शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

कविता की सहज सम्प्रेषणीयता और उत्कृष्टता के कवि : शिवकुमार अर्चन प्रस्तुति : मनोज जैन


आलेख
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कविता की सहज सम्प्रेषणीयता और उत्कृष्टता के कवि : शिवकुमार अर्चन

मनोज जैन 

                                      सम्प्रेषणीय कविता और प्रभावी प्रस्तुति की दमपर, पिछले पाँच दशकों से कवि सम्मेलनों की निरंतरता के चलते, कविवर शिवकुमार अर्चन जी की मूल पहचान को भले ही, कवि सम्मेलनों से जोड़कर देखा जाता रहा हो, पर वास्तव में शिवकुमार अर्चन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व में कहीं भी सम्मेलनी छवि के दर्शन नहीं होते। जब हिंदी काव्यमंच और स्वयं अर्चन जी दोनों अपने चरम पर थे, तब भी अर्चन जी ने काव्य मंचों से प्रेम के नाम पर एक भी मांसल गीत ना तो लिखा और ना ही श्रोताओं को परोसा। ओज के मामले में उनकी कविता में सम्यक प्रतिरोध तो था,पर चीत्कार सिरे से नदारद थी। बीएसएनल में सेवा के दौरान उनका अधिकांश समय रीवा मध्य प्रदेश में ही व्यतीत हुआ। यद्धपि वह अपनी चर्चित गज़ल के एक शे'र में कहते जरूर यही हैं कि, 
 "आबोदाना न आशियाना है। 
हम फकीरों का क्या ठिकाना है।"
               सेवा निवृत्ति के कुछ वर्षों पहले ही उन्होंने 10, प्रियदर्शनी ऋषिवैली, ई-8 गुलमोहर एक्सटेंशन, प्रदेश की राजधानी भोपाल में अपना आशियाना बना लिया था। और यहीं से आबो-दाना की तलाश करते-करते अनन्त की यात्रा पर चल दिए।
  समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य के सजग और संवेदनशील शब्दशिल्पी, शिवकुमार अर्चन जी के परम साहित्यिक अभिन्न मित्र मयंक श्रीवास्तव जी, अर्चन जी को,याद करते हुए भाव विवह्ल हो उठते हैं, दरअसल, दोनों के मध्य परस्पर साप्ताहिक संवाद का जो सेतु वर्षों से निर्मित था, उसे क्रूरकाल ने ध्वस्त कर दिया है। शायद नियति को यही मंजूर था। राजधानी के लिए अर्चन जी नए थे। और मयंक श्रीवास्तव जी यहाँ के साहित्यिक वातावरण से चिरपरिचित। अतः अर्चन जी को "छन्द"और "अन्तरा" जैसी छंदधर्मी साहित्यिक संस्थाओं से जोड़ने का काम मयंक श्रीवास्तव जी ने ही किया था। अब ना तो छन्द संस्था रही और ना ही अन्तरा। 
                    तदुपरान्त अर्चन जी ने अपनी रचनाधर्मिता और बहुआयामी दृष्टिकोण व समकालीन सोच के चलते सबको मित्र बना लिया। उनका उठना-बैठना ऐसे लोगों के बीच रहा जिन्हें हम हिंदी साहित्य का थिंक-टैंक कह सकते हैं। मसलन, आलोचक कमला प्रसाद, धनञ्जय वर्मा,कैलाश चन्द्र पन्त, विजयबहादुर सिंह, साहित्यकार रमाकान्त श्रीवास्तव, सुबोध श्रीवास्तव, पूर्णचंद रथ, रामप्रकाश त्रिपाठी, महेन्द्र गगन, राजेन्द्र शर्मा, राजेश जोशी, वीरेन्द्र जैन, महेश अग्रवाल सहित जलेस और प्रलेस जैसे संगठनों से सम्बद्ध वे सभी साहित्यकार जो बुद्धिजीवी वर्ग में काउन्ट किये जाते हैं। अर्चन जी की मित्रता सूची में देखे जा सकते थे। 
                 कुल मिलाकर अर्चन जी पक्के यार-बाज़ थे। उनकी आवाजाही दो विपरीत वैचारिक ध्रुवों, दक्षिण और वाम में, समान रूप से ससम्मान अंत तक बनी रही। इस मामले में शिवकुमार अर्चन जी प्रोफेसर अक्षयकुमार जैन के बाद दूसरे ऐसे अजातशत्रु थे, जिन्हें यह महारत हाशिल थी। शिवकुमार अर्चन जी का यह व्यवहारिक सम्यक सन्तुलन अनुकरणीय होने के साथ-साथ उन्हीं के अन्य साथियों के लिए आज भी स्पृहणीय है। 
                   अर्चन जी ने अपनी जड़ें और धाक पूरे देश में जमा रखी थी। इलाहाबाद की चर्चा में, वह अक्सर उमाकान्त मालवीय जी को याद करते, तो कभी यश मालवीय जी का जिक्र! माहेश्वर तिवारी जी उनके प्रिय कवियों में से एक थे। मुकुटबिहारी सरोज उनके आदर्श गीतकार रहे हैं और दोनों परस्पर एक दूसरे के प्रसंशक भी। 
         अर्चन जी के गीतों पर दृष्टिपात करें तो नईम, रमेश रंजक, शलभ श्रीराम सिंह जैसे दिग्गज कवियों की वैचारिकी का प्रभाव और उनकी गज़लों में अदम गौंडवी और दुष्यंत का, कहीं न कहीं सीधा प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मित्र मण्डली अर्चन जी की बड़ी कमजोरी थी। मित्रों से, यदि संवाद ना हो तो अर्चन जी की उदासी और ऊब गीतों में फुट पड़ती थी। उनके ना रहने के बाद हाल ही में उनका एक सद्य प्रकाशित गीतसंग्रह " साधौ दरस परस सब छूटे" सन 2022 में आया। जिसमें कविवर शिवकुमार अर्चन जी नें अपने आत्मीय मित्रों और परिजनों से संवाद नहीं होने पर मनः स्थिति पर पड़ने वाले सीधे प्रभाव की मार्मिक छवियों के चित्र अंकित किये हैं। द्रष्टव्य है उनका एक नवगीत-
                "मुँह बाए उंगली चटकाते/बीत गया एक और दिन/ आँखों से छटे नहीं, स्वप्न के कुहासे/ सांसों में धुले नहीं, धूप के बताशे/ भीतर ही भीतर धुँधवाते/ बीत गया एक और दिन/ मित्रों का परिजन का फोन नहीं आया/ कमरे में डटा रहा, चुप्पी का साया/ खुद अपने ऊपर झुंझलाते/ बीत गया एक और दिन/ शायद यह कठिन समय/ किसी तरह बहले/ खींसे में प्यास लिए, सड़कों पर टहले/ इधर उधर आँखें मटकाते/ बीत गया एक और दिन।"
    अर्चन जी की रचना प्रक्रिया में, वस्तु-व्यापार की सघनता, आम आदमी की पीड़ा, जनमानस के संघर्ष, और जद्दोजहद सब कुछ है। उनके यहाँ तरल संवेदना का संसार, अनूठी कल्पनाशीलता, रचनात्मक तल्लीनता, के साथ चीजों के देखने के परखने के अनेक कोण हैं; जिन्हें उनकी गीतनुमा और ग़ज़लनुमा कविताओं में देखा और परखा जा सकता है। अर्चन जी गीत रचने और गज़ल कहने के मामले में कभी भी विशुद्धतादी नहीं रहे। यदि, विशुद्धतावादी रहे होते तो आज अर्चन जी ने,अपने पीछे जो रचनात्मक बौद्धिक सम्पदा हमें सौंपी है, वह नहीं दे पाते। मूल्यांकन के विविध आयाम देखने में आते है उरूज या सनातनी छन्दों के जानकार या मास्टर कवि रचनाओं का मूल्यांकन करते समय छन्दशास्त्र का फीता लेकर कमियाँ ढूँढनें के चक्कर में, कथ्य के निर्मल आनन्द में चाहकर भी नहीं डूब पाते। 
                            अर्चन जी यह भलीभाँति जानते थे कि, उनकी गीति और गज़ल रचानाएँ शास्त्रीय पैमाने के निकष पर खरी नहीं है। यही कारण था की वह रचना पाठ से पहले ही अपनी रचनाओं को "गीतनुमा" या "ग़ज़लनुमा कह देते थे, दरअसल गीतनुमा और ग़ज़लनुमा का तकियाकलाम अर्चन जी का हरवर्ग के श्रोताओं
(विशेषकर जो गीत और गजल को मात्राओं के निकष पर कसते हैं।) के ध्यान को अपनी ओर खींचने का एक किस्म का सम्मोहन था। 
                यद्धपि समकालीन कवियों के दृष्टिकोण में इस तरह की जड़ताएँ वैसे नहीं के बराबर हैं। अर्चन जी अपनी रचना प्रक्रिया के आस्वाद का पता "उत्तर की तलाश में" के पुरोवाक में लिखते हैं कि, कोई भी कविता ऐसे नहीं बनती, उसके पीछे जिन्दगी के संघर्ष होते हैं, उसके पीछे एक दर्शन होता है। 
    एक विचार प्रणाली होती है, जीवन के ताप होते हैं, सुलगते हुए अहसास होते हैं । कथन को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं  कि, "पाखण्ड, विसंगति, असत्य, अन्याय और व्याप्त अंधेरे के खिलाफ जंग में ग़ज़ल ने मेरी रहनुमाई की।" ग़ज़ल मेरे लिए आम आदमी तक पहुँचने का जरिया रही है। इन गजलों में पिरोये अहसास मेरे अपने हैं और उनकी आँच भी। सन्दर्भ : ग़ज़ल क्या कहे कोई से उद्धरत एक अंश दूसरा एक और बड़ा स्टेटमेंट जो उन्होंने कुछ बातें' उत्तर की तलाश' के पुरोवाक़ में दिया जो बेहद महत्वपूर्ण है। यद्धपि इस आशय के संकेत अर्चन जी से पहले के कवियों ने भी दिए  हैं। मेरे मतानुसार इस कथन को हर रचनाकार को वेद की ऋचाओं की तरह कंठस्थ कर लेना चाहिए। 
         अर्चन जी कहते है कि, "मैं समय से बड़ा न्यायाधीश और लोक से बड़ा आलोचक न किसी को मानता हूँ, न जानता हूँ।"अर्चन जी के नये संकलन "सौधो दरस परस सब छूटे" की भूमिका के एक अंश में प्रख्यात आलोचक डॉ.धनञ्जय वर्मा उनकी भाषा की सादगी पर प्रकाश डाला है। और उनकी कविताओं की सादगी और संजीदगी की प्रशंशा की है । हम-आप अपनी रोजमर्रा जिन्दगी में जैसे बोलते लिखते हैं उसी सादा जवान में ये लिखी कही गईं हैं। 
    यह सादगी लेकिन 'सरल' या 'आसान' नही है,यह अकृत्रिम है, दरअसल यह सहजता का नतीजा है। अनुभव और अनुभूति जितनी तुर्श ओ तल्ख होगी अभिव्यक्ति -उतनी ही सहज होगी।"
      इस कथन को यहाँ कोट करने का आशय यहाँ सिर्फ इतना ही है कि, एक बड़ा कवि चिंतन के धरातल पर भले ही शास्त्रीय रहे ; पर अभिव्यक्ति के मामले में उसे, अत्यंत सजग जिम्मेदार और सरल होना चाहिए। 
       यहाँ हम बात करते हैं, "साधो दरस परस कब छूटे " के एक  गीत की , जिसे चिंतन के धरातल पर अर्चन जी ने  रचा है। गीत में प्रयुक्त 'अनहद' शब्द पाठक या श्रोता का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचता है। गीत में ध्यान की सर्वोत्कृष्ठ भाव दशा उच्चतम भाव व्याप्त है। और इस भावदशा में गहरे पैठ कर ही एक निर्विकार साधक स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कर सकता है। पूरे गीत में कवि ने ध्यान की सिद्धावस्था में उतरकर 'सोहम' की आराधना और 'शिवत्व' की मंगल अर्चना की है। जो सामान्य साधक के यहाँ दुर्लभ है।
      द्रष्टव्य है कवि का लिखा एक पूरा गीत-
"अनहद के मतलब समझाता है/ ये गीत नहीं मेरा, आवाज़ नहीं मेरी/ ये शब्द नहीं मेरे, ये कहन नहीं मेरी/ जाने उनसे कैसा नाता है/ मेरे भीतर कोई गाता है/ ये कैसी रुनझुन है मैं रीझ रीझ जाता हूँ/ ये कैसा सावन है मैं भीग भीग जाता हूँ/जब आता बे आहट आता है। मेरे भीतर कोई गाता है/ मिल जाए मुझको आँखों में उसे भर लूँ/गुलमोहर बनूँगा मैं आ तुझे जरा छू लूँ/ सरफूँदें मेरी सुलझाला है/ मेरे भीतर कोई गाता है।"
              जिस साधक को अनहद नाद सुनाई देने लगे, जो बिना किसी को गुरू स्वीकार किये, साधना की सिद्धावस्था को वरण करने की मंगलकामना करता है। ऐसा साधक यदि अपने सिक्स-सेंस से अपना भविष्य दर्शन कर ले, तो इसमें क्या आश्चर्य!
        साधो दरस परस सब छूटे शीर्षक गीत में कवि ने अपने सारे जीवनानुभवों और मृत्युबोध को एक छोटे से गीत में सम्पूर्ण आख्यायित करने की कोशिश की है। दृष्टव्य है उनका एक गीत -
                               "साधो दरस परस सब छूटे/ सूख गई पन्नों की स्याही/ संवादों के रस छूटे/ साधो!दरस परस सब छूटे/ मृत अतीत की नई व्याख्या/ पढ़ना सुनना है/ शेष विकल्प नहीं अब कोई/ फिर भी चुनना है/ रातें और संध्याएँ छूटीं/ अब कुनकुने दिवस छूटे/ साधो! दरस परस
सब छूटे/ नहीं निरापद हैं यात्राएँ/ उठते नहीं कदम/ रोज-रोज सपनों का मरना/ देख रहे हैं हम/ हाथों से उड़ गए कबूतर/ कौन बताए कस छूटे/ साधो!दरस परस सब छूटे/ आदमकद हो गए आइने/ चेहरे बौने हैं/ नोन राई,अक्षत,सिंदूर के/ जादू टोने हैं/ लहलहाई अपयश की फसलें/जनम-जनम के यश छूटे/ साधो! दरस परस सब छूटे/
         दार्शनिक अनुभूतियों की सहज और सरल अभिव्यक्ति ही कविकर्म को कालजयी बनाती हैं। अर्चन जी ने आत्मकथ्य के आलोक में जो छोटे-छोटे स्टेटमेंट हैं। वह फ़लक में थोड़े नहीं बहुत बड़े हैं। अर्चन जी सिर्फ शारीरिक कद-काठी से ही बड़े नहीं, बल्कि वैचारिक दृष्टिकोण से भी बड़े कवि थे।
    अर्चन जी की मूल पहचान उक्त संदर्भित गीतों से हो ऐसा नहीं है। बल्कि, उन्हें साहित्य जगत में उनके चिंतन से जाना गया, गीतों में प्रतिरोध उनकी पहचान थी। क्लास हो या मास, अर्चन जी दोनों स्थलों पर अपनी प्रभावशाली प्रस्तुतियाँ देते रहे। मंचीय प्रस्तुति की उनकी एक पसंदीदा रचना रही है। अपने इस कथन के आलोक में प्रस्तुत हैं रचना के कुछ अंश देखें- 
              "ऐसी हवा चली मत पूछो/ चन्दन वन अंगार हो गए/ नन्हें मुन्हें सपन हमारे/ तलवारों की धार हो गए/ क्या गाऊं ऐसे में जब सब दर्द उगाते हैं/ मेरे गीत अधर तक आने में शरमाते हैं।" जीवन होम हो गया सारा/ ऐसी जली पेट की ज्वाला/ सूरज लाने वालों ने ही/ तम से समझौता कर डाला/ क्या गाऊं जब कुएं स्वयं पानी पी जाते जाते हैं/ मेरे गीत अधर तक आने में शरमाते हैं।"
                अर्चन के कुशल चितेरे ने नैसर्गिक प्राकृतिक छटा के शब्दचित्र भी अपने गीतों में जी उकेरे हैं। लोकरंग में रँगा उनका मन उनसे अद्भुद गीत रचवाता रहा। वह कभी प्रकृति की मनोहारी छटा के शब्द चित्र बनाते, तो कभी जनमानस की पीड़ा के शब्द चित्र उकेरते। वह खुद तो कम पर गीतों में ज्यादा बोलते थे। चुप्पी उन्हें पीड़ा देती थी। देखें एक गीत का अंश
    "थके थके संध्या के पाँव रे/ आजा माझी अपने गांव रे/ फैला पर लौट घर पंछी-ले ले कर चोंच पर उजाले/ मेरे घर आँगन पर बैठा/ सूनापन गलबहियाँ डाले/ मूक हुई नयनों की नाव रे।" 
1. ग़ज़ल क्या कहे कोई (2007)
2. उत्तर की तलाश (2013)
3.ऐसा भी होता है (2017)
4.सौधो दरस परस सब छूटे (2022)
           कुल जमा चार पुस्तकों में छपा उनका रचना संसार किसी भी पाठक को भी अपनी तरफ मोहने के लिए पर्याप्त है। इससे इतर कुछ बातें अर्चन जी के व्यक्तित्व में और जुड़ती हैं। अर्चन जी बेहद पढ़ाकू किस्म के इंसान थे। वह अपने मित्रों को डूबकर पढ़ते, सुनते और उनपर लिखते थे। साथ ही उनका लगाव सिर्फ गीत या गज़ल तक सीमित नहीं था। साहित्य की सभी विधाओं में उनकी आवाजाही रही है। वे अपने समय के बहुत अच्छे समालोचक और समीक्षक भी रहे हैं। कथा, उपन्यास या फिर नई कविता पर विमर्श, आयोजन में अर्चन जी की उपस्थिति सभी जगह होती थी।
    भोपाल के चर्चित सात गीतकारों सर्व श्री हुकुमपाल सिंह विकल, जंगबहादुर श्रीवास्तव बंधु, दिवाकर वर्मा, मयंक श्रीवास्तव, शिवकुमार अर्चन, दिनेश प्रभात, और मनोज जैन के दस - दस गीतों को एकत्रित कर अर्चन जी ने अपने सम्पादन में एक दस्तावेजी काम भी किया, जो सन 2012, में पहले पहल प्रकाशन, भोपाल से "सप्तराग" गीत संकलन के रूप में छपकर आया,और अच्छा खासा चर्चा के केंद्र में रहा।
                      यों तो अर्चन जी को शहर की साहित्यिक गोष्ठियों में खूब सुना पर 1,जून 2017 को कवि मैथिलीशरण गुप्त की पुण्यतिथि के एक विशेष आयोजन में दतिया, के चर्चित कवि एवं संयोजक अग्रज शैलेन्द्र बुधौलिया जी के
आमन्त्रण पर अर्चन जी को बड़े काव्य मंच पर देर रात तक डूबकर सुनने का अवसर मिला था। उस कार्यक्रम मेरी उपस्थिति एक आमन्त्रित कवि के रूप में थी। 
           उसका परिणाम यह हुआ कि मैं अर्चन जी के व्यक्तित और कृतित्व से पूरी तरह जुड़ सका उन्हें पूरी तरह समझने का काम शैलेन्द्र शैली की एक पत्रिका राग भोपाली ने किया जिसने अर्चन जी पर एक  विशेषांक केन्द्रित किया था।
         अर्चन जी की स्मृतियों से गुजरते हुए सादर उन्हीं की ग़ज़ल के चंद शेर यहाँ रखकर अपनी बात को विराम देता हूँ। किसी ने ठीक ही कहा है। जाने वाला अपने निशान छोड़ जाता है। आज अर्चन जी नहीं हैं। हाँ, उनकी स्मृतियाँ हमारे साथ हैं।
      "बस्तियाँ रह जाएंगी, न हस्तियाँ रह जाएंगी/इन दरख्तों पर हरी कुछ पत्तियाँ रह जाएंगी/तुम भले न याद रक्खो मेरी गज़लें मेरे गीत/पर मेरी आवाज की परछाइयाँ रह जाएंगी/"
       शिवकुमार अर्चन जी के यहाँ, लोक कंठ की मिठास थी। उनकी गायकी का अंदाज अनूठा था। उनकी जादुई आवाज हर किसी को मंत्र मुग्ध कर लेती थी। इसी लिए वे मंचों पर विशेष तौर पर सराहे जाते थे। आज भी उनके द्वारा गोष्ठियों में अनूठे अंदाज़ में प्रस्तुत किए गए गीत अवचेतन में जस के तस हैं। दूर से आता हुआ स्वर हिरण की तरह मन को अपनी ओर खींचता है। ऐसे लगता है जैसे अर्चन जी गा रहे हैं ...

मनोज जैन 'मधुर'
नवगीत पर एकाग्र समूह वागर्थ के 
संस्थापक एवं सम्पादक
106, विट्ठलनगर, 
गुफामन्दिर रोड,
भोपाल.
462030
मोबाइल 930137806

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

डॉ.इसाक अश्क के नवगीत प्रस्तुति संवेदनात्मक आलोक से साभार



 'आलोक संचालन समिति' की प्रस्तुति-
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               【अंक-109】
        || विशेषांक पर एक दृष्टि ||
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विरासत से-
|| सच कहने की अनूठी सामर्थ्य के नवगीत ||             ----------------------------------------

   ईश्वर दयाल गोस्वामी

         इस अंक में हम तराना, जिला-उज्जैन [मध्यप्रदेश] में जन्में मानवीय अस्मिता की अभिरक्षात्मक अभिव्यक्ति के बेजोड़ नवगीत कवि स्मृति-शेष डॉ.इसाक 'अश्क' की पटल को प्राप्त चार नवगीत कृतियों से चयनित 10 नवगीतों पर चर्चा कर रहे हैं। सीधे-सादे अनुभव संसार को सत्य की कसौटी पर कसकर नये रूपाकार की अभिव्यक्ति देना सरल कार्य नहीं है, किन्तु डॉ.इसाक 'अश्क' के नवगीत ऐसा ही कुछ कर रहे हैं, उनकी अन्तर्भूत चेतना अपनी बात को प्रभावी ढंग से अपने गीतों में 'नव' उपसर्ग लगा रही है। डॉ.इसाक अश्क के नवगीतों में किसी भी तरह का सम्मोहन,अवैज्ञानिक मोह एवं अनावश्यक बड़बोलापन हावी नहीं है। इनके नवगीतों में सरलता इतनी है कि जो काव्य के जानकर भी नहीं हैं उनके हृदय तक भी ये नवगीत अपनी पैठ बना रहे हैं।

         डॉ.इसाक 'अश्क' के नवगीतों में भावों की प्रधानता भी है और विचारों का समन्वय भी है। देश काल की चिन्ता भी है और एक स्वस्थ चिन्तन भी है। जहाँ भावातिरेक मिलता है वहाँ कर्मशीलता भी है। कहने का आशय यह कि कवि के पास अपनी मौलिक दृष्टि है जो तार्किक एवं विज्ञान-सम्मत है। ये नवगीत व्यक्ति के जीवन संघर्षों की झांँकी प्रस्तुत करते हुए मानवीय मूल्यों की यात्रा भी साथ-साथ करते हुए चलते हैं। इशाक 'अश्क' के नवगीत केवल काव्य के उत्तरदायित्व बोधक भर नहीं हैं बल्कि संघर्षों में भी जीवन को उल्लसित कर जीने की नई राह के साथ संबल प्रदान करते हैं। ये नवगीत आज के जीवन की छटपटाहट को नये संवेगों, रंगों से सजाकर समय-सापेक्षता की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को कालजयी अभिव्यक्ति देते हैं। ये सच कहने की अनूठी सामर्थ्य के नवगीत हैं जिनमें माधुरी भी है और ग्राह्यता भी। वर्ना आजकल सच ग्राह्य कहाँ रह गया है ! यहाँ कवि ने सच कहने का जोखिम भी उठाया और उसे ग्राह्य भी बनाया है। कवि का यह जोखिम भी एक तरह से नयापन ही है क्योंकि कवि अनावश्यक व्यंजनात्मक लीपापोती से नवगीतों को बचाते हुए बड़ी कुशलतापूर्वक सच्चाई के झाड़ू से अपना आँगन बुहारने में सिद्धहस्त है।

          मुझे पूरा विश्वास है कि हिन्दी नवगीत का विशाल प्रबुद्ध पाठक वर्ग एवं नवगीत समीक्षकगण इन नवगीतों को संज्ञान में लेते हुए अपना स्नेह प्रदान करेंगे। मैं पटल संचालक दादा रामकिशोर दाहिया जी एवं आलोक संचालन समिति के सभी सम्मान्य सदस्यों का सहयोग हेतु आभार व्यक्त करते हुए स्मृति-शेष डॉ. इसाक 'अश्क' के ही नवगीत की पंक्तियों से उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हूंँ। "आ गईं/नदियाँ घरों तक/खून की/मुँह चिढ़ाती भूख-बच्चों की तरह/हो रही जिस पर/जमाने की जिरह/मुश्किल/जुटाना रोटियाँ/दो-जून की/न्याय खुद/अन्याय-ढोने के लिए/अभिशप्त हैं/दिन-रात/रोने के लिए/हाँकते हैं सब यहाँ/बस दून की।"
               •••

सम्पर्क सूत्र : मुकाम- छिरारी, [रहली],
जिला- सागर- 470 227 [मध्यप्रदेश]
   मोबाइल : +91 84638 84927
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[19/02, 07:30] Ram Kishore Dahiya: || संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कविता में नाम : डॉ.इसाक 'अश्क़'
मूल नाम - इसाक मोहम्मद ।
पिता - ज़नाब मुख़्त्यार मोहम्मद ।
जन्मतिथि - 01 जनवरी, 1945 ई०।
जन्म स्थान - तराना, जिला-उज्जैन, मध्यप्रदेश। 

शिक्षा - एम.ए हिन्दी, एवं एम.ए.[इतिहास], पी.एच-डी.[अमृत राय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व]
देहावसान : 28 फरवरी, 2016 ई०।

प्रकाशन एवं प्रसारण : देश की समग्र प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएंँ प्रकाशित एवं छः नवगीत संकलन भी। दूरदर्शन इन्दौर, भोपाल, अहमदाबाद, दिल्ली, लखनऊ से रचनाएंँ प्रसारित।

प्रकाशित कृतियाँ - [1] 'सूने पड़े सिवान' [गीत संग्रह] 1983, [2] 'फिर गुलाब चटके' [नवगीत संग्रह] 1996, [3] 'काश! हम भी पेड़ होते' [नवगीत संग्रह] 1997 ई०। [4] 'सुलगती पीर के पर्वत' [नवगीत संग्रह] 2009 ई०
संपादन - 'समांतर' [अर्द्धवार्षिकी] 18 वर्षों तक निरन्तर।

सम्मान एवं पुरस्कार : राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न सरकारी/गैर सरकारी/ साहित्यिक/सांस्कृतिक संगठनों द्वारा अनेक पुरस्कारों सम्मानों से सम्मानित।

व्यवसाय - अध्यापन, प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त उपरांत स्वतंत्र लेखन। देहावसान के चार वर्षों पूर्व तक सतत् लेखन।
                        •••

सम्पर्क सूत्र : संचालक 'संवेदनात्मक आलोक' 
निवास : गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट- जुहला, खिरहनी, कटनी- 483 501 [मध्य प्रदेश] मोबाइल : +91 97525 39896
----------------------------------------------------------- 【1】
|| बात जो सच है ||
-----------------------

भीड़ से
हटकर रहेंगे,
बात जो
सच है कहेंगे ।

तुम भले सौ सीखचों में
बन्द कर पहरा बिठाओ,
या खड़ा कर सामने-
बन्दूक-गोली से उड़ाओ,
पर न !
अनुचित को सहेंगे ।

हो चुकी जो भूल होनी थी
न अब होगी दुबारा,
लो कसम चाहे रखो
अस्तित्व यह गिरवी हमारा,
अब न !
मिट्टी-सा ढहेंगे ।

इस तरह देकर प्रलोभन
कील अधरों पर न ठोंको,
दूर शिखरों -सा गिरोगे
वक्त को रुककर न रोको,
बन लपट
उल्का दहेंगे ।
         •••

      डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【2】
|| अँधियार जिया है ||
--------------------------

मैं सूरज का प्रबल वंशधर
मेरी परम्परा उज्ज्वल है ।

मुझे बुझाने को आए दिन
आँधी जाल बुना करती है
मेरी व्यथा-कथा यह धरती
नियति रोज़ सुना करती है

मेरा गात पात्र मिट्टी का
मेरी लौ मेरी हलचल है ।

जाने कितनी बार व्योम से
कालजयी बिजुरी टूटी है
पता नहीं क्योंकर रिपुओं-सी
शरद-रात मुझसे रूठी है

मेरी अन्तर्मुखी साधना
मेरा बहुचर्चित संबल है ।

मैंने सुघर सुबह लाने का
इस सृष्टि को वचन दिया है
खुले हाथ आलोक बाँटकर
गहराता अँधियार जिया है

उत्सर्गित मेरे जीवन का
एक-एक आभामय पल है ।
              •••

           - डॉ.इसाक अश्क
--------------------------------------------------------- 【3】
|| बचाने का मोह ||
 ----------------------

दर्द को दबाकर
मुस्काने का मोह -
कहाँ खींच लाया
यह गाने का मोह ।

मंच के विधानों से
होकर अज्ञात
वाह-वाह करता हूँ
मैं सारी रात
गिरतों को गर्त से
उठाने का मोह ।

यहाँ तो सभी अपनी
श्लाघा में डूबे
जिनको सुन श्रोता
भी हैं ऊबे-ऊबे 
ऐसों को नींद से
जगाने का मोह ।

चंद घिसे गीतों-
नवगीतों की पूँजी
जिनकी-
ध्वनि शहरों से
कस्बों तक गूँजी 
वणिकों से
काव्य को
बचाने का मोह ।
          •••

             - डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【4】
|| मुँह चिढ़ाती धूप ||
-------------------------

आ गयीं
नदियाँ घरों तक
खून की ।

मुँह चिढ़ाती
भूख-
बच्चों की तरह,
हो रही
जिस पर-
जमाने की जिरह,
मुश्किल
जुटाना रोटियाँ
दो-जून की ।

न्याय खुद
अन्याय-
ढोने के लिए,
अभिशप्त हैं
दिन-रात
रोने के लिए,
हाँकते हैं
सब यहाँ
बस दून की ।
     •••

           - डॉ.इसाक अश्क
------------------------------------------------------------- 【5】
|| तनाव बहुत हैं ||
----------------------

जीवन-तो है
पर ! जीवन में
चारों ओर तनाव बहुत हैं ।

हाथों में बन्दूक
मनों में–
नफरत का लावा
जैसे जंगल-
बोल रहा हो
बस्ती पर धावा

हलचल-तो है
भीड़-भाड़ भी
पर ! पथ में टकराव बहुत हैं ।

चेहरों मढ़े
मुखौटे नकली–
अधरों की भाषा
अपनों तक
रह गई सिमटकर–
सुख की परिभाषा

बाहर दीखें
भले एक, पर !
भीतर छिपे दुराव बहुत हैं ।
           •••

               - डॉ.इसाक अश्क
----------------------------------------------------------- 【6】
|| सन्यास नहीं है ||
----------------------

एक कली
दो चार फूल का
खिल जाना मधुमास नहीं है ।
जिसको–पा
केवल तन थिरके
वह उत्सव-उल्लास नहीं है ।

कौन भला
जिसने जीवन में
कोई गलती, भूल न की हो
अपनी युवा
उमर के हाथों
कंचन काया धूल न की हो

भगवा पहन
घूमने वालो
भगवापन सन्यास नहीं है ।

किसके हाथ
यहाँ होनी–
अनहोनी की बल्गा थामे हैं
किसकी
सुघर-सुबह से
ज्यादा–
धूप धुली उजली शामें हैं

जो दुहराया
नहीं गया हो
वह नाटक-इतिहास नहीं है ।
                •••

           - डॉ.इसाक अश्क
----------------------------------------------------------【7】
|| तहज़ीब अपनी ||
-----------------------

एकदम अश्लील भद्दे
चुटकुलों पर
खिलखिलाने का नहीं है ।
यह समय–
तहज़ीब
अपनी अस्मिता को
भूल जाने का नहीं है ।

जानता हूँ जिन्दगी है
शीर्षक दुख की कथा का
आँसुओं से
भीगती साकार
पीड़ा का, व्यथा का

किन्तु फिर भी नींद में
युग को
युवाओं को
सुलाने का नहीं है ।

छन्द अधरों पर
हँसी हो तो सुहाते हैं
अन्यथा
बनकर लपट
खुद को दहाते हैं

बार-बाला की तरह
हर झूठ को
शो-केस में-
रखकर सजाने का नहीं है ।

प्यार भर मन में
बसा हो
महमहाती है
उम्र वर्ना व्यर्थ यों-ही
बीत जाती है

सिर्फ खुद को
केन्द्र में रख
रहनुमाओं की तरह
दिखने-
दिखाने का नहीं है ।
            •••

        - डॉ.इसाक अश्क
------------- 【8】
|| धंधेबाजों से ||
--------------------

एक अलग
दुनिया होती है
सीधे-सादों की ।

भीड-भाड़ से हटकर
इने गिनों में-
रहते हैं,
समय हवा के साथ
न पत्तों जैसा
बहते हैं,
भाग-दौड़
नफसा-नफसी में
अनहद नादों की ।

इन्हें नहीं कुछ
लेना-देना-
धंधेबाजों से,
राजनीति के
मूल्यहीन-बेशर्म-
तकाजों से,
तोड़-जोड़
तिकड़म विहीन
संकल्प-इरादों की ।
         •••

             - डॉ.इसाक अश्क
------------------------------------------------------------ 【9】
|| हम भी पेड़ होते ||
------------------------

काश !
हम भी पेड़ होते ।

जानते तब -
दर्द कटने का,
आग-आरी से -
लिपटने का,
पीठ पर 
फल-फूल ढोते ।

इक हरापन-
छाँह गहरी,
बाँटते हम-
भर दुपहरी,
सूखने
देते न सोते ।

आँख खुलती-
रोज गाने से,
पंछियों के
चहचहाने से,
ओस से
मुँह-हाथ धोते ।

काश !
हम भी पेड़ होते ।
         •••

           - डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【10】
|| टूट गिरूँ तो ||
-------------------

मैंने कभी नहीं
चाहा कि-
जीवन एक
ग़ज़ल बन जाए ।

मेरे इस सूने ललाट पर
कोई कुमकुम-
तिलक निकाले
संघर्षों से टूट गिरूँ तो
झुक करके
तत्काल उठा ले

मुखरित-
चहल-पहल बन जाए ।

मुझे न यह स्वीकार
मानकर दुर्बल कोई
पंथ बुहारे
अपनी बड़ी-बड़ी
आँखों से
मुड़-मुड़ कर
सौ बार निहारे

सद्य खिला
शतदल बन जाए ।

मैं जो कुछ हूँ
ठीक-ठाक हूँ
मुझे न आकर्षक
लालच दो
देना है तो सिर्फ
हार्दिक
आशीषों का
लोह-कवच दो

दुर्लभ
शीशमहल बन जाए ।
          •••

              - डॉ.इसाक अश्क

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

आलेख



नवगीत की भाषा : सांस्कृतिक-संदर्भ :
---------------------------------------------------------------

     डा.श्यामसनेहीलाल शर्मा
एम.ए. (हिंदी,संस्कृत) ; पी-एच.डी. ; डी. लिट्.

                        
गीत, गीति और नवगीत
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          गीत का अधिक विकसित समकालीन आधुनिक रूप है नवगीत। यह गीत के गर्भ से ही उद्भूत है। *गीत* काव्य की प्राचीन विधा है,भले ही काव्यशास्त्र के आचार्यों ने उस समय इसे गीत न कहकर मुक्तक काव्य के अंतर्गत स्थान दिया है। *गीति* गीत का ही समानार्थी है, पर गीत की गीति संज्ञा अपेक्षया अधिक आधुनिक है। युग की अपेक्षाओं के अनुरूप गीत ने नया रूप, नया रंग, नई सोच और नए शिल्प के साथ आधुनिक बोध और समकालीन संवेदना को अपनाकर स्वयं को नवगीत के रूप में नई पहचान दी है। प्रारंभ में नवगीत के स्वरूप और इसकी संरचना को लेकर ऊहापोह और असमंजस की स्थिति बनी रही। इसका विरोध भी हुआ। यहाँ तक कि गीत के प्रति गहरी विमोहनशीलता ने तो इसके जन्म के कुछ समय बाद ही इसके अवसान के स्वप्न देखना भी प्रारंभ कर दिया और हड़बड़ाहट में *नवगीत का उपसंहार* भी लिख डाला। सुखद आश्चर्य यह है कि इन सब मार्गरोधी स्थतियों के रहते हुए भी नवगीत ने अविचलित भाव से अपनी विकास यात्रा अनवरत रखी है। यह नवगीत की जिजीविषा का प्रमाण है। 
 
               गीत का नवगीत के रूप में अभिनवीकरण कथ्य के स्तर पर भी हुआ है और शिल्प के स्तर पर भी। पारंपरिक गीत लयखंड में लिखे जाते हैं, वहीं गीत को अर्थखंड में लिखने की नव्य शैली नवगीतकारों की देन है। द्रष्टव्य :
*बदल रही/ चिंतन की भाषा/ मूल्यों का अनुवाद* 
*अधरों से/माधुर्य छलकता/ सुरभित बोल रसीले* 
*पोर-पोर/ जिनके दुर्भावी/ अंतरंग जहरीले*
*थर-थर काँप/ रही सच्चाई/ छलनाएँ आजाद।* (1)
        उपर्युक्त गीतांश की तीन पंक्तियाँ ध्रुवपद (मुखड़े) की हैं, जो अर्थखंड में तीन और लयखंड में 16, 11 की यति के साथ 27 मात्रिक *सरसी* (कबीर) या *समुंदर* छंद का एक चरण है।
                 गीतांश की शेष पंक्तियों में *(थर-थर...आजाद)* समापिका इकाई है, वे भी अर्थखंड में तीन किंतु लयखंड में उपर्युक्त सरसी छंद का ही एक चरण है। *अधरों...जहरीले* तक अर्थखंड में छह और लयखंड में दो पंक्तियाँ हैं, जो 16, 13 के विश्राम से 28 मात्रिक प्रतिचरण *सार* या *ललित* छंद के दो चरण हैं, जिनके अंत में दो गुरु या दो लघु आते हैं।
        नवगीत ने भारतीय गीत-परंपरा को ही नहीं, समूची काव्य-परंपरा को अंगीकार कर उसे नवीन संस्कार दिया है। नवगीत ने अपने कलेवर को भारतीय मूल्य परंपरा, लोक-संस्कृति और सांस्कृतिक बोध के साथ आधुनिक युगबोध के अनुकूल ढाला है। आधुनिक बोध को वाणी देते हुए भी नवगीत ने अपनी सांस्कृतिक विरासत से संबंध-विच्छेद कभी नहीं किया, जैसा कि प्रगतिवाद में दिखाई देता है। नवगीत लोक-संस्कृति की गौरवपूर्ण गरिमा से अभिमंडित होकर और संस्कृति की समुज्ज्वल परंपरा को आत्मसात् कर काव्य मंच पर अवतरित हुआ।

*नवगीत की भाषा का वैशिष्ट्य  : तरलता-सहजता  :*

             नवगीत की भाषा सहज है। उसे सहज संप्रेषणीय बनाने के लिए नवगीतकार ने जहाँ संस्कृत की परिनिष्ठित शब्दावली का प्रयोग किया है, वहाँ अर्द्धतत्सम, तद्भव, देशज यहाँ तक कि विदेशी स्रोतों से आए शब्दों को अपनाने में भी कोई संकोच नहीं किया है, द्रष्टव्य :
*गुलदस्ते उनके हैं / टेबिलें हमारी हैं... / स्केच उनके हैं / पेंसिलें हमारी हैं*
*पुजते गोबर-गणेश/ माटी के माधो / कबिरा का कहना है / सुन भाई साधो / आयोजन उनके हैं / महफ़िलें हमारी हैं*
*आँखों में भट्टी-सी / दहकती दुपहरी।*
*पाँवों में पहने / इंसाफ़ की कचहरी।*
*पंथ सभी उनके हैं / मंजिलें हमारा हैं।*
*गूँगे सारे बयान / हैं गवाह अंधे।*
*अनसुनी अपीलों के / झुके हुए कंधे।*
*हस्ताक्षर उनके हैं / फ़ाइलें हमारी हैं।* (2)
उपर्युक्त उद्धरण सुप्रसिद्ध नवगीतकार *देवेंद्र शर्मा* की कृति *अनंतिमा* में संकलित नवगीत *गुलदस्ते उनके हैं* से है। इस नवगीत में फारसी (उर्दू) और अंग्रेजी के शब्दों का उन्मुक्त प्रयोग देखा जा सकता है। *गुलदस्ते, टेबिलें, स्केच, पेंसिलें, महफ़िलें, इंसाफ़ की कचहरी, मंज़िलें, बयान, गवाह, अपीलों, फ़ाइलें-- ये सभी शब्द विदेशी स्रोत से ही हिंदी में आए हैं* वहीं *आयोजन* (तत्सम), *भाई, मिट्टी, माधो, साधो, आँखों,भट्टी, दुपहरी, पाँवों* आदि (, अर्द्धतत्सम, तद्भव, देशज) भी हैं। इनके साथ ही लोक-प्रचलित मुहावरों *गोबर-गणेश* और *माटी के माधो* का प्रयोग भाषा को लक्षणामूलक व्यंजना से सहज ही संयुक्तकर नया और गहरा अर्थ प्रदान कर रहे हैं। वस्तुतः मुहावरे की संरचना में भाषिक इकाइयों का कोई तर्कसम्मत या व्याकरणानुमोदित संयोग नहीं होता। यही कारण है कि इनका अर्थ अभिधेय नहीं होता। वह लक्षणा या व्यंजना शक्ति से ही निकलता है। नवगीत की भाषा की यही सहजता है और यही सादगी है कि जीवन और जगत् की वास्तविकता को वह भाषा की सर्वग्राह्य शैली में व्यक्त करता है, जो प्राय: सामान्य बोलचाल में व्यवहृत होती है और सहज बोधगम्य है। वह भाषा यदि मुहावरे भी ग्रहण करती है तो उसका स्रोत भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का विस्तृत फलक और लोक-संस्कृति की सहजता होता है। लोक-संस्कृति भारतीय संस्कृति का मूलोत्स है।(3) 
सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकूल नवगीत की भाषा को तरल, सरल, सहज और संप्रेषणीय होना ही होता है। कोरा पांड़ित्य प्रदर्शन चमत्कृत तो कर सकता है, पर भाषाई मानक नहीं बन सकता। नवगीतकार *ईश्वरी प्रसाद यादव* का एक काव्यात्मक कथन द्रष्टव्य है :
*कवि ऐसा मत गीत लिखो जो / पल्ले नहीं पड़े।*
*शब्द जहाँ गूँगे-बहरे हों और / अर्थ लँगड़े।*
*सरल-तरल अभिव्यक्ति लोक में / पूजी जाती है।*
*कठिन काव्य के प्रेतों को यह / समझ न आती है।*
*क्लिष्ट बिंब के / कठिन प्रतीकों के/ छोड़ो पचड़े।* (4)


        समकालीन नवगीत की भाषा में संस्कृतनिष्ठ परिमार्जित शब्दावली के प्रयोग भी बहुत हैं। *विजय बागरी 'विजय'* के *कविता बोल रही* गीत की भाषा द्रष्टव्य है :
*शब्दहीन- / अधरों की वाणी, / कविता बोल रही।*
*गाँव-गाँव की- / चौपालों का / चिंतन बदल गया।*
*भोली-भाली / निष्ठाओं का / दरपन बदल गया।*
*हैं कितने ? / स्वच्छंद आचरण,*
*कविता तोल रही।*
*छल-छंदों की / कुटिल भूमिका*
*अपनेपन वाली / गहरे दिखते-/*
*संबंधों की /सच्चाई काली*
*कविता ने /बतलाया, कैसे / कटुता घोल रही ??* (5)

यह पूरा गीत परिनिष्ठित हिंदी में है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है। गीत का कथ्य और उद्देश्य स्पष्ट है। दमित, पीड़ित, शोषित जन, जो अन्याय, अत्याचार के समक्ष किसी अज्ञात भय, विवशता के कारण मुख नहीं खोल पाते, उनकी आवाज कविता बनती है। यहाँ कविता का मानवीकरण किया गया है-- *कविता हल्ला बोल रही* है। इस मानवीकरण से अन्याय के विरुद्ध कविता की आक्रामकता को गोचरता प्रदान की गई है। इस आक्रामकता का प्रभाव उस समय और तीव्र हो जाता है, जब वह *शब्दहीन अधरों की वाणी* बनती है।
           भाषा जब विविध सामाजिक, सांस्कृतिक दायित्वों का निर्वहन करती है, तब उन दायित्वों में एक दायित्व साहित्य *भी* है, साहित्य *ही* नहीं। साहित्य की अपनी अलग संस्कारित भाषा-पद्धति है। जब साहित्य में संभाषण के अनुरूप सहजोक्ति, लोकोक्ति अथवा स्वाभावोक्ति का प्रयोग दिखाई देता है, तब उक्त तथ्य का अनुभव आसानी से होता है। *जहाँ भाषा में सरलता या सुगमता नहीं मिलती, वहाँ भाषा की सादगी नहीं, मामूलियत पाई जाती है।*(6) इसलिए नवगीत की अभिव्यंजना शैली चाहे परिनिष्ठित हिंदी हो या उर्दू अथवा हिंदुस्तानी, उसमें अभिव्यक्तिगत सादगी, सहजता और सुगमता बनी रहनी चाहिए, क्योंकि *भाषा का एक अपना विशेष कार्य है, जो किसी भी दूसरे उपयुक्त संदर्भ पर लागू नहीं हो सकता, वह कार्य है--भाषा की प्रेषणीयता।*  (7) 
           भाषाई सहजता का एक रूप *राजकुमार महोबिया* के *बचपन के गीत* में देखा जा सकता है : 
*फटेहाल / बापू के काँधों / चढ़कर गगन छुए ।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन / उड़ते सुआ हुए।*
*बदन उघारे / बिखरे बालों / की कब किसको सुध।*
*हरदिन होली / दीवाली-सा / क्या मंगल क्या बुध।*
*ढुलढुल दलिया / चुख्ख महेरी /अपने मालपुए।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन....।*
*नयनों  में / आकाश समेटे / पाँवों मृगा भरे।*
*हुये उड़न छू / बने चिरैया, /मन की खूब करे ।*
*दास अभावों / को रक्खे नित / यद्यपि बँदरमुए।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन...।।*
*हिचकी सर्दी / खाँसी जूड़ी / या फिर चढ़े बुखार।*
*क्या ठाकुराइन / क्या पंडितजी /सारे गाँव गुहार।*
*संवेदन की / फुलबतियों सँग/ नैना खूब चुए ।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन...।।* (8)
*बचपन के दिन* वैसे तो एक सामान्य गीत है। बचपन की स्मृतिजन्य यादों को सामान्य बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्ति दी गई है। बचपन भी सपने देखता है। इन सपनों को बिंबधर्मी शब्दों में प्रकट किया गया है। *फटेहाल, बापू के काँधों पर चढ़कर गगन छूना, पंख उगाए बचपन के दिनों का उड़ते सुआ होना, उघरा बदन, बिखरे बाल,*(चाक्षुष बिंब), *ढुलढुल दलिया, चुख्ख महेरी*(स्वाद बिंब), *उड़न छू* (स्पर्श बिंब)। बिंबधर्मी शब्दों से सजे इस नवगीत को लोक-संस्कृति समर्थित लोकभाषा की सहजता और तरलता ने पारिवारिक संबंधों को एक अलग ही रागात्मक पहचान दी है।
     शब्द आज भी वही हैं, जो सदियों पहले व्यवहार में थे। नवगीतकार भी उन्हीं शब्दों को अपना रहा है, फिर उनमें नवता कैसे ? उत्तर बहुत स्पष्ट है, नए संदर्भों से। नए संदर्भ से जुड़कर पुराने शब्द ही नए अर्थ देने लगते हैं। यह नवीनता भाषीय विविधता में सन्निहित है,जो--  
1.वक्तृ-मनोवृत्ति के अनुरूप भाषीय विविधता की उत्पत्ति विचारसूचक शब्दों के चयन से लाई जाती है।
2. पद-रचना के स्तर पर यह विशिष्टता विशेष प्रकार की रचना को अपनाने से आती है। कृदंत, तद्धितांत या समस्त पदों--और समस्त पदों में के अंतर्गत तत्पुरुष, बहुब्रीहि आदि उपभेदों के चयन में यह विशिष्टता दिखाई पड़ती है।
3. शब्दावली के चयन में इस वैशिष्ट्य को पहचाना जा सकता है-- 
(अ) तत्सम, तद्भव या अन्य भाषीय शब्दवली के प्रयोग से
(आ) मूर्त या अमूर्त वस्तु बोधक शब्दों के प्रयोग से
(ई) तर्कोपयुक्त शब्दों के प्रयोग से
*अथवा*
(अ) विभिन्न संदर्भों पर आश्रित विशिष्ट पदावली के प्रयोग से
(आ) औपचारिक या अनौपचारिक स्थतियों के अनुकूल प्रयोग-भेद से।
4. शब्दों के योजन में विशेष संगति की दृष्टि से उत्पन्न विशेषता के कारण विलक्षणता उत्पन्न होती है।
5. शब्दों के इस प्रकार योजन से जिससे विचार-वैविध्य के अनुरूप दृश्य, बिंब या स्मृति स्पष्टतया प्रकट हो-- विलक्षणता उत्पन्न होती है।
6. पदबंधों के विशेष संयोजन से विलक्षणता उत्पन्न की जा सकती है।
7. वाक्यगत पदबधों के क्रम में हेर-फेर कर देने से विलक्षणता उत्पन्न होती है।
सुखद आश्चर्य यह है कि नवगीत ने भाषिक स्तर पर नवीनता के लिए सहज रूप में ये प्रयोग किए हैं। नवगीत की भाषा में चयन और विचलन के प्रयोग बढ़े हैं, जो पद-क्रम, लय-विधान, तथा अर्थ-संघटना के स्तर पर दिखाई पड़ते हैं।

सांस्कृतिक संदर्भ और नवगीत की भाषा का वैशिष्ट्य :

शील और सौंदर्य की समन्वित कलात्मक कृति है संस्कृति। मानव संस्कृति के द्वारा ही शील और सौंदर्य की उदात्तता को पाता है। जीवन का कटु यथार्थ संस्कृति का सौंदर्य नहीं है। विक्षुब्धता, निराशा, संत्रास, भ्रम और भय भारत में सांस्कृतिक मूल्य कभी नहीं रहे। जीवन और जगत् में जो कुछ भयप्रद है, घृणास्पद है, कुत्सित है, कटु है, वह संस्कृति का श्रृंगार कभी नहीं बन पाया। संस्कृति तो मानव को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और फिर श्रेष्ठतर से श्रेष्ठतम बनने की प्रेरणा देती रही है, क्योंकि जीवन में शील और सौंदर्य को अनुप्राणित करने वाले भाव ही संस्कृति का आंतरिक सौंदर्य बनते हैं। इसी भाव-सौंदर्य से अभिमंडित लोक-संस्कृति की जीवंत परंपरा संस्कृति का गोचर रूप रही है। इस लोक-संस्कृति के व्याप में कालजयी मानवीय संवेदनाएँ और शील की उत्तम प्रेरणाएँ विद्यमान हैं। इसमें प्रेम और सौंदर्य, धार्मिक आस्थाएँ, नैतिक मूल्य,अनुष्ठान, लोक विश्वास, अभिचार, व्यवहार-विज्ञान, संस्कार, रीति-रिवाज आदि का आकर्षण उपस्थित है। नवगीत लोक संस्कृति की इसी गौरवमयी गरिमा से मंडित होकर काव्य मंच पर अवतरित हुआ है। इसीलिए नवगीत की भाषा में तरल सरल ग्राम्य जीवन के गत्वर और संश्लिष्ट बिंब मिलते हैं, जिनमें संस्कार है, अपनत्व है और पवित्रता की मिठास है, द्रष्टव्य :
*हरे लहरे खेत में/ टहकारती सोनापतारी/ ले रहे बाबा हरी का नाम।*
*खींचती अम्मा पकड़कर कोर चादर की/ उठी दादी/ जगी अँगड़ाइयाँ/खनकता आँगन/ खँगरते बरतनों से।*
*लीपती चौका/ सुबह के संगीत होते काम/ पीठ पर चिपका हुआ मुन्ना चिकोटी काटता। खींचकर हँसता बुढ़ापा कान।* (9)
संयुक्त परिवार की रागात्मकता का यह संश्लिष्ट गत्वर बिंब है। आज भले ही काम की तलाश, व्यक्तिवादिता के उदय और आत्मकेंद्रित स्वार्थपरता के प्रभाव से संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल गए हैं, पर कभी गाँवों में संयुक्त परिवार प्रथा थी। संयुक्त परिवार की रागात्मकता, भावनात्मक संबंध, संस्कार, मूल्य और आस्था सबको एक साथ समेट कर पालती रही है। नवगीत की भाषा में इस सांस्कृतिक बोध की बिंबित अभिव्यक्ति प्रारंभ से ही है। नवगीतकार शहर में रहकर भी गाँव को और गाँव की संस्कृति को नहीं भुला पाया। महानगरीय संस्कृति ने उदात्त मूल्यों, महनीय सांस्कृतिक परंपराओं, पारिवारिक संबंधों में व्याप्त विश्वास की स्निग्धता, स्नेह की  कोमलता, अपनत्व की मृदुता और संस्कारों की शुचिता को भले ही पूरी तरह से ग्रस लिया है, तथापि नवगीतकारों का एक वर्ग ऐसा है, जिसकी जड़ें गाँव में हैं। उन्होंने संयुक्त परिवार के सुख को गहराई तक अनुभव किया है। इनके गीतों में लोक-संवेदित शब्दावली में लोकमन की गहरी भावप्रवणता, छोटे-छोटे शब्द पदों में अर्थ की सघनता, नए बिंब, नई छवियाँ, लोक परिवेश की जीवंतता देखने को मिलती है। ऐसे नवगीतकारों में अनूप अशेष, डा.रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', राघवेंद्र तिवारी, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अवध बिहारी श्रीवास्तव, डा. ओमप्रकाश सिंह, उमाकांत मालवीय आदि ने अनेक ऐसे गीत लिखें हैं, जिनमें पारिवार में संबंधों की रागात्मकता और संवेदनशीलता को अनुभव किया जा सकता है, द्रष्टव्य :
*माँ बाबूजी आज गाँव से/ शहर पधारे हैं।*
*ऐसा लगा कि मेरे घर में/ तीरथ सारे हैं।* 
*आज शहर की लड़की/बहू सरीखी दीख रही।*
*वट सावित्री का व्रत कैसे/ करना सीख रही।*
*मेंड़ों-खेतों की चर्चा में/सारा दिन बीता।*
*तुलसी की चौपाई जन्मी/बोल उठी गीता।*
*नेह-छोह के रिस्ते-नाते/ बाँह पसारे हैं।* (10)
महानगरीय फ्लैट संस्कृति में जीवन जीने वाले व्यक्ति के पास उनके माँ-बाबूजी के आगमन होता है। उनके आगमन पर पारिवार में जो प्रत्यक्ष परिवर्तन परिलक्षित होता है, (विशेषकर *शहर की लड़की* में जो आज *बहू सरीखी दीख रही* रही है) वह संस्कारित परिवार की मूल्यधर्मी चेतना के प्रभाव का परिचायक है। यह अंतश्चेतना का प्रकाश है, जो माता-पिता के संस्कारों का महकता फलित रूप है, जिसे देखकर वृद्ध दंपत्ति के परितोष का अनुभास तो अनिर्वचनीय ही होगा। घर में परिव्याप्त आनंदानुभूति को जिस भाषा में गोचरता प्रदान की गई है, वह संबंधों की मूल्यवत्ता, श्रद्धायुक्त पवित्रता, धार्मिक-नैतिक संस्कार, कृषि-संस्कृति से लगाव आदि को समन्वित रूप में मूर्तित कर रही है। उनके आने भर से फ्लैट, फ्लैट नहीं रहता, *घर* हो जाता है, जहाँ स्नेह है, आदर है, अपनत्व का सम्मान है। यही नहीं माँ-बाबूजी की उपस्थित मात्र से घर सारी श्रद्धा, आस्था और समग्र संस्कारित पवित्रता का केंद्र बन जाता है,*तीर्थ* हो जाता है। वह *तीर्थ* जहाँ संबंधों के उदात्त आदर्श को संस्कार देने वालीं तुलसी की चौपाइयाँ और कर्म का संदेश देने वाली गीता का पाठ गूँजता है।

*कितनी गर्माहट है/घर के बंधन में* (11) कहकर घर के बंधन में रागात्मक संवेदनाओं की गरमाहट का अनुभास कराने वाले *अनूप अशेष* के *दिन ज्यों पहाड़  के* (नवगीत संग्रह) के गीतों में लोक-संवेदना मानवीय संवेदना बनकर उभरी है। इस संग्रह के गीत सांस्कृतिक रूप से भारतीय जीवन के अंग हैं। सामान्यतः *बंधन* बाध्यकारी है, अतः कष्टकारी भी होता है, किंतु घर के *बंधन* में वह बाध्यता सुखद है। इस सुखदता का अहसास कराती है इस *बंधन की गरमाहट*। इस एक विशेषण पदबंध ने संबंधों के बंधन का अर्थ ही बदल दिया है :
*चार-चार पीढ़ी के/ चेहरे दर्पण में*
*माँ कहती---/बड़े पुण्य उतरे आँगन में।*
*मैं हूँ मेरे पिता/पुत्र और नाती,*
*नदिया निर्झर वाली/ ठंड़ी छाती।*
*यज्ञों के शंख/ फूँके कोई मन में।*
*घर की वनस्पतियाँ/दूब और बेला,*
*फूल महकें/ ज्यों गजरों का मेला।*
*कितनी गरमाहट है/ घर के बंधन में।* 
यही नहीं यहाँ गंगा-यमुना-सी, *गाँव की बलइयाँ हैं*, संतों वाली *आशिस्* (आशीषें) हैं, इसीलिए यह  मात्र नाम का घर नहीं है। कवि के शब्दों में--
*घर अपना काशी।* 
*राम के चरण आए हों / जैसे वन में*
घर के बंधन की *गरमाहट* में उत्तमता, उदात्तता, संस्कारशीलता तो है ही, संबंधों के महत्त्व को समझने वाली पारिवारिक उत्तम मूल्यों वाली सोच की समग्रता भी है, जिसमें महकती ममता है, धार्मिक पवित्रता है, नैतिक मूल्यवत्ता है और आशीषों में मंगलता है। इस गीत के बिंबधर्मी शब्दों की गहराई और प्रतीकों की सूक्ष्मदर्शी व्यंजना दूरगामी है, जिसने भारतीय परंपरागत उदात्त मूल्यों को एक छोटे-से घर में लाकर एकत्र कर दिया है और इनके द्वारा एक बड़ा-सा संदेश दिया है। वह घर क्या है ? एक *दर्पण*, जिसमें चार पीढ़ियों के चेहरे (अपनी युगीन सोच,भावना, संवेदना और इच्छाओं के साथ) प्रतिबिंबित हैं। घर की शीतल, शांत *(ठंड़ी)* और गत्वर *निर्झरिणी माँ* को लगता है कि उसके घर का आँगन बड़ा पुण्यशाली है। यह गीत के अर्थगर्भी शब्दों का ही चमत्कार है, जो घर के *बंधन* में भी संबंधों की *गरमाहट* का अनुभास इस रूप में करा रहा है कि उस घर में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को गौरवान्वित और पुण्यशाली अनुभव करते हुए स्वयं को धन्य समझने लगता है।
इसी संग्रह के एक अन्य गीत में नवगीतकार *आँखों से भीतर उतरती एक दुनिया* को किसी भी स्तर पर *नम* (संवेदनशील) देखना चाहता है। कुछ नहीं तो *नहर* हो, खेतों के किनारे *पेड़* हों या फिर *गरम आँधी को पचाती, ताल वाली मेड़ हो।* नहर, पेड़, ताल वाली मेड़--ये तीनों शब्द प्रतीक *नमी* (शीतलत्व) के लिए समर्पित उपादान हैं। गीतकार की चाह यह भी है कि : 
*बस्तियाँ हो पास तो / देह फूटी गंध भी हो,*
*कटे परिचय / जोड़ते-से / लोक के संबंध भी हों।* 
*व्याकरण के एक वचन से तोड़ कर मन कहीं तो 'हम' हो।* (12)
*मैं* में *अहं* है, *व्यक्तिवादिता* है। इस अहं और व्यक्तिवादिता को अतिक्रांत कर गीतकार *हम* हो जाना चाहता है। *हम* अर्थात् *मैं* और *मेरे जैसे अनेकों* से जुड़ जाना चाहता है। इस *हम* में हमारा भूगोल भी है, हमारा इतिहास भी। हमारी प्रकृति भी है, हमारा जीवन भी। वहाँ *मेरा* कुछ नहीं है। यह *हम* व्यष्टिचेतना को समष्टिचेतना में विसर्जित करने का उपक्रम है। गीतकार समष्टि *(हम)* के साथ रागात्मक संबंधों की गहराई को माप लेना चाहता है। लोक-संवेदित शब्दावली, नवीन बिंबों और प्रतीकों में सांस्कृतिक छवियाँ उकेरते हुए लोक के भावप्रवण-चिंतन की गहरी रचनात्मकता को अनूप अशेष की भाषाई रचाव का वैशिष्ट्य कहा जा सकता है। 

नवगीतकार भावों और स्थितियों की गोचरता के लिए गीत की भाषा में जिन बिंबों, प्रतीकों, मिथकों और अप्रस्तुतों का चयनपूर्वक प्रयोग करता है, उनमें अधिकांश शैल्पिक उपादान भारतीय सांस्कृतिक परंपरा से सीधे जुड़े हैं। नवगीत की भाषा में ऐसे भाषिक प्रयोग करने में नवगीतकार *डा.रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'* का नाम उल्लेखनीय है। *आँसू बेचे/गीत खरीदे / सिर्फ मंगलाचरण उचारे / हम हैं यायावर बंजारे* (13)  अनुभूति में चिंतन और जनवादी सोच के अंतर्संग्रथन से जन्मी उक्त पंक्तियों ने कवि की काव्ययात्रा का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है : *हमने शत्रु नहीं संहारे / सिर्फ शत्रुता के स्वर मारे।* 
यह सृजन-मूल्य है सर्जक का। यहाँ पापी से नहीं पाप से शत्रुता की जाती है। व्यंजना यह कि रचनाकार प्रेम, बंधुत्व, भाईचारा, समरसता, दया, मैत्री और अहिंसा जैसे उदात्त मूल्यों का उद्गाता है। सांस्कृतिक मूल्यों में उसकी गहरी आस्था है। वह अपने नवगीत संग्रह *मन पत्थर के* में विविध सांस्कृतिक प्रतीकों को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करता है, कुछ उद्धरण द्रष्टव्य हैं :
*उठो पार्थ / गांडीव उठाओ / सर संधान करो*
*अपमानित नीरीत्व हुआ है.....*
*सोचो मत / ये पतित प्राण हैं / इनके प्राण हरो* (14)
नारी और नारीत्व-- भारतीय संस्कृति और मूल्यों की संरक्षिका उदात्त भावना है। *यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता* की उदात्त सांस्कृतिक परंपरा को पोषित करने वाली सोच है। उसके अपमान का अर्थ संस्कृति की मूल्यधर्मी भावना का अपमान है। ऐसे कुत्सित कृत्य करने वालों की सोच (प्राण) पतित हैं, इसलिए इस कुत्सित सोच का दमन (प्राण-हरण) आवश्यक है, ताकि ऐसी सोच समूल नष्ट हो सके। यह मिथकीय प्रतीक उस व्यापक, विशद् वैचारिक पृष्ठभूमि को भी सामने रखता है, जो *राम-रावण-युद्ध* में संस्कृति (सीता) की रक्षा के विचार में संन्निहित रहा है। यहाँ भाषा मात्र भाव या विचार प्रेषण का माध्यम भर नहीं रही है, अपितु उसके अगले सोपान पर आरूढ़ हुई है अर्थात् वह लक्ष्योन्मुख होकर अपनी संरचनात्मक सघनता में लक्ष्य साधने की दिशा में सक्रिय दीखती है। कवि जब *गैया, गौरैया, बखरी* (15) जैसे सांस्कृतिक प्राकृतिक उपादानों को संकट में देख इनकी रक्षा के लिए मोह-निशा से जागकर संघर्ष का आह्वान करने लगता है, तब उसकी भाषा अनुभूति की वास्तविकता को व्यक्त करने वाली हो जाती है। नवगीतकार ने इसी गीत में विविध आधुनिक संदर्भों में *त्रिपिटक का संदेश* धारण करने, *मोहन की वंशी में आलाप* भरने, *गौतम के आर्य सत्य (चत्तारि अरिय सच्चानि) की दिव्य करुणा* को वरण करने, *श्वेत कबूतर की रक्षा का भीष्म प्रण* करने और *गोकुल, गोवंश, गूजरी* के साथ सबकी पीड़ा हरने का आह्वान करता है। इन ऐतिहासिक, पौराणिक, मिथकीय प्रतीकों के प्रयोग-प्रयोजन का आधुनिक बोध जितना व्यापक है, उसी के परिमाप में उतने ही सार्थक, शक्तिशाली और लक्ष्यभेदी मिथिकीय संदर्भ यहाँ प्रस्तुत हुए हैं। इनकी सूक्ष्म भाषाई विवेचना और गहन अर्थदर्शी व्याख्या एक छोटे आलेख में संभव नहीं है। सारत: यह कहा जा सकता है कि एक ही गीत में आधुनिक बोध की भयावहता को दिखाते हुए उसकी विनाश हेतु मूल्यधर्मी मिथकीय प्रतीकों, बिंबों की शृंखला प्रस्तुत कर डा.यायावर ने अपने इस नवगीत संग्रह के लक्ष्य को सुविचारित रूप में घोषित ही नहीं किया है, अपितु समग्र संग्रह में भाषाई स्तर पर इसका अनुप्रयोग भी किया है। आधुनिक बोध के संदर्भ में मिथिकीय प्रतीकों, बिंबों और अप्रस्तुतों के प्रयोग में डा. यायावर अपने समकालीन नवगीतकारों में अद्वितीय हैं। उनके गीतों में चाहे
*संबल दो विश्वास का*(16) हो या
*उजियारा तो उजियारा है / दीपक का हो या अक्षर का* (17) हो
ये आत्म विश्वास को जागृत करने वाले व्यापक अर्थदर्शी प्रतीक हैं। गीतकार जब पार्थ को संबोधित कर आह्वान करता है कि
*उठो पार्थ/जो शमी वृक्ष पर/टाँगे थे दिव्यास्त्र उतारो* (18)
तब उसके सामने कर्ण, दु:शासन, दुर्योधन, कृप और द्रोणाचार्य जैसे युद्ध-नीति कुशल योद्धा असत् और अनीति की ओर से लड़ने को खड़े दिखाई देते हैं। ये सभी मनुष्यता के शत्रु हैं, इसलिए कवि का आह्वान है कि-- 
*प्रत्यंचा पर धरो दिव्य सर / सब अरि हैं बढ़कर ललकारो*
इसीप्रकार-- *गरज रही स्वर्णिम लंका* गीत में *स्वर्णिम* विशेषण की विविध अर्थच्छवियों को संपूर्ण आर्थी व्यंजना के साथ बिंबित किया गया है। इस स्वर्णिम लंका की गर्जना में शूर्पणखा की अहंकारी हुंकार है, कुंभकर्ण का विशाल सागर-संतरण का डंका घोष है, कंचनमृग की भ्रममूलक माया है, जो सीता के मन को भटका रहा है, उद्वेलित लक्ष्मण का मन है, छल का सिंहासन है, सोने की स्वप्निल लंका है (19)। यह आधुनिकबोध का मिथकीय तिलिस्म है जो इन भाषाई प्रतीकों में बहुत स्पष्टता से अभिव्यंजित हुआ है। इस तिलिस्म में--
*अस्मिता जानकी अपहृत है / खो गए जटायु के संबल / फिर नागपाश ब्रह्मस्त्र लिए / रण में आया घननाद प्रबल / सौमित्र शक्ति से आहत हैं / हिल गया इधर मन विश्वासी / पैशाचिक माया फैलाकर / तम का दशशीश अट्ठहासित / युग-युग तक चलती रामकथा को / कौन करेगा परिभाषित।* (20)
इस युगों-युगों से चली आती रामकथा में स्थतियाँ, पात्र और परिणाम वैसे ही हैं। 
*मन पत्थर के* नवगीत संग्रह में प्राकृतिक बिंब भी सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक बनकर उभरे हैं। उनके बीच का रागात्मक संबंध मानवीय संबंध से अधिक उदात्त और स्पृहणीय है : 
*नीम कटा जिस दिन द्वारे का / उस दिन रोई बहुत चमेली*
*आँगन की तुलसी मुरझाई / काँपी थर-थर रिक्त हथेली* (21)
नवगीतकार सिवान गाँव को स्पर्श करने वाली जिस नदी को याद करता है उसके किनारे कभी मनौतियों के अंबार लगते थे, नव दंपत्तियों के कंगन  सिराये जाते थे....दादी की पोते की इच्छा, विरहिन के मन का प्रियागमन, प्रेम भरी बहिन की राखी, भाई के माथे का चंदन....
*सब लेकर हँसती बहती थी/उत्सव उल्लास उफान लिए* (22)
वह नदी अब अंतर्धान हो गई है। यह  सांस्कृतिक मूल्यों की बड़ी क्षति है। ऐसी विलुप्त सांस्कृतिक छवियों की अमूल्य क्षति को उल्लिखित संग्रह के अनेक गीतों में आंतरिक पीड़ा के साथ प्रस्तुत किया गया है, इससे नवगीतकार का इन परंपरागत मूल्यधर्मी छवियों के साथ गहरे लगाव को अनुभव किया जा सकता है। *बतियाती नदिया* (23), *छवियाँ अनजानी,*(24) *सागर पर पानी,* (25)
ये छवियाँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर थीं, मूल्यों की संरक्षिका और भारतीय लोक चेतना की संवाहिका थीं। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार और अपसंस्कृति के आधातों ने इन मूल्यवान छवियों को क्षतिग्रस्त किया है। अत्याधुनिक युग में इन छवियों का स्मरण नवगीत की सांस्कृतिक चेतना का साक्षी है, जिसे नवगीत की भाषाई सहजता और व्यंजनात्मक अर्थदर्शी सघनता ने आज भी जीवंत बना रखा है।

अंत में गीतकार *उमाकांत मालवीय* के नवगीत सग्रह *एक चावल नेह रींधा* से कुछ संदर्भों का विश्लेषण भाषाई दृष्टि से आवश्यक समझता हूँ। पारिवारिक रागात्मक संबंधों की गहराई समझने के लिए *चंद्रमा उगा* महत्त्वपूर्ण है। गीत में माँ है, बहिन है, प्रिया (पत्नी) है और परदेश में है एक युवक, जो माँ का बेटा, बहिन का भाई तथा प्रिया का प्रियतम है। वह तीन पृथक् संदर्भों में तीनों को पृथक्-पृथक् रूप में याद करता है। वे तीनों संदर्भ भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के साथ गहराई से  जुड़े हैं : एक *गणेश चौथ* ; दूसरा *बहुला चौथ* और तीसरा *करवा चौथ* से संबंधित है। 
पहला संदर्भ : 
परदेश में बेटा माँ को याद करता है :
*चंद्रमा उगा / गणेश चौथ का!*
माँ तुमने अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
दिन भर उपवास किया होगा मेरे लिए ;
बेटा, परदेश में न सो सका!
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा गणेश चौथ का!!

दूसरा संदर्भ :
परदेश में भाई, बहिन को याद करता है :
चंद्रमा उगा/ बहुला चौथ का
बहिना ने अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
दिन भर उपवास किया होगा मेरे लिए,
बीरन परदेश में न सो सका,
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा बगुला चौथ का!!

तीसरा संदर्भ :
परदेश में प्रियतम प्रिया (पत्नी) को याद करता है :
*चंद्रमा उगा/करवा चौथ का,*
तुमने *भी* अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
निर्जल उपवास किया होगा मेरे लिए ; 
प्रियतम *हारा-हारा औ थका*
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा करवा चौथ का!! (26)

ये तीन संदर्भ पुरुष के जीवन की तीन घटनाएँ हैं। तीनों ही पारिवारिक संदर्भ में रागात्मक संबंधों की गहराई की मापक हैं। माँ और पत्नी के लिए *तुमने* संबोधन, बहिन के लिए नामवाची *बहिना*। आत्मीयता तीनों संबोधनों में है, किंतु सार्वनामिक पद की अपेक्षा नामपद में अधिक है। पत्नी के लिए *तुमने भी* का प्रयोग माँ के लिए प्रयुक्त *तुमने* से अर्थगत विलक्षणता लिए है। *भी*-- आश्वस्ति में कमी को संकेतित कर रहा है। प्रियतम के लिए प्रयुक्त *हारा-हारा* और *थका* विशेषण पति-पत्नी के बीच संबंधों में आए ह्रास को प्रदर्शित कर रहा है। हार और थकान का अनुभास इसी को संकेतित करने वाले अंगीय विकार हैं। संबंधों का रूप और उनकी गहराई कैसी भी और कितनी भी हो पर परदेश में जब अपने स्वजन की या अपने आत्मीय की याद आती है, तो व्यक्ति आँख के आँसुओं का ही संग्रह कर पाता है। तीनों संदर्भों में इस  तरल अनुभव में कोई अंतर नहीं है, जिसे सरल और सरल भाषा में अभिव्यंजित किया गया है। चंद्रमा चाहे गणेश चौथ का हो या बहुला चौथ का या फिर करवा चौथ का। वह हमारी संस्कृति और हमारे पारिवारिक  कोमलतम रागात्मक संबंधों की बार-बार दुहराई जाने वाली कथा है, ताकि व्यक्ति इन सांस्कृतिक उपादानों की अर्थगत गहराई को मापता रहे और जीवन में इनके महत्त्व का अनुभव करता रहे।
अंतस् की सूक्ष्म कोमल संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों और प्राकृतिक उपादानों से अलंकृत बिंबों का नवगीत की भाषा में पर्याप्त प्रयोग हुआ है। मेघदूत में कालिदास के यक्ष की तरह उमाकांत मालवीय की भाषा का निम्नलिखित बिंब दृष्टव्य है :
*उस ओर जा रहे पाहुन / मेरी भी अरज जरा सुन / उन शिखरों से मेरे प्रणाम कहना / गंगा से मेरी राम राम कहना।*
*झरनों को / मेरा अता पता देना,*
*जो कुछ देखा है / उसे बता देना।*
*उन सबकी खातिर कोई हुड़क रहा,*
*यह देवदारु से सुबह शाम कहना।* (27)
जिस आत्मीय विश्वास के साथ इस गीत का नायक उस *पाहुन*, से जो निश्चित मेघ ही होना चाहिए है, क्योंकि वही है, जो जड़ होकर भी चेतन (गत्वर) है और जो *उस ओर* जा रहा है, जिधर उसकी प्रिया किंवा प्रकृति प्रिया रहती है, अनुनयपूर्वक विनय करता है। विशेष बात यह है कि वह सीधे-सीधे अपनी बात नहीं कह रहा (कहीं स्वार्थी न समझा जाए), अपितु पाहुन से उसी के अत्यंत आत्मीय पर्वत के तुंग शिखरों और गंगा को उसकी ओर से पहले प्रणाम निवेदित करने को कहता है, फिर झरनों से वह सब कुछ बताने के लिए निवेदन करता है, जो उस पाहुन ने स्वयं प्रत्यक्ष देखा है। उसके इस कथन की मार्मिक गहराई को कौन मापेगा ? जिसमें वह कंठसुर की अत्यंत तरल विनम्रता के साथ कहता है कि--
*उन सबकी खातिर कोई हुड़क रहा,* 
*यह देवदारु से सुबह शाम कहना* (28)
अद्भुत है यह प्रकृति प्रेम। यह वह प्रकृति है, जो भारतीय संस्कृति और मानवीय जीवन से सदा अंतरंग रही है, जिसके बिना मानव-जीवन की कल्पना तक हमारे ऋषियों ने नहीं की। आज वही प्रकृति मानव के अतिचार से क्षत-विक्षित हो कराह रही है। इस ओर ध्यानाकर्षण करने से बढ़कर मानवीय मूल्य क्या होगा? और इस सांस्कृतिक बोध से अधिक सार्थक आधुनिक बोध और क्या हो सकता है? आधुनिक बोध के नाम पर जो केवल कुरूपता देखने के अभिलाषी हैं, उन्हें एक बार उमाकांत मालवीय के *एक चावल नेह रींधा* को पढ़ना चाहिए, जिसमें प्रकृति, राग और अनुराग की संवेदनाओं के मंत्रमुग्ध कर देने वाले बिंब उपस्थित है :
1. *गुनगुनाती पाँत/ भवरों की चली*
*लाज से दुहरी हुई जाती कली* (29)
2. *गंगा नित्य रँभाती बढ़ती जैसे कपिला गइया,*
*सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया।* (30)
3. *बाँहों में मोगरे गूँथता अलकों का मधुवन।* (31)
4. *मंगलघट पर अंकित फूल स्वस्तिका हुआ,*
*राधा तो श्याम हुई, श्याम राधिका हुआ।* (32)

*मिथक* के प्रयोग भी सांस्कृतिक संदर्भों को साथ लेकर चलते हैं, द्रष्टव्य:
1. *राधा बेणु बनी माधव के/ होठों से लगकर,*
*वंशी का आधार शहद से/ सिंचित एक अधर।*(33)
इसी मिथक को नवगीतकार एक कलात्मक बिंब से भी संयुक्त कर उसे एक नई अर्थ भंगिमा प्रदान कर देता है :
*बाहों में मोगरे गूँथता अलकों का मधुवन।*(34)
नवगीत में प्रकृति और प्रणयराग की जीवंतता का आधार भाषाई मिथ और बिंब बनते रहे हैं।
उमाकांत मालवीय के उक्त नवगीत संग्रह में अप्रस्तुत विधान भी प्रकृति, राग और अनुराग की संवेदना को ही सौंदर्य संवलित कर उसे तीव्र से तीव्रतम करने में समर्थ हुआ है, यथा-
1. *पुष्पधनु भौंहें, भँवर अरुणाभ गालों पर* (35)
2. *बाँह द्वै, ज्यों इंद्रधनु दो टूक कर डाला।* (36)
3. *बेलपत्र सी पलकों पर*
    *तुलसीदल से चुबंन* 37
लाक्षणिकता और व्यंजकता के लिए मुहावरों का प्रयोग भी नवगीतकार ने किए हैं :
*दूध के धोए गुटरगूँ/ पर न रेंगी कानों पर जूँ* 38
सार यह कि उमाकांत मालवीय का समीक्ष्य नवगीत संग्रह प्रकृति और प्रणयराग की दृष्टि से एक उदात्त और मूल्यधर्मी रचना है। प्रकृति प्राणिमात्र की माँ है, जिसके आँचल में खेलते हुए वह बड़ा हुआ है। साथ ही हृदय के धर्मों में प्रेम सर्वस्वीकृत, सर्वव्यापी, समरस और उदात्त धर्म है। सांस्कृतिक संदर्भों में प्रयुक्त भाषाई  निकष पर आज का नवगीत प्रयोगधर्मी है। यह प्रयोगशीलता ही उसको *नवता* की प्रमाणिकता है। 
                --------------

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023



1.
झरते रहे पिता
————
अपने ही खेतों के सौदे
करते रहे पिता
बच्चों की खुशियाँ बन अक्सर
झरते रहे पिता।

गली गुजरते, गाँव भर की
पालागी पर जय हो कहना;
सबकी विजय मनाते हरदम
अपनी हार छुपाये रहना;
सबके गाढ़े दिन के सब दुख
हरते रहे पिता।

शान बचाने की अन्तर्जिद
ऐंठ अकड़ आजाद-सलामत;
बब्बा के उन्नत ललाट को
ऊँचा रखने झेली आफत;
तने रहे संकट में भीतर
मरते रहे पिता।

अक्सर माँ से गुपचुप-गुपचुप
जाने क्या बतियाते;
गाँव गिरानी के दिन भोगे
पिता चिलम चटकाते;
पुरखों का सम्मान बचाने
डरते रहे पिता।

बस्ता कापी पेन किताबें
झक्क-साफ स्कूली कपड़े;
टीनोपाल चमक के ऊपर
सेलो पानी बाॅटल पकड़े;
बिना खाद-पानी मरुथल में
फरते रहे पिता।

2.
बैठे रहे पिता
———-
परदनिया पहने
बैठक में
बैठे रहे पिता।

ऊँची काया चौड़ा माथा
लम्बी दाढ़ी वाले;
सारा गाँव पुकारे बाबा
जय हो जय हो वाले;
खेती-बाड़ी सब ठेंगे से
जो करले हलवाह;
आफत पर आफत आये पर
कभी न निकले आह;
बैठक में
दरबार सजे
या लेटे रहे पिता।

रिश्तेदारों का रुपया भी
अक्सर रौब दिखाये;
कभी न दी तरजीह मस्तमन
साधूभोज कराये;
झक्क सफेदी वाले कपड़े
रामानंदी डाँटी;
जीवन भर ज़मीन जर बेची
कुछ खर्ची कुछ बाँटी;
बात-बात में
अम्मा जी से
रूठे रहे पिता।

राजा अवस्थी, कटनी 
मध्यप्रदेश 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

नवगीत कुटुंब से साभार

------- नवगीत का स्थापत्य -------
 
 नई सहस्राब्दी की भोर में राजेश जोशी ने लिखा था -
 ‘‘कविता की दो पंक्तियों के बीच / मैं वह जगह हूँ / जहाँ कवि की अदृश्य परछाईं 
 घूमती रहती है अक्सर / मैं कवि के ब्रह्माण्ड की / एक गुप्त आकाशगंगा हूँ ।’’
 अर्थात् कवि पंक्तियों के बीच की खाली जगह को अनेक अर्थ-संदर्भों से भरता रहता है । देखा जाए तो यौगिक ध्यान की भी यही प्रविधि है । किन्तु आज की कविता में यह ‘खाली जगह’ कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही है । आख्यान परकता और काव्यार्थ की सांद्रता का अभाव आज कविता का उपलक्षण बनता जा रहा है । कविता पर आज अकवियों का वर्चस्व है और गीत रक्षात्मक मुद्रा में है । वैश्वीकरण और सर्वसत्तात्मक बाजार के वर्चस्व का प्रत्याख्यान करने वाले कवियों और आलोचकों का काव्य-न्याय नवगीत के विस्थापन की पीड़ा के प्रति असंवेदनशील क्यों ? कविता में अपने सम्पूर्ण समय और समाज को समेटने के आग्रही हमारे गीत-समय और मनुष्य के अंतर्जीवन को छोड़ कैसे देते हैं ? आज की गद्य ब्राण्ड सिन्थेटिक कविताओं और फूहड़ मंचीय तुकबन्दियों के बीचोंबीच सुनहली जीवन-रेखा खींच देने वाले गीतकारों को हम कब तक हाशिये पर रखेंगे ? भाषा के किसान आज आत्महत्या को प्रस्तुत हैं और भाषा के व्यापारी बहुमंजिले मल्टी काॅम्प्लेक्सेज में वातानुकूलित ‘सेज’ पर सो रहे हैं। अनुभव की जैविकता को यथार्थ की अवधारणा ने विस्थापित कर दिया है । किन्तु इस सत्ता-विमर्श में क्या यथार्थाश्रित कविता स्वयं विस्थापित नहीं हो गई है ? गीत की उपेक्षा के कारण ही आज कविता का पतन हुआ है और कहानी और उपन्यास साहित्य की केन्द्रीय विधा बन बैठे हैं । सभी विधाएँ हमारी संवेदना को ही संस्कारित करती हैं और इसीलिए एक-दूसरे से अंतः क्रिया भी करती हैं । किंतु कविता संवेदना की सघनतम अभिव्यक्ति है। पारे की तरह उसका घनत्व लोहे से भी ज्यादा होता है-
टूटती शिराओं में तैर गया पारा,
शायद तुमने मेरा नाम ले पुकारा।
 प्रेम की ही भाँति गीत की पुकार आज भी वेध्य और संवेद्य है। गीत कविता की जीवनरेखा या प्राणधारा है। गीत संवेदना की स्वरलिपि है। समकालीन कविता में उपेक्षित प्रणय-साधना के अनुलोम-विलोम छांदस कविता में संलक्ष्य हैं -
 तू किसी रेल सी गुजरती है,
 मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। (दुष्यन्त कुमार)
 मुझे लगता है कि नई कविता और नवगीत एक-दूसरे के विरोधी नहीं, सम्पूरक हैं । नवगीत समकालीन काव्य-परिदृश्य को प्र्रति सम्पूर्ण बनाता है । सच तो यह है कि दोनों में संवाद की स्थिति बननी चाहिए, दोनों को एक-दूसरे के निकट आना चाहिए । कविता यदि ‘मानवता की मातृभाषा’ है तो गीत उसकी स्वर-लिपि है। गीत कविता की कोमलतम त्वचा है। अंतःसलिला संगीत, रागानुबन्ध, यथार्थ चेतना, प्रासादिकता, आधुनिक भाव-बोध और वैज्ञानिक दृष्टि को आत्मसात कर नवगीत ने अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व गढ़ा । रूढ़ियों की कट्टर विरोधी होने के बावजूद पारंपरिक मिथकों और सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति वह प्रतिबद्ध है । देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के अनुसार - ‘‘उसकी आँखों में आस्था और जिजीविषा के धूपमंडित पलाशों की गुलाबी गरमाहट है तो उसकी पसलियों के भीतर करवटें लेते हुए इन्कलाब की एक जादुई झनझनाहट भी है । नई कविता अगर भीड़ और अकेलेपन के बीच की मरीचिका है तो नवगीत को मैं अस्तित्व और अस्मिता के फासलों पर रचा गया धु्रवान्तव्यापी क्षितिज-सेतु कहना अधिक पसन्द करूँगा । पारम्परिक गीतकार स्वयं को ‘कल्पनालोक का राजकुमार’ कहलाने में गौरव का अनुभव करता था। किन्तु नवगीत के सोच की बुनावट लिजलिजी भावुकता के रेशमी तारों से नहीं हुई है । उसने अपनी अविराम साधना के माध्यम से एक जाग्रत बोध को सिरजा है । वह चैराहों पर उगने और उछलने वाले नारों की प्रतिध्वनि न होकर व्यापक जनजीवन का ठेठ देसी परन्तु सहज सांस्कृतिक अनुवाद है । वह अपनी मौलिक लय में बोलता, रंगभरी चित्रमयता में दृष्टि-उन्मेष करता और ताजी हवा के झकोरों से रोमांचित होकर धरती की प्राणदा गंध में उच्छ्वसित होता है ।’’ ............ (नवगीत दशक-1)
 ‘‘चैकड़ी रहीं भरती / मृग सी छलनाएँ / यह खंडित रत्न-मुकुट किसको पहनाएँ।
 घायल दिन / किरनों की टहनी पर लटका /  आँखों में सन्नाटा / घिरता मरघट का
 बरगद पर हस्ताक्षर करतीं छायाएँ /  बजती हैं / कानों में / शंख सी दिशाएँ ।
 यह उचाट मन लेकर / कहाँ-कहाँ जाएँ।।’’
 यही है नवगीत का स्थापत्य जहाँ देश और काल के अनुभवों का सारांश कानों में देर तक बजता रहता है। गीत की दूर-संवेदी ध्वनियाँ हमें देर तक झनझनाती रहती हैं। इस उचटे इन्द्रधनुषी बिम्ब को उल्लास से सींचने के लिए हमें देवेन्द्र कुमार के धान परियों के देश चलना होगा, जहाँ - 
 ‘‘एक मूठ धरती का रंग / आसमानी / गोहुँअन सा ठनक रहा / सरिता का पानी ।’’
 पुरवाई पवन के झकोरों में पानी की आवाज आज कौन सुनता है ? पानी डूब रहा है आज सभ्यता के बीचोंबीच । पानी का संकट शायद सदी का सबसे बड़ा संकट होगा । पानी की इस स्थिति के जिम्मेदार हम ही हैं । यही सोचकर यश मालवीय पानी-पानी हो उठते हैं -
 ‘‘लिखते वक्त कलम में / पत्थर अटका करता है / कथ्य हमारा शीशे जैसा / चटका करता है !
 धार-धार मौसम होता है / लहर फिसलती है / एक मोमबत्ती सूने में / बुझती-जलती है ।
 रह-रह कर मन का दरवाजा / खटका करता है !’’
 परन्तु श्रीकृष्ण तिवारी की अनन्त आस्थावादी दृष्टि लाख चिटकने के बावजूद अपना धर्म छोड़ने को तैयार नहीं-
 ‘‘वक्त की हथेली पर / प्रश्न सा जड़ा हूँ मैं / टूटते नदी-तट पर / पेड़ सा खड़ा हूँ मैं ।
 रोज धूप पीनी है / सूर्यदंश सहना है / कितना भी चिटकूँ / पर दर्पण ही रहना है ।’’
 संक्षिप्तता, गेयता, प्रभावान्विति और आत्माभिव्यंजना के साथ ही मिट्टी की सोंधी गंध गीत की निजी विशेषता है । नवगीत भारतीय काव्य चिंता का सहज विकास है, जीवित संस्कृति की लय है । उसके स्वायत्त संसार में छान्दस् की प्रतिष्ठा है। उसका सरोकार उस आम आदमी से है जो अपनी सम्पूर्ण बेबसी और लाचारी के बावजूद एक कुण्ठा रहित इकाई है । डाॅ0 उमाशंकर तिवारी कहते हैं -
 ‘‘संचय का सुख जान न पाए, जोड़े भी तो सपने जोड़े ।
 इन हाथों से नीले नभ में कितने श्वेत कबूतर छोड़े ।।’’
 आज जबकि बाजार संस्कृति ने न केवल समाज की भीतरी गहराइयों तक बल्कि व्यक्ति के मनोलोक में भी संेध लगा ली है । आज बाजार ने समाज को विस्थापित कर दिया है अथवा समाज का पर्याय बन चुका है । बौद्धिक के संस्थानीकरण और विमर्शों के बाजार में भी उपभोक्तावादी संस्कृति से बाहर खड़े कुछ जुनूनी लोग शब्दों के अर्थशास्त्र को चुनौती देते रहते हैं । तकनीकी हुनर से लिखी गई सिन्थेटिक कविता तो यथार्थ के उत्पादन में संलग्न है किन्तु घटनाओं की अखबारी इतिवृत्तात्मकता को चीरते हुए रचनात्मक यथार्थ का अंकन गीत की रचना-प्रक्रिया भी है और पाथेय भी । हाइटेक डिजिटल संस्कृति के प्रलोभनों से सावधान करते हुए अखिलेश कुमार सिंह कहते हैं - 
 ‘‘जाने किस जादूगरनी ने घर पर नजर लगाई है !
 सूरज-पुत्रों की आँखों में भी झीलें उग आईं हैं ।।
 एक अनोखे सम्मोहन के हाथों हम बन्दी होकर 
 जीवित कहते अपने को, जीवन की परिभाषा खोकर ।।
 दरवाजे पर कई आसुरी छायाएँ झुक आई हैं ।।’’
 अन्तर्जगत में घटित सामाजिक हलचलों का रूपक और विद्रूप यथार्थ का मोहक चित्र ! किन्तु यह मीडिया के जघन्य हत्याकाण्डों को रोचक यथार्थ या सनसनीखेज मसाले के रूप में परोसे गए प्रसंस्करणात्मक यथार्थ से भिन्न नृशंस समय के विरुद्ध संघर्ष में कविता के स्तर पर हिस्सेदारी है । रामचन्द्र चन्द्रभूषण को भी समय की सौन्दर्य-परिक्रमा करते हुए ऐसा ही आकस्मिक अनुभव होता है -
 ‘‘प्रश्नों में गुजर गई एक और शाम !
 सूरज के घोड़ों के पावों में कील गड़ी / चीखती दरारों पर थम गई लगाम ।’’
 त्वरा और त्वचा की धुरी पर नाचते समय के संत्रास का अद्भुत भाव-बोध ! अभी सौन्दर्य-शास्त्र में परंपरा की आधुनिक अवधारणा की पुनप्र्रतिष्ठा की चीखें जिन्दा हैं । सभ्यता के धक्के से संस्कृति का बिखर जाना ! भौतिक प्रगति और सभ्यता के विस्फोट के बीच नैतिक-सांस्कृतिक ठहराव ! छन्दोबद्ध सामाजिक संस्था का व्यक्तित्व विहीन दिङ्मूढ़ भीड़ में विसर्जन ! सांस्कृतिक संक्रान्ति और बदलाव की बयार में पहचान खोते गाँव -
 ‘‘बस्तियों में हुई रोशनी /  रोशनी से जलीं बस्तियाँ ।’’
 यह रोम के जलने पर नीरो के बैठकर बाँसुरी बजाने जैसा नहीं है । बल्कि सबके जलने में खुद को जलते हुए देखना और उस दर्द को लयात्मक बनाना है । सभ्यता का गलत दिशा में भटक जाना है -
 ‘‘गलत पते पर समय-डाकिया / डाल गया शायद /दिन का खत ।’’  ............. नईम
 इसीलिए इस सभ्यता का विपर्यय रचते हुए अज्ञेय उदात्त आकांक्षा से भर उठते हैं -
 ‘‘मैं यह नहीं चाहता / कि मेरे घर में रोशनी हो 
 बल्कि मैं तो यह चाहता हूँ / कि रोशनी के घेरे में मेरा घर हो ।’’
 समष्टि के कल्याण के संदर्भ में आत्मोत्थान की कामना! यह आत्मकेन्द्रित सुखवाद नहीं, आत्मनिष्ठ चिंतन का सामाजिक प्रतिफलन है। बाजारवाद अपने सांस्कृतिक उत्पाद या माल पर एकाधिपत्य रखता है अतः उससे भिन्न सार्वजनिक निजता का प्रकाशन ही तो कविता की मूल आकांक्षा है। इस दृष्टि के अभाव में रोशनी अपने पीछे कितना अंधेरा छोड़ जाती है ! रोशनी के विस्फोट के कारण अमरनाथ श्रीवास्तव की आँखें चैंधिया जाती हैं -
 ‘‘इस तरह मौसम बदलता है / बताओ क्या करें !
 शाम को सूरज निकलता है / बताओ क्या करें !
 यह शहर वह है कि जिसमें / आदमी को देखकर
 आइना चेहरे बदलता है / बताओ क्या करें !!’’
 गीत में रोशनी की इतनी किरणें निकलती हैं कि उन्हें फोकस कर मनुष्य की जड़ता और यन्त्रवत्ता को पिघलाया जा सकता है -
 ‘‘रोशनी के इन्द्रधनुषों पर लटकते / प्लास्टिक के फ्यूज चेहरे ।
 धुुँधलकों में / चरमराती गंध के आखेट / हिचकियों पर / हाँफते संगीत ठहरे ।
 सभ्यता रंगीन दस्ताने पहन / धकिया गई / मासूमियत को / चीरघर में ।’’ 
 ...................... भगवान स्वरूप श्रीवास्तव 
 इन्द्रधनुषी सभ्यता के आलोक में बुझे हुए मनुष्य की यान्त्रिक जड़ता की संवेदना ! हमारे भीतर का मनुष्य शायद मर गया है । इस अमानुषिक प्रक्रिया को अरुण कमल एक दूसरे स्तर पर महसूस करते हैं -
 ‘‘सामने खड़ा है मृतक हँसता / पूछ रहा / कैसी है बँुदिया, कैसा रायता ?’’
 श्राद्ध का भोज खाते हुए ठहाके लगाना और शोक के बजाय स्वाद के प्रति संवेदनशील होना ही हमारी संवेदनहीनता का प्रमाण है । जीवन के व्याकरण में आये विचलन का यह दंश रामानुज त्रिपाठी की प्रश्नाकुलता को भी उद्बुद्ध करता है । संज्ञाएँ खो गई हैं । हम सर्वनामों में बदलते जा रहे हैं । आत्मीय संबंधों का राग-वृत्त छिन्न-भिन्न हो गया है । विश्वास तार्किक आधार खोजने में व्यस्त हैं और मुस्कानों पर विराम लगा हुआ है -
 ‘‘ऐसे भटके कि सारे पड़ाव को / पीछे छोड़ कर आगे बढ़ आये हैं !
 कैसे चरण छुये नए संदर्भों के / टूट रही कबसे संबोधन की देह !
 कहने को सिमट गए गीतों की बाहों में / अर्थों के मन में है किन्तु सन्देह ।
 शब्दों की देहरी पर लेकर के बैसाखी / शायद अपाहिज सवाल चढ़ आये हैं !!’’
 ये सवाल केवल कविता के बाहर सामाजिक संरचना के विखंडन से ही सम्बन्धित नहीं, कविता के आन्तरिक विन्यास से भी संबद्ध हैं । चंचल पूँजी, ऐन्द्रजालिक तकनीकी और बाजार द्वारा रची गई बिम्बों की प्रतिभाषा या आभासी यथार्थ की प्रतिक्रिया में समकालीन कविता की बिम्बों से बचाव की भाषा भी प्रश्नों के घेरे में है । यह कुछ-कुछ उस ऐतिहासिक सत्य जैसा है कि मध्यकाल में हिन्दुओं ने मुगलों द्वारा स्पर्शित अपनी कन्याओं को आसानी से छोड़ दिया । अथवा पाकिस्तान के परमाणु बम बना लेने के बाद हम बम बनाना छोड़ दें। हमें उससे शक्तिशाली बम बनाना होगा । सामाजिक हलचलों और युगीन परिवर्तनों के सापेक्ष कविता को मीडिया से तेज दौड़ना होगा । राष्ट्रकवि दिनकर कहते हैं-
 ‘‘सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा / स्वयं युगधर्म की हुंकार हूँ मैं ।’’
 इसलिए कविता के भविष्य की नहीं, भविष्य की कविता की चिंता करनी चाहिए । किंतु इसके लिए मनुष्य के मनोजगत का अनुकूलन नहीं, उसके संवेदनात्मक विवेक को उद्बुद्ध करना चाहिए । किंतु यह काम न वे फोटोजेनिक चेहरे कर सकते हैं जो अपने हर नाइट शो का रेट फिक्स करते हुए स्वयं बाजार का हिस्सा हो जाते हैं, न वे जन्मजात क्रान्तिकारी जो बाजार में आकंठ डूबे रहकर, उसके संसाधनों का जमकर उपभोग करते हुए भी बाजार को गरियाते रहते हैं । शान्ति और समृद्धि के समय में भी क्रान्ति ‘यथास्थितिवाद’ का अन्धविरोध जिनका मौलिक एजेंडा है । सामासिक संस्कृति के इस बहुलतावादी देश में भी जिन्हें केवल माक्र्सवादी साहित्य ही चाहिए । जो तोते की तरह ‘धर्म निरपेक्षता’, ‘साम्प्रदायिकता’ और ‘फासीवाद’ की रट लगाते हुए अपने ब्लाइण्ड-स्पाॅट को देखने के लिए तैयार नहीं । निरामिष चिंतन में जिनका विश्वास नहीं । वीरेन्द्र मिश्र युद्ध की विडम्बना को लक्ष्य करते हुए कहते हैं -
 ‘‘कन्धे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम / हँसता है तम,
 युद्धों के मलबे से उठते हैं प्रश्न / और गिरते हैं हम ।’’
 ‘राम की शक्ति पूजा’ का वह प्रसंग याद आता है जब ‘निबिड़ जटा दृढ़ मुकुट-बन्ध’ से विन्यस्त राम युद्ध से उपराम हो शक्ति-प्रार्थी पुरश्चरण में लीन हैं । परीक्षा की प्रक्रिया में अन्तिम क्षणों में एक इन्दीवर गायब हो जाता है । तब राजीव नयन राम अपनी एक आँख निकालकर अर्पित करने को तैयार हो जाते हैं । क्या छंद के अनुष्ठान में कम पड़ गए शब्दों या वर्णों से उत्पन्न रिक्तता को अन्तर्दृष्टि के विन्यास से भरने का संकल्प आज की कविता में दिखाई पड़ता है ? भाव-साधना के अभाव में कविता बनने से पहले ही बुझ जाती है । काॅलरिज का एक बहुत अर्थपूर्ण कथन है कि ‘‘गहरी भावनाएँ गहरे विचार की कोख से जन्मती हैं ।’’ भाव और विचार के गहरे संश्लेष से ही कालजयी कविता संभव होती है । ऐसी कविता समय से गहरी संपृक्ति के बावजूद देशकाल का अतिक्रमण करती है । 
 सघन आत्म-परीक्षण और परम्परा का पुनर्गठन करते हुए अशोक वाजपेयी कहते हैं -
 ‘‘हम उठाते हैं एक शब्द / और किसी पिछली शताब्दी का / वाक्य-विन्यास विचलित होता है ।’’
 किसी बड़े कवि के सम्मुख छिपे ऐतिहासिक अर्थ और स्मृृति के पुनर्संयोजन का गंभीर दायित्व मौजूद रहता है । केदारनाथ सिंह कहते हैं कि ‘‘जब हम कलम की नोंक पर पूरी परंपरा का बोझ सम्हालकर लिखते हैं’’ तभी परात्पर कविता संभव होती है । इतिहास के आइने में ही हम अपना चेहरा सँवार सकते हैं । औपनिषदिक चिंतन, पुरा प्रतीकों और मिथकों को अपने समय में उपलब्ध करते हुए कुँवर नारायण नें एक वृहत्तर जीवन की संकल्पना दी है - 
 यहाँ से भी शुरू हो सकता है / एक उपरांत जीवन / पूर्णाहुति के बिल्कुल समीप बची रह गई / किंचित् श्लोक बराबर जगह में भी / पढ़ा जा सकता है एक जीवन संदेश ।’’ 
 किन्तु यहीं सम्पे्रषणीयता या साधारणीकरण की समस्या उठ खड़ी होती है । बल्कि उससे अधिक संवेदनात्मक धारिता की - 
 ‘‘किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी / किसी ने पढ़ा किंतु दो बूँद पानी ।’’
 न जाने कितने त्योहारों की होली जलाकर तो एक कविता उपलब्ध होती है । गहरे आत्मरति से गुजरकर तो एक कविता का जन्म होता है । किन्तु प्रसव-पीड़ा की अनुभूति से अनभिज्ञ रचना का रक्त-परीक्षण डाॅ0 शम्भुनाथ सिंह को व्यथित करता है । पाठान्तर या अर्थ-विचलन के संदर्भ में याद आ रही हैं पाब्लो नेरूदा की पंक्तियाँ -
 ‘‘कभी एक उँगली भी मेरे खून में न डुबोने वाले / क्या कहेंगे मेरी कविताओं के बारे में ?’’
 पीड़ा के इसी सौन्दर्य-बोध का बिन्दु-पथ अपनी समस्त संगीत-लिपियों के साथ रूप नारायण त्रिपाठी की इन पंक्तियों में मौजूद है -
 ‘‘भोर की बाँसुरी गीत छलका गई / जिंदगी में नई जिंदगी आ गई ।
 फूल की डबडबाई हुई आँख में / रात के आँसुओं को हँसी आ गई ।।’’
 और यहीं उपस्थित हो जाती है नवगीत की भूमिका । यदि कविता और काल के अक्षांश और देशान्तर को मापने वाले नरेश मेहता के ‘समय देवता’ सार्वकालिक हैं तो शम्भुनाथ सिंह द्वारा ‘समय की शिला पर’ बनाये गए मधुर चित्र भी अमर हैं । यद्यपि अपनी मूल प्रतिज्ञा में यह गीत जागतिक नश्वरता और क्षणबद्ध अनुभूति को सम्बोधित है -
 ‘‘जलधि ने गगन-चित्र खींचा नयन में / उतरती हुई उर्वशी देख घन में ।
 अचल किन्तु चलचित्र ये हो न पाये / कि सहसा बुझी रूप की ज्योति क्षण में ।
 जलद-पत्र पर इंद्रधनु रंग कितने / किरण ने सजाए, पवन ने उड़ाए ।’’
 दार्शनिक अनुभूति का काव्यांतरण ! ऐन्द्रजालिक रूप और प्रणय के इस रंग-क्षेप को नरेश मेहता के ‘उषस्’ शीर्षक गीत से मिलाकर पढ़ा जा सकता है -
 ‘‘नीलम वंशी में से कुंकुम के स्वर गूँज रहे !
 अभी महल का चाँद किसी आलिंगन में ही डूबा होगा।
 कहीं नींद का फूल मृदुल बाँहों में मुसकाता ही होगा ।
 नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !
 राधा की दो पंखुरियों में मधुवन झींम रहे !’’
 किंतु यहाँ उर्वशी जमीन पर उतरती है और उसके गीतों की फैलती हुई किरनें चक्की (जाँत) से आती हुई प्रतीत होती हैं -
 ‘‘गीत न टूटे जीवन का यह कंगन बोल रहे !’’
 गीत का पर्यवसान श्रम-संगीत में ! यही गीत की अपनी जमीन है जहाँ जिन्दगी की सारी थकान दूर करने आते हैं हम ताकि पुनः जीवन-संघर्षों के लिए नई ऊर्जा ग्रहण कर सकें । गीत सामाजिक संघर्षों के बीच सौन्दर्य की तलाश है। इसके उलट बौद्धिक कविता और थका डालती है । आस्वाद और औदात्य जहाँ गाली बन गए हैं । जहाँ भाषा का स्वप्न नहीं, भाषा में स्वप्न को अपदस्थ होते देखा जा सकता है । जहाँ विचारधारा का ऐन्द्रिय संवेदन से सत्यापन जरूरी नहीं । शायद कुछ लोगों को मेरी बातें आधुनिकता के भीतर ही रूढ़िवादी प्रत्यावर्तन जैसी लगें पर सच यही है । दिनेश कुमार शुक्ल जब मनुष्य के कैशोर्य को याद करते हैं -
 मैंने आग लगा दी है इन्द्रधनुष में / फिर भी न जाने क्यों 
 पसीने सा छलछला उठता है मेरे ललाट पर / सौन्दर्य की विस्मृति में खोया हुआ / मेरा कैशोर्य ।’’
 माथे पर पसीने सी छलछला उठती हैं किशोर स्मृतियाँ ! तो क्या इसे भावुक नाॅस्टैल्जिक सन्दर्भ मान कर पोंछ दिया जाय ? आज सम्पूर्ण जैव-सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है । परम्परा, पर्यावरण, भाषा, संस्कृति वैश्वीकरण के बुलडोजर से रौंदे जा रहे हैं -
 ‘‘अचानक ही उस शरद की रात्रि में / चन्द्रमा सुदर्शन चक्र की तरह / 
 पृथ्वी की ओर बढ़ता देखा गया ।’’
 यह एकसाथ चाँद की चढ़ाई और धरती का पराभव काल है । जयप्रकाश ठीक कहते हैं कि ‘‘यह नृ-केन्द्रिक संसार के उत्कर्ष का समय है और विडम्बना है कि इस समय को रचने वाली शक्तियाँ नृ-घातक रूप धर चुकी हैं ।’’ हमारी उँगलियों पर नदियों का दूध नहीं, रक्त चिपचिपा रहा है । आसमान में हिलते हुए धरती के हाथ कलम किए जा रहे हैं । पहाड़ों की आँतें निकाली जा रही हैं -
 ‘‘अब आएँगे पर्वतों के पंख काटने वाले / वज्रधर इंद्र के वंशज
 बारूद की गंध फैल जाएगी हवा में / उनके टूटने की गंध के ऊपर / क्या धरा है भू में
 इन भूधरों की छाँह के गुजर जाने के बाद !’’
 ज्ञानेन्द्रपति की आँसुओं से भरी आँखों का सौन्दर्य ! हम रोते भी हैं तो गीतों में । गीतों में गाली भी अच्छी लगती है । मनुष्यता के विनाश की कीमत पर मनुष्य का अंतहीन विकास ! समूची धरती न जाने किस ब्लैकहोल में समाती जा रही है ? मनुष्य के सर्वसंहारी आत्म-विस्तार को टोकते हुए श्रीकृष्ण तिवारी कहते हैं -
 ‘‘हर आँगन जलता जंगल है, दरवाजे साँपों का पहरा ।
 बहती रोशनियों में लगता, अब भी कहीं अँधेरा ठहरा ।
 धरती हर क्षण टूट रही है, जर्रा-जर्रा पिघल रहा है,
 चाँद-सूर्य को कोई अजगर, धीरे-धीरे निगल रहा है ।
 जब तक यह बारूदी घर है / तब तक चिनगारी का डर है ।।’’

 अतियथार्थवादियों से प्रो0 विद्यानिवास मिश्र की जन्मकुण्डली मेल नहीं खाती थी । वे कहते थे - ‘‘जो कुछ हमारे शरीर के भीतर है यदि वही सब बाहर ला दिया जाए तो दिन भर कौओं और कुत्तों को भगाते बीतेगा।’’ कविता में यथार्थ को प्रच्छन्न या अन्तव्र्याप्त रहना चाहिए। बड़बोलापन यहाँ अशुभ लक्षण है । प्रच्छन्न शोषण, भूख या आर्थिक-सामाजिक विषमता को अरुण कमल ने आत्मपरक शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति दी है - 
 ‘‘माफ करना, प्यास से तड़पते लोगों ! / आज मैं दो बार नहाया ।’’
 जिन्दगी के बोझ से ढँकी आँखों वाले मजदूर उनके सपनों में सूराख करते हैं । इसी वैषम्य या गहरी खाईं को श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ कुछ अतिरंजित और सांद्र रूप में महसूस करते हैं -
 ‘‘एक सागर किसी के लिए कम यहाँ / एक कण के लिए और तरसा करें ।
 सूखते जन-सरोवर बिलखते रहें / सिन्धुओं में महामेघ बरसा करें ।।’’
 नहीं, अब इत्यादि लोगों यानी जन और अभिजन के बीच एक समरस सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए । जन के राजतिलकोत्सव में अभिजन आशीर्वचनों के लिए आमंत्रित हों । किन्तु अमरनाथ श्रीवास्तव को अभी यह दूरारूढ़ कल्पना ही लगती है । इस आशंसा को वे कलात्मक रूपबंध में विन्यस्त करते हैं -
 ‘‘सूरज जब देता है धूप के निवाले / हाथ बढ़ा देते ऊँची फुनगी वाले ।’’
 योग्यतम की उत्तरजीविता के इस दर्शन की अनेकायामी सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन में देखने को मिलती हैं । परदे के भीतर इसकी खूबसूरत अभिव्यक्ति गुलाब सिंह के यहाँ थरथराते शब्दों में -
 ‘‘बाँस पर बैठे परिन्दे / हवा का रुख भाँपते हैं,
 जब हवेली में लगे / रंगीन परदे काँपते हैं ।
 एक शहजादी समय पर / छींट जाती चारदाना ।
 जाल है भीतर नदी के / घाट से हटकर नहाना !
 धूमिल ने शोषक-शोषित सम्बन्धों को बड़ी तल्ख भाषा में अभिव्यक्ति दी है -
 ‘‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो / उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है ।’’
 शोषकों के कृपापात्र स्नायु-दौर्बल्य का शिकार हो जाते हैं । उनके बीच एक तनाव भरा रिश्ता होता है -
 ‘‘ये जिसकी पीठ ठोंकते हैं / उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है ।
 ये मुस्कुराते हैं / और दूसरे की आँख में झपटती प्रतिहिंसा / करवट बदलकर सो जाती है ।’’
 ये पंक्तियाँ कार्यार्थ की सान्द्रता या अर्थ-सघनता का अहसास नई कविता की सामथ्र्य का खुद परिचय कराता है। पर यह भी सत्य है कि ऐसी घनत्वपूर्ण पंक्तियाँ पूरी कविता में कम ही मिलती हैं। पत्थर तोड़ने वाले श्रमिकों के प्रति क्रूर पत्थर-दिलों पर अपने गीतों की छेनी से गुस्से की लकीरें खींचने वाले अवध बिहारी श्रीवास्तव बहुत याद आते हैं । वात्सल्य की छाँव से वंचित बाल-श्रमिकों के लिए वे अपनी ही कविता की छाती में उतरा हुआ दूध बनकर आते हैं -
 ‘‘नन्हें हाथ जहाँ लोहे के फूल खिलाते हैं / जिनकी नींदों में रोटी के सपने आते हैं,
 जिनकी पीठों की कालीनें बिछने जाती हैं / चाँदी की चाबुकें जहाँ सर पर मँडराती हैं,
 आँच कभी माँ की छाती की जिनको नहीं मिली / जिनके भीतर रिश्तों वाली गरमी नहीं पली,
 जिन्हें पता ही नहीं कि कैसा होता घर-आँगन / कूड़े पर रोटी तलाशता बीत रहा बचपन,
 उन्हें देखकर अपनी ही कविता की छाती में / उतरा हुआ दूध बनकर मैं ही तो आता हूँ ।
 ठहरो, माँ के थके पाँव धोकर बतलाता हूँ ।।’’
 किन्तु जन गीतकार नचिकेता पीड़ित को सहलाते नहीं, व्यवस्था के ऊपर उँगलियाँ नहीं, हाथ उठाते हैं । विरल घनत्व की भाषा में लिखी उनकी कविता की हस्तरेखा पढ़े -
 ‘‘अगर प्यार है, जिजीविषा है / और सृजन की अभिलाषा है ।
 तनी हथेली के अक्षर से / लिखी मुक्ति की परिभाषा है ।’’
 किन्तु नन्दीग्राम के संदर्भ में किसान-संघर्ष की रक्तरंजित विफलता हमें नए सिरे से सोचने पर विवश करती है। लीलाधर जगूड़ी कहते हैं -
 ‘‘सारे रास्ते पेट तक जाकर गुम हो गए हैं / और पड़ोसी अपनी औकात से भी कम हो गए हैं ।’’
 कविता का काम सिर्फ यथार्थ की फोटोग्राफी या समाज के अंतःकरण का एक्सरे करना नहीं है, उसका दायित्व उपचार या दिशा निर्देश करना भी है । एक भिन्न स्तर पर मैंने भूख या जैविक संरचना के अतिक्रमण की शब्द-साधना भी की है -
 ‘‘ जा रहा हूँ भूख को उपवास का मैं अर्थ देने / निज चिता की भस्म से भगवान को मैं जन्म देने,
 संहार को मैं सृजन का अधिभार देने जा रहा हूँ / बुद्ध के क्षणवाद को विस्तार देने जा रहा हूँ ।
 उस मिथक को तोड़ने मैं आ रहा हूँ ।’’
 पे्रम मनुष्य की कमजोरी नहीं, उसकी शक्ति है । वह यथार्थ और विवेक का आच्छादन नहीं, उसे उद्भासित करने वाली ऊर्जा है -
 ‘‘थकते हुए हाथ में मेरे / तेरी दृष्टि कलम हो जाती । 
 केवल बाहर की आँखों से / ऐसी दृष्टि नहीं दिखती है ।
 हम हैं ऐसे गीत कि / जिनका अक्षर-अक्षर तू लिखती है ।
 कैसे रोज पिघल कर तू / इन आँखों में शबनम हो जाती ।
 जिसे मिली अमृता दृष्टि तो / उसे शिकायत रही न विष से,
 एक बूँद भी रिस जाए यदि / लाखों परतों की जुम्बिश से ।
 चुटकी भर भी प्यार मिले / तो पीड़ा थोड़ी कम हो जाती ।’’
 संयत रूमानियत को काव्य-मूल्य के रूप में लेकर अवतरित होने वाले वीरेन्द्र मिश्र यदि अमृत के रूप में विष का अनुवाद करते हैं तो श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ का दिनमान भी उषा की मधुर छाँह छूकर ही स्फूर्ति पाता है और दिनभर गाता रहता है -
 एक पल को उषा की मधुर छाँह छू / साँझ तक मौन दिनमान गाता रहे ।
 नयन से व्योम का तम निगलता रहे / भूमि पर ज्योति का गान छाता रहे ।
 चाहता था विरह की रचूँ जिन्दगी / बात मेरी मिलन की अधूरी रही ।’’
केदारनाथ सिंह कहते हैं -
 ‘‘जहाँ लिखा है प्यार / वहाँ लिख दो सड़क / कोई फर्क नहीं पड़ता
 मेरे युग का मुहावरा है / कोई फर्क नहीं पड़ता ।’’
 फर्क तो पड़ता है भाई ! महानगरीय सभ्यता के रोबोट-मानवों पर, जो प्रकृत जीवन से बहुत दूर हो चुके हैं -
भले कोई फर्क न पड़े पर गाँव के घरेलू जीवन पर प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है - 
 ‘‘टूट रही है देह सुबह से / उलझ रही हैं आँखें 
 फिर बैठी मुँडेर पर मैना / फुला रही है पाँखें ।
 मेरे आँगन महुआ फूला / मेरी नींद हराम ।’’ ........................ कैलाश गौतम
 छोटी उमर सयाने सपनों से सजी गोरी देह गहागह पियरी पहने भाभी का जब हमार मन-प्रांगण में पदार्पण होता है तब कविता का तेवर देखने लायक होता है -
 ‘‘क्या कहते हैं / पढ़ने लायक सरसों के तेवर ?
 भाभी खातिर कच्ची अमियाँ / बीछ रहे देवर ।’’
और वह अमियाँ जब भाभी के भीतर अंकुरित होती है तो सारे छंद टूट जाते हैं और देहयष्टि का आत्म-विस्तार चुलबुले बिम्बों की सृष्टि करता है । कैलाश प्रकृति के परिवर्तनों को मानवीय सरोकार देने में बड़े कुशल हैं । तन की, मन की बारीक संवेदनाओं को उकेरने में सिद्धहस्त कैलाश के बिम्बों की विशेषता उनके नयेपन में नहीं, अनूठेपन में है । चैत गेहूँ की पकती बालियों में बाद में उतरता है, हिचकी लेती बुआ के डोली में बैठने में पहले आ जाता है । गाँव के घरेलू परिवेश को मनसायन (मुखर) करने वाले इन गीतों की सृष्टि गाँव के तपोवन में सिर्फ पिकनिक मनाने वालों से संभव नहीं । वैसे इस समय लेखन के क्षेत्र में भी शहरी जमीन की कीमत बढ़ गई है । पर पर्यावरण संकट के इस दौर में हमारे रचना समय को अन्ततः गाँव में साँस लेनी होगी । इसीलिए नवगीतकार दुनियाँ भर की बड़ी-बड़़ी बातें छोड़कर गाँव-घर की आत्मीय दुनियाँ की बात करता है । शंभुनाथ सिंह यदि गमलों को धूप से हटाने और बुझी हुई अंगीठी को जलाने की बात करते हैं तो डाॅ0 जीवन शुक्ल के यहाँ नये साल की सुबह गैस के सिलेण्डर से चूल्हे की अनबन है । करवाचैथ के आलम्बन उमाकांत मालवीय के दर्पन पर सिन्दूरी छींट की आभा है तो श्रीकृष्ण तिवारी की परछाईं आदमकद दर्पण से टकराकर हजारों कोणों में विभाजित हो जाती है । उनके यहाँ बाँस-वनों की सीटियों की गूँज से सन्नाटे की झील पाँव तक थर्रा जाती है तो माहेश्वर तिवारी को सन्ताप के क्षणों में घर की याद आती है -
 ‘‘धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई ।’’
 आनुभूतिक अद्वैत की गहन अभिव्यंजना शिवओम ‘अंबर’ की इन पंक्तियों में हुई है -
 ‘‘कृष्ण के पाँव मंे पड़े छाले - राधिका धूप में चली होगी ।।’’
 इस प्रेमयोग का प्रवर्तक अपरूप लावण्य और साहचर्य की प्रशस्त पृष्ठभूमि है । अज्ञेय के सहचर नेमिचन्द जैन भी किसी रूपपरी के अधखुले नेत्रों के वातायन से आती हुई तरल जुन्हाई (चाँदनी) में नहा उठते हैं और उस छवि के परिमल की मिठास से भाराकुल वासन्ती बयार चंचल नयनों के ऊपर से हठीले सुरभित केशों को हटा देती है और कवि सपनों के मदिर भार के कारण उन आँखों की गहराई में डूब जाता है -
 ‘‘डूबती निस्तब्ध संध्या / विरल सरि का चिर अनावृत गात / 
 जो किसी की आँख के अभिराम जादू के परस से / हो उठा है लाल ।’’ .................... (तारसप्तक)
 किन्तु अब यह सौन्दर्य-बोध गाँव के दिगंचल और दृगांचल से निरस्त हो उठा है । गुलाब सिंह गाँव के सूनेपन की पुकार पर कविता के गाँव लौटते हैं -
 ‘‘सूने-सूने अलाव / शाम बिन ठहाकों की । / चर्चायें औरों की / कटी हुई नाकों की ।।
 छोटी सी दिल्ली / हर कोना दालान का । /  नहर गाँव भर की है / पानी परधान का ।।’’
 बुद्धिनाथ मिश्र की बागमती घर आँगन ही नहीं धो गई, बालो पंडित जी की मड़ई भी डुबो गई और दुखनी की आँखों की कोर भी भिगो गई । इसीलिए भगवान स्वरूप श्रीवास्तव को लगता है कि धुँधुआती कंदीलें बेहतर थीं, सूरज ने तो चिकोटी काट ली । सभी गंध लेख पथरा गए और हम अनुत्तरित प्रश्नों से पेपरवेट के तले दब गए हैं -
 ‘‘मेजों पर रोपें संकल्पों के कल्पवृक्ष / आँखों में कुचल गए स्वप्न हरसिंगार के ।’’
 फलतः कंधों पर अपना ही बोझिल कंकाल लिए पंथहीन पाँव चल रहे हैं । मंजिल कहाँ है ? केदारनाथ सिंह एक किसान की आत्महत्या का मार्मिक बयान करते हैं -
 ‘‘बस यहीं पहुँच कर अटक जाती थी उसकी गाड़ी / सूर्योदय और सूर्यास्त के विशाल पहियों वाली
 ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़ / कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज आई /
 और उसे कुचलती चली गई ।’’
 शायद उसने मौत की फसल काट ली थी । होठों में हल्की सी मुस्कान दबाए वह चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था । शायद इसीलिए नईम के यहाँ कबूतर बनकर मुँड़ेरों पर पूर्वज पंख फड़फड़ाते हैं -
 ‘‘फड़फड़ाते हैं मुँडेरों पर कबूतर / मेघ तीतर वर्ण, संध्या खून से तर ।’’
 इसीलिए बीच आँगन में खड़ी अपराजिता तुलसी ही नहीं, रोशनी के फूल भी मुरझा गए हैं । बूढ़े शहर की परछाइयाँ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं । समय बीतता गया । मामला ठंडा पड़ गया पर योगेन्द्रदत्त शर्मा को लगता है -
 ‘‘बर्फ सी ठंडी हुई है रेत / पर खरगोश अब तक तिलमिलाता है !
 डबडबाई हुई आँखों में / वही बस दृश्य अक्सर झिलमिलाता है ।’’
 इस तरह की घटनाओं की बार-बार की आवृत्ति ने हमें प्रायः अभ्यस्त और संवेदन शून्य बना दिया है । जैसे कुछ हुआ ही न हो । हिमदंती हवा देह बींधती रही और ज्वालामुखी बर्फ में ढलने लगे -
 ‘‘धुएँ गीली आँख के काजल हुए !  सूर्य-देही अब सजल बादल हुए ।’’
 अक्षर-अक्षर स्याही आँजे नवगीत का शिल्प चिटक गया - जिस पर स्वप्नगंधा रोशनी का छंद फिसलता है । सूरज छूने की इच्छाएँ घर की कैद बन गईं तो ‘लाजो’ दिल्ली में बसकर शरमाना भूल गई । इस सर्वव्यापी बदलाव के दौर में भी विजय किशोर मानव भूख-प्यास के बोझ तोलते, भरे धुएँ में पंख खोलते पानी पर दिया बनकर जलने को तैयार हैं -
 ‘‘नदी जेठ की लगती काया / सिरपर सिर्फ धूप की छाया ।
 कब तक बनकर दिया जलोगे पानी पर ?’’
 इन प्रश्नों के आलोक में सड़कों ने दिनभर दुर्घटनाओं के पाठ पढ़े । संदर्भ से कट कर जीता हुआ विषय, अपनी ही छाया से डरे हुए लोग यदि सभ्यता का विपर्यय रचते हैं तो कभी-कभी कमरे की चुप्पी भी बातें करने लगती है -
 ‘‘वासनाएँ जिन्दगी से भी बड़ी हैं / प्यास बनकर उम्र की छत पर खड़ी हैं ।
 तृप्ति के पथ पर मरुस्थल सो गए हैं / हम भटकते रास्तों में खो गए हैं ।।’’
 कुहरे की पर्तों में लक्ष्य-बिन्दु खो गए । नीम की हिलती हुई परछाइयों के दर्द और तनाव, चेहरे पर थकान के जाले बुनने लगे । तिनकों को आँधी के खूनी जबड़े निगल गए और लगा कि हम फुटपाथों की दीवारों में कीलों से जड़ दिए गए हैं । तभी अचानक देह से लिपटी यादों के आयाम अनुष्टुप छंद रचने लगे -
 ‘‘हौले-हौले गगन झुक रह, धरती उड़ती जाए ।
 फसल पुकारे मेघों को, फसलों को मेघ बुलाए ।
 मैं परदेसी तुझे पुकारूँ, तू मुझको घर से ।
 ना माने बदरवा बरसे ।।’’ ........................... डाॅ0 रामदरश मिश्र
 रसवर्षा और प्रकृत काव्य-प्रवाह की दृष्टि से रामदरश मिश्र का गोत्र भवानी प्रसाद मिश्र से मिलता है । सावन में साजन से सुहागिन का मिलन देखें -
 ‘‘पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री!’’
 उल्लास और अवसाद के मिलन का धूपछाँहीं तनाव - विगत वर्ष की डरावनी परछाइयों के साथ नए वर्ष का आगमन आँखों में चलचित्र सा तैर उठता है - 
 ‘‘देहरी पर आ बैठा / एक नया साल और !
 फिर से आए मन में / दूध के उबाल और !’’  ..................... जहीर कुरैशी
 सपनों के मछुओं ने जाल फैला दिए, यद्यपि हर अपाहिज वेदना द्रौपदी का चीर हो गई है । हर आइना बिम्ब को पीता हुआ लगता है । चाँदनी ने अपनी गंध कौड़ियों में बेच दी है । आयातित अंधकार के पीछे दौड़कर हमने स्वयं सूरज की उँगलियाँ छोड़ दी हैं । फिर भी आग छूकर ही हमने जलन-अनुभव कमाया है । और हम जानते हैं कि दृष्टियों का कसैलापन कसमसाती प्रीति में बदला जा सकता है । कंकड़ फेंक कर देखो तो ! जल की सभी गहराइयाँ काँप उठती हैं। नागफनी को अमलतास से अपदस्थ किया जा सकता है -
 ‘‘झरते हैं आस-पास / पियराए अमलतास ।
 थकी हुई गायों सी / निंदियाती शीशम की छायाएँ / तालों पर कर रही जुगाली ।
 बैंजनी दरारों सी / चीलें उड़तीं नभ पर । / दूर अभी संध्या सिंदूर पंख वाली ।’’
 याद आती हैं कालिदास की किन्नरियाँ जो गैरिक सिन्दूर से पे्रम-पत्र लिखती हैं । यह है गीत का स्थापत्य और छायादु्रमों के पत्तों पर दहकते धूप के अक्षर । जिन लोगों को लगता है कि दो-एक संकलनों के बाद गीतकार बुझता हुआ नजर आता है उन्हंे अपने दृष्टिदोष का इलाज कराना चाहिए । गीत ‘गेहूँ’ नहीं, जिसे हार्वेस्टर से काटा जाए, वह तो ‘गुलाब’ है जिसमें खेत-खलिहान की महक मिली हुई है -
 ‘‘तान ली है फूलों की काम ने कमान ! / गंध की ऋचा बाँचें खेत-खलिहान ।
 विश्व-व्यापी वेदना का नशा सब पर चढ़ गया - या थर्मामीटर का ही बुखार बढ़ गया ।
 आदमी की कौन कहे, आम भी बौरा गए, होली में रंगों से पेड़ भी नहा गए ।’’ 
 .............. अजित कुमार राय
 प्रिया को छद्म नाम से पुकारने वाला गीतकार वक्त की मीनार पर उसके साथ खड़ा है । यादों के अपशकुनी चेहरों को छोड़कर उखड़ी दीवारों पर स्वस्तिका रचाता हुआ, होठों पर चिकनाए गीले आमंत्रण को दोहराता हुआ गीत सिर्फ प्रश्नों और समस्याओं की रिपोर्टिंग नहीं, वह शम्भु-शरासन को उठाने का उद्योग है । आणविक विखंडन तथा काॅस्मिक हलचल से लेकर नवांकुर के प्रकंपन तक से उसकी गहरी पहचान है । ग्रीष्म की झलझलाती - तपती सड़कों पर नंगे पाँव चलते हुए, ट्रेनों-बसों के घर्घर नाद को स्वायत्त करते हुए उसने अपने आप को एक नई संगीतात्मक अस्मिता प्रदान की है । छोटी-छोटी चीजों और मानसिक स्थितियों के माध्यम से मानवीय उपस्थिति को दर्ज किया । जिंदगी के समूचे तिलिस्म को विडंबना-बोध के रूप में बिंबित किया । किन्तु जन-बादी कविता के शोर को संगीत में बदलने के बावजूद उसे कविता की नागरिकता प्रदान नहीं की गई -  ‘‘शोर में डूबे हुए हैं क्रान्ति के स्वर ।’’
 विजय कुमार बात के भीतर से बात निकालने वाली अन्तदृष्टि से रहित आज की आइडियावाद की मारी फास्ट-फूड कल्चर की कम्प्यूटर-पोएट्री से त्रस्त तो हैं पर विष्णु खरे की सरल सी दिखती कविता के जटिल शिल्प से उबर नहीं पाते ।
 आत्मानुशासित संतों के समाज में पुलिस की कोई जरूरत नहीं होती । किन्तु इस बहुरूपी समाज में साधुवेश में ही सीता का अपहरण होता है । छंदों के अनुशासन से मुक्त होकर बहुत अच्छी कविताएँ लिखी गईं किन्तु इसी व्यवस्था ने कविता में गद्य की घुसपैठ को वैधता प्रदान की, कविता में गद्य के विन्यास को महिमा मंडित किया । यही नहीं, कुछ निर्गुणोपासक आलोचकों ने उन रचनाओं में अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब भी देखा, रचना में जो नहीं है उसे भी पढ़ा । सो खोटे सिक्कों ने खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर दिया । किन्तु गीत के पास स्वर्णमुद्रा की तरह इन्ट्रिन्जिक वैल्यू (स्वायत्त मूल्य) था । वह कागजी नोट की तरह फेस वैल्यू (प्रदत्त मूल्य) या प्रतिष्ठानिक मान्यता का मोहताज नहीं था। गीत की अपनी सीमाएँ हैं परन्तु वह अनुभूतियों का लोकतन्त्र है । गीत जीवन की रागात्मक व्याख्या है । कुमार रवीन्द्र के अनुसार ‘‘गीत सम्वेदना और मानुषी सरोकारों के सबसे सूक्ष्म संसर्गों से उपजता है ।’’ गहरे आत्म-संघर्ष से गुजर कर ही गीत का परिपक्व शिल्प प्राप्त होता है । और सच पूछें तो गीत कविता की कसौटी है । एजरा पाउण्ड ने ठीक ही कहा है कि ‘‘कविता जब संगीत से दूर निकल जाती है तो दम तोड़ने लगती है ।’’
 दूसरी तरफ मंच को ऊँचा उठना होगा और समय के तेज भागते पहियों की लय में गीत खोजना होगा । छंद के नाम पर कोरी तुकबंदी से ऊपर उठकर गहरी अर्थ-व्यंजनाओं, शब्द-जीवन की सूक्ष्म अर्थच्छवियों एवं कलात्मक संयम का रचनात्मक विनियोग करना होगा । 
 छंद कविता की आयु है । पूरे ब्रह्माण्ड में एक लय है । डाॅ0 रामदरश मिश्र का कहना है कि ‘‘गीत हमारे पूरे समय को समेटने में समर्थ नहीं ।’’ अर्थात् जिन्दगी के आघूर्णन, व्यक्ति और समाज की संश्लिष्ट जैविक संरचना, जीवन की सूक्ष्मतर विडंबनाएँ, मनोसामाजिक ग्रन्थियाँ और नई कविता की ऐन्द्रियता और बहुध्वन्यात्मकता गीत की शिल्प-प्रविधि के लिए बहुत बड़ी चुनौती है । किन्तु मेरी दृष्टि में नवगीत में समय का प्रभाव छनकर आना चाहिए - जिन्दगी के परावर्तन (रिफ्लेक्शन), सीधे समय को समेटने का दावा नहीं । कालांकित होने के प्रयास में अपनी प्रासादिकता और प्रभावान्विति खोकर गीत भी अगीत या बौद्धिक व्यायाम न बन जाय । नवगीत और नई कविता के बीच की दूरी सिमटनी चाहिए । क्लास और माॅस की पोएट्री का गैप कम होना चाहिए । जिन्दगी की लय आज टूट गई है ।  उस बिखराव का संयोजन गीत का धर्म है । अनामिका के शब्दों में आज कविता की ‘बाथरूप सिंगिंग’ बढ़ती ही जा रही है । अपेक्षित भाव-साधना का अभाव कविता के क्षरण का एक बड़ा कारण है । 
 नवगीत नई कविता के समानांतर गतिशील एक सार्थक सृजन-यात्रा है - कई बार नई कविता से अधिक सक्षम विधा । नवगीत को तिरस्कृत कर समकालीन कविता ने अपने परिसर को परिमित अवश्य कर लिया -
 ‘‘अनचीन्हे हुए हमें अपने ही हस्ताक्षर / पत्रों के पार गई जंग लगी पिन ।   ............. सोम ठाकुर । 
 किन्तु नवगीत अंतरों की भीड़ में धु्रव पंक्ति की तरह खो नहीं गया । उपेक्षाओं से ऊर्जा ग्रहण करता हुआ नवगीत आगे बढ़ता रहा -
 ‘‘पाँव में हो थकन, अश्रु भींगे नयन / राह सूनी, मगर गुनगुनाते चलो ।
 यह न सम्भव कि हर पंथ सीधा चले / यह न संभव कि गन्तव्य सब को मिले,
 वाटिका बीच कलियाँ लगें अनगिनत / यह न संभव कि हर फूल बनकर खिले ।
 यदि न सौरभ मिला, तो यही कम नहीं / राह मधुमास की तुम बताते चलो ।’’ ................ श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’
 डाॅ0 सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी का संकल्प तो इतना प्रशस्त है कि वे रोशनी की पगडंडियों के बिना भी मंजिल तक पहुँचने का हौसला रखते हैं -
 ‘‘रोज-रोज की भागदौड़ में / जूते क्या, घिस गए पैर भी ।
 लेकिन पहुँचेंगे मंजिल तक / हम पगडंडी के बगैर भी ।।’’
 ठाकुर प्रसाद सिंह, नईम, उमाकांत मालवीय और स्वयं शम्भुनाथ सिंह (कुछ गीतों को छोड़कर) बहुचर्चित होने के बावजूद मुझे बहुत अपील नहीं कर पाए । यश मालवीय के गीत मुझे बहुत अच्छे लगे ।
 एक नया सौंदर्य-शास्त्र सांकल बजा रहा है । नवगीत अपने युग के संश्लिष्ट सौन्दर्यबोध और समकालीन अंतद्र्वन्द्व को भलीभाँति व्यक्त कर सकता है । वह एक सक्षम विधा है। उसे अपेक्षाकृत नई फंतासियों, मिथकों या अन्य काल्पनिक कला माध्यमों का सहारा लेकर समकालीन वैचारिकी को समग्रतर अभिप्राय देने की चुनौती को स्वीकारना होगा -
 ‘‘तृण हुआ है बोझ मन का / द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।
 अंकुरण के दूध में ही / जहर का छींटा पड़ा है ।
 मौज में बैठे रहे / आहूत-अभ्यागत सभी -
 अग्नि में स्वाहा हुआ है / इक तथागत ही अभी ।
 मंत्रपूजित सिन्धुघाटी / में कहीं मुर्दा गड़ा है ।
 कालजल की त्रासदी में / युग-मगर कितना बड़ा है !’’