदायें कुंठाएँ छप्पर-छानी पर टूटें/खेत किसानी वाला भारत/भूखा मरे किसान/जन की सत्ता खेतों में कब/ चलकर आयेगी /सुबके हुये कृषक को/ आकर न्याय दिलायेगी/एक छलावा/कृषक हितो में पूंँजी/का अनुदान..। इस नवगीत में अनामिका सिंह जी ने कृषकों की पीड़ा को उजागर करते हुए उनके हितों के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की है। अप्रतिम नवगीत। 

 *चाल चलन*
शीर्षक से अनामिका सिंह जी का नवगीत यहांँ मार्गदर्शक की भूमिका अपनाते हुए स्त्री वर्ग की पीड़ा को रेखांकित करते हुए सचेत कर रहा है। यथा- "परिधि तुम्हारे पंखों की लो/ रहे हितैषी खींच/चिरैय्या बचकर रहना।

अनामिका सिंह जी के नवगीत आज के समाज का प्रतिबिंब हैं। समय के कटु सत्य को उद्घाटित करते हैं। वह चाहे किसानों की पीड़ा हो, या सत्ताधीशों की करनी कथनी के विरूद्ध कार्य हो, अम्मा की स्नेहिल शीतल छांव हो, या हाशिए पर जानबूझकर धकेले  दीन-हीन की दुर्दशा हो, ऊंँच-नीच, जात-पाँत, अलग-अलग विषय वस्तु के माध्यम से अनामिका जी ने पूरी शिद्दत के साथ अपनी लेखनी से उन्हें रेखांकित किया है।  आँचलिक शब्दों नवगीतों में अद्भुत तादात्मय है। अप्रतिम लेखन के लिए अनामिका सिंह जी को हृदय से बधाई एवं प्रस्तुति के लिए संवेदनात्मक आलोक पटल संचालन समिति तथा आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी को सादर नमन।

अंजना वाजपेयी
जगदलपुर (बस्तर)
छत्तीसगढ़
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आदरणीया अनामिका जी के दसौ नवगीत बहुत सुन्दर हैं और ये मन पर स्पष्ट और गहरी छाप छोड़ते हैं। नवगीतों के विषय आम जिंदगी से जुड़े हुए हैं, पर कहन विशेष है। विषय और शब्द चयन में सुन्दर तालमेल है। आंचलिक शब्दों का प्रयोग बहुत सूझबूझ से किया है जो यह बताते है कि उनका एक अपना महत्व है। 

"कोरे हुए विमर्श" में नारी जीवन की तकलीफों, आठो पहर की हाड़तोड़ मेहनत, पुरुष प्रधान समाज की यातनाओं को चुपचाप सहते हुए जिंदगी के सफर को बहुत अच्छे से चित्रित किया है।

"अम्मा की सुध" में अनामिका जी ने बचपन की सुधियों को उकेरा है। एक नारी द्वारा अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को मारकर किस तरह से अपने परिवार के लिए अनवरत त्याग करते हुए और अपने दायित्यों का निर्वहन करते हुए, परिवार के मान-सम्मान की संरक्षिका के रूप में जीवन पथ पर आगे बढ़ती है, को दिखाया है। 

"जोखू -जैसी प्यास" में आज के दौर में मौजूद सामन्ती सोच, गरीबों के शोषण, छुआछूत, ऊँचनीच को चित्रित किया गया है। 

ऐसे उत्तम दर्जे के नवगीतों से रूबरू कराने के लिए आदरणीया अनामिका जी और आदरणीय, दाहिया जी का धन्यवाद।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: संवेदनात्मक आलोक विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच पर १०६वां अंक में युवा ,कवियत्री आदरणीया अनामिका सिंह जी के दस  नवगीतों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ है इसके साथ साथ वरिष्ठ साहित्य मनीषियों की टिप्पणी भी पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसके लिए आदरणीय दाहिया जी को हृदय से साधुवाद देता हूँ, समय सापेक्ष इन नवगीतों में कवियत्री का सूक्ष्म शोधपरक सामाजिक व राजनीतिक चिंतन ,पारिवारिक मनो वैज्ञानिक अध्धयन तथा उद्दात वैचारिक तरलता इन‌सभी नवगीतों को बिशेष बनाता है आशावाद व संघर्ष के‌ लिए आमजन को प्रेरणादायक संदेश ,बदलते पारिवारिक माहौल का संबंधों पर दुष्प्रभाव, राजनीति का कुरुप चेहरा, वर्तमान में नारी के प्रति संवेदनहीन षुरुष प्रधान समाज, किसानों के प्रति हठधर्मीता, राजनीतिक रवैया, वंचितों और गरीबों के प्रति सामाजिक समभाव का अभाव का यथार्थ परक  सफलतम पुष्ट बिंब व प्रतीक योजना, सरल भाषा शैली में प्रभावशाली शाब्दिक चित्रण किया है सादर धन्यवाद

(ड़ा प्रदीप कुमार त्रिपाठी)
कानपुर
[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: अनामिका सिंह के इन गीतों को अपनी व्यस्तता के कारण समय से न पढ़ पाने का अपराध-बोध मन पर हावी हो रहा है।अभी जब पटल पर प्रस्तुत उनके नवगीत गीत पढ़ने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए शुरूआत की तो हर गीत का कथ्य और केन्द्रीय भाव सामने आकर स्वयं अपना महत्व बता रहा है । अतः विस्तृत विमर्श संभव नहीं  हो पा रहा है। अनामिका की रचनाधर्मिता पर प्रस्तोता श्री अशोक शर्मा 'कटेठिया' जी ने बहुत सही आकलन किया है तथा अनेक विज्ञजनों ने विचार व्यक्त किये हैं  । अतः मैं संक्षेप में कहूँ तो कहा जा सकता है कि ये गीत जीवंत अनुभूतियों के संवेदन की आँच में तपकर निकले प्रतिरोध के स्वर हैं जो तीर की तरह अपने लक्ष्य को भेदने में सक्षम हैं। 'माँ' से शुरू करके 'राजा', 'रामराज्य', और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जिस देशज शब्दावली में सर्जना की है वह अनामिका की अपनी अलग पहचान देती हुई नवगीतकारों की पंक्ति में  सम्मानजनक स्थापना प्रदान करेगी और ' एक कलम पर सौ-सौ खंजर' जैसे गीत लिखकर प्रतिरोध की मशाल को आगे बढायेगी। मैं हृदयतल से अनामिका के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ ।
-- जगदीश पंकज 
    गाजियाबाद
[9/20, 6:17 PM] रामकिशोर दाहिया: गीत-कवयित्री अनामिका जी के पटल पर प्रस्तुत गीतों पर वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार कृषक जी की टिप्पणी सर्वथा उचित है। प्रस्तुत गीतों के अतिरिक्त फेसबुक व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आने वाले गीतों के अध्ययन-अवलोकन से यह स्थापित भी होता है। उनके गीतों में जनपीड़ा की अभिव्यक्ति के अर्थवान बिम्ब हैं व जीवन संघर्ष को जिलाये रखने की चेष्टा भी है-'पीड़ा जीकर सुख की खातिर... ' पंक्ति को पढ़ते अचानक गुलाब सिंह जी का कालजयी गीत 'टपरे का पोर-पोर टपके ... ' याद हो आता है। देशज शब्दों के प्रयोगों की कवयित्री की यह शैली वास्तव में उनके नवगीत लेखन की एक पूरी परम्परा से जुड़ने का संकेत है जहाँ गुलाब सिंह, ओम धीरज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, रामकिशोर दाहिया जैसे सिद्धहस्त कलमकार आते हैं किन्तु इस परम्परा को वह कितना आत्मसात करेंगी व कितना संवर्धन करेंगी इसका निर्णय भविष्य करेगा। अम्मा की सुध आई गीत पढ़ते हुये माँ पर लिखे अनेक गीत याद आते हैं विशेष रूप से यश मालवीय जी का 'अपना अप्रासंगिक होना देख रही है माँ... ' अपनी शैली शिल्प व कथ्य में यद्यपि दोनों गीतों का कोई मेल नहीं है किन्तु क्या और होना चाहिए का संकेत अवश्य है। इस सन्दर्भ में दाहिया जी का गीत ' मुर्गा बाँग न देने पाता उठ जाती भिनसारे अम्मा.. ' की भी याद आयी तो बड़े भाई रविशंकर मिश्र की 'दफ्तर से लौटी है ममता की छाँव' भी। कवयित्री वर्तमान सामाजिक राजनीतिक ढाँचे से असंतुष्ट है इसकी अभिव्यक्ति उनके गीतों में भी हुई है, साथ ही मानवद्रोही स्थितियों से सतर्क रहने की चेतावनी भी है। यह सच है कि हम जिस समकाल में जी रहे हैं हम चाहकर भी उससे बाहर नहीं रह सकते, नवगीत में तो तदापि नहीं। अनामिका जी के गीतों की प्रतिबद्धता स्पष्ट है। वह चिंतनशील रचनाकार हैं और समकाल पर टिप्पणी करने में समर्थ हैं। विषय संधान व प्रयोग के जोखिम आदि कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनपर कवयित्री भविष्य में और आकर्षित कर सकेंगी ऐसा मेरा विश्वास है। शुभकामनाओं समेत-

- शुभम् श्रीवास्तव ओम, मिर्जापुर बिहार।
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अनामिका सिंह के नवगीतों को काफी समय से पढ़ रहा हूँ। यदि आपके नवगीतों की कुछ बात की जाए तो इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता कि आपके पास अद्भुत मौलिक दृष्टि है. नवगीत की संकल्पना में सम्मिलित नव शिल्प, नव छंद और नव भाव का विश्वास इन गीतों में निखर कर आता है. अनामिका जी के पास गज़ब का शब्द-भण्डार है. अपने क्षेत्र में प्रचलित बोली के विभिन्न शब्दों का प्रयोग कर आप रचना कर्म को देशज पहचान देती हैं, उन्हें लोक से विशिष्ट जुड़ाव देती है. इस परिप्रेक्ष्य में आपके गीत लीक से हटकर नव्यता से भरे हुए हैं.

गीतों को लोक जीवन और लोक भावनाओं का संवाहक क्यों माना जाता है इस मुखड़े से दिखता है- "तुलसी चौरे पर मंगल के/ रही चढाते लोटे/चढ़ीं हुईं जा खुशियाँ उसकी/जाने किस परकोटे।

अपनी इस विशिष्ट शैली के साथ ही वे आधुनिक युग की परिस्थितियों का बखूबी चित्रण करतीं हैं. कुछ हटकर रचे गए बिम्ब और प्रतीक सहज ही पाठक मन को आकर्षित कर लेते हैं. यह मुखड़ा इस मायने में देखने लायक है- "रेहन पर हैं/सत्ताधारी/कुटिल नीतियाँ हैं दोधारी/भाषण/
लच्छेदार सुनाएँ/हर अवसर पर विष टपकाएं।"

इसके अलावा भी अनेक अनूठे बिम्बों का निर्माण कवियत्री करतीं हुईं दिखाई देती हैं. “गहना कुहासा आँगन फैला, औंधी पड़ी परात”, ऐसे बिम्ब उनकी मौलिकता का परिचय देते हैं.

वागर्थ के माध्यम से आप मनोज जैन जी के साथ उत्कृष्ट कार्य कर रहीं हैं जिसके लिए भी आप बधाई की पात्र हैं. आपके गीतों से काफी कुछ सीखने को मिलता है, मेरी ओर से सादर शुभकामनाएँ!

        - क्षितिज जैन, जयपुर, राजस्थान।
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