राजधानी के
वरिष्ठ साहित्यकार एवं प्रख्यात व्यंग्यकार आदरणीय वीरेन्द्र जैन जी ने नवीनतम कृति "धूप भरकर मुट्ठियों में" की समीक्षा
समीक्षा
नवगीत संग्रह ‘ धूप भर कर मुट्ठियों में ‘
वीरेन्द्र जैन
नअपने गीतों के लिए प्रसिद्ध मनोज जैन ‘मधुर’ का दूसरा नवगीत संग्रह‘धूप भर कर मुट्ठियों में ‘ निहितार्थ प्रकाशन साहिबाबाद’ से प्रकाशित हुआ है। कविताओं की पुस्तकों के प्रकाशन के मामले में यह संकट भरा दौर है,क्योंकि पुस्तक प्रकाशन एक व्यवसाय है। और प्रकाशक एक व्यापारी होता है, जो लाभ का अनुमान लगा कर ही लागत लगाता है। परिणाम यह हुआ है कि प्रकाशकों ने कविता की पुस्तकों का प्रकाशन बहुत सीमित कर दिया है।
वे, कविता की वे ही, पुस्तकें छापते हैं जिनका कवि ऐसे पद पर होता है, जिसके प्रभाव से वह सरकारी
पुस्तकालयों के लिए खरीद करवा लेता है या अपनी कमाई से धन लगा कर स्वयं ही पुस्तकें खरीद लेता है और परिचितों,
रिश्तेदारों, मित्रों व कार्यालय के सहयोगियों को भेंट में दे देता है। एक और वर्ग है जो किसी भी सही गलत तरीके से सरकारी पुरस्कार की जुगाड़ जमा लेता है। जिसके प्रभाव में प्रकाशक सरकारी खरीद की सूची में उपयुक्त कमीशन व भेंट देकर के खरीद करवा देता है। पुरस्कारों की सूची में शामिल कराने के लिए प्रकाशक राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भूरि-भूरि प्रशंसा वाली समीक्षा लिखवाता, छपवाता है जिसमें कवि भी अपने सम्बन्धों का स्तेमाल करता है। इस सब में कविता साहित्य का बड़ा नुकसान तो हो ही रहा है, उसके मूल्यांकन की विकृत कसौटियां भी जनमानस में कविता के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा कर रही हैं। दुष्यंत ने जिसे ओढने बिछाने वाली वस्तु के रूप में बताया है वह चन्द सक्षम लोगों के ड्राइंग रूम में सजी मंहगी आर्ट की तरह कौतुक से देखने की वस्तु बन गयी है। कविता की दुनिया में कवि की सम्वेदनशीलता और शिल्प के कौशल की जगह उसके बिक्रय प्रबन्धन ने ले ली है, क्योंकि उसकी सम्प्रेषणीयता की उपेक्षा की गयी है।
लोग मजाक में यह भी कहने लगे थे कि एक कागज पर कुछ भी गद्य लिख लो और फिर उस कागज को ऊपर से खड़े में दो टुकड़ों में फाड़ लो जिससे दो कविताएं तैयार हो जायेंगी, बस इतना ध्यान रहे कि उनका कोई अर्थ न निकल रहा हो।
जब कविता पुस्तकाकार रूप में नहीं आयी थी तब वह वाचिक थी और उसे स्मृति में बनाये रखने के लिए उसे गेय बनाया जाने लगा जिससे उसका प्रसारण सरल सहज बना। छन्द और लय के साथ अलंकार और जन जीवन से जुड़ी उपमाएं, कथाएं, व जनहितैषी उपदेश उससे जुड़ते गये। एक बार कविता का जीवन में महत्व बताते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि अगर मुझे कविता के बिना जीने की स्थिति आये तो मैं मर जाना ज्यादा पसन्द करूंगा।
कविता की अनेक विधाओं के बीच लय छन्द ताल वाली कविता के सन्देशों ने जनजीवन में अधिक गहराई से प्रवेश किया है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो गीत कविता लम्बे समय तक आमजन की समझ, शिक्षा और अभिव्यक्ति का हिस्सा बनी रही। किंतु यही कविता जब सेठों की तोदों को गुदगुदाने का साधन बन कर मसखरों के हाथों में आ गयी या कुछ कवि अपनी कामुकता को श्रंगार कह कर गाने लगे तो गीत विधा ही नहीं कविता की वाचिक परम्परा को भी ठेस लगी। कविता के दो गुट बन गये और एक दूसरे गुट की खराब कविताओं के उदाहरण देकर विधाओं को खराब बताया जा ने लगा।
सरकारी संस्थानों की मद से छन्द मुक्त कविता को कविता की मुख्यधारा में स्थापित कर के शेष को हाशिए पर धकेल देने से कविता आम लोगों से से दूर होती चली गयी। यह खतरनाक घटना थी।
गीत विधा में निहित संगीत ने उसे किसी तरह जीवित बनाये रखा। सामाजिक बदलाव के साथ साथ कथ्यों और संवाद में बदलाव आया तो पुराने मुहावरे और प्रतीक कमजोर पड़ने लगे तो गीत विधा में जो कविताऎं नये समाज को सम्वेदित करने लगीं उन्हें नवगीत के नाम से पहचाना गया।
नचिकेता इसे समकालीन गीत कहना ज्यादा पसन्द करते हैं। समकालीन गीतों में निजी सुख दुख भी सार्वजनिक सुख दुख के प्रतीक की तरह आते हैं।
मनोज के इस संकलन में ब्लर्फ में माहेश्वर तिवारी ने सही कहा है कि वे पास पड़ोस की जिजीविषा, संकल्प और संघर्ष के कवि हैं। वे सिद्धि के नहीं सधना के कवि हैं क्योंकि सिद्धि में ठहराव है और साधना में गतिशीलता है। इस संकलन में भूमिका के बहाने पंकज परिमल ने गीत के शिल्प पर बहुत विचारणीय बात कही है, भले ही उनके लम्बे लेख की भाषा क्लिष्ठ और संस्कृतनिष्ठ है। कुल मिला कर यह पुस्तक केवल गीत संग्रह भर नहीं है अपितु उस विधा पर विस्तार से संवाद करने वाली पुस्तक है।
संकलन की लगभग 80 गीत रचनाएं लम्बे काल खण्ड् में रची गयी हैं जिन्हें किसी एक रंग, एक दौर से पहचाना नहीं जा सकता। इसका प्रारम्भ वीणापाणि की वन्दना से प्रारम्भ होता है और आगे वे देश को धोखा देने वाले राजनेताओं की करतूतों तक पर निम्नांकित शीर्षक वाले गीतों में टिप्पणी करते हैं-
1. क्या सोचा था [पृष्ठ 71]
2. बोल कबीरा बोल [पृष्ठ 75] ‘शंख फूंक दे परिवर्तन का धरती जाये डोल ‘
3. कुर्सी का आराधक नेता [पृष्ठ 78]
4. एक किला और [पृष्ठ 93 ] ‘रणभेरी बजी खूब देख कर सुभीता/ कुटिल चाल चली युद्ध राजा ने जीता ‘
5. मांगे चलो अंगूठा [पृष्ठ 101]
6. सरकार [पृष्ठ 105] ‘ वक्त है चल उठ, इन्हें ललकार ‘
7. राजा जी [पृष्ठ 102] ‘ भेड़ सरीखा हमें न हांको राजा जी
8. हालत के मारे हुए हैं लोग [पृष्ठ 100]
9. राजनीति की उठापट्क में [पृष्ठ 76
10. राम भरोसे [पृष्ठ 74]]
11. गीत अच्छे दिन के [पृष्ठ 61]
12. हम बहुत कायल हुए हैं [पृष्ठ 38]
13. कैसा है यह देश [पृष्ठ 77] में सवाल उठाते हैं कि
खुली आँख में मिर्ची बुरके
समझें हमें अनाड़ी
मरणासन्न देश की हालत
फिर भी चलती गाड़ी
अब भी माला पहिन रहे हैं
शर्म नहीं है शेष
कैसा है यह देश?
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साहित्य की दिशा और दिशा सहित उसके मूल्यांकन में नजर आ रही कमियों भी उनके गीत के विषय बने हैं-
• हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के [पृष्ठ 39]
• फैसला छोड़िए न्याय के हाथ में [पृष्ठ 40]
• छन्दों का ककहरा [पृष्ठ 41]
• करना होगा सृजन बन्धुवर [पृष्ठ 42
• यह पथ मेरा [पृष्ठ 47]
• नकली कवि कविता पढ कर [पृष्ठ 48]
• लिखें लेख ऐसे [पृष्ठ 52]
• साध कहाँ पाता हर कोई [पृष्ठ 53]
• गीत अच्छे दिन के [पृष्ठ 61]
• आलोचक बोल [पृष्ठ 62]
इत्यादि
इस संकलन में कुछ गीत मौसम के हैं, कुछ प्रेम के और कई गीत सामाजिक सम्बन्धों में आ रहे बदलावों के हैं। कुछ गीत आध्यात्मिक अनुभवों के हैं जिनमें से उनके निजी अनुभव के भी कुछ होंगे और कुछ में दूसरों के अनुभवों को गीत का रूप दिया गया होगा।
गीत गेय होता है इसलिए गीतों को पढने और सुनने में अंतर आ जाता है। जिन गीतों को सुनने के बाद पढा जाता है उनकी अनुभूति कुछ भिन्न होती है। संकलन में पढना ऐसा होता है जैसा थाली भर मिठाई खायी जा रही हो। इसलिए गीतों की पुस्तक को धीरे धीरे और बार बार पढा जाना चाहिए। किसी ने सही कहा है कि-
बड़ी मुश्किल है दरवेशो, भला कैसे बयाँ होगी
कहानी उम्र भर की है ओ मजमां रात भर का है
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वीरेन्द्र जैन
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