गुरुवार, 22 अगस्त 2024
शुक्रवार, 16 अगस्त 2024
नवगीत कविता के समकालीन परिदृश्य के अदृश्य कवि : डॉ.जीवन शुक्ल ©आलेख : मनोज जैन
डॉ जीवन शुक्ल आलेख मनोज जैननवगीत कविता के समकालीन परिदृश्य के अदृश्य कवि : डॉ.जीवन शुक्ल
©आलेख : मनोज जैन
डॉ.जीवन शुक्ल जी, से मेरा पूर्व का कोई परिचय नहीं हैं। यों, तो समय-समय पर मेरा मिलना-जुलना अनेक कवियों से हुआ है। गीत-नवगीत के संकलनों से लेकर शोधसन्दर्भ ग्रन्थों तक की यात्रा में भी मुझे जीवन शुक्ल जी कहीं दिखाई नहीं दिए। इससे दो बातें निकलकर सामने आती हैं या तो मैं इन्हें नहीं पहचान सका या फिर उन संपादकों ने समय रहते इन्हें नहीं पहचाना, हो सकता जानबूझ कर दरकिनार कर दिया। बहरहाल, जो भी हो संकलनों में होने या ना होने से शुक्ल जी के साहित्यिक महत्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता और ना ही उन्हें इसका कोई मलाल है।
अमूमन, नैसर्गिक प्रतिभा के धनी व्यक्तियों के साथ ऐसा इसलिए किया जाता है कि वह अनावश्यक ऐसे मानी संपादकों के फेर में नहीं रहते, और ना ही अपने लिखे का बढ़-चढ़ कर महिमामंडन करते हैं। हाँ, एसे लोगों को अपने लिखे पर, गर्व जरूर होता है जिसे साजिशन कई बार 'दम्भ' की श्रेणी में रखकर एक नैरेटिव की तरह प्रचारित कर दिया जाता है। ऐसा राजनैतिक क्षेत्र में तो आम है ही, पर साहित्य में राजनीति से भी ज्यादा राजनैतिक पैंतरेबाजी देखने को मिलती है। इस पूरी कबायद में, प्रतिभा को हाशिये पर धकेल दिया जाता है। पर प्रतिभा तो प्रतिभा है वह अपनी जगह मुख्यपृष्ठ पर बना ही लेती है।
खुजहा, फतेहपुर उत्तरप्रदेश में जन्में वरेण्य कवि डॉ.जीवन शुक्ल जी ऐसे ही प्रातिभ कवियों में से एक हैं, जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में, जो भी लिखा उद्देश्यपूर्ण लिखा। मैंने डॉ.जीवन शुक्ल जी के खरेपन को पहले सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म फेसबुक पर मेरे ही द्वारा संचालित समूह 'वागर्थ' में प्रस्तुत पोस्ट पर उनकी तार्किक, सारवान और तीखी टिप्पणियों से जाना, फिर यदा-कदा टेलिफ़ोनिक वार्ताओं से भी उन्हें पहचानने के भरपूर अवसर मेरे हिस्से में आये।
देखा जाय तो डॉ.जीवन शुक्ल जी की गिनती महाप्राण निराला की परम्परा के उद्भट विद्वानों में होती है, वैसे भी निराला जी ने इस आशय के संकेत स्वयं शुक्ल जी को दिए भी हैं। सम्बन्धों के मामले में शुक्ल जी सचमुच धनी रहे हैं। यह बात और है कि उन्होंने, अपने स्वाभिमान के चलते संम्बधों का कहीं कोई लाभ नहीं लिया, जबकि सच्चाई तो यह है कि, तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह जी स्वयं शुक्ल जी को सांसद का टिकिट देना चाहते थे। खैर, इस बात को यहाँ विस्तार देना विषयान्तर होगा।
डॉ.जीवन शुक्ल जी को, जैसे-जैसे जानने और समझने का मौका मिला, उनका विराट व्यक्तित्व मेरे सामने और खुलता चला गया। निःसन्देह! शुक्ल जी के बड़े व्यक्तित्व के पीछे शुक्ल जी के ठोस विचार हैं, जो हर हाल में उन्हें दृण और रीढ़ के बल खड़ा रखते हैं। डॉ.जीवन शुक्ल जी बहुभाषाविद हैं। उर्दू, हिंदी,अंग्रेजी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में वे, साधिकार लिखते हैं। आपकी शैली में अकाट्य तार्किकता है जो पाठक को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।
कथन की पुष्टि के लिए उनकी एक समानांतर - गीत कृति "दर्द साक्षर हो गया है" से दो-एक बातें उल्लेख करना चाहूँगा ; पहली बात, अपने आत्म कथ्य "ये गीत" शीर्षक में वे स्वयं अपने सन्दर्भ में लिखते हैं; वे कहते हैं कि "वादों की भाषा में, "मैं जीवनवादी हूँ," और आलोचना की बिरादरी की व्याख्या में सर्वकालिक !"
दूसरी बात, नवगीत को अपने शब्दों में परिभाषित करते हुए कवि डॉ जीवन शुक्ल जी ने, कम शब्दों में सटीक और प्रासङ्गिक बात कही है। वे कहते हैं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के साथ लिखा गया गीत ही 'नवगीत' है। मैंने, आरम्भ में संपादकों की खेमेबाजी का जिक्र किया था। इस बात के संकेत इस भूमिका में भी दिखलाई देते हैं। शुक्ल जी ने बड़ी साफगोई से लिखा है। वे कहते हैं कि;- "कुछ प्रतिबद्ध बौद्धिक बैतालिक साहित्य की धरती पर नए टापू बसाकर जिल्लेसुभानी होने का सुख जीना चाहते हैं। मुझे उनसे भी दुराव नहीं है क्योंकि पठारों, नदियों, पर्वतों और टापुओं के एकमिलन से ही धरती का सौंदर्य, साहित्य की थाती और मानवता के मुक्त विचरण का आंगन सजता है। चिंतन में,तथा शिल्प में भिन्नता तो मान्य है, पर वरेण्य है पर बिरादरी से विद्वेष अपने लिए ही घातक है।" डॉ.जीवन शुक्ल जी के उक्त कथन के आलोक में बहुत कुछ छिपा है। प्रातिभ रचनाकारों को अपने समय के शोधसन्दर्भ ग्रन्थों में शामिल ना करने के कुत्सित इरादे को भी सांकेतिक रूप से इस कथन में जरूरी जगह मिली है। डॉ.जीवन शुक्ल जी स्वयं को या किसी अन्य को नकारने की बात कबीराना अंदाज़ में कहते हैं। उन्हें स्वयं को नकारे जाने का कोई मलाल नहीं, यह उनके स्वाभिमान की ठसक का उच्चतम प्रतिदर्श है, लेकिन उनका कहना है कि नकारने के लिए भी आप रचनाकार के व्यक्तिव और कृतित्व को पढ़ने का जो धर्म तुम्हारे हिस्से में आया है, उस धर्म का निर्वहन तो किया ही जाना चाहिए।
मैं, डॉ.शुक्ल जी की, इस तार्किकता को प्रणाम करता हूँ। मेरी दृष्टि में हर लेखक और समीक्षक को, इस कोट को, अपने ज़ेहन में रखने की जरूरत है।
" दर्द साक्षर हो गया है " डॉ.जीवन शुक्ल जी के 65 महत्वपूर्ण समानांतर गीतों का अनूठा दस्तावेज है जिनमें अपना समय खुलकर बोलता है। द्रष्टव्य है उनके एक महत्वपूर्ण गीत का अंश जिसमे उन्होंने साहित्यिक ख़ेमेबाजी का ख़ाका खुलकर खींचा है।
देखें उनके गीत का एक अंश;- "मेरा कद छोटा करने को/कोई बड़ी लकीर न खींची/लेकिन कीचड़ को उछालकर/तुमने होली ही कर डाली/सदा सर्वदा एक रंग ही/रहा प्रकट अपनी आँखों में/लदी हुई फल से हर डाली/उगे फूल उपवन शाखों में/मेरा उन्नत शिखर घटाने/नए क्षितिज किसने कब खोजे/लेकिन धूल भरे बादल से/तुमने अपने में जय पाली/"
संग्रह के, लगभग सभी गीत पाठक का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचते है। भिन्न भावभूमियों पर सृजित इन गीतों में हमें जीवनानुभव की अनन्त छवियाँ स्पष्ट को देखने मिलती हैं। डॉ.जीवन शुक्ल जी के काव्य संसार में हम जितने गहरे उतरते हैं; अर्थ की व्यापकता उसी स्तर से जुड़ती चली जाती है। उनके रचनात्मक अनुशीलन में एक बात और जो मेरे देखने और समझने में स्वाभाविकरूप से आई है, वह है समय सापेक्षिक प्रासंगिकता। देश, दुनिया की स्थितियां जो भी हों, पर शुक्ल जी के गीत हों या कविता उनका रचनात्मक कथ्य आज भी उतना ही प्रासङ्गिक और धारदार है जितना, आज से पाँच दशक पहले के समय में हुआ करता था।
देखिए उनकी पुस्तक क़लम अभी ज़िंदा है" से एक गीत ;- ये वतन अपना नहीं /ये चमन अपना नहीं/बना लें अपना इसे/या चलें और कहीं/जिसके मन्दिर में/मुसलमा का ऐतबार न हो/जिसकी मस्ज़िद में/हिन्दुओं के लिए प्यार न हो/जिसके गुरुद्वारे में/सूफी को तसव्वुर न मिले/जिसके सीने में जिगर/हाथ में तलवार न हो/ये वतन अपना नहीं/ये चमन अपन नहीं/बना लें अपना इसे/या चलें और कहीं
उक्त पंक्तियों को पढ़कर आप स्वयं निर्णय करें जिस सौहार्द की चाह या कामना कवि के मानस में है वह वर्तमास में आपको कहीं दिखाई देती है? आज कल चारों तरफ नफ़रत का विषाक्त वातावरण है। सच तो यह है सौहार्द्र की बात करने वाले को आज देशद्रोही ठहराया जा रहा है। इसी के साथ डॉ.शुक्ल जी की एक और 54, कविताओं की पुस्तक "बोलो प्राणों के अस्ताचल" पढ़ने का सौभाग्य मेरे हिस्से में आया। बोलो प्राणों के अस्ताचल में कवि ने कबीराना अंदाज में अपने जीवन के द्वैत को ख़ूबसूरती के साथ उकेरा है। इस पुस्तक में शैली के आधार पर रचनाओं को गीतों और नवगीतों में बाँटा जा सकता है। यह पुस्तक मूलतः शुक्ल जी के दार्शनिक पक्ष को पाठकों के सामने लाती है। "बोलो प्राणों के अस्ताचल" की पृष्ठभूमि अन्य दोनों पुस्तकों की भाव भूमि से एक दम अलग है। वरेण्य कवि डॉ. जीवन शुक्ल जी के वारे में और भी सविस्तार लिखने का मन है।
सच्चाई यह है कि मेरी लेखनी शुक्ल जी के भावों और विचारों को पकड़ने में असफ़ल रही है। शुक्ल जी असाधारण प्रतिभा और व्यक्तित्व के धनी हैं। स्वभाव में स्वाभिमानी अक्खड़पन है पर भीतर से उतने ही संवेदनशील हैं। उनके चिंतन में बहुत कुछ नया झलता है। तभी इसना सुलझा स्टेटमेंट उनका जीवन कोट है जिसे वह जीते हैं और सपने कथन का अनुसरण भी करते हैं। बकौल डॉ जीवन शुक्ल "ज्ञान और संपत्ति दोनों पर समाज का अधिकार है। दोनों का प्रयोग समाज के लिए होना चाहिए।"
डॉ. शुल्क जी अपने भावों पर किसी तरह का कोई पर्दा नहीं डालते जब जो जैसा मन में भाव आता है उसे वैसा ही लिख देते हैं। पारदर्शिता उनके स्वभाव में है तभी तो वह अपने एक गीत में कहते हैं;-
"जागूँ तो सोने का मन हो
सोऊँ तो जागरण सताए
गीत लिखूँ तो अधर न बोले
मौन रहूँ मन जी भर गाए"
सार संक्षेप में कहूँ तो वरेण्य कवि साहित्यकार डॉ जीवन शुक्ल का लिखा, जितना मैंने पढ़ा,और मैंने जितना उन्हें समझा, मुझे तो अच्छा लगा।
आप भी पढ़ें! किसी को ख़ारिज करने के लिए ही सही पर पढ़ें! हाँ, एक बात और बेशक लोगों को ख़ारिज कीजिए लेकिन ऐसा करने से पहले उन्हें एक बार पढ़ जरूर लें। समापन का समय है और ऐसे में मुझे अपने ही लेख का आरम्भिक भाव स्मृत हो आया। नवगीत दशक से लेकर अब तक के संकलनों में यदि डॉ शुक्ल होते तों शुक्ल जी के होने से उन दस्तावेजी संकलनों का मान ही बढ़ता और नहीं होने से शुक्ल जी जैसे मूर्धन्य व्यक्तित्व को कौन सा फर्क पड़ा!
डॉ.जीवन शुक्ल जी, शतायु हों
वैसे भी दार्शनिक तो हमेशा अपनी मस्ती और लय में ही जीता हैं यह बात और है कि हम उस आनन्दमयी भाव दशा को समझ ही नहीं पाते! तभी तो वह लिखते हैं;
मन तो पवन झकोरे सा है
कभी इधर तो कभी उधर
तुम्हीं कहो गंतव्य प्राण के
अपना महामिलन कब होगा?
पता
मनोज जैन
106 विट्ठलनगर गुफ़ामन्दिर रोड
भोपाल
462030
9301337806
मंगलवार, 13 अगस्त 2024
भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक बोध के गीतों का अनूठा दस्तावेज:
गीतों के भी घर होते हैं
मनोज जैन
पीतल नगरी मुरादाबाद के प्रख्यात व्यंग्यकार डॉक्टर मक्खन मुरादाबादी जी से मेरा परिचय ना तो नया है और ना ही बहुत पुराना। पर हाँ, कम समय में, मैंने उनके संवेदनशील मन की अतल गहराई में डूबकर थाह जरूर ली है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े अनेक पहलुओं के आधार पर मैं यह बात अपनी तरफ से ठोक बजाकर कह सकता हूँ, कि दादा मक्खन मुरादाबादी जी बेहद सुलझे हुये और नेकदिल इंसान हैं। दादा से पहली ऑनलाइन क्रिया प्रतिक्रिया वाली भेंट समूह सञ्चालन के दौरान हुई थी जिसका जिक्र "गीतों के भी घर होते हैं" के प्राक्कथन,जो उन्होंने "बरस गए जो गीत" शीर्षक से लिखा है,में किया है। बात उन दिनों की है जब समूह वागर्थ अपनी पहचान पुख्ता कर चुका था और प्रस्तुतियाँ अपने चरम पर थीं। बहुत सारी टिप्पणियों में से मक्खन दादा की समग्र टिप्पणी प्रस्तुत रचनाकार के लिए बड़े महत्व की होती थीं। दादा की टिप्पणी निष्पक्ष रूप से रचनाकार की सराहना के साथ-साथ गुण और दोष पर सांकेतिक प्रकाश डालती थीं। दादा सत्साहित्य को सराहने वाली पीढ़ी की अगुआई करते हैं। प्रतिकूल स्वास्थ्य होने पर भी यह क्रम आज भी निर्बाध गति से जारी है। हाल ही में मेरा दादा की कृति "गीतों के भी घर होते हैं" के पूरे दो कम एक सौ गीतों से गुजरना हुआ। पूरे संग्रह के गीतों को यदि एक सूक्ति में बाँधना हो तो "सत्यम शिवम सुंदरम" की सूक्ति इस पूरे गीत संग्रह पर एक दम फिट है।
इस कृति का आरम्भ भारतीय परम्परानुसार मंगलाचरण से होता है मातु शारदे से वर मांगते हुए कवि लोकमंगल की कामना करते हुए लोक हित में देशवासियों के मङ्गल की मनोकामना शुभ भावों की अभिव्यक्ति से करते हैं। इस प्रार्थना की खास बात यह है कि वे स्वयं के कल्याण की मंगलकारी प्रार्थना सबके मंगल के पश्चयात करते हैं।
पंक्तियाँ देखें
"मातु शारदे! मातु शारदे
कर्तव्यों की समझ वार दे
इसे तारकर, उसे तार फिर
और बाद में मुझे तार दे"
मुझे यह कहने में जरा सी भी अतिश्योक्ति नहीं लगती कि इन पंक्तियों में कवि के यह भाव, सम्पूर्ण शास्त्रों का निचोड़ हैं। और पाठकों से अतिरिक्त विश्लेषण की माँग करते हैं यहाँ "बाद" शब्द पर गौर फरमाइए, ऐसी उदारता तो बड़े बड़े संतों के यहाँ भी दुर्लभ है। भारतीय संस्कृति हो या सांस्कृतिक विरासत या फिर हमारी शाश्वत परम्पराएं या मान्यताएँ , कवि ने अपने कविधर्म का सम्यक निर्वहन करते हुए आपने गीतों में सांस्कृतिक बोध और अपनी सनातन ज्ञान परम्परा को समेटने की सफल कोशिश की है। कवि अपने समय को याद करते हैं,जहाँ हमारे पूर्वजों ने हमें एक भरापूरा सांस्कृतिक वैभव, विरासत में सौंपा था। नैतिकता हमारे संस्कारों में रची-बसी थी।
प्रकारान्तर से कहें तो मूल्यपरक संस्कार हमारे जीवन की सबसे बढ़ी पूँजी थी। कवि जब अपने देश की युवा पीढ़ी को पाश्चात्य सँस्कृति का खोखला अंधानुकरण करते देखता है, तो उसका मन पीड़ा से भर उठता है। तभी तो वह एक गीत " जिनका करना था नित पूजन " शीर्षक में अपने मन की बात बोझिल मन से कह उठते हैं; द्रष्टव्य हैं गीत की चुनिंदा पंक्तियाँ
"मिटा रहे हैं हम उनको ही /
जिनका करना था नित पूजन/
वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं/
इसमें बसी हमारी सांसें/
हमको कैसे जीवन दें ये/
रोज कटन को अपनी खाँसें/
हवस हमारी खा बैठी है/
हर पंछी का कलरव कूजन।"
पूरे संग्रह में विविध विषयों पर कुल जमा दो कम सौ गीत हैं। गीतकार की दृष्टि पैनी है वह अपने पाठकों को कभी अपने गाँव तो कभी तहसील की सैर कराते हैं तो कभी भावों के कैनवास पर शब्दों के रंग से प्रकृति के सुंदर चित्र उकेरते हैं।
दार्शिनिक अनुभूतियों के गीत प्रभावी बन पड़े हैं पिता पर केंद्रित नवगीत
"थककर पिता हमारे"
गीत में कवि जहाँ अनेक कोणों से पिता के महत्व के कई कई कोण खींचता है। इस गीत की विशेषता यह भी है यह हमें इह लोक से परलोक तक कि उर्ध्वगामी यात्रा के शुभ संकेत का बोध कराता है। देखें उनके गीत की कुछ पंक्तियाँ;
" इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता
इस पर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर पिता हमारे।"
मक्ख़न जी अपने गीतों में कथ्य का दमदार चुनाव करते हैं और छंदशास्त्र की कसौटी पर कसते हैं। उनके चिंतन में आम आदमी की संवेदना हैं। अपने समय पर पैनी नज़र है। एक अपनी पसन्द के गीत से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। इस गीत में कवि ने मन को छू लेने वाली बात बहुत सहजता से कही है। समय तेजी से बदल रहा है संवेदनाएँ छीज रही हैं। नज़दीक रहते हुए भी लोगों के मनों में मीलों की दूरियाँ आ बसी हैं। ऐसे समय में दादा मक्ख़न मुरादाबादी जी के गीत का रचाव बरबस ध्यान खींचता है।
द्रष्टव्य हैं उनके गीत का एक अंश;
"ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना
भीतर-भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें
प्रेम-परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें
परस भाव से अपने पन के
पन से पन को छूना"
हम भी इस परस के अपने पन के भाव में आकंठ डूबे रहें। दादा शतायु हों और ऐसे ही भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक बोध के अनूठे नवगीत रचते रहें।
मनोज जैन
संचालक वागर्थ साहित्यिक समूह
106
विट्ठलनगर गुफ़ामन्दिर रोड
लालघाटी भोपाल
462030
9301337806