मंगलवार, 30 नवंबर 2021

परिचय माहेश्वर तिवारी प्रस्तुति : वागर्थ

साहित्यिक परिचय
नाम ः माहेश्वर तिवारी
पिता का नाम ः स्व. श्री श्यामबिहारी तिवारी
माता का नाम ः स्व. श्रीमति चन्द्रावती तिवारी
जन्मतिथि ः 22 जुलाई, 1939
जन्मस्थान ः ग्राम-मलौली, ज़ि़ला-बस्ती (संतकबीर नगर)
सृजन ः 1951 से पारंपरिक छनद (सवैया) में तथा सन् 1953 से गीत लेखन से जुड़ाव
कृतियाँ ः ‘हरसिंगार कोई तो हो’, ‘नदी का अकेलापन’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’ एवं
‘फूल आए हैं कनेरों में’ (सभी नवगीत-संग्रह)
प्रकाशनाधीन ः लगभग आधा दर्जन नवगीत-संग्रह तथा एक निबंध-संग्रह प्रकाश्य
प्रकाशन ः सभी प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों- आज, दैनिक जागरण, सन्मार्ग, नवभारत
                  टाइम्स, दैनिक भास्कर, नई दुनिया, हिन्दुस्तान आदि, साहित्यिक पत्रिकाओं-
                  कल्पना, ज्ञानोदय, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, लहर,
                  उत्तरार्द्ध,पहल, शब्द, उत्कर्ष, नया प्रतीक आदि तथा अनेक समवेत संग्रहों-
                  ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ (ज्ञानपीठ), ‘एक सप्तक और’ (मिलन मंदिर कलकत्ता),
‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’ (साहित्य अकादमी), ‘नवगीत दशक-2’, नवगीत अर्द्धशती (पराग प्रकाशन,दिल्ली) ‘यात्रा में साथ-साथ’, गीतायन (नवनीत प्रकाशन, वाराणसी), सप्तपदी-5 (अयन प्रकाशन, दिल्ली) शताधिक गीत-संकलनों में गीतों का प्रकाशन
भूमिका लेखन ः हिन्दी तथा उर्दू की लगभग 120 काव्य-कृतियों की भूमिका का लेखन
अनुवाद ः कुछ रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेज़ी और फ्रेंच में अनुवाद
प्रसारण ः दूरदर्शन केन्द्र दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, पटना, रांची, जालंधर, अहमदाबाद
                  आदि तथा आकाशवाणी केन्द्र इलाहाबाद, दिल्ली, छतरपुर, लखनऊ, भोपाल,
                  पटना, रांची, जालंधर, रायपुर, नजीबाबाद, बरेली, रामपुर, पोर्टब्लेअर आदि से
अनेकबार कविता कार्यक्रम प्रसारित, 1984 से 2005 के मध्य 2 बार सर्वभाषा कविसम्मेलन में गुजराती व उड़िया में अनुवाद
प्रसारण-विशेष ः आकाशवाणी के केन्द्रीय निदेशालय द्वारा 3 घंटे के लम्बे साक्षात्कार व काव्य-पाठ की
आर्काइव के लिए रिकार्डिंग
सम्प्रति ः लगभग दो दशक तक प्राध्यापन तथा पत्रकारिता से जुड़े रहने के पश्चात स्वतंत्र लेखन                
पाठ्यक्रम में ः देश के कई विश्वविद्यालयों के हिन्दी स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में रचनाएं
सम्मिलित
विशेष ः नवगीतों का विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेज़ी में अनुवाद तथा कैसेट
                  काव्यमाला (वीनस कं0)
सम्मान ः उ0प्र0 सरकार द्वारा प्रतिष्ठित ‘यश भारती’ पुरस्कार से पुरस्कृत, उ0प्र0 हिंदी संस्थान से
‘साहित्य भूषण’ तथा नवगीत-संग्रह ‘हरसिंगार कोई तो हो’ पुरस्कृत, विष्णु प्रभाकर स्मृति
सम्मान (बरेली), हिन्दी सेवा सम्मान (रोटरी इंटरनेशनल), ‘वीरेन्द्र मिश्र सम्मान’ (हरसूद,
म0प्र0 एवं अनुभव प्रकाशन (ग़ाज़ियाबाद), पुनर्नवा साहित्य सेवा सम्मान (फैज़ाबाद),
समन्वय सृजन सम्मान (सहारनपुर), कविश्री (भारतीय साहित्य सम्मेलन प्रयाग), अखिल
भारतीय परिवार सम्मान (मुम्बई), सुधाबिन्दु स्मृति सम्मान (गोरखपुर), डा. शम्भूनाथ सिंह
नवगीत सम्मान(वाराणसी),संस्था-मंथन से ‘श्रेष्ठ नवगीतकार सम्मान’,सिन्दूर ट्रस्ट कानपुर
से ‘रामस्वरूप सिन्दूर नवगीत सम्मान’ सहित देश की शताधिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
स्थायी पता ः ‘हरसिंगार’, ब/म - 48, नवीन नगर, काँठ रोड, मुरादाबाद - 244001
ई-मेल ः maheshwarjee@gmail.com    
मोबाइल ः 09456689998, 07599294440

सोमवार, 29 नवंबर 2021

भीमराव झरवड़े जीवन जी के नवगीत प्रस्तुति :वागर्थ


नवनीत-1

"भोथर छूरी"

नव पीढ़ी को
जाति वर्ण का,
ज्ञान जरूरी है।
वरना अपनी
गौरव गाथा,
भोथर छूरी है।।

इसके ही दम
झुकी रीढ़ को,
फिर से तानेंगे
हम अभिमानी
पुरखों जैसे, 
पुनः दहाड़ेंगे।।

समय कहे 
सागर मंथन की, 
फिर मजबूरी है।। 

अपने रत्न 
विरासत अपनी, 
नहीं बाँटना है 
कौए हंस 
बने हैं उनके, 
पंख छाँटना है 

हम ही हैं 
कौटिल्य यहाँ के, 
हम ही सूरी है।। 

सफल न हो यदि 
समझाने में, 
कथा कुंभ ड्रामे
दोष वंचितों 
के सिर मढ़ के, 
कर दो हंगामे। 

यह सत्ता तो 
अपने मुख की, 
रस अंगूरी है। 

हम विंध्याचल 
हैं सदियों के, 
अपना हैं पानी 
फिसलेगा यह 
नया हिमालय, 
धन का अंबानी 

हम सूरज है 
जो धरती से, 
रखते दूरी है।। 

भीमराव 'जीवन' बैतूल 
13/10/2020
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नवगीत-2

"मंशा मैली अपनी" 

शुद्धिकरण का
मंत्र किये है
मंशा मैली अपनी
गंगाजल से
धोते फिर भी
रही अपावन कफनी

रहे पूजते 
गोबर को नित
मार गाय को डंडे
नफरत के
रोबोट बनाते
वहशी हुए त्रिपुंडे
सिखा रहे हैं
भेदभाव की
माला कैसी जपनी

टाँग उठाकर
श्वान मूतते
फिर भी पूज्य ठिकाने
देख दलित को
खाली करते
गाली भरे खजाने
सदियों सुख को 
पिये अघाने
चखी न दुख की चटनी

भरे हुए
हर घट में इनके
साजिश के सौ खोखे
कपट दुर्ग में
धन लाने के
लाखों बने झरोखे
स्वर्ग-नर्क के
दंगल इनके 
देते रहे पटकनी। 

भीमराव 'जीवन' बैतूल 
___________________________________

नवगीत-3

"साँसें साँसत में"

चलें धार पर
रहीं हमेशा
साँसें साँसत में
एक कुल्हाड़ी
और दराती
मिली विरासत में

रोज उज्ज्वला
सिर पर ढोती
लकड़ी का गट्ठर
पथ पर भूखे
देख भेड़िये
देह स्वेद से तर

भूख-प्यास
लेकर बैठी है
देह हिरासत में

कानी-खोटी
सुनकर पाया
दाम इकाई में
नमक-मिर्च भी
लाना मुश्किल
इस महँगाई में

है गरीब का 
सस्ता सब कुछ
यहाँ रियासत में

पाँच बरस में
एक बार ही 
मंडी खुलती है
जिसमें अपने
जीवन भर की
किस्मत तुलती है

वोट तलक
अपनापन मिलता
हमें सियासत में
         •••

भीमराव 'जीवन'बैतूल 
___________________________________

नवगीत-4

"मीडिया"

बड़े सदन में गिरफ्तार हो गया मीडिया।
पनियल आँखें अब जनता की कौन पढ़ेगा?

जन-गण की पीड़ा को सुन सब गूँगे बहरे।
खोद रहे हैं संविधान की जड़ को पहरे।
मौन केमरे उत्प्रेरक से चित्र सजाते,
भेदभाव भाषा के मुद्दों पर हम ठहरे।

हमें विखंडित करने वाले लाल दुर्ग पर,
समरसता का ध्वज फहराने कौन चढ़ेगा?

आखेटक सत्ता ले आयी, नये शिकंजे।
हलधर की गर्दन पर गाड़े खूनी पंजे।
मध्यमवर्गी जनता के सिर, कर के छूरे,
बेदर्दी से लगे हुए हैं, करने गंजे।।

संसद के गलियारों में ये धींगामुश्ती,
करते हुए श्रृगालों से अब, कौन भिड़ेगा?

कौन सँभाले अब घुन खायी मीनारों को।
दावानल से उठे सामयिक अंगारों को।
कर्म भूल जो करे दलाली में कर काले,
लानत ऐसे झूठे कपटी अखबारों को।

नतमस्तक है तंत्र अगरचे, अंध भक्त बन,
इन बिगड़े किरदारों से फिर, कौन लड़ेगा?

भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल
29/09/2021
___________________________________

नवगीत - 5

"साखी भी हार गयी"

कटी नहीं मोटी चमड़ी,
चाकू की धार गयी।
धीरे-धीरे कबिरा की,
साखी भी हार गयी।।

विहान ने बुधिया के घर,
आँखें कभी न खोली।
कोठी में जा सूरज ने,
डाली रोज रँगोली।।

शातिर मतपेटी इनके,
पुश्तों को तार गयी।।1

धूर्त धर्म ने शिखर-शिखर,
ध्वज अपना फहराया।
संविधान समरसता का,
स्वाद नहीं चख पाया।।

घुन विधान के खंबों का,
भरने भंडार गयी।।2

सींच-सींच ममता हारी,
क्षीर नेह से उपवन।
बरगद संस्कारों का धन,
कर न सका आबंटन।।

वृद्धापन की लाठी जो,
सागर के पार गयी।।
धीरे-धीरे कबिरा की,
साखी भी हार गयी।।3

भीमराव 'जीवन' बैतूल
23/09/2021

समीक्षा

भीमराव जीवन जी की समीक्षा कृति "धूप भरकर मुठ्ठियों में"

            मनोज जैन 'मधुर जी द्वारा स्रजित 'धूप भरकर मुट्ठियों में' नवगीत संग्रह प्राप्त हुआ। अस्सी नवगीतों का यह समृद्ध संग्रह जहाँ युगीन विडंबनाओं पर प्रहार करता हुआ दलित, शोषित, वंचित वर्ग के साथ दृढ़ता से खड़ा दिखाई देता है। उनका स्वर सत्ता का पक्षधर नहीं है, यथार्थ को व्यक्त करने में उन्होंने कहीं भी संकोच नहीं किया है।
             माँ वाणी का आशीष प्राप्त कर कवि "प्यार के दो बोल बोलें" का शाश्वत संदेश देना चाहता है। क्योंकि कवि जानता है प्रेम ही सत्य है, प्रेम ही ईश्वर है, प्रेम की "एक बूँद का मतलब समंदर है" और इस एक बूँद से समंदर जैसे तृप्ति प्राप्त की जा सकती है। प्रेम ही वह सत्य है जो "भव भ्रमण की वेदना" से बचा सकता है।
     " हम बहुत कायल हुए हैं" नवगीत के माध्यम से कवि ने व्यवस्था के दोगले व्यवहार को आईना दिखाया है। "लाज को घूँघट दिखाया पेट को थाली, आप तो भरते रहे घर, हम हुए खाली। किंतु हमारा ज़मीर जिंदा है, हम सत्य बोलेंगे और लिखेंगे। "हम सुआ नहीं है पिंजरे के, हम बोल नहीं है नेता के, जो वादे से नट जायेंगे।
            निरंतर परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव है, जिसे कवि सहज स्वीकार करते नजर नहीं आता। चूंकि परिवर्तन जब स्वार्थ पूरा करता है सहज स्वीकार किया जाता है।" घटते देख रहा हूँ, नई सदी को परंपरा से कटते देख रहा हूँ, पूरब को पश्चिम के मंतर रटते देख रहा हूँ।
      छंद बद्ध सृजन की एक अलग ही अनुभूति होती है। कवि जिसका पक्षधर है।" जब से मन ने छंद छुआ है, छंदों का कहकरा, करना होगा सृजन बंधुवर हमें लीक से हटकर"।
                 लोक जीवन प्रत्येक पहलूओं पर कवि ने गहन चिंतन और शोध किया है। लोक कल्याण की पवित्र भावना से लिखें गये नवगीत आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करते हैं। इनकी भाषा सहज, सरल और बोधगम्य है जो कथ्य को सीधे हृदय तक पहुँचा सकने में समर्थ है। युवा कवि मनोज जैन 'मधुर' जी को इस विशिष्ट संकलन के लिए असीम शुभकामनाएँ।

भीमराव 'जीवन' बैतूल

26/11/2021

सत्यनारायण जी के दस नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ सविशेष यह ल प्रस्तुति साभार संवेदनात्मक आलोक समूह से संकलित की गई है।

 संक्षिप्त जीवन परिचय 


 कवि का नाम : सत्यनारायण।
जन्म : 13, सितम्बर, 1935 ई.।
ग्राम- कौलोडिहरी, अंचल सहार, जिला-
भोजपुर [बिहार]
शिक्षा : एम.ए.[इतिहास], 

प्रकाशित कृतियाँ : 'तुम ना नहीं कर सकते' [कविता संग्रह], 'टूटते जल बिम्ब' [नवगीत संग्रह], 'धरती से जुड़कर' नुक्कड़ कविता [पत्रिका-संपादन], 'सभाध्यक्ष हंँस रहा है'
[गीत-कविता संग्रह], 'समय की शिला पर' [संस्मरण], 'प्रजा का कोरस' [काव्य संग्रह] 'नवगीत अर्द्धशती' संपादक- डॉ.शंभुनाथ सिंह, 'धार पर हम' संपादक- वीरेन्द्र आस्तिक, 'समर शेष है' [बिहार आंदोलन से जुड़ी नुक्कड़ कविताएंँ] संपादक- डॉ.रवीन्द्र राजहंस जैसे महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएंँ संग्रहीत।

अन्यान्य : हिन्दी की प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में नवगीत कविताओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी, दूरदर्शन के विभिन्न प्रसारण केन्द्रों से प्रसारण। सन् 1974 के बिहार आंदोलन में सक्रिय भागीदारी एवं जनजागरण हेतु नुक्कड़ों पर काव्य पाठ।

सम्मान एवं पुरस्कार : 'टूटते जल बिम्ब' को सर्वश्रेष्ठ नवगीत संग्रह के लिए बिहार सरकार का 'गोपाल सिंह नेपाली पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,बिहार का विशिष्ट साहित्य सेवा सम्मान, राज्यपाल डॉ.ए.आर.किदवई द्वारा सम्मानित एवं अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा अभिनंदित।

विशेष : साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन में विशिष्ट कवि के रूप में सम्मिलित।

सम्प्रति : आरम्भ में प्राध्यापक, तत्पश्चात बिहार सरकार की सेवा से 1993 में राजकीय अधिकारी पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन।

सम्पर्क : बी.पी.सिन्हा पथ, डी ब्लॉक, कदम कुआं, पटना- 800-003 [बिहार]


 【1】  
रंगीन मुखोटे 
  

चेहरों पर रंगीन मुखोटे
हाथों में दस्तानें
असली चेहरे
रंँगे हाथ-
कैसे, पकडें, पहचानें ?

वर्ग शत्रु है
कौन यहांँ
वर्ग मित्र है कौन ?
दागदार है
कौन यहांँ पर
सद्चरित्र है कौन ?
संविधान
क्या करे अकेला
संसद ही जब मौन
छुट्टा घूम रहे
सब कोई
मानें या ना मानें

इस बेहद
निर्लज्ज समय में
अंधभक्त हम जिनके
मूछें सबकी
ऐंठी-अकड़ी
हर दाढ़ी में तिनके
ऐसों की
भरमार गिनाएँ
नाम भला किन-किनके ?
वैसे तो
मालूम सभी को
इनके पते-ठिकानें

पीर औलिया हों
अथवा हों
संत और संन्यासी
सबका
अपना-अपना
काबा
अपनी-अपनी काशी
सूरदास प्रभु
सुन लो ऊधो-
कहते साँच न हाँसी
बड़े मजे में
रहे फूल-फल
इनके कल-कारखाने
             •••
【2】
 मत कहना 
-------------------

ख़बरदार
‘राजा नंगा है‘...
मत कहना

राजा नंगा है तो है
इससे तुमको क्या
सच को सच
कहने पर
होगी घोर समस्या
सभी सयाने चुप हैं
तुम भी चुप रहना

राजा दिन को
रात कहे तो
रात कहो तुम
राजा को जो भाये
वैसी बात करो तुम
जैसे राखे राजा
वैसे ही रहना

राजा जो बोले
समझो कानून वही है
राजा उल्टी चाल चले
तो वही सही है
इस उल्टी गंगा में
तुम उल्टा बहना

राजा की तुम अगर
खिलाफ़त कभी करोगे
चौराहे पर सरेआम
बेमौत मरोगे
अब तक सहते आये हो
अब भी सहना
       •••

     【3】
हादसों की फसल 


चलो !
अच्छा हुआ
ऐसे लोग पहचाने गये

आस्तीनों में
सपोले पालकर
और जलती आग में
घी डालकर
देखिये- नरमेध
यों ठाने गये

हादसों की फसल
हरसू बो रहे
और अपने किये पर
खुश हो रहे
व्यर्थ सब शिकवे
गिले, ताने गये

जो अंधेरों की
इबारत लिख गये
उजालों में साफ-
सुथरे दिख गये
रहनुमा इस दौर के
माने गये

      【4】
झूठों की बन आई 
  

साधो!
सचमुच समय विकट है

असी घाट पर
सिमटे-सिकुड़े
तुलसीदास पड़े हैं
बिना लुकाठी
बीच बजारे
दास कबीर खड़े हैं
मीरा का
इकतारा चुप है
सब कुछ उलट-पुलट है

पानीपत हो
या कलिंग हो
अथवा हल्दीघाटी
कुरुक्षेत्र को
धर्म क्षेत्र
कहने की है परिपाटी
चली आ रही
तब से अब तक
यह अजीब संकट है

सच की कसमें
खाने वाले
झूठों की बन आई
दो पाटों के
बीच पड़ी 
सांँसें गिनती सच्चाई
यह कैसा
परिदृश्य कि-
लगता जैसे अंत निकट है
              【5】
 बने रहेंगे 
-----------------

सपने
आने वाले कल के
टूट-टूट कर
होंगे पूरे
आज भले
अधबने-अधूरे
नाम पते ये
उथल-पुथल के

आएंँगे जब
अपनी जिद पर
रख देंगे सब
उलट-पलट कर
मानेंगे
परिदृश्य बदल के

खत्म न होंगे
बने रहेंगे
कठिन समय में
तने रहेंगे
ये संगी-
साथी मंजिल के
       •••


 【6】
एक अल्ला मियांँ 
---------------------------

एक तो
मुंँहजोर मौसम
और फिर
अपनी बलाएंँ
क्या करें, कैसे निभाएँ

चल रहे हैं
दीन-दुनिया के
सभी व्यापार ऐसे
छूट है
विनिवेश की-
रिश्ते हुए
बाजार जैसे
और हम
सेंसेक्स
पता क्या! कब चढें
कब लुढ़क जाएंँ ?

देखना था-
जिन्हें सब कुछ
आंँख मूंँदे सो रहे हैं
जो न होने थे
तमाशे, अब
खुले में हो रहे हैं
इस तरह लाचार तो
पहले न थे
हम क्या बताएंँ

हो समाजी
या सियासी
आग हर कोने लगी है
मांँगती-फिरती
पनाहें
यह हमारी जिंदगी है
एक अल्ला मियांँ
कैसे आग
चौतरफा बुझाएँ
        

 【7】
अजीब दृश्य है 
------------------

सभाध्यक्ष हंँस रहा 
     सभासद
   कोरस गाते हैं

जय-जयकारों का
    अनहद है
जलते जंगल में
कौन विलाप सुनेगा
     घर का
इस कोलाहल में
पंजों से मुंँह दबा
     हमारी
चीख दबाते हैं

चंदन को
अपने में घेरे
सांँप मचलते हैं
अश्वमेघ के
    घोड़े बैठे
झाग उगलते हैं
आप चक्रवर्ती हैं-
    राजन!
वे चिल्लाते हैं

अजब दृश्य है
   लहरों पर
जालों के घेरे हैं
तड़प रही मछलियांँ
   बहुत खुश
आज मछेरे हैं
कौन नदी की सुने
कि जब
यह रिश्ते-नाते हैं
        •••

        
 【8】
 धूप के हो लें 
--------------

अब बहुत
छलने लगी है छाँव
चलो! चलकर धूप के हो लें

थम नहीं पाते
कहीं भी पाँव
मानसूनी इन हवाओं के
हो रहे
पन्ने सभी बदरंग
जिल्द में लिपटी कथाओं के
एक रस वे बोल
औरों के
और कितनी बार हम बोलें

दाबकर पंजे
ढलानों से
उतरता आ रहा सुनसान
फ़ायदा क्या
पत्तियों की चरमराहट पर
लगाकर कान
मुट्ठियों में
फड़फड़ाते दिन
गीत-गंधी पर कहांँ तोलें
           •••

 【10】
आखर-आखर 
------------

बड़े सगे दिन
नेह पगे दिन
चलकर आये

किरण बावरी
बड़े सकारे
बैठ मुँड़ेरे
सगुन उचारे
आंँगन-आंँगन
धूप बिछाये
उबटन लाये

आखर-आखर
चिट्ठी सोना
पढ़-पढ़ दुहरा-
तिहरा होना
भीतर-भीतर
कुछ अँखुवाये
मन उड़ जाये

अल्हड़ नदिया
पानी-पानी
लहर-लहर में
कथा-कहानी
भँवर-भँवर
भटियाली गाये
पास बुलाये
    •••

    
 【9】
|| और एक तुम ||
----------------------

आंँसू धोये
सपने हो
जैसे भी हो
तुम अपने हो

काजल के रंग
रंँगे हुये तुम
सूने नभ में
टंँगे हुए तुम
बिन बरसे भी
मेघ घने हो

तट की रेत
तनिक नम करके
पास फेन या
सीपी धरके
लौटी जो, वह
लहर बने हो

मैं झुक गया
धनुष -सा मुड़कर
और एक तुम
मुझसे जुड़कर
तीर सरीखे
नित्य तने हो
     •••

       - सत्यनारायण

बुधवार, 24 नवंबर 2021

बाल साहित्य में प्रस्तुत हैं कवि लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव जी के बाल गीत : प्रस्तुति वागर्थ

   हम से भी प्यास बुझे

खरबूज बोल पड़ा तरबूज से,
गर्मी आई अब हो जा तैयार।
गर्मी बढ़ते ही हम खूब बिकेंगे,
मुझ से सज जाएँगे बाजार।

इतने में खीरा व ककड़ी बोली,
हम भी नहीं हैं बिल्कुल कम।
हमारे भी गर्मी में भाव बढ़ते,
गला तर करने का हममें दम।

चारों मिल कर के झटपट ही,
लगे खूब झूमने व गाना गाने।
गर्मी आते ही सारे दुकानदार,
प्यार से लगते हमें सजाने।

हम को  खाकर प्यास बुझाते,
पानी  की कमी हम करते दूर।
खाकर आती ताजगी लोगों में,
खरीदने को लोग होते मजबूर।
★★★★★★★★★★★★
 
 *वसंत ऋतु आया*

कक्षा में मेरे टीचर ने,
हम सब को बतलाया।
जाड़े का हो रहा अंत,
वसंत ऋतु अब आया।

वसंत है प्यारा मौसम,
यह ऋतुराज कहलाएँ।
पेड़ों में हो गया पतझड़,
अब नई कोंपलें आएँ।

सरसों के फूल खेतों में,
पीले पीले व प्यारे प्यारे।
आम पर आ जाते हैं बौर,
लगते कितने न्यारे न्यारे।

फूल खिले होते चहुँओर,
फूलों पर तितली मड़राएँ।
हरियाली दिखती है सर्वत्र,
वसंत ढेरों खुशियाँ लाएँ।
★★★★★★★★★

*तितली उड़ जाती है*

बार बार मैं पकड़ूँ तितली
मेरे पकड़ में न आती है।
हाथ लगाता, ज्यों ही त्यों
फुर्र से वह उड़ जाती है।

चाहूँ पकड़ कर मुट्ठी में,
झट पट मैं बंद कर लूँ।
मेरी आहट समझ वो ले,
कितना भी मैं धीरे चलूँ।

रंग बिरंगी ये तितलियाँ,
मेरे मन को खूब भाती हैं।
दौड़ दौड़ कर थक जाऊँ,
मेरे पकड़ में न आती हैं।

माँ कोई उपाय बता दो,
तितली को पकड़ लाऊँ।
बैग में बंदकर तितली को,
स्कूल साथ मैं ले जाऊँ।
★★★★★★★★

*हरी भरी मटर की फली*

खूब हरी भरी मटर की फली,
मटर की फली मटर की फली,
हरे मटर की सब्जी अच्छी हो,
हरे मटर की पूड़ी लगे भली।

जाड़े में हरे मटर की बहार,
हरे मटर से सभी को प्यार,
खाने को मन करे बार बार,
सब्जी, पुलाव या हो पराँठे,
सब में हरे मटर की दरकार।

हरे मटर फाइबर से भरपूर,
दिल की बीमारी करते दूर,
प्रोटीन व विटामिन-के मिले,
सब्जी, पराठा और पुलाव,
मम्मी मुझे खाना है जरूर।

ज्यादा मटर खाएँ, हानि करता,
हमारे शरीर में गैस भी बनता,
डकार भी आए, हमें बार बार,
पेट दर्द से हो जाता है दुश्वार,
कब्ज व पेट भी फूल सकता।
★★★★★★★★★★

*हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी*

गर्व मुझे है राष्ट्र पर अपने,
नित लिखते नई कहानी,
देश पे कोई आँख उठाएं,
हम हो जाते हैं तूफ़ानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।

प्रेम की भाषा से करते हैं,
हम लोगों की आगवानी,
प्रेम के बदले जो छल करते,
उसकी न बचे कोई निशानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।

भारतवासी ऐसा न काम करें,
जिससे न हो कोई परेशानी,
हम सब हैं सच्चे देशभक्त,
मुश्किल में बच्चा भी सेनानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।।

सरहद पे जो आँख उठाएं,
ऐसा वीर न कोई सानी,
तड़पा कर उसको मारे,
मिले न उसे दाना पानी।
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।
★★★★★★★★

*शूरवीर महाराणा प्रताप*

( 09 मई 1540--जन्म दिवस)

नौ  मई  को  कुंभलगढ़  में,
इक शूरवीर का जन्म हुआ।
राज्याभिषेक  गोगुन्दा   में,
प्रताप नाम से अमर हुआ।

ऐसे योद्धा को करूँ प्रणाम,
विश्व प्रसिद्ध जिसका नाम।
प्रताप जिसे हम कहते  है,
अनुसरण उसी का करते है।

पूरे भारत वर्ष  में शायद ही,
इकलौते महाराणा वीर हुए।
जीवन में मुगल अकबर की,
अधीनता न स्वीकार किए।

उनका प्रिय घोड़ा चेतक था,
वह  भी बहुत  बहादुर  था।
बैठा कर पीठ पर राणा को,
लंबी  छलांग  लगाता  था।

दृढ़ संकल्पित ऐसा योद्धा,
भारत वर्ष में जन्म लिया।
घास की रोटी खा कर भी,
दुश्मन से खूब संघर्ष किया।

हल्दी घाटी का प्रसिद्ध युद्ध,
मुगलों की सेना बहुत भारी।
बीस हजार योद्धा से राणा ने,
अकबर को टक्कर दे मारी।
★★★★★★★★★★
      
*सबसे अच्छे मेरे पापा*

सबसे अच्छे हैं मेरे पापा,
ऑफिस से घर जब आते।
चॉकलेट व टॉफी ले आएँ,
आकर तुरंत मुझे बुलाते।

जब मैं आता, त्यों ही पापा,
गोदी में झट ही मुझे उठाते।
चॉकलेट और टॉफी देकर,
मुझ से ख़ूब प्यार जताते।

नित सुबह मुझे जगाकर,
बैठा के खूब मुझे पढ़ाते।
जो सवाल हल न मुझसे,
अच्छे से वह समझाते।

पढ़ने से अच्छा बन जाऊँ,
ये भी अक्सर मुझे बताते।
महापुरुषों और वीरों की,
गाथाएं नित मुझे सुनाते।

कभी कभी शाम समय को,
पापा मार्केट मुझे ले जाते।
मनपसंद खिलौना व चीजें,
झट खरीद के मुझे दिलाते।

स्कूल में जब हो लंबी छुट्टी, 
मम्मी संग हम बाहर जाते।
घूम घूम नई जगह को देखे,
छुट्टी में खूब मौज मनाते।

कितने  प्यारे, मेरे पापा।
न गुस्साते, बस मुस्काते।।
★★★★★★★★★
    
      *मेरी पिचकारी*

सजी हुई कितनी पिचकारी,
कोई हल्की, कोई है भारी।
मुझे भी पापा एक खरीदो,
कितनी सुंदर लगती सारी।

कोई बड़ा है कोई है छोटा,
कोई पतला कोई है मोटा।
पापा लो बड़ी पिचकारी,
जो लगता दादा का सोटा।

हरा पीला लाल रंग भरकर,
पिचकारी से करूँ फुहार।
रंगों से मैं सरोबार करूँगा,
जो कोई गुजरेगा मेरे द्वार।

मैं पिचकारी से रंग डालूँगा,
भैया दीदी संग खेलूँ होली।
जो रंग कोई  नुकसान करें,
रंग न डालना मम्मी बोली।

होली खेल कर मैं खाऊंगा,
गुझियाँ, नमकीन, मिठाई।
रंगों का मैं त्यौहार मनाऊँ,
खुशियाँ हैं होली संग आई।
★★★★★★★★★★

*गर्मी में खूब नहाते*

ठंडे  ठंडे पानी से हम,
गर्मी आते खूब नहाते।
कभी तो भूल से शॉवर,
खुला छोड़ आ जाते।

सुबह शाम रोज नहाते,
धमा चौकड़ी करते हम।
कभी नहा बेड पे चढ़ते,
बिस्तर भी कर देते नम।

गर्मी में जब मन होता,
हम बच्चे खूब नहाते हैं।
बालों में हम शैम्पू करके,
ढेरों सा झाग बनाते हैं।

गर्मी में तो हम रोज नहाते,
सर्दी में नहाने से होता डर।
बिना नहाए स्कूल को जाते,
मिस जी लेती खूब खबर।

मम्मी कहती रोज नहाओ,
तन और मन स्वस्थ रहेगा।
दिमाग  रहेगा तरो ताजा,
पढ़ने में भी मन लगेगा।

स्कूल में मिस जी कहती,
अच्छी आदत अपनाओ।
पढ़ो और खेलों भी जम के,
अपने को सफल बनाओ।
★★★★★★★★★★

*गर्म मूँगफली*

गर्म मूँगफली खाने में,
अच्छा लगता है स्वाद।
जाड़े में मूँगफली लाना,
पापा को रहता है याद।

बच्चे बड़े सभी को सर्दी में,
खाने में मूँगफली है भाता।
चटनी संग मूँगफली हो तो,
सबके मन को ललचाता।

जाड़े में शाम समय हम,
मूँगफली रोज ही खाते।
हर चौराहे पर ठेलों पर,
मूँगफली बिकते पाते।

प्रोटीन और मिनरल का,
मूँगफली होता खजाना।
कितना हो चट कर जाते,
अच्छा लगता है खाना।

भुनी हुई हो मूँगफली की,
सोंधी होती है खूब महक।
ज्यादा मात्रा में मूँगफली,
खाने में हम जाय बहक।

गर्मागर्म हो जब मूँगफली,
जाड़े में बिक्री बढ़ जाती।
धनिया पत्ती की चटनी हो,
मूँगफली बहुत सुहाती।
★★★★★★★★

*नए साल में स्कूल खुल जाएँ*

नए साल में हम सब के स्कूल खुल जाएँ,
कितने खुश होंगे कि हम सब पढ़ने पाएँ।
नई किताबे, नए पाठ पढ़ने का मन करता,
दोस्तों संग मिल कर घूमने को जी कहता।

हम सब बच्चों की विनती कर लो स्वीकार,
स्कूल खुल जाए, प्रभु करो ऐसा चमत्कार।
ऑनलाइन क्लास हमारे पल्ले न पड़ रहा,
हम बच्चों पर कर दो बस! यही उपकार।

घर में रहते हुए हम बहुत हो चुके हैं बोर,
पढ़े लिखें व खाली कक्षा में हम करें शोर।
दोस्तों संग मस्ती करने का बहुत है मन,
घर में रहने का न मन करता अब मोर।

जब टीचर हमें पढ़ाते तब अच्छा लगता,
ब्लैकबोर्ड पर लिखा हुआ सच्चा लगता।
ऑनलाइन क्लासेज बहुत समझ न आएँ,
नए साल में हम सब के स्कूल खुल जाएँ।
★★★★★★★★★★★★★

*सफाई का रखो ध्यान*

बंदर से बंदरिया बोली
तुम्हें हो गया जुकाम।
पड़े पड़े खास रहे हो,
नाक भी हुआ जाम।

दूर देश से आई बीमारी,
कोरोना जिसका नाम।
खतरनाक बहुत होती,
महामारी जैसा आयाम।

सफाई का रखो ध्यान,
नहीं तो होगे परेशान।
छुआछूत की ये बीमारी,
ले रही लोगों की जान।

दो गज दूरी बहुत जरूरी,
टीवी पर हो रहा प्रचार।
जीवन के लिए जरूरी
दूरी का करें व्यवहार।

इस बीमारी से इंसानों में,
मचा हुआ है त्राहिमाम।
हाथ धुल कर खाना खा,
वरन बुरा होगा अंजाम।
★★★★★★★★★

*जाड़े का मौसम होता प्यारा*

जाड़ा आया सूरज दादा ने मद्धिम कर दिया धूप,
चारों ओर छाया कुहरा, मौसम का बदला रूप।
अब दिन छोटे होने लगें, बड़ी हो रही है रात,
गरमा गरम पकौड़ा और अच्छा लग रहा सूप।

स्वेटर, कोट, टोपी और निकला अब मफलर,
ठंडे ठंडे पानी से नहाने में लग रहा अब डर।
धूप में बैठना अब तो कितना लग रहा अच्छा,
कुछ दिनों में शायद शुरु हो जाए शीत लहर।

अब तो सुबह न छोड़ने का मन मेरा करे रजाई,
जाड़ा बहुत ही प्यारा होता, मानो इसको भाई।
जो कुछ भी खाओ, सब पच जाता आराम से,
सुबह शाम अब अच्छा लगता हीटर से सिकाई।

घंटों हम बच्चे क्रिकेट खेलते, पसीना न बहता,
खेल में मजा आता, घर जाने का दिल न करता।
सच में जाड़े का मौसम बहुत ही सुहावना होता,
पढ़ने लिखने व खेल कूद में हमारा मन लगता।
★★★★★★★★★★★★★★★★

*मेरा प्यारा स्कूल*

कितना सुंदर प्यारा प्यारा,
अच्छा लगता  मेरा स्कूल।
नित यहाँ पर पढ़ने आते,
घर को हम जाते हैं भूल।

टीचर यहाँ बहुत ही अच्छे,
हर विषय खूब समझाते हैं।
जीवन में कैसे आगे बढ़ना,
यह  भी  मुझे   बताते हैं।

पढ़ लिख सूरज सा चमको,
बनना तुम्हें एक नेक इंसान।
मात-पिता का नाम हो रोशन,
दुनिया में हो श्रेष्ठ पहचान।

शिक्षक मुझको खेल खेलाते,
कविता कहानी गीत सुनाते।
अनुशासन जीवन में जरूरी,
नैतिकता का पाठ सिखाते।

गणित अंग्रेजी लगे मुश्किल,
टीचर बताते आसान सा हल।
दोस्त यहाँ खूब मुझे हैं भाते,
पढ़ने लिखने में साथ निभाते।

कितने हरे भरे पेड़ों से घिरा,
सुंदर प्यारा सा मेरा  स्कूल।
खुशबू से खूब महक जाता,
महके यहाँ गुलाब के फूल।
★★★★★★★★★

*वीरों का यह देश*

भारत वर्ष है, वीरों का देश,
जनता सच में है यहाँ नरेश।
महात्मा बुद्ध महावीर स्वामी,
पूरी दुनिया को दिए संदेश।

चारों तरफ दिखती हरियाली,
घर घर जन जन में खुशहाली।
मिल कर हम त्योहार मनाते,
क्रिसमस ईद होली दीवाली।

सब की हम खुशियाँ चाहे,
न रखते हम किसी से बैर।
मेहनतकश हम भारत वाले,
मनाते हैं, हम सबकी खैर।

प्राण न्यौछावर कर देते हैं,
जाने न देते हैं, देश की शान।
ऐसा कोई न कोई कार्य करें,
देश का मिटे जिससे सम्मान।

सुभाष चंद्र भगत सिंह आजाद,
जैसे रणबांकुरों ने जन्म लिया।
वर्षों से हिंदुस्तान गुलाम रहा,
जान गवां कर आज़ाद किया।

भारतवर्ष बन चुका है स्वतंत्र,
चलता न अब यहाँ राजतंत्र।
संविधान से देश का शासन,
अब कोई नही यहाँ परतंत्र।
★★★★★★★★★★

     *शहर की सैर*

कई जानवर जंगल से यूँ,
इक दिन साथ चल पड़े।
हमें घूमना शहर में आज,
चौराहे पर आ हुए खड़े।

सबसे पहले पहुँचे वे माल,
आँखें फाड़े ये माल है टाल।
माल से खूब सामान खरीदे,
फिर चले गए सिनेमा हाल।

पिक्चर में गाना शुरू हुआ,
सब लगे झूम झूम कर गाने।
सिनेमा हाल में किया हंगामा,
मालिक आया उन्हें मनाने।

दिन भर बीत गया सभी को,
अब लग गई सभी को भूख।
होटल में पहुँच खाना खाया,
फिर किया जंगल का रुख।

जंगल जब पहुँचे हो गई रात,
थक कर के हो गए सब चूर।
जम कर खर्राटे ले कर सोए,
नींद आज उन्हें आई भरपूर।
★★★★★★★★★★★

       *चाचा नेहरू*

चाचा नेहरू का जन्म दिवस,
'बाल दिवस' कहा जाता है।
बच्चों से चाचा को खूब प्रेम,
हमें उनकी याद दिलाता है।

हम बच्चे मिल जुल करके,
आज 'बाल दिवस' मनाएँगे।
चाचा नेहरू को गुलाब प्रिय,
हम उससे स्कूल सजाएँगे।

गुलाब लगाते थे अचकन में,
हर समय वह मुस्काते थे।
देश के वे प्रथम प्रधानमंत्री,
बच्चों से प्रेम जताते थे।

हमें आज न पढ़ना लिखना,
खूब खेलेंगे और हम गाएँगे।
चाचा नेहरू की बात करेंगे,
अच्छी आदत अपनाएंगे।

देश के गौरव थे चाचा नेहरू,
बच्चों से खूब लगाव रखते थे।
बच्चों से सत्पथ पर चलने को,
सदैव कहा वह कहते थे।

उन्होंने जो पथ बतलाया है,
पढ़ लिखकर कदम बढ़ाएंगे।
मात पिता गुरु से शिक्षा पा,
हम राष्ट्र को महान बनाएँगे।
★★★★★★★★★★

     *बस की सवारी*

पों पों करते आई लाल बस
सवारी भरी खूब ठसाठस।
जाना बहुत ही रहा जरूरी,
मुश्किल से चढ़े राम दरस।

सीट पर बैठने के लिए लड़े,
बीच में जाकर हो गए खड़े।
खड़े खड़े आ गई उन्हें नींद,
मोटी औरत पर  गिर पड़े।

वो इतने जोर से चिल्लाई,
जैसे हो कोई आफत आई।
राम दरस झटपट से उठे,
मुश्किल से जान बचाई।

सभी लोग तब लगने हँसे,
आ कर के हम कहाँ फँसे।
राम दरस हुए पानी पानी,
बस में याद आ गई नानी।

बस से उतर के घर को भागे,
बस से न जाने के अब इरादे।
घर पहुँच लिया चैन की सांस,
कई दिन आई बस की यादे।



साहित्यिक परिचय
लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
पिता--स्व. श्री अमरनाथ लाल श्रीवास्तव
माता--स्व. श्रीमती लीला श्रीवास्तव
स्थायी पता--ग्राम-कैतहा, पोस्ट-भवानीपुर, जिला-बस्ती
                 272124 (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा--बी. एससी., बी. एड., एल. एल बी., बी टी सी.
(शिक्षक, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता)
व्यवसाय--शिक्षण कार्य
सामाजिक कार्यब-प्रदेश सचिव, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, उत्तर प्रदेश (अवैतनिक)
सचिव जॉगर्स क्लब बस्ती (अवैतनिक)
सदस्य प्रगतिशील लेखक संघ-बस्ती (उ. प्र.)
लेखन की विधा --कविता/कहानी/लघुकथा/लेख/व्यंग्य/बाल साहित्य/समीक्षा
मोबाइल 7355309428
ईमेल laldevendra204@gmail.com
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काव्य संग्रह

(साँझा काव्य संकलन)
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(एकल काव्य संग्रह)
1- "मृत्यु को पछाड़ दूँगा" (काव्य संग्रह - प्रकाशनाधीन)
2- "वो सुबह तो आएगी" (काव्य संग्रह - प्रकाशनाधीन)
3- "सूरज की नई जमीन" (कहानी संग्रह - प्रकाशनाधीन)

बाल कविता संग्रह-
1- "प्यारा भारत देश हमारा" (प्रकाशित)
2- "बच्चे मन के सच्चे" (प्रकाशनाधीन)

संचालन
 "नव किरण साहित्य साधना मंच" बस्ती (उत्तर प्रदेश)

*सम्मान/पुरस्कार*-- राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कलमकार मंच द्वारा आयोजित प्रतिष्ठित 2019-20 के 'कलमकार पुरस्कार' में तृतीय स्थान के लिए चयनित, "साहित्य सरोवर", साहित्य साधक अलंकार सम्मान-2019, "काव्य भागीरथ सम्मान", "अभिजना साहित्य सम्मान", "अभीति साहित्य सम्मान", "मधुशाला काव्य सम्मान", "वीणा वादिनी सम्मान-2020", " काव्य श्री सम्मान-2020", "काव्य सागर सम्मान" सहित तीन दर्जनों से अधिक साहित्यिक सम्मान व प्रशस्ति पत्र व कई सामाजिक संस्थाओं व संगठन द्वारा सम्मानित।

संपादन

(पत्रिका)
1-  'नव किरण' मासिक ई-पत्रिका का संपादन।
2- 'बाल किरण' मासिक ई-पत्रिका का संपादन।
3- 'तेजस' मासिक ई-पत्रिका का सह-संपादन।

(पुस्तक)
1- राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन
"नव किरण", "नव सृजन" व "सच हुए सपने" का संपादन।
2- एकल काव्य संग्रह 
"प्रेम पीताम्बरी", "दरख़्त की छांव", "अनूठे मोती", "जीवन धारा", "अनुभूति-1", "अनुभूति-2," व "देहरी धरे दीप" का संपादन।
3- एकल कहानी संग्रह*- "प्रेम-अंजलि" का संपादन।

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
बस्ती (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 7355309428

परिचय कवि लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव प्रस्तुति वागर्थ

 
साहित्यिक परिचय
लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
पिता--स्व. श्री अमरनाथ लाल श्रीवास्तव
माता--स्व. श्रीमती लीला श्रीवास्तव
स्थायी पता--ग्राम-कैतहा, पोस्ट-भवानीपुर, जिला-बस्ती
                 272124 (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा--बी. एससी., बी. एड., एल. एल बी., बी टी सी.
(शिक्षक, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता)
व्यवसाय--शिक्षण कार्य
सामाजिक कार्यब-प्रदेश सचिव, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, उत्तर प्रदेश (अवैतनिक)
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सदस्य प्रगतिशील लेखक संघ-बस्ती (उ. प्र.)
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*सम्मान/पुरस्कार*-- राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कलमकार मंच द्वारा आयोजित प्रतिष्ठित 2019-20 के 'कलमकार पुरस्कार' में तृतीय स्थान के लिए चयनित, "साहित्य सरोवर", साहित्य साधक अलंकार सम्मान-2019, "काव्य भागीरथ सम्मान", "अभिजना साहित्य सम्मान", "अभीति साहित्य सम्मान", "मधुशाला काव्य सम्मान", "वीणा वादिनी सम्मान-2020", " काव्य श्री सम्मान-2020", "काव्य सागर सम्मान" सहित तीन दर्जनों से अधिक साहित्यिक सम्मान व प्रशस्ति पत्र व कई सामाजिक संस्थाओं व संगठन द्वारा सम्मानित।

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2- 'बाल किरण' मासिक ई-पत्रिका का संपादन।
3- 'तेजस' मासिक ई-पत्रिका का सह-संपादन।

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1- राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन
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"प्रेम पीताम्बरी", "दरख़्त की छांव", "अनूठे मोती", "जीवन धारा", "अनुभूति-1", "अनुभूति-2," व "देहरी धरे दीप" का संपादन।
3- एकल कहानी संग्रह*- "प्रेम-अंजलि" का संपादन।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

कृति चर्चा में प्रस्तुत हैं डॉ मुकेश अनुरागी जी धूप भरकर मुठ्ठियों में

सद्य प्रकाशित नवगीत कृति "धूप भरकर मुठ्ठियों में" चर्चा में है। कृति चर्चा की इस कड़ी में एक नाम जुड़ता है डॉ मुकेश अनुरागी जी का मुकेश अनुरागी जी बहुत अच्छे पाठक और कवि हैं।
                 उन्होंने कृति न सिर्फ खरीदी बल्कि पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की
आइए जानते हैं उनके कृति पर विचार

            नवगीत जगत में अँधेरा मिटाने निकले हैं धूप भरकर मुठ्ठियों में
_________________________



                                      नवगीत क्षितिज पर अपनी ‘एक बूँद हम से प्रारंभ गीतयात्रा आज धूप भरकर मुठ्ठियों में क्षितिज पर फैले तमस को दूर करने का सार्थक और अप्रतिम प्रयास है।वागर्थ पटल पर सक्रिय और नवगीत दोहों तथा गीति रचनाओं के माध्यम से मधुर जी किसी पहचान के मोहताज नहीं है। युवा और ऊर्जस्वित नवगीतकारों में शामिल मनोज मधुर की सद्य प्रकाशित कृति धूप भरकर मुठ्ठियों पर अब तक अनेकों प्रतिक्रियाऐं आ चुकी हैं। साहित्य जगत में हुये इस स्वागत के लिए काव्य कृति स्वयं अपनी बात स्पष्ट करती है। 
                बस इतनी सी बात से शुरू करने वाला गीतकार जब एक बूँद हमसे अपने सचेत कवि स्वर को साधते-साधते नवगीत की मधुर लय छंद में आबध्द होकर सामाजिक विद्रूपताओं राजनैतिक दुष्चक्रों और छीजते सस्कारों को शाब्दिक अभिव्यक्ति देने लगता है तो यह आश्वस्ति स्वयं हो जाती है कि वह धूप भरकर मुठ्ठियों में समाज को रोशनी दिखाने निकल पड़ा है। उसका ध्येय वाक्य है- सोया है जो तन के अंदर उसे जगाओ जी अब चेहरे पर नया मुखौटा नहीं लगाओ जी। 
              और इसीलिए वे परिवेश में आए परिवर्तन और जीवन मूल्यों के क्षरण को स्पष्ट रेखांकित करते हुए कहते हैं- चाँद सरीखा में अपने को घटते देख रहा हूँ धीरे-धीरे सौ हिस्सों में बँटते देख रहा हूँ।        लेकिन इन सबसे उनमें उदासीनता या हताशा का भाव जागृत नहीं होता बल्कि वे आत्मविश्वास से भरकर कहते हैं - मैं दम लूँगा देश बदलकर यह पूरा परिवेश बदलकर। तभी उनका यह कथन भी प्रासंगिक और सोद्देश्यता से परिपूर्ण हो जाता है कि - हम सुआ नही हैं पिंजरे के जो बोलोगे रट जाऐंगे। 
                 मधुर जी अपने गीतों में जहाँ प्यार के दो बोल बोलें की बात करते हैं वहीं आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए पावन सम्मेद शिखर को नमन करते हुए आत्मरस को चखकर संसार के यज्ञ में त्याग की समिधा का हवन भी करते हैं यह उनकी सह्नदयता सहजता और सरलता है कि वे अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए सृजन धर्म का कुशलता से निर्वहन करते हैं और जब सर्जक दूसरों के लिए जीता है तो उसकी झोली में हँसी कम आँसू ज्यादा होते हैं। 
              मगर वह अपने कर्तव्यों से विलग नहीं होता है। तब रचनाकार कहता है- हमने कांधों पर सलीब को ढोना सीख लिया हँसना सीख लिया थोड़ा सा रोना सीख लिया। लेकिन इतने पर भी उनका मधुरमन फूल सा कोमल है और सुवासित भी - अचरज नहीं तनिक भी इनमें हम काँटों में खिले फूल से
         जहाँ तक उनके नवगीतों के कथ्य एवं विषयवस्तु का प्रश्न है तो वे एक ओर प्रकृति के साहचर्य में मेघों का संदेश सुनाते हैं तो वहीं दूसरी ओर जीवन की क्षणभंगुरता को भी शब्दायित करते हैं- डूब रही कागज की कश्ती उथले पानी में। वे श्रृंगार से भी परहेज नहीं करते एक गीत देखिए- मन का हिरन कुलाचें भरता कैसी-कैसी बातें करता चाहत रखता हर पल मुझसे, आँखें चार करूँ, उनसे प्यार करूँ। 
        रचनाकार वर्तमान राजनैतिक उठा पटक से भी आहत होता है। और अपने सृजन धर्म का निर्वहन करते हुए कहता है- किस कदर हालात के मारे हुए हैं लोग दोष इतना भर के तुमको चुन लिया हमने जाल मकड़ी सा स्वयं ही बुन लिया हमने क्या कहें हम इसे घटना या महज संयोग। 
           उनका माँगें चलो अंगूठा गीत हो सगुन पांखी लौट आओ गीत हो या राजाजी हो सरकार को सभी गीत अपने समय को प्रतिबिंबित करते हुए प्रतिरोध के स्वर को मुखरित करने में सफल हैं।
         ऐसा नहीं है कि कवि वर्तमान से त्रसित होकर निराश है वह आशावादी रहा है तभी - जिंदगी तुझको बुलाती है गीत गाकर आशा का संचार भी करता है और उसका यही विश्वास सुबह हो रही है गीत में प्रतिफलित होता दिखता है। हालांकि सृजनधर्मियों को वह लीक से हटकर चलने की सीख भी दे देता है जिससे उनके सृजन में स्थायित्व मिले। 
             और अंत में रचनाकार अपने जीवन का निचोड़ इस गीत में अभिव्यक्त कर ही देता है- पूछकर तुम क्या करोगे मित्र मेरा हाल उम्र आधी मुश्किलों के बीच काटी पेट की खातिर उतरते दर्द की घाटी पीर तन से खींच लेती रोज थोड़ी खाल। 
         दैनंदिन जीवन की आपाधापी का सजीव चित्रण दर्द की घाटी कहकर वह अपने वर्तमान निवास लालघाटी को भी अभिव्यंजित कर गया है। 
                     सभी गीतों की भाषा कथ्य के अनुरूप है और लय छंद से कहन भी मुखरित हुई है उनके गीतों के बिम्ब अद्भुत हैं जो पाठकों को अपनेपन का अहसास कराते हैं। हालांकि उन्होंने अपने गीतों में मात्रा पतन अथवा मात्रा अवग्रहण का सहारा भी लिया है। लेकिन गीत पढ़ने पर प्रतीत नहीं होता है नवगीत संकलन के सभी गीत पठनीय हैं और संग्रहणीय भी। 
             हिन्दी साहित्य जगत में यह संकलन अपना स्थान बनाने में समर्थ होगा ऐसी शुभेच्छा है। 
       समीक्षक
       डाॅ मुकेश अनुरागी
एच 25 फिजीकल रोड शिवपुरी म.प्र. 
मोबा. नं. 9993386078

नवगीत

#लोकतंत्र_जय_लिखी_तख्तियाँ_कहाँ_गईं

~।।वागर्थ।। ~
            प्रस्तुति ...
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अक्षय पाण्डेय 



अक्षय पाण्डेय जी के नवगीत कथ्य , शिल्प , भाव आदि स्तरों पर सशक्त और संपुष्ट नवगीत हैं । उनकी दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है , उन्हें अपने नवगीतों में  जो कहना है वो कहकर ही रहते हैं । उनके कुछ गीत संवाद शैली में हैं । नवीन व विशिष्ट प्रयोग आपके गीतों की विशेषता है , जिनमें पंक्तियों का विन्यास बिल्कुल अलग तरह से है । सामान्यतः गीत में तुक का  निर्वहन भी हो जाए और भाव स्खलन भी न हो , इस कवायद से सभी रचनाकार गुजरते ही हैं किन्तु अक्षय पाण्डेय जी के नवगीत  ' बाढ़ का पानी ' में तीन -तीन तुकों का निर्वाह बेहद सहजता से हुआ है न कि सायास ।  नवीन शिल्प गढ़ने और साधने की अद्भुत क्षमता का दस्तावेज है  ये  दुर्लभ प्रयोग ।
      खुलते बिम्ब , नवीन प्रतीक योजना समृद्ध भाषा का प्रयोग तो आप सभी इनके गीतों में स्वयं ही देख रहे हैं उस पर बहुत जियादः न कहूँगी ।
        जो कहना है वो ये कि नवगीत तो खूब लिखे जा रहे हैं और कहीं -कहीं  थोक में लिखे जा रहे हैं किन्तु नवगीत विधा के अवयवों में सामाजिक सरोकारिता का जो प्रमुख अवयव है वो वहाँ कितना विद्यमान है। कुछ चुनिंदा नाम ही समाज में , सत्ता द्वारा हो रही अनैतिकता के प्रति सजग हैं व मुखर होकर प्रतिरोध भी कर रहे हैं । अक्षय पाण्डेय जी उनमें से एक हैं ।
वागर्थ आपको उत्तम स्वास्थ्य व समृद्ध साहित्यिक जीवन हेतु 
हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

                                           प्रस्तुति
                                      ~।। वागर्थ ।।~
                                      सम्पादक मण्डल 

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(१)

अरे !  तुम कैसे हो 'महराज'  ? 
—————————————

घर में लाश
हास चेहरे पर
तुमको तनिक न लाज 
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ? 

'अकबर' 
बजा रहा है बाजा , 
नाच रहा 
'मुल्ला दो-प्याजा' , 
राजा के गिरने का मतलब 
गिरता देश-समाज । 
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ? 

ज्यादे खोया 
'औ' कम पाया , 
'अच्छे दिन' की है
यह माया , 
छाया छोटी धूप बड़ी है 
समय बहुत नासाज़ । 
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ? 

सबके भीतर 
बैठा है डर , 
सरेआम जब 
लेकर खंजर , 
अम्बर ही पर कतर रहा, तब 
कौन भरे परवाज़ । 
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ? 

जनता अपनी 
बनी बलूची , 
लम्बी दिखती 
दुख की सूची , 
ऊँची लहर , नाव जर्जर है 
रामभरोसे आज  । 
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ? 

(२)

वह तोड़ती पत्थर
---------------------

चिलचिलाती धूप सिर पर 
जून का मंजर  ;
गुरु हथौड़ा हाथ-ले वह 
तोड़ती पत्थर । 

एक बेघर ज़िन्दगी यह 
है यहाँ, कल वहाँ होगी, 
कौन जाने क्या ठिकाना 
आँधियों में कहाँ होगी , 
ज़िन्दगी का है वज़न बस 
एक तिनका भर । 

गर्म लोहा खौलता हो
और उठते बुलबुले हों , 
घूरतीं नज़रें कि जैसे 
हिंस्र पशु के मुँह खुले हों , 
'श्याम तन, भर बँधा यौवन ' 
है इसी का डर । 

बंदिशें हैं , है नहीं परवाज़
पाँखों में जहाँ पर , 
थूकता आकाश हँस कर 
तिमिर आँखों में जहाँ पर , 
ओढ़ कर है स्वप्न सोया
भूख की चादर । 

हवा पानी भूमि अम्बर 
पक्ष में कोई नहीं है , 
एक कुचली आग भीतर 
मार खा रोई नहीं है , 
उठ रहा हर चोट पर 
प्रतिरोध का अब स्वर । 

(३)      

'वीटो' वाली महाशक्तियाँ कहाँ गयीं 
-----------------------------------------

'लोकतन्त्र-जय' लिखी तख़्तियाँ 
कहाँ गयीं । 
'वीटो' वाली महाशक्तियाँ 
कहाँ गयीं । 

बदहवास है मौसम 
बहुत अन्धेरा है , 
कहाँ छिपा है सूरज 
कहाँ सबेरा है, 
जनहित-चिन्तक आर्षवाणियाँ 
कहाँ गयीं । 

कन्धों पर रिश्ते ढोती 
दीवार कहाँ , 
घर है पर घर के भीतर 
वो प्यार कहाँ , 
खुली हुई ख़ुश-फ़हम खिड़कियाँ 
कहाँ गयीं । 

नहीं रहा अब 
पहले जैसा वक्त हरा , 
रंगो पर ख़तरा है
फूलों पर ख़तरा ,
पंख-जली अधमरी तितलियाँ 
कहाँ गयीं ।

'दारी' 'अंग्रेजी' में 
फ़र्क़ नहीं होता , 
आँसू की भाषा में
तर्क नहीं होता ,
अमरीका की आज गोलियाँ 
कहाँ गयीं । 
 
(४)

बुद्ध और बन्दूक
--------------------

दूर खड़ा जग 
देख रहा है 
बनकर बहरा मूक  ;
तोड़ बुद्ध को 
तालिबान अब लिये खड़ा बन्दूक । 

इतिहासों के जले हुए 
फिर पन्ने बोल रहे , 
टूटे हुए तथागत के 
सब टुकड़े डोल रहे , 
बोलेगी कब ज़ुबाँ हमारी 
ऐसे में दो टूक । 

बारूदी है गन्ध हवा की 
मिट्टी खून-सनी , 
साँसों का मधुमास मर गया 
इतने हुए धनी , 
जले ठूँठ पर बैठी कोयल 
नहीं भरेगी कूक । 

आस भुवन भर, नेह गगन भर 
अपना बचा रहे , 
मन भर जीवन और नयन भर
सपना बचा रहे , 
करें जतन जो बचे अमन की 
प्यारी-सी सन्दूक ।

(५)

जीते आज किसान
------------------------

खेतों में बिखरा सत्ता का
फटा हुआ फरमान  ;
सड़कें जीतीं, संसद हारी 
जीते आज किसान । 

फिर जुलूस में टूटा हुआ  
मुखौटा आज मिला , 
उल्टे पाँव भागता राजा 
बिन सरताज़  मिला , 
सबने माना जोकर का यह 
अभिनय था बेजान । 

चीखों ने फिर शीशमहल का
फाटक तोड़ा है , 
और भीड़ ने सही दिशा में 
रथ को मोड़ा है , 
जहाँ रात है वहीं चाहिए 
हँसता हुआ विहान । 

हर चेहरे की पर्त-पर्त 
सच्चाई, खोलेगा , 
बहुत दिखाया रूप-रंग 
अब दर्पन बोलेगा , 
सत्ता बोती कीलें 
ये बोते हैं गेंहूँ-धान । 

इनके खून-पसीने से ही 
मिट्टी काली है , 
इनके होने से सबके 
गालों पर लाली है , 
यही अन्नदाता हैं सच में 
धरती के भगवान । 

(६)

बाढ़ का पानी 
-----------------

कट रहा तट
बढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
विवश है ज़िंदगानी ।

नाव रह-रह काँपती है
लग रहा डर , 
और उन्मन दिख रहे हैं 
आज धीवर , 
घट रहा तट
चढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
गई मिट सब निशानी । 

क्या हुआ, कैसे हुआ 
किसने ख़ता की , 
गाँव में चर्चा 
कुपित जल-देवता की ,
फट रहा तट 
गढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी 
दुखद सर्पिल रवानी । 

छोड़ कर घर जा रहा है 
लोक - जीवन , 
नीलकंठी रो रही है
रो रहा घन ,
हट रहा तट 
पढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी 
विशद दुःख की कहानी । 

(७)

दादुर बोले ताल किनारे 
----------------------------

उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे  , 
दादुर बोले ताल किनारे । 

बारिश ने 
मर्यादा तोड़ी , 
फिर गरीब की 
बाँह मरोड़ी , 
सस्मित चूम रही महलों को 
झोपड़ियों को थप्पड़ मारे । 
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे  , 
दादुर बोले ताल किनारे । 

बारिश ने 
रच दी बर्बादी , 
चूल्हे की 
सब आग बुझा दी , 
आँखों में टपके अँधियारा 
भूख पेट पर काजल पारे । 
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे  , 
दादुर बोले ताल किनारे । 

बारिश ने 
सब धुली कहानी , 
भूखे सोये 
पोश-परानी , 
हुई  बहुत बदरंग ज़िन्दगी 
कौन सजाये, कौन सँवारे । 
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे  , 
दादुर बोले ताल किनारे । 

(८)

नाटक जारी है 
——————-

एक अंक बीता 
दूजे की अब तैयारी है  ;
खुले मंच पर खड़ा विदूषक
नाटक जारी है ।

रोज़ यहाँ पर विविध चरित
अभिनीत हो रहे हैं , 
लोग बहुत क़म मुदित 
अधिक भयभीत हो रहे हैं , 
'देश-काल' के संग जीना 
कहता लाचारी है  । 

जब चाहे , जैसा चाहे वह
रूप बदलता है , 
स्वर्ण हिरन बन, राम 
साधु बन, सीता-छलता है , 
कई छद्म जीने वाला वह 
'शिष्टाचारी' है । 

दर्शक की आँखों में इक
मनभावन ख़्वाब जगे , 
विरच रहा है इन्द्रजाल 
जो कथा अनूप लगे ,
बना रहा रुपये को मिट्टी 
अज़ब मदारी है । 

रंग-मुखौटे, चेहरे की
पहचान छिपाते हैं , 
और आइने, दाग़-दाग़ 
सब सच बतलाते हैं , 
कितना कौन सदाचारी 
कितना व्यभिचारी है । 

(९)

प्रेमचन्द के कथा-समय में
--------------------------------

प्रेमचन्द के कथा-समय में 
जीती है अम्मा । 

माँ की आँखें ढूँढ रहीं हैं 
होरी वाला गाँव , 
झूरी के दो बैल कहाँ 
पंचों का कहाँ नियाँव , 
गये समय से नये समय को 
सीती है अम्मा । 

ठाकुर का वह कुआँ 
जहाँ मानवता मरती है , 
और भगत के महामन्त्र से 
खुशियाँ झरतीं हैं , 
अनबोले रिश्तों की पीड़ा 
पीती है अम्मा । 

घर में एक सुभागी जैसी 
बिटिया चाह रही , 
बुधिया को ना मिला कफ़न
मन में घन आह रही , 
इसीलिए सबकी प्यारी 
मनचीती है अम्मा । 

ईदगाह में हामिद की 
वत्सलता मोल रही , 
बूढ़ी काकी से अपने 
सपनों को तोल रही , 
कितनी भरी हुई है 
कितनी रीती है अम्मा । 
       
(१०)

चलो बादल निरेखें 
----------------------

सुनो रानी ! 
मौलश्री की पत्तियों से
झड़ रहा पानी ;
चलो बादल निरेखें । 

झूमता आषाढ़ 
बाहर गा रहा है,
और भीतर
नेह का स्वर छा रहा है,
सुनो रानी ! 
भूलकर अपने गहन 
दुख की कहानी 
हो मुदित कुछ पल, निरेखें । 

बज रहा मौसम 
सुभग संतूर बनकर, 
खिड़कियों से आ रही 
आवाज छनकर, 
सुनो रानी  ! 
यह चतुर्दिक नाचती
कल-कल रवानी 
चलो सस्मित जल निरेखें । 

आम हँस कर 
नीम से बतिया रहा है, 
शाख पर बैठा सुआ 
हर्षा रहा है, 
सुनो रानी । 
उड़ रहा आँचल धरा का 
हरित - धानी 
खेत, नद, जंगल निरेखें । 

सौ घुटन जीता हुआ 
जीवन शहर का, 
वही जगना , वही सोना 
बन्द घर का, 
सुनो रानी ! 
हो रही बदरंग कितनी 
ज़िन्दगानी, 
प्रकृति का मंगल निरेखें । 

            ooo

               - अक्षय पाण्डेय
           
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संक्षिप्त - परिचय
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नाम -  अक्षय पाण्डेय
पिता का नाम - श्री गुप्तेश्वर नाथ पाण्डेय
माता का नाम - स्व. रामदेई पाण्डेय
जन्मतिथि - 01.04.1978
जन्म-स्थान - रेवतीपुर, जनपद - गाजीपुर
                   (उ.प्र.) ,पिन-232328
शैक्षिक योग्यता - एम.ए.(हिन्दी), बी.एड.
                        पी-एच.डी., नेट ।
प्रकाशन - वागर्थ, हंस, अक्षरा, भाषा, उत्तरायण, शब्दिता, समकालीन सोच,स्वाधीनता, चेतना-स्रोत, नव किरण 
       दैनिक जागरण, जन संदेश.... आदि हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं के साथ समकालीन भोजपुरी साहित्य, पाती, कविता, भोजपुरी लोक, भोजपुरी माटी, सँझवत एवं भोजपुरी जंक्शन जैसी पत्रिकाओं में नवगीत, समकालीन कविता एवं समीक्षात्मक आलेख प्रकाशित।
   - गुनगुनाती शाम, हम असहमत हैं समय से, ओ पिता, ईक्षु एकादश  एवं बइठकी जैसे नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित।
   - “हम न हारेंगे अनय से “ नवगीत संग्रह प्रकाशधीन

सम्प्रति -- प्रवक्ता - हिन्दी
इण्टर काॅलेज करण्डा, गाजीपुर(उ.प्र.)

वर्तमान पता -   प्रथम मकान
                     शिवपुरी कालोनी, प्रकाश नगर
                     (फेमिली बाजार के नजदीक)
                      गाजीपुर - 233001
                         (उ.प्र.)
   
   स्थायी पता - रेवतीपुर (रंजीत मोहल्ला)
          गाजीपुर - 232328 (उ.प्र.)

शनिवार, 20 नवंबर 2021

परिचय प्रतिभा प्रभा प्रस्तुति : वागर्थ

परिचय 



नाम -    प्रतिभा प्रभा 
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी साहित्य) 
           एकल विषय संस्कृत से स्नातक
            एनटीटी।
संप्रति - हिन्दी अध्यापिका एवं 'नया साहित्य निबंध' पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल।
प्रकाशित पुस्तक - "जो मैंने लिखा नहीं" (कविता संग्रह) 
प्रकाशित साझा संग्रह  - "कारवाँ" 
प्रकाशाधीन कविता संग्रह - "सखि री"
प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं एवं ई - पत्रिकाओं में कविता एवं लेख का प्रकाशन। लोकानुरंजन संसार की संस्थापिका।
कार्यानुभव - आकाशवाणी ओबरा सोनभद्र एवं आकाशवाणी वाराणसी में उद्घोषिका। अखण्ड भारत त्रैमासिक पत्रिका में सह-सम्पादिका। लघु फिल्म 'विज़न' में अभिनय। बचपन एक्सप्रेस में पत्रकारिता। 
विशेष उपलब्धियाँ - वाराणसी सहोदया द्वारा "शिक्षा रत्न" सम्मान - 2018। हिन्दी सजल सर्जना समिति 'मथुरा' (उo प्रo) द्वारा अतिथि सम्मान। अखण्ड भारत एवं काव्य संगम के अंतर्गत "साहित्य सेवी" सम्मान - 2019। नैतिक शिक्षा संस्थान द्वारा "शिक्षा गौरव" सम्मान 2020। विश्व हिन्दी शोध संवर्धन अकादमी द्वारा "हिन्दी भाषा भूषण" सम्मान 2021। "काशी गौरव रत्न"‌ सम्मान 2021।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

धूप भरकर मुट्ठियों में’ के सन्दर्भ में बृजेश की बात



‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ के सन्दर्भ में बृजेश की बात 
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साहित्यक हिंदी के आलोकित गगन में कवि मनोज जैन ‘मधुर’ जी का नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ अपनी छटा बिखेरने लगा है, जिसकी एक सद्य प्रकाशित प्रति मुझे हाल ही में प्राप्त हुई थी । मनोज जी के इस नवगीत संग्रह के बारे में साहित्यिक मनीषियों की प्रतिक्रियायें/टिप्पणियाँ/समालोचनाएँ दैनंदिन आ रही हैं, जिन्हें सोशल साइट्स पर प्रतिदिन पढ़ा जा सकता है, मैं भी पढ़ रहा हूँ । यद्यपि मनोज जैन ‘मधुर’ जी से मेरी व्यक्तिगत रूप से मुलाकात अभी तक संभव नहीं हुई है पर उनकी रचनाओं को उनके द्वारा संचालित साहित्यिक फेसबुक समूह ‘वागर्थ’ और नवगीत रचनाओं के लिए प्रतिबद्ध वैश्विक पटल ‘संवेदनात्मक आलोक’ पर पढता रहा हूँ, वह संवेदनात्मक आलोक संचालन समिति के एक प्रतिष्ठित कार्यकारिणी सदस्य भी हैं ।  
इस नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ का मुद्रण और प्रकाशन निहितार्थ प्रकाशन, साहिबाबाद, गाजियाबाद द्वारा किया गया है, पुस्तक का आकर्षक आवरण चित्र के. रविन्द्र ने बनाया है, कवर पर लिखा गया परिचयात्मक लेख श्री माहेश्वर तिवारी जी की कलम से निकला है । कवि ने पुस्तक को अपने परम पूज्य माता पिता की स्मृति को समर्पित किया है । संग्रह का आरम्भ श्री पंकज परिमल, प्रो. रामेश्वर मिश्र, श्री राजेंद्र गौतम, श्री कैलाशचन्द्र पन्त के साथ साथ कुमार रवीन्द्र जैसे धुरंधर साहित्यिक मनीषियों की पैनी नजर से होता है, संग्रह में संचित नवगीतों के बारे में उक्त सभी विद्वानों ने बड़ी बारीकी से चीर-फाड़ कर अपने अपने विचार रखे हैं । पाठक को रचनाएं पढ़ना आरम्भ करने से ठीक पहले कवि मनोज जी का आत्मकथ्य पढ़ने को मिलता है ।
नवगीतकार मनोज जी ने पहला व दूसरा नवगीत वाणी-वंदना व माँ वाणी को समर्पित किया है, जिसके साथ ही उनकी कलम का जादू पाठक पर चलने लगता है, शब्द अपना घेरा खीचने लगते हैं, जिस प्रकार जादूगर अपने फन से सम्मोहित कर लेता है उसी प्रकार मनोज जी अपने नवगीतों के शब्द जाल से सम्मोहित करने लगते हैं । 
नवगीतकार मनोज जी द्वारा संग्रहित नवगीतों में एक दर्शन, एक अध्यात्म है, जो मानवी सदाशयता, सुमार्ग और लोकपरक हित को प्रमुखता से प्रस्तुत करता है, देखें 
कुछ नहीं दें किन्तु हँसकर/प्यार के दो बोल बोलें...साक्ष्य ईश्वर को बनाएं/और अपना मन टटोलें । 
दृष्टि है इक बाहरी/तो एक अन्दर है/बूँद का मतलब समंदर है.....जीतकर खुद को हमें/बनना सिकंदर है ।
भव-भ्रमण की वेदना से/मुक्ति पाना है....अरिहंत ध्याना है ।

कुछ नवगीत बरबस अपने व्यंग्य और अपने ही प्रकार के भाषाई शब्दों के बिम्बों माध्यम से आकर्षित करते हैं उनके कथ्य, भाषा, शिल्प विन्यास, बिम्ब टटके और लीक से हटकर हैं और उनमें प्रयोग किये गए मुहावरे और लोकोक्तियाँ कथ्य के पकड़ को मजबूत आधार देते हैं ।       
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हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के/जो बोलोगे रट जायेंगे.../हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के/जो प्रेशर से फट जायेंगे...हम बोल नहीं हैं नेता के/जो वादे से नट जाएँगे ।    
कैसा है भाई/बैठ गया आँगन में कुंडलिया मार/गिरगिट से ले आया रंग सब उधार...वसूलता अढाई । 
चाँद सरीखा में अपने को/घटते देख रहा हूँ ....पूरब को पश्चिम के मंतर, रटते देख रहा हूँ ।

 इच्छाओं और आशाओं को जगाती रचनायें जो आकर्षित करती हैं  

काश! हम होते/ नदी के तीर वाले वट....संतुलन हम साधते, ज्यों साधता है नट ।
आँखों में सजती है मंजिल/पग-पग पर मिल रही दुआ है...रटे रटाये जुमले बोले/मेरा मन वह नहीं सुआ है । 
...जय बोलो एक बार/ मिलकर किसान की...

साहित्य और साहित्यकार के सम्बन्ध में 

नकली कवि कविता पढ़कर जब/कविता-मंच लूटता है ...
चलो कर्म-लिपि से लिखें लेख ऐसे/ जमाना हमारे सदा गीत गाए ...
...तुलसी, सूर, कबीरा, रहिमन/पन्त, निराला अपने नायक/ सब दर्दों के हरकारे थे/हम भी हैं दर्दों के गायक ...
आलोचक बोल...इत उत मत डोल ।

प्रहारक नवगीत

कुछ प्रश्नों को/एक सिरे से/हँसकर टाल गया/मन को साल गया...फिर बहेलिया अच्छे दिन के/दाने डाल गया ।
नाहक किस्मत को क्यों कोसे/रामभरोसे...शासन के टुच्चेपन का/नेता के लुच्चेपन का/ करना मत तू! बिलकुल स्वागत/रामभरोसे ।
मैं पूछूं तू खड़ा नितुत्तर/बोल, कबीरा! बोल....शंख फूंक दे परिवर्तन का/धरती जाये डोल ।

अंतिम नवगीत जैसे पाठक को असमंजस में छोड़ जाता है -
पूछकर तुम क्या करोगे/मित्र! मेरा हाल...बुन रही मकड़ी समय की/वेदना के जाल ।  

जिस प्रकार कवियों ने चाँद के दागों को भी सौन्दर्य का बिम्ब बनाकर प्रयुक्त किया है, मुट्ठी भर धूप मुट्ठियों से निकल गहराते मन को प्रकाशित कर देती हैं, मद्धिम जुगनुओं की रोशनी रात के अँधेरे को चीर मनमोहक दृश्य बना देती है । कवि मनोज जैन ‘मधुर’ जी नवगीत संग्रह ‘धुप भरकर मुट्ठियों में’ लाये हैं, वह उत्कृष्ट रचनाओं से सराबोर है, भविष्य में कवि मनोज जी और भी काव्य संग्रह लायेंगे इसी उम्मीद के साथ उनको हृदय से बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
  
बृजेश सिंह 
108-ए, शंकर पुरी 
गाजियाबाद, उ.प्र. 201009

रविवार, 7 नवंबर 2021

कृति चर्चा में गोविन्द श्रीवास्तव अनुज की एक प्रतिक्रिया "धूप भरकर मुठ्ठियों में"



आदरणीय भाईसाहब गोविंद श्रीवास्तव  अनुज जी का कृतज्ञ मन से आभार


कृति चर्चा
              धूप भरकर मुठ्ठियों में
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               वर्तमान में नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर भाई मनोज जैन का सध;प्रकाशित नवगीत संग्रह "धूप भर कर मुट्ठियों में "पिछले दिनों डाक से प्राप्त हुआ है। लेकिन दीपावली की व्यस्तता के कारण पढने में बिलम्ब हुआ, और जब पढा तो उस पर कुछ लिखने में बिलम्ब हुआ ।
     बिलम्ब का कारण आलस्य तो कतई नहीं था। हाँ यह असमंजस जरूर था कि अपनी बात कहाँ से शुरू करूँ। ज्यों ही एक बात शुरू करने की कोशिश करता, त्यों ही दूसरी बात सिर उठा लेती और पहले वाली को पीछे धकेल देती ।
     भाई मनोज जैन जी ने आधुनिक जीवन की जद्दोजहद एक नये ही अंदाज में प्रस्तुत की है। उनके इस नवगीत संग्रह "धूप भर कर मुट्ठियों में ", में नये बिम्ब, नये प्रतीक, नयी आस्था और नये कलेवर के स्वर साफ साफ सुनाई देते हैं। जैसे---
चिन्दी चोर विधायक के घर प्रतिभा भरती पानी ।
राजाश्रय ने वंचक को दी संज्ञा औघड़दानी ।
××          ××        ××          ××
जेठ मास के खेत सरीखे 
रिश्ते नाते दरके ।
पल-पल लगता 
पाँव तले से 
अब-तब धरती सरके ।।

     मनुष्य का स्वाभाविक गुण प्रेम है। प्रेम ही वह सेतु है जिसके बल पर एक मनुष्य दूसरे से जुडता है। प्रेम सृष्टि का प्रमुख आधार है। भाई मनोज जैन ने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति बड़ी ही शालीनता से अपने नवगीतों में की है। देखें---
नेह के मधुरिम परस से/ खिले मन की पांखुरी/
मौन टूटे तो बजे /मनमीत मन की बांसुरी /
कामना के पंथ में तुम /प्रेम रथ मोडो/
                   मौन तो तोडो/
और
हो गई है आज हमसे  
एक मीठी भूल।
धर दिये हमने अधर पर 
चुम्बनो के फूल/

संग्रह के सभी गीत/ नवगीत सहज और सरल भाषा में हैं, जो जितनी जल्दी समझ में आते हैं उतनी ही गहरी मार भी करते हैं ।अधिकांश गीत / नवगीत सामाजिक विद्रूपताओ से जूझते हुए सकारात्मक चेतना के साथ जनसाधारण के समर्थन में खडे 
प्रतीत होते हैं ।
     सुन्दर मुखपृष्ठ और चित्ताकर्षक मुद्रण वाले 120 पृष्ठीय इस नवगीत संग्रह में मनोज जैन जी के अस्सी गीत / नवगीत संग्रहित हैं । गीतों के गलियारों से गुजरने से पूर्व पाँच वरिष्ठ साहित्यकारों के आलेख भाई मनोज जैन की रचना धर्मिता  को समझने में सहायक होते हैं ।
     सार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भाई मनोज जैन जी ने अपनी मुट्ठियों में धूप भर कर सामाजिक संगतियो और विसंगतियों की ओर प्रकाश को उलीचकर वहाँ फैले अंधकार को चुनौती देने का साहसिक कार्य किया है ।
     हिन्दी साहित्य में इस पठनीय और संग्रहणीय नवगीत संग्रह का भरपूर स्वागत होगा यह मेरा विश्वास है ।
      भाई मनोज जैन जी को इस सुन्दरतम कृति के लिए बहुत बहुत बधाई।
      गोविंद श्रीवास्तव अनुज 
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बुधवार, 3 नवंबर 2021

परिचय कवि नाम : ओम निश्‍चल


परिचय
नाम :  ओम निश्‍चल 
मूल नाम : डॉ.ओम कुमार मिश्र
जन्म : 15 दिसम्बर 1958, ग्राम : हर्षपुर, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (संस्‍कृत),लखनऊ विश्‍वविद्यालय; एम.ए(हिंदी),पीएचडी- हिंदी, पत्रकारिता में पोस्‍टग्रेजुएट डिप्‍लोमा। 
भाषा : हिंदी, संस्‍कृत, पालि, अंग्रेजी।
विधाएँ : कविता, गीत, आलोचना, निबंध, संस्‍मरण, भाषा, अनुवाद एवं बालगीत । 
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : शब्द सक्रिय हैं ; कुदरत की लय (बालगीत संग्रह)
आलोचना : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी : सृजन और मूल्यांकन ; शब्‍दों से गपशप : अज्ञेय  से अष्‍टभुजा शुक्‍ल; कुँवर नारायण: कविता की सगुण इकाई; समकालीन हिंदी कविता:ऐतिहासिक  परिप्रेक्ष्‍य ; कविता के वरिष्‍ठ नागरिक ; कविता में स्‍त्री प्रत्‍यय(स्‍त्री विमर्श और कविता-2021) कविता की वैचारिकी (2021) ; साठोत्‍तर हिंदी कविता में विचार तत्‍व; चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल ;  कवि विवेक-जीवन विवेक ।  
निबंध : व्यावसायिक हिन्दी;  भाषा की खादी  
संस्‍मरण : खुली हथेली और तुलसीगंध
विनिबंध : कैलाश वाजपेयी ;  कुँवर नारायण (साहित्‍य अकादेमी)
सह लेखन: बैंकिंग वाड्.मय सीरीज(पांच खंड) : बैंकिंग  शब्‍दावली/  बैंकों में हिंदी पत्राचार :  स्‍वरूप एवं संप्रेषण/ बैकों में हिंदी प्रशिक्षण: प्रबंध एवं  पाठ्यक्रम/ बैंकिंग अनुवाद:  प्रविधि  एवं  प्रक्रिया / बैंकों  में टिप्‍पण-आलेखन। 
संपादन : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली; विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी : साहित्‍य का स्‍वाधीन विवेक; जियो उस प्‍यार में जो मैंने तुम्‍हें दिया है : अज्ञेय की प्रेम कविताएँ ; आश्‍चर्य की तरह खुला है संसार : अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताएं; मॉझी न बजाओ वंशी :केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम कविताएं।  अज्ञेय आलोचना संचयन ; हत्‍यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में --लीलाधर मंडलोई की कविताएं ; प्रतिनिधि कविताएं: लीलाधर मंडलोई; प्रतिनिधि कविताएं : मलय ; अन्‍यव एवं अन्‍विति : साहित्‍य के परिसर में कुँवर नारायण ; कुंवर नारायण:कवि का उत्‍तर जीवन; अदम गोंडवी और उनकी शायरी;  बनाया है मैंने ये घर धीरे धीरे : रामदरश मिश्र की गजले; गजल में आपबीती : मुनव्‍वर राना की गजलें; मैं कोई एक रास्‍ता जैसे: हरिओम की गजलें; धरती की सतह पर: अदम गोंडवी की ग़ज़लें, मत चरागों को हवा दो : सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी की ग़ज़लें ; कड़ी धूप में नंगे पैरों : माधव कौशिक की ग़ज़लें। 
सह संपादन : अधुनान्तिक बांग्ला कविता(बांग्‍ला कविता संचयन),  तत्‍सम् शब्‍दकोश
सम्मान
हिन्‍दी अकादमी द्वारा नवोदित लेखक पुरस्‍कार।
उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान द्वारा 'शब्‍दों से गपशप' के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल आलोचना पुरस्‍कार।
जश्‍ने अदब द्वारा 'शाने हिंदी खिताब' ।
विचार मंच कोलकाता द्वारा 'प्रोफेसर कल्‍याणमल लोढ़ा साहित्‍य सम्‍मान'। 

संपर्क
जी - 1/506 - ए, दाल मिल रोड,  उत्‍तम नगर, नई दिल्‍ली-110 059
फोन
91-9810042770 ; 8447289976 ;   91-11-45769164 
ई-मेल
 dromnishchal@gmail.com, omnishchal@gmail.com

हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने :ओम निश्चल



हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने।
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विनोद श्रीवास्‍तव के गीतों में जैसे एक कोयल कूकती है ।

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वे लखनऊ के दिन थे। आकाशवाणी की कवि गोष्‍ठियों में, जिनका  संचालन अक्‍सर विजय किशोर मानव जी  किया करते थे, उन्‍हीं दिनों एक गोष्‍ठी में कानपुर के युवा गीतकार विनोद श्रीवास्‍तव को सुना। वे सुना रहे थे ' हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने।' वे सुना रहे थे कि जैसे कोई कोयल विषाद में कूक रही थी। फिर उन्‍हें कई बार सुनना हुआ। 87 में उनका पहला गीत संग्रह आया: भीड़ में बांसुरी। कानपुर गीतकारों का शहर रहा है। यहां सनेही और हितैषी की मुठभेड़ प्रसिद्ध रही है। इस श्‍ाहर से रामस्‍वरूप सिंदूर, उपेंद्र, शील, कन्‍हैयालाल नंदन, शतदल, विजय किशोर मानव, हरीलाल मिलन और उद्भ्रांत जैसे गीतकारों का नाता है। कभी अपने श्‍ुारुअाती दिनों में नीरज ने यहीं रह कर लिखा था:' वो कुरसवां की अंधेरी सी हवादार गली । मेरे गुंजन ने जहां पहली किरन देखी थी।' उसी शहर से विनोद श्रीवास्‍तव आते हैं। उन दिनों जागरण परिशिष्‍ट में व धर्मयुग, साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान में बस एक बार छपने से लोगों की गली गली चर्चा होने लगती थीं और यहां से स्‍वीकृति पत्र भर मिल जाए तो लोग उसे प्रमाणपत्र की तरह सहेज लेते थे। 

कानपुर के इसी जनसंकुल नगर से भीड़ में जब कोई बांसुरी की कल्‍पना करता है तो वह इस अपार कोलाहल में सुरीले छंद घोल कर माहौल को मुखरित करता है। मजदूरों के इस शहर से शील जैसे यथार्थवादी प्रगतिवादी कवि हुए तो सिंदूर उपेंद्र, शतदल व विनोद श्रीवास्‍तव जैसे कोमल स्‍वर के हिमायती भी। दूब अच्‍छत चंदन जैसी सम्‍मोहक भाषा का जो उन्‍माद होता है कुछ कुछ वैसा ही उन्‍माद विनोद श्रीवास्‍तव के गीतों में है। आज झाड़पोंछ में ''भीड़ में बांसुरी'' मिली तो विनोद अचानक याद हो आए। उनके गीत अवचेतन की नौका में तिर उठे। एक बार कानपुर के लाजपत भवन में आयोजित एक कवि सम्‍मेलन में विनोद के मुक्‍तकों व गीत पाठ को सुनकर  मंच से उठकर कवि सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता कर रहे सोम ठाकुर ने उन्‍हें गले लगा लिया अौर माला उनके चरणों में डाल दी थी। हालांकि मंचीय कवियों के ये आम लटके झटके ही माने जाते हैं पर सोम ने मंच से कहा कि ''52 वर्षों की साधना के फलस्‍वरूप आपने जो माला सम्‍मान से मेरे गले में डाली है उसकी उतरन इस युवा गीताकार के गले में तो नहीं डाल सकता इसलिए उसे उसके चरणों में अर्पित करता हूँ। उसकी कविता को यह मेरा नमन है।''

कहते हैं, विनोद पूरी कशिश से अपने गीत पढते रहे ओर जब मंच से नीचे बैठे तो देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। कानपुर स्‍मार्ट से स्‍मार्ट कवि को भी हूट करने पर आए तो देर नही लगती। पर सरस्‍वती के ऐसे साधक हों तो वे भी कहीं ऐसे कवियों को दूर से सुन रही होती हैं। 

'भीड़ में बासुरी' उठाई तो उनका एक और संग्रह 'अक्षरों की कोख से' भी याद हो आया। उस पर छोटी सी टिप्‍पणी लगता है कि कभी 'नया ज्ञानोदय' में लिखी थी। पर मन से लिखना टलता ही रहा। विनोद के गीतों में वह सांद्रता है जो रागात्‍मकता के कुलीन तटबंध तोड़ देती है और उनकी आवाज़ दूर कही उपत्‍यकाओं से आती सुकोमल प्रतिध्‍वनियों में बदल जाती है। तभी तो उनके गीत जैसे आमंत्रण देते हुए जान पड़ते हैं : 'बांह में बांह डाले हुए । आइये हम चलें घाटियों में। देखिए मेघ काले हुए। आइये हम चलें घाटियों में। ' एक गोष्‍ठी की मुझे याद है विनोद ने एक गीत का स्‍थायी पढा: " एक खामोशी हमारे बीच है। तुम कहो तो तोड़ दूँ पल में।" छोटे बहर के इस गीत को इस खींच के साथ उन्‍होंने पढ़ा कि स्‍टुडियों में मंत्रमुग्‍ध सन्‍नाटा-सा  व्‍याप्‍त हो गया। विनोद का एक मुक्‍तक उन दिनों बहुत पसंद किया जाता था:
मैं अगर रूठ भी गया तो क्या, 
मैं अगर छूट भी गया तो क्या,
तुमको मिल जायेंगे कई दर्पन,
मैं अगर टूट भी गया तो क्या?

देख रहा हूं कि यह संग्रह 28 साल पुराना है। विनोद 55 की पैदाइश हैं। साठ को छू लिया है उन्‍होंने। पर कवि भले ही बूढा हो जाए, गीतकार कभी बूढा नही होता । विनोद का यह गीत होठों पर साधने का प्रयत्‍न कर रहा हूूं और एक मीठी-सी धुन मेरा पीछा कर रही है:

स्‍वप्‍न की झील में तैरना
और गहरे कभी डूबना
मुक्‍त अाकाश में फैलना
बंधनों में कभी ऊबना
गीत छूकर ऋचा फिर गयी
छंद के गांव में खो गए।

मुस्‍कराता हुआ चंद्रमा
गुनगुनाती हुई चांदनी
सिंधु में तैरती पूर्णिमा
सोमरस घोलती रागिनी

रुप छूकर घटा फिर गयी
सोचिये हम कहां खो गए।

देह छूकर हवा फिर गयी
गंध के गांव में खो गए।

विनोद श्रीवास्‍तव पर बातें करनी हों तो अनंत हैं। उनके गीत गुनगुनाने हों तो कहना ही क्‍या। कविता के विपुल अध्‍यवसाय के बावजूद यह जानता हूूं कि यह मन बड़ा उन्‍मन है। इसे कविता का पूरा रसायन चाहिए। आज तो गीत की पाठशालाएं चलाई जा रही हैं। लोग सीख रहे हैं छंद की ओर लौटना। जीवन से जो लय विदा हो रही है उसे लोग सहेजे रहने के लिए प्रतिश्रुत हैं। विनोद का ही एक गीत मुझे गीत के प्रति आश्‍वस्‍त करता है:

गीत हमेशा ही होता है
सुधि की साँझ भोर की रचना।

और उनके भीतर व्याप्त कशिश को खंडवा के कविवर श्रीकांत जोशी  के इस गीत-पद से ही समझा जा सकता है :--
''गीत अधर पर 
सुधि सिरहाने।
फिर से जागे दर्द पुराने।"


लेखक परिचय
____________
नाम :  ओम निश्‍चल 
मूल नाम : डॉ.ओम कुमार मिश्र
जन्म : 15 दिसम्बर 1958, ग्राम : हर्षपुर, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (संस्‍कृत),लखनऊ विश्‍वविद्यालय; एम.ए(हिंदी),पीएचडी- हिंदी, पत्रकारिता में पोस्‍टग्रेजुएट डिप्‍लोमा। 
भाषा : हिंदी, संस्‍कृत, पालि, अंग्रेजी।
विधाएँ : कविता, गीत, आलोचना, निबंध, संस्‍मरण, भाषा, अनुवाद एवं बालगीत । 
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : शब्द सक्रिय हैं ; कुदरत की लय (बालगीत संग्रह)
आलोचना : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी : सृजन और मूल्यांकन ; शब्‍दों से गपशप : अज्ञेय  से अष्‍टभुजा शुक्‍ल; कुँवर नारायण: कविता की सगुण इकाई; समकालीन हिंदी कविता:ऐतिहासिक  परिप्रेक्ष्‍य ; कविता के वरिष्‍ठ नागरिक ; कविता में स्‍त्री प्रत्‍यय(स्‍त्री विमर्श और कविता-2021) कविता की वैचारिकी (2021) ; साठोत्‍तर हिंदी कविता में विचार तत्‍व; चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल ;  कवि विवेक-जीवन विवेक ।  
निबंध : व्यावसायिक हिन्दी;  भाषा की खादी  
संस्‍मरण : खुली हथेली और तुलसीगंध
विनिबंध : कैलाश वाजपेयी ;  कुँवर नारायण (साहित्‍य अकादेमी)
सह लेखन: बैंकिंग वाड्.मय सीरीज(पांच खंड) : बैंकिंग  शब्‍दावली/  बैंकों में हिंदी पत्राचार :  स्‍वरूप एवं संप्रेषण/ बैकों में हिंदी प्रशिक्षण: प्रबंध एवं  पाठ्यक्रम/ बैंकिंग अनुवाद:  प्रविधि  एवं  प्रक्रिया / बैंकों  में टिप्‍पण-आलेखन। 
संपादन : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली; विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी : साहित्‍य का स्‍वाधीन विवेक; जियो उस प्‍यार में जो मैंने तुम्‍हें दिया है : अज्ञेय की प्रेम कविताएँ ; आश्‍चर्य की तरह खुला है संसार : अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताएं; मॉझी न बजाओ वंशी :केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम कविताएं।  अज्ञेय आलोचना संचयन ; हत्‍यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में --लीलाधर मंडलोई की कविताएं ; प्रतिनिधि कविताएं: लीलाधर मंडलोई; प्रतिनिधि कविताएं : मलय ; अन्‍यव एवं अन्‍विति : साहित्‍य के परिसर में कुँवर नारायण ; कुंवर नारायण:कवि का उत्‍तर जीवन; अदम गोंडवी और उनकी शायरी;  बनाया है मैंने ये घर धीरे धीरे : रामदरश मिश्र की गजले; गजल में आपबीती : मुनव्‍वर राना की गजलें; मैं कोई एक रास्‍ता जैसे: हरिओम की गजलें; धरती की सतह पर: अदम गोंडवी की ग़ज़लें, मत चरागों को हवा दो : सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी की ग़ज़लें ; कड़ी धूप में नंगे पैरों : माधव कौशिक की ग़ज़लें। 
सह संपादन : अधुनान्तिक बांग्ला कविता(बांग्‍ला कविता संचयन),  तत्‍सम् शब्‍दकोश
सम्मान
हिन्‍दी अकादमी द्वारा नवोदित लेखक पुरस्‍कार।
उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान द्वारा 'शब्‍दों से गपशप' के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल आलोचना पुरस्‍कार।
जश्‍ने अदब द्वारा 'शाने हिंदी खिताब' ।
विचार मंच कोलकाता द्वारा 'प्रोफेसर कल्‍याणमल लोढ़ा साहित्‍य सम्‍मान'। 

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