सोमवार, 21 नवंबर 2022

समीक्षा

राजधानी के 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं प्रख्यात व्यंग्यकार आदरणीय वीरेन्द्र जैन जी ने नवीनतम कृति "धूप भरकर मुट्ठियों में" की समीक्षा 
  

समीक्षा 
नवगीत संग्रह ‘ धूप भर कर मुट्ठियों में ‘
वीरेन्द्र जैन 
         नअपने गीतों के लिए प्रसिद्ध मनोज जैन ‘मधुर’ का दूसरा नवगीत संग्रह‘धूप भर कर मुट्ठियों में ‘ निहितार्थ प्रकाशन साहिबाबाद’ से प्रकाशित हुआ है। कविताओं की पुस्तकों के प्रकाशन के मामले में यह संकट भरा दौर है,क्योंकि पुस्तक प्रकाशन एक व्यवसाय है। और प्रकाशक एक व्यापारी होता है, जो लाभ का अनुमान लगा कर ही लागत लगाता है। परिणाम यह हुआ है कि प्रकाशकों ने कविता की पुस्तकों का प्रकाशन बहुत सीमित कर दिया है। 
        वे, कविता की वे ही, पुस्तकें छापते हैं जिनका कवि ऐसे पद पर होता है, जिसके प्रभाव से वह सरकारी
 पुस्तकालयों के लिए खरीद करवा लेता है या अपनी कमाई से धन लगा कर स्वयं ही पुस्तकें खरीद लेता है और परिचितों,
रिश्तेदारों, मित्रों व कार्यालय के सहयोगियों  को भेंट में दे देता है। एक और वर्ग है जो किसी भी सही गलत तरीके से सरकारी पुरस्कार की जुगाड़ जमा लेता है। जिसके प्रभाव में प्रकाशक सरकारी खरीद की सूची में उपयुक्त कमीशन व भेंट देकर के खरीद करवा देता है। पुरस्कारों की सूची में शामिल कराने के लिए प्रकाशक राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भूरि-भूरि प्रशंसा वाली समीक्षा लिखवाता, छपवाता है जिसमें कवि भी अपने सम्बन्धों का स्तेमाल करता है। इस सब में कविता साहित्य का बड़ा नुकसान तो हो ही रहा है, उसके मूल्यांकन की विकृत कसौटियां भी जनमानस में कविता के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर रही हैं। दुष्यंत ने जिसे ओढने बिछाने वाली वस्तु के रूप में बताया है वह चन्द सक्षम लोगों के ड्राइंग रूम में सजी मंहगी आर्ट की तरह कौतुक से देखने की वस्तु बन गयी है। कविता की दुनिया में कवि की सम्वेदनशीलता और शिल्प के कौशल की जगह उसके बिक्रय प्रबन्धन ने ले ली है, क्योंकि उसकी सम्प्रेषणीयता की उपेक्षा की गयी है। 
             लोग मजाक में यह भी कहने लगे थे कि एक कागज पर कुछ भी गद्य लिख लो और फिर उस कागज को ऊपर से खड़े में दो टुकड़ों में फाड़ लो जिससे दो कविताएं तैयार हो जायेंगी, बस इतना ध्यान रहे कि उनका कोई अर्थ न निकल रहा हो। 
         जब कविता पुस्तकाकार रूप में नहीं आयी थी तब वह वाचिक थी और उसे स्मृति में बनाये रखने के लिए उसे गेय बनाया जाने लगा जिससे उसका प्रसारण सरल सहज बना। छन्द और लय के साथ अलंकार और जन जीवन से जुड़ी उपमाएं, कथाएं, व जनहितैषी उपदेश उससे जुड़ते गये। एक बार कविता का जीवन में महत्व बताते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि अगर मुझे कविता के बिना जीने की स्थिति आये तो मैं मर जाना ज्यादा पसन्द करूंगा। 
                   कविता की अनेक विधाओं के बीच लय छन्द ताल वाली कविता के सन्देशों ने जनजीवन में अधिक गहराई से प्रवेश किया है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो गीत कविता लम्बे समय तक आमजन की समझ, शिक्षा और अभिव्यक्ति का हिस्सा बनी रही। किंतु यही कविता जब सेठों की तोदों को गुदगुदाने का साधन बन कर मसखरों के हाथों में आ गयी या कुछ कवि अपनी कामुकता को श्रंगार कह कर गाने लगे तो गीत विधा ही नहीं कविता की वाचिक परम्परा को भी ठेस लगी। कविता के दो गुट बन गये और एक दूसरे गुट की खराब कविताओं के उदाहरण देकर विधाओं को खराब बताया जा ने लगा। 
      सरकारी संस्थानों की मद से छन्द मुक्त कविता को कविता की मुख्यधारा में स्थापित कर के शेष को हाशिए पर धकेल देने से कविता आम लोगों से से दूर होती चली गयी। यह खतरनाक घटना थी। 
        गीत विधा में निहित संगीत ने उसे किसी तरह जीवित बनाये रखा। सामाजिक बदलाव के साथ साथ कथ्यों और संवाद में बदलाव आया तो पुराने मुहावरे और प्रतीक कमजोर पड़ने लगे तो गीत विधा में जो कविताऎं नये समाज को सम्वेदित करने लगीं उन्हें नवगीत के नाम से पहचाना गया। 
            नचिकेता इसे समकालीन गीत कहना ज्यादा पसन्द करते हैं। समकालीन गीतों में निजी सुख दुख भी सार्वजनिक सुख दुख के प्रतीक की तरह आते हैं।   
          मनोज के इस संकलन में ब्लर्फ में माहेश्वर तिवारी ने सही कहा है कि वे पास पड़ोस की जिजीविषा, संकल्प और संघर्ष के कवि हैं। वे सिद्धि के नहीं सधना के कवि हैं क्योंकि सिद्धि में ठहराव है और साधना में गतिशीलता है। इस संकलन में भूमिका के बहाने पंकज परिमल ने गीत के शिल्प पर बहुत विचारणीय बात कही है, भले ही उनके लम्बे लेख की भाषा क्लिष्ठ और संस्कृतनिष्ठ है। कुल मिला कर यह पुस्तक केवल गीत संग्रह भर नहीं है अपितु उस विधा पर विस्तार से संवाद करने वाली पुस्तक है। 
               

संकलन की लगभग 80 गीत रचनाएं लम्बे काल खण्ड् में रची गयी हैं जिन्हें किसी एक रंग, एक दौर से पहचाना नहीं जा सकता। इसका प्रारम्भ वीणापाणि की वन्दना से प्रारम्भ होता है और आगे वे देश को  धोखा देने वाले राजनेताओं की करतूतों तक पर निम्नांकित शीर्षक वाले गीतों में टिप्पणी करते हैं- 
1. क्या सोचा था [पृष्ठ 71] 
2. बोल कबीरा बोल [पृष्ठ 75] ‘शंख फूंक दे परिवर्तन का धरती जाये डोल ‘ 
3. कुर्सी का आराधक नेता [पृष्ठ 78] 
4. एक किला और [पृष्ठ 93 ] ‘रणभेरी बजी खूब देख कर सुभीता/ कुटिल चाल चली युद्ध राजा ने जीता ‘
5. मांगे चलो अंगूठा [पृष्ठ 101] 
6. सरकार [पृष्ठ 105] ‘ वक्त है चल उठ, इन्हें ललकार ‘  
7. राजा जी [पृष्ठ 102] ‘ भेड़ सरीखा हमें न हांको राजा जी 
8. हालत के मारे हुए हैं लोग [पृष्ठ 100] 
9. राजनीति की उठापट्क में [पृष्ठ 76 
10. राम भरोसे [पृष्ठ 74]] 
11. गीत अच्छे दिन के [पृष्ठ 61] 
12. हम बहुत कायल हुए हैं [पृष्ठ 38]
13. कैसा है यह देश  [पृष्ठ 77]  में सवाल उठाते हैं कि 

खुली आँख में मिर्ची बुरके 
समझें हमें अनाड़ी 
मरणासन्न देश की हालत 
फिर भी चलती गाड़ी 
अब भी माला पहिन रहे हैं 
शर्म नहीं है शेष  
कैसा है यह देश? 
******             
            साहित्य की दिशा और दिशा सहित उसके मूल्यांकन में नजर आ रही कमियों भी उनके गीत के विषय बने हैं- 
• हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के [पृष्ठ 39] 
• फैसला छोड़िए न्याय के हाथ में [पृष्ठ 40] 
• छन्दों का ककहरा [पृष्ठ 41] 
• करना होगा सृजन बन्धुवर [पृष्ठ 42 
• यह पथ मेरा [पृष्ठ 47] 
• नकली कवि कविता पढ कर [पृष्ठ 48] 
• लिखें लेख ऐसे [पृष्ठ 52] 
• साध कहाँ पाता हर कोई  [पृष्ठ 53] 
• गीत अच्छे दिन के [पृष्ठ 61] 
• आलोचक बोल [पृष्ठ 62] 
इत्यादि   
         इस संकलन में कुछ गीत मौसम के हैं, कुछ प्रेम के और कई गीत सामाजिक सम्बन्धों में आ रहे बदलावों के हैं। कुछ गीत आध्यात्मिक अनुभवों के हैं जिनमें से उनके निजी अनुभव के भी कुछ होंगे और कुछ में दूसरों के अनुभवों को गीत का रूप दिया गया होगा। 
        गीत गेय होता है इसलिए गीतों को पढने और सुनने में अंतर आ जाता है। जिन गीतों को सुनने के बाद पढा जाता है उनकी अनुभूति कुछ भिन्न होती है। संकलन में पढना ऐसा होता है जैसा थाली भर मिठाई खायी जा रही हो। इसलिए गीतों की पुस्तक को धीरे धीरे और बार बार पढा जाना चाहिए। किसी ने सही कहा है कि- 
     बड़ी मुश्किल है दरवेशो, भला कैसे बयाँ होगी 
कहानी उम्र भर की है ओ मजमां रात भर का है 
*********
वीरेन्द्र जैन 
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड 
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

कविवर ईश्वर दयाल गोस्वामी जी काएक नवगीत

कविवर ईश्वर दयाल गोस्वामी जी का
एक नवगीत

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गांव की सांझ 

तप्त पठरिया की नदिया से 
इतराती, पर सधी हुई-सी
भरी खेप पनहारिन जैसी
उतर रही है साँझ गाँव में ।

दौड़ लगाकर पूँछ उठाकर 
आती हैं गायें रंभातीं ।
भेड़-बकरियाँ बना पँक्तियाँ
चली आ रहीं हैं मिमयातीं ।

बहुएँ जला रही हैं चूल्हे ,
जोड़ रही हैं टूटे कूल्हे ।
धधक रही है छाती इनकी
सासों की कर्कशा काँव में ।

गुंड-कसैंड़ी, कलशे-गगरे,
कूप,नलों पर भीड़ मची है ।
उछल रहीं हैं मधुर गालियाँ,
तना-तनी में रसा-कसी है ।

हार-खेत से आते-आते ,
पोंछ पसीना थकन मिटाते ।
बरगद के नीचे चौरे पर
बैठ गए मजदूर छाँव में ।

काम-धाम की ख़ोजबीन में
बैठे-बैठे उकताते हैं ।
रंगदारों की चाल-ढाल में
लुहरे,जेठे गरियाते हैं ।

मार रहे हैं लट्ठ धुआं में,
हार रहे सब जोग जुआ में ।
गोटी इनकी फंसी हुई है
चौसर के मजबूत दांव में ।

तप्त पठरिया की नदिया से
इतराती, पर सधी हुई-सी
भरी खेप पनहारिन जैसी
उतर रही है साँझ गाँव में ।

कवि का एक चित्र


                 -- ईश्वर दयाल गोस्वामी 
                    छिरारी,(रहली),सागर
                    मध्यप्रदेश ।
                    मो - 8463884927

प्रस्तुति
वागर्थ

सोमवार, 14 नवंबर 2022

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी का एक गीत और परिचय

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी का
एक गीत और परिचय


                 देह सो गयी है
               (बाल-दिवस पर)

        हामी भर-भरकर
        उसकी आवाज़ खो गयी है।

               बोलेगा तो शब्द नहीं
               विनती ही बोलेगा।
               मालिक के उढ़के किवाड़
               डर-डरकर खोलेगा।

        नस-नस में किसकी दहाड़
        कँपकँपी बो गयी है?

               परी नहीं, उसके सपनों में
               थाली आती है।
               वह जूठन को नहीं, उसे ख़ुद
               जूठन खाती है।

        रगड़-रगड़कर फ़र्श
        हथेली सुर्ख़ हो गयी है।

               रातों में अक्सर थकान से
               वह कराहता है।
               कभी-कभी चुपके से कोई
               गेंद चाहता है।

        कोसों दूर नींद है,
        लेकिन देह सो गयी है।

                              सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

कवि परिचय

परिचय
———
नाम : सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
जन्म : 21 नवम्बर,1954 को आगरा में।
शिक्षा : क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर से वर्ष 1975 में अंग्रेज़ी में एम.ए.।
सेवायोजन : नवम्बर, 2014 में आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में उ. प्र. शासन के गृह सचिव के पद से सेवानिवृत्त। पुनर्नियोजन के फलस्वरूप तत्पश्चात् भी फ़रवरी, 2017 तक सचिव के पद पर कार्यरत। मार्च, 2017 से 20 नवम्बर, 2019 तक उ. प्र. राज्य लोक सेवा अधिकरण में सदस्य (प्रशासकीय) के पद पर कार्य किया।
रचनाकर्म : वर्ष 1987 में कविता-संग्रह ‘शब्दों के शीशम पर’ प्रकाशित। दूसरा कविता-संग्रह ‘कितनी दूर और चलने पर’ वर्ष 2016 में प्रकाशित। पिछले चार दशकों में लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। छह दिसम्बर,1992 पर केंद्रित ‘परिवेश’ के चर्चित विशेषांक का अतिथि संपादन।

प्रस्तुति
ब्लॉग वागर्थ

रविवार, 13 नवंबर 2022

कविवर रामकिशोर दाहिया जी का एक नवगीत

कविवर रामकिशोर दाहिया जी का एक नवगीत
उनकी चर्चित कृति
"अल्पना अंगार पर" से साभार



प्रस्तुति वागर्थ


कसमस करे चना
_____________________

श्रृंगारित मन मुग्ध षोडशी 
रस अभिसार घना।
फँसकर घेंटी अन्तर जैसे 
कसमस करे चना।

पंखुरियों के नए समुच्चय 
हँसते लोल कपोल।
होंठों के किसलय मुस्काकर
देते मीठे बोल।

लज्जा की संगोपन संज्ञा
भौंह कमान तना।

नयनों की मधुमयी झील में
मनसायन के सपने।
कजरी कोरें लिख लिख बाँचें
छन्द मालिनी अपने।

मन रतियाना हँसी सलोनी
सुन्दर रूप घना।

नमस्कार अनुवाद नासिका
बिंदिया फूल धरे।
माथे केश घटा-लट उलझे
हर सिंगार झरे।

लटके श्रवण विरोचित 
लटकन मुदिता प्यार बना।

उन्न्त गिरि श्रृंगों को कसते 
कंचुक बनकर बदरा।
गोरे तन पर धानी कुर्ता
बेल दुपट्टा लहरा।

फगुनाए पावस का उत्सव 
यौवन लोलमना।

रामकिशोर दाहिया

परिचय

|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
---------------------------------

~ रामकिशोर दाहिया
जन्म : 29, जुलाई, 1962 ई0। ग्राम- लमकना, जनपद-बड़वारा, जिला-कटनी (मध्यप्रदेश) के सामान्य कृषक परिवार में।
शिक्षा : एम.ए.राजनीति, डी.एड.।

प्रकाशन एवं प्रसारण :
देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में,1986 से गीत, नवगीत, नई कविता, हिन्दी ग़ज़ल, कहानी, लघु कथा, ललित निबंध प्रकाशन के अतिरिक्त हिन्दी ब्लॉग 'कविता कोश', 'संवेदनात्मक आलोक' ब्लॉग में नवगीत रचनाएँ संग्रहीत तथा जाल पत्रिका 'अनुभूति' 'पूर्वाभाष' 'हस्ताक्षर' में रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न प्रसारण केन्द्रों से भी रचनाओं का प्रसारण।

प्रकाशित कृतियाँ :
[1] 'अल्पना अंगार पर' नवगीत संग्रह 2008, उद्भावना दिल्ली। [2] 'अल्लाखोह मची' नवगीत संग्रह 2014, उद्भावना दिल्ली। [3] 'नये ब्लेड की धार' [नवगीत संग्रह] प्रकाशन प्रक्रिया में।

संयुक्त संकलन : 
जिनमें रचनाएँ प्रकाशित हुईं---[1]'नवगीत : नई दस्तकें' 2009, उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ। [2]'नवगीत के नये प्रतिमान' 2012, कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली। [3]'गीत वसुधा' 2013, युगांतर प्रकाशन, दिल्ली। [4] 'नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध' 2014 कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली। [5] 'सहयात्री समय के' 2016 समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली-मुजफ्फरपुर। [5] 'नवगीत का मानवतावाद' 2020 कोणार्क प्रकाशन दिल्ली।

विशेष टीप :
वाट्सएप पर संचालित एवं फेसबुक के दोनों संस्करण 'नवगीत वार्ता' एवं 'संवेदनात्मक आलोक' समूह ब्लॉग में अनवरत क्रियाशील रहकर हिन्दी गीत/नवगीत विशेषांक प्रस्तुति शृंखला में विश्व कीर्तिमान की ओर 'संवेदनात्मक आलोक' समूह के संचालक।

सम्प्रति :
मध्य प्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग कटनी में प्रधानाध्यापक के पद पर सेवारत।

पत्र व्यवहार :
निवास- गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट-जुहला, खिरहनी, कटनी- 483501(मध्य प्रदेश)
e-mail : dahiyaramkishore@gmail.com
चलभाष : 097525-39896
प्रस्तुति
वागर्थ

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव : धूप भरकर मुट्ठियों में



समीक्षा

समीक्षक आदरणीय नवरंग जी

काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव : धूप भरकर मुट्ठियों में

मनोज जैन के नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' के गीत एवं नवगीत रचना प्रक्रिया की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करते हैं। उन्होने शब्दों के अनुशासन , भाव तथा लय का पूरा ध्यान रखा है। उनकी संवेदनाओं का पाट चौड़ा और चित्त का आयतन बहुत बड़ा है । अभिव्यक्ति की कलात्मकता क़ाबिले तारीफ़ है -
 *स्वर्ग वाली संपदाएं / यों कभी चाही नहीं है / हम किन्हीं अनुमोदनों के / व्यर्थ सहभागी नहीं हैं / शब्द को बस में करें हम / आखरों की शरण ले लें ....*
संग्रह में कुछ ऐसे भी नवगीत हैं जिनसे संदेश प्रतिध्वनित होता है। जिस प्रकार सूत के मिलने से चादर बनती है ठीक उसी प्रकार बूंदों से सागर का निर्माण होता है। थोड़े से परिश्रम से सफलता हासिल की जा सकती है। दृष्टि व्यापक रूप लेकर दिव्य दृष्टि बन जाती है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं - *दृष्टि है इक बाहरी / तो एक अंदर है / बूंद का मतलब समंदर है ...* 
मनोज के व्यक्तित्व की झलक उनके नवगीतों में साफ दिखाई देती है। अपने बेबाकपन को उन्होंने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है -  *हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के / जो बोलोगे रट जाएंगे / हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के/जो प्रेशर से फट जाएंगे ....* 
जो साधक होते हैं उनके भीतर कभी अहंकार नहीं पनपता और वो नित नये सृजन की ओर उन्मुख रहते हैं। कवि का यह कहना उसकी परिपक्वता को दर्शाता है कि - *छंदों का ककहरा अभी तक / हमने पढ़ा नहीं /अपनी भाषा का मुहावरा / हमने गढ़ा नहीं.....* 
हर युग में प्रायः  कविता की एक लीक बन जाती है। अधिकांश कवि ऐसी ही लीकों पर चला करते हैं।लीक छोड़कर चलने वाले विरले ही मिलते हैं।इसीलिए तो कहा गया है कि - लीक लीक गाड़ी चलै,लीकै चलै कपूत। लीक छाँडि तीनों चलैं , शायर , सिंह , सपूत। मनोज के चिंतन में विविधता है। रचनाएँ लीक से हटकर लिखी प्रतीत होती हैं -
तभी तो वे कहते हैं कि- *करना होगा सृजन, बंधुवर /हमें लीक से हटके /अंधकार जो करे तिरोहित / बिंब रचे कुछ टटके.....* 
मनोज के नवगीतों में गज़ब का आकर्षण है। उनकी ख़ूबी यह है कि वे सहज , सरल और स्वाभाविक हैं और जीवन के यथार्थ को सादगी के साथ व्यक्त करते हैं यथा- *चाँद सरीखा मैं अपने को / घटते देख रहा हूँ / धीरे धीरे सौ हिस्सों में /बँटते देख रहा हूँ ....* 
गीत में जब हम सच्चाई के साथ सौन्दर्य की रचना करते हैं। तभी साधनावस्था वाले प्रणय का रूप उभरता है और वह बरसों स्मृति पटल पर अंकित रहता है । कुछ पंक्तियां अवलोकनीय हैं - *हो गई है आज हमसे / एक मीठी भूल / धर दिए हमने अधर पर/चुंबनों के फूल...* 
जीवन के अनुभव ही किसी बड़ी रचना का आधार होते हैं। अनुभव में ही अनुभूति और संवेदना को बदलने की सामर्थ्यता होती है। मनोज का यह कहना उचित है कि - *जब मन हुआ खरे सोने - सा / तब जाकर हम / किसी गीत का मुखड़ा लिख पाए ....* 
मनोज के अधिकांश नवगीतों  में अनुभव और अनुभूति की नयी चमक दिखाई देती है । ये पंक्तियां देखें - *अचरज नहीं तनिक भी इसमें / हम काँटों में खिले फूल से / हुए न विचलित देख बगूले / बिछे रहे कब उड़े धूल से ....* 
सादगी में सांकेतिकता कवि के काव्य रचना का वैशिष्ट्य है। उसका हृदय जितना संवेदनशील है ,उतना ही  शिल्प सचेत है यथा - *मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर / बोल ,कबीरा !बोल / खाल मढ़ी है बाहर -बाहर / है अंदर तक पोल ...* 
आज जिस तरह का माहौल दिखाई दे रहा है उसे संतोषप्रद भले कह दें लेकिन बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। बहुत से रचनाकारों ने आने वाले कल के प्रति चिंता व्यक्त की है। मनोज ने सहीं कहा है कि - *हाथ मलेगा , शीश धुनेगा /रह रहकर पछताएगा /ऐसा भी दिन आएगा ...* 
तनाव एवं दर्दयुक्त जीवन की सच्चाई का बेहतरीन ख़ाका संग्रह के कुछ नवगीतों में दिखाई देता है। बानगी के तौर पर - *चार दिन की ज़िंदगी /लिख दी तुम्हारे नाम / पी गए हमको समझ /दो इंच की बीड़ी/ बढ़ गए कुछ लोग /कंधों को बना सीढ़ी / नामवर होना हमें था / पर रहे गुमनाम ...* 
इसमें कोई शक नहीं कि आज शब्दकोशीय एवं तुक्कड़ कवियों की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है। प्रकाशन, प्रसारण ,सम्मान  हिन्दी के उत्थान और नयी विधा के नाम पर नये -पुराने लोगों की अच्छी ख़ासी भीड़ जुटने लगी है। सुना है कुछ लोगों के द्वारा कुलपतियों एवं हिन्दी विभागाध्यक्षों को ऐसे कवियों की कविताओं पर शोध करवाने के लिए प्रेरित करने का अभियान भी योजनाबद्ध ढंग से शुरू कर दिया गया है। मनोज का बोध विचार बोध एवं कला बोध समयानुकूल है । उन्होंने सहीं इंगित किया है कि - *दो कौड़ी की कविता लिखकर / तुक्कड़ पंत हुआ/ लूट सती की लज्जा चुरकट / यूँ  जयवंत हुआ....* 
प्रायः कविता का आँकलन  रस ,छंद और अलंकार के द्वारा किया जाता है लेकिन अनुभूति और अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति भी किसी भी रचना को श्रेष्ठता का दर्जा प्रदान करती है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। मनोज की पंक्तियों से यह बात दिखाई देती है  - *मैं नदी थी / रह गई अब एक मुट्ठी रेत / कूदते हैं वक्ष पर मेरे / धमाधम प्रेत* 
जीवन के यथार्थ को मनोज ने जिस खूबसूरत अंदाज़ में व्यक्त करते हैं वह देखते ही बनता है । कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं -  *दो कौड़ी का हमें न आँको / राजा जी / खैनी जैसा हमें न फाँकों /राजा जी* 
कवि प्रेम रस में भीगना चाहता है । डूबकर तैरना चाहता है । क्योंकि प्रेम आत्मा का विस्तार है।ढाई आखर ही संसार का सार है। गीत की निम्नलिखित पंक्तियाँ इसका साक्ष्य है - *खूबसूरत दिन ,पहर ,हर पल हुआ / तुम मिले तो सच कहें /मंगल हुआ / गंध विरहित काठ मन /संदल हुआ* 
मनोज  का चिंतन बहुआयामी है। कहने के लिए यह उनका दूसरा संग्रह है लेकिन यह उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा का सार है जिसे उन्होंने बहुत परिमार्जित करने के पश्चात पुस्तक का रूप दिया है। मैं नवगीत संग्रह ' धूप भरकर मुट्ठियों में ' को उनकी काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव मानता हूँ।  ईश्वर उनकी प्रतिभा को और भी प्रखरता , कुशाग्रता एवं शक्ति प्रदान करें।
*डॉ.माणिक विश्वकर्मा 'नवरंग'* 
मकान नं 139 , यूनीहोम्स कॉलोनी, 
पानी टंकी के पास , भाटागाँव , 
पोस्ट - सुन्दर नगर , 
जिला- रायपुर (छ.ग.) 492013
मो.9424141875
     7974850694

सोमवार, 7 नवंबर 2022

एक टिप्पणी

नर्मदेहर।
प्रिय भाई मनोज जी, कल आपके गीत सुनकर बहुत अच्छा लगा।आपके गीत बहुत संभावना लिये हुए हैं। मेरी हार्दिक बधाई।कार्यक्रम के बाद आपसे मिलने की इच्छा पूरी न हो सकी।शायद आप बीच में ही चले गये थे।मेरा वक्तव्य भी संभवतः आप नहीं सुन पाये।
सादर।
डॉ.श्रीराम परिहार।

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी जी का एक नवगीत

गीत
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 ब्लॉग वागर्थ 
प्रस्तुत करता है कविवर सत्येन्द्र रघुवंशी जी का एक नवगीत

          नदी है भरी हुई
_________________________
        चप्पू, नाव, मछेरे सब हैं
        मग्न, नदी है भरी हुई।

               ख़ुशियाँ पेड़ों-सी हैं जिनके
               पत्ते समय बुहार रहा।
               बैठे थे जिस जगह पखेरू,
               वह बिजली का तार रहा।

        मिले ओट चिड़ियों को कैसे,
        हर टहनी है झरी हुई।

               आँख गर्द के लिए बनी क्या,
               कान शोर के लिए बने?
               क्या बयार के लिए हमारे
               ये सब टिमटिम दिये बने?

        कभी-कभार हुए हैं हम, ज्यों
        एक गिलहरी डरी हुई।

               इस मन को कालीन समझकर
               भीतर व्यथा चली आयी।
               हारा है ख़रगोश दौड़ में,
               कब से कथा चली आयी!

        एक हँसी खनकी कुछ ऐसे,
        एक चोट फिर हरी हुई।

               रक्तकमल होने के पल थे,
               हम भँवरों का झुंड हुए।
               बोलो मन की दाहकता ने
               क्यों ठंडे अंगार छुए।

        है न अजब, दुनिया न आज तक
        सन्नाटों से बरी हुई!

               क्यारी के पहले गुलाब-सा
               गीत ढूँढते फिरते हैं।
               लोग धूप-सा चढ़ें, मगर क्यों
               हम पारे-सा गिरते हैं!

        अगर भरे हैं मेघ, यहाँ भी
        हैं न तृषाएँ मरी हुई।

            सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी


परिचय
———
नाम : सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
जन्म : 21 नवम्बर,1954 को आगरा में।
शिक्षा : क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर से वर्ष 1975 में अंग्रेज़ी में एम.ए.।
सेवायोजन : नवम्बर, 2014 में आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में उ. प्र. शासन के गृह सचिव के पद से सेवानिवृत्त। पुनर्नियोजन के फलस्वरूप तत्पश्चात् भी फ़रवरी, 2017 तक सचिव के पद पर कार्यरत। मार्च, 2017 से 20 नवम्बर, 2019 तक उ. प्र. राज्य लोक सेवा अधिकरण में सदस्य (प्रशासकीय) के पद पर कार्य किया।
रचनाकर्म : वर्ष 1987 में कविता-संग्रह ‘शब्दों के शीशम पर’ प्रकाशित। दूसरा कविता-संग्रह ‘कितनी दूर और चलने पर’ वर्ष 2016 में प्रकाशित। पिछले चार दशकों में लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। छह दिसम्बर,1992 पर केंद्रित ‘परिवेश’ के चर्चित विशेषांक का अतिथि संपादन।

प्रस्तुति
ब्लॉग वागर्थ

बुधवार, 2 नवंबर 2022

दो अलग गीतों पर एक वैचारिकी टिप्पणीकार हरगोविन्द ठाकुर जी प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ


वैचारिकी

वैचारिकी
अभी विगत दिनों प्रतिष्ठित समूह वागर्थ में कवियत्री भूमिका जैन का एक गीत पढ़ा जो पति को संबोधित था।उसके कुछ ही अंतराल में वागर्थ के एडमिन कविबर मनोज जैन मधुर  का भी एक गीत पढ़ा जो पत्नी को संबोधित था।
सुलभ संदर्भ के लिए नीचे दोनों ही गीत उधृत हैं।






गीत


        कवयित्री भूमिका जैन "भूमि"

🎊🎊

ज़िद्दी, अल्हड़, पगली, झल्ली
जैसी हूँ,अपनाया तुमने.
सात वचन से आगे जाकर
ये संबंध निभाया तुमने.

मेरा अच्छा बुरा हमेशा
मुझसे पहले तुम्हें पता है.
तुमने वही किया है अब तक
जो मुझको अच्छा लगता है.
बेटा,दोस्त, पिता,भाई बन
सबका प्यार लुटाया तुमने.

जब जब मैंने प्रश्न उठाये
तुम उपलब्ध रहे उत्तर में.
हल ही नहीं हुये वे सारे
प्रश्न खो गये प्रतिउत्तर में.
सच कहती हूँ प्रेम शब्द का
सही अर्थ समझाया तुमने.

मेरी गरिमा और,प्रतिष्ठा 
मुझसे पहले रही तुम्हारी.
मेरे रोने की आदत भी
तुमने हँस हँसकर स्वीकारी.
अपनी अर्धांगिनी बनाकर
मुझको पूर्ण बनाया तुमने.

प्रियवर साथ तुम्हारा पाकर
मुझे लगा मैं भी सीता हूँ.
इस गौरव का श्रेय तुम्हें
हे राम!तुम्हारी परिणीता हूँ.
धरती पर जोड़े रिश्ते को
अंबर तक पहुँचाया तुमने.

सात वचन से आगे जाकर
ये संबंध निभाया तुमने.

भूमिका जैन "भूमि"


गीत

🎊🎊


             मनोज जैन "मधुर"

🎊🎊

खूबसूरत दिन,पहर,क्षण,
पल,हुआ।
तुम मिले तो सच कहें
मंगल हुआ।

पुण्य जन्मों का,फला तो 
छट गयी मन की व्यथा।
जिंदगी की पुस्तिका में,
जुड़ गयी नूतन कथा।

ठूँठ-सा था मन महक,
संदल हुआ।

वेद की पावन ऋचा या,
मैं कहूँ तुम हो शगुन।
मीत! मन की बाँसुरी पर
छेड़ते तुम प्रेम धुन।

पा,तुम्हें यह तप्त मन
शीतल हुआ।

लाभ-शुभ ने धर दिए हैं
द्वार पर दोनों चरण।
विश्व की सारी खुशी 
आकर करे अपना वरण ।

प्रश्न मुश्किल जिंदगी
 का 
हल हुआ।

मनोज जैन मधुर


टिप्पणीकार हरगोविन्द ठाकुर जी


दोनो कवि अलग अलग हैं किंतु दोनो गीतों में एक वायवीय सम्वन्ध और साम्यता है,जिस पर ओशो और लाओत्से के संदर्भ में देखे जाने की आवश्यकता है।
दोनों गीत दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े है,दो विंदु हैं लेकिन दोनो को मिला दें तो पहली ज्यामितीय आकृति रेखा बन जाती है।
दोनो गीतों में भले अनजाने ही सही लेकिन ओशो और लाओत्से के विचार लक्षित होते हैं।
ओशो कहते है कि स्त्री सीधे सीधे पुरुष की शासिका नही बनती,वह दासी बन जाती है फिर  समर्पण करते ही वह रानी की भूमिका में होती है।(संदर्भ-ताओ उपनिषद, प्रवचन संख्या 119-ओशो)
लाओत्से इसे दूसरी तरह से कहते हैं,वे कहते हैं कि स्त्री और पुरुष का विभाजन केवल यौन विभाजन या sex division नही है बल्कि यह जीवन की dialectics है और dialectics evolution के बिना जीवन का विकास संभव नही है।दरअसल female gender प्राथमिक स्वभाव है।आपने महसूस किया होगा कि 5-6 तक के लगभग  सभी बच्चे,लड़कीं जैसे ही लगते हैं।
इसी से पुरुष का जन्म होता है।
दोनो गीतों की ओर पुनः लौटते हुए,अगर पहले भूमिका जैन का गीत पढ़ा जाये फिर मनोज जैन जी का गीत पढ़ा जाये तो ओशो और लाओत्से के विचारों की भावनात्मक छाया इन गीतों में मिलेगी।
----हरगोविन्द ठाकुर
----ग्वालियर
----7067545420

मंगलवार, 1 नवंबर 2022

कविवर महेश कटारे सुगम जी का एक गीत प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

चर्चित कवि महेश कटारे सुगम जी का एक लोकप्रिय गीत
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग

बेशक घोषित करो छंद को मरा हुआ 
पर कविता के प्राण छंद में बसते हैं।

एक सदी होने को आई है लेकिन ,
गद्य काव्य को खड़ा नहीं कर पाये हो 
खूब पिलाये पोषक तत्व बहुत से पर 
उसके कद को बड़ा नहीं कर पाये हो 
माना साज़िश हुई छंद के साथ मगर 
लोक अभी तक लय छंदों में हँसते हैं। 

इतने वर्षों बाद बता तो दो मुझको
गद्य काव्य की पैठ दिलों में कितनी है।
गद्य काव्य से पाट दिया बाज़ारों को,
लेकिन वह अब भी ठिगनी की ठिगनी है।
गद्य काव्य कितने लोगों को याद हुआ 
गद्य काव्य को कितना लोक समझते हैं।

खूब शाब्दिक अय्याशी कर डाली पर,
संस्कार छंदों के नहीं मिटा पाये।
लोक आज भी हँसता गाता छंदों में 
गद्य काव्य से रिश्ते नहीं बना पाये।
लोक नहीं स्वीकारे जब तक बोलो 
दिल के शिखर कलश कैसे बन सकते हैं। 

लय छंदों से मुक्ति चाहने वालों को,
कवि कहने की चाहत को तजना होगा।
गद्य लिखो पूरी स्वतंत्रता है उसमें,
कवि को लय अनुशासन में चलना होगा।       
कविता कर्म मज़ाक नहीं न सुविधामय,
शब्द अर्थ की तेज़ धार पर चलते हैं। ..

गद्य काव्य भी गेय हुआ करता था पर,
अब तो लय भी गद्य काव्य से बाहर है।
 शुद्ध गद्य को कविता जो भी बता रहे,
साफ साफ उनका मंतव्य उजागर है।
यश लोलुपता काव्य कर्म को लील रही,
यश के सारे सूत्र इस तरह सस्ते हैं। 

महेश कटारे सुगम

कवि 
परिचय

नाम-महेश कटारे "सुगम"
जन्म.. 24 जनवरी 1954 में ललितपुर जिले के पिपरई गाँव में.

प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं हंस, नया ज्ञानोदय, इंडिया टुडे,
इन साइड इंडिया,साक्षात्कार, प्रयोजन,कला समय, कथादेश,  वीणा,अविलोम,इंगित,निकट, अभिव्यक्ति,संविदा, साहित्य भारती, म. प्र.विवरणिका, 
वर्तमान साहित्य,हरिगंधा, लहक,साहित्य सरस्वती, स्पंदन, नान्दी, अक्षर शिल्पी, राग भोपाली, शब्द शिखर, बुंदेलखंड कनैक्ट,अविलोम, शब्द संगत, व्यंग्य यात्रा, 
सरिता,  इंद्रप्रस्थ भारती, अर्बाबे कलाम, अनामा, शुचि प्रिया, सुख़नवर, सरस्वती सुमन, संबोधन, समकाल, इलैक्ट्रॉनिकी, भू भारती,
कहानियाँ मासिक चयन, कथाबिंब,सुमन सौरभ, पराग,लोटपोट,बाल भारती, 
अच्छे भैया,देवपुत्र, चकमक आदि में रचनाएँ प्रकाशित.

प्रकाशन..... 

उपन्यास
रोटी पुत्र

कहानी संग्रह
1.....प्यास.
2......फसल

कविता संग्रह
पसीने का दस्तख़त.

 नवगीत संग्रह
तुम कुछ ऐसा कहो.

बाल गीत संग्रह
हरदम हंसता गाता नीम.

लंबी कविता
1....वैदेही विषाद.
2.......प्रश्न व्यूह.

ग़ज़ल संग्रह
आवाज़ का चेहरा, दुआएँ दो दरख़्तों को, सारी खींचतान में फ़रेब ही फ़रेब है, आशाओं के नये महल, शुक्रिया, अयोध्या हय हय, ख़्वाब मेरे भटकते रहे, कुछ तो है, ऐसी तैसी, ला हौल बला कुब्बत,प्रतिरोधों के पर्व.


बुंदेली गजल संग्रह
गाँव के गेंवड़े, बात कैसे दो टूक  कका जू, अब जीवे कौ एकई चारौ, कछू तौ गड़बड़ है, सुन रये हौ.

ग़ज़ल गलियारा सीरीज़ के पांच ग़ज़ल संकलन संपादित

संपादन
महेश कटारे "सुगम "का रचना संसार.(डाॅ.संध्या टिकेकर) . 

महेश कटारे " सुगम " की श्रंगारिक ग़ज़लें ( प्रवीन जैन) . 

सम्मान..... हिंदी अकादमी दिल्ली  सहभाषा सम्मान,जनकवि मुकुट बिहारी सरोज सम्मान ग्वालियर (म.प्र.),स्पेनिन सम्मान रांची ( झारखंड),जनकवि नागार्जुन सम्मान गया ( बिहार) , लोकभाषा सम्मान दुष्यंत संग्रहालय भोपाल ( म. प्र.)  गुंजन साहित्य सदन जबलपुर म.प्र. द्वारा लोक साहित्य अलंकरण सहित अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं द्वारा सम्मानित.

पुरस्कार
कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (कथा बिंब) मुंबई
रामनारायण शास्त्री (स्वदेश) कथा पुरस्कार म. प्र.

उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित.

कुछ विश्वविद्यालयों से शोध

पता-काव्या चंद्रशेखर वार्ड, माथुर कालोनी बीना, जिला सागर, म. प्र. पिन 470113

मोबाइल नम्बर-9713024380

मेल आईडी- prabhatmybrother@gmail.com