गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

योगेंद्रदत्त शर्मा भाग दो

भाग एक
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भाग दो【क्रमशः】
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डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी की तीन दशक पहले की नवगीत यात्रा का सिंहावलोकन
टिप्प्णी
मनोज जैन
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                                          वाङ्गमय में एक शब्द आता है सिंहावलोकन इसकी व्युत्पत्ति पर चर्चा फिर सही,फिलहाल इसका उपयोग वरेण्य नवगीतकार डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी की शब्द यात्रा के सम्बंध में मुझे लाजिमी लगा।शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो एक बात जो स्पष्ट निकल कर सामने आती है वह यह कि विरले ही  सिंहावलोकन की प्रक्रिया से गुजरते हैं।सिंहावलोकन की इस प्रक्रिया से जो भी गुजरेगा,वह अन्यों की तुलना में निःसन्देह सफलता के नजदीक जरूर होगा।
                                       यह महज संयोग ही है कि, डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के सन 1986 में यानी आज से पूरे 34 साल पहले प्रकाशित पहले नवगीत संग्रह "खुशबुओं के दंश" के आत्मकथ्य में स्वयं उन्होंने अपने और अपने समय को लेकर सिंहावलोकन शब्द का उपयोग बड़े सार्थक अर्थ में किया है!
                                            Dr Yogendra Datt Sharma जी डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी को मैं शम्भूनाथ सिंह जी द्वारा सम्पादित नवगीत दशक में सम्मिलित
 तथाकथित प्रामाणिक दस्तावेजी नवगीतकारों 
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से,अलग मानता हूँ।अलग मानने का श्रेय उनकी सुदीर्घ साधना को जाता है,जिसके चलते डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी नवगीत के सृजनात्मकत अध्याय में,तब से लेकर अब तक निरन्तर नया जोड़ते चले आ रहे हैं।यही कारण है कि मैं और मेरे जैसे अनेक,उन्हें उनके हिस्से का आदर और सम्मान देते आ रहे हैं।
                      नवगीत दशक के रणांगन में तो रणछोड़ दास भी हैं जिन्होंने पाला बदलकर गजल का हाथ थाम लिया।अगर हम सिंहावलोकन करते तो उनसे नवगीत के मण्डप में ली जाने वाली उस गठबंधन की शपथ के वारे जरूर पूछते!जो उन्होंने नवगीत को व्याहते समय  स्वेच्छा ली थी!
                    और भी किस्से हैं,कहने सुनने को ऐसे ही दशक के अनेक पराजित योद्धा अपना-अपना ध्वज थामें,आज भी हारे हुए अश्वस्थामा की तरह मंचरूपी विक्रमों के कांधों पर बैठे मिल जायेंगे।
           आप सवाल उठा सकते हैं कि कोरोना काल में आयोजकों के पास तो मंचों का खासा टोटा हैं,फिर कैसा पाठ!
                         कौन कह रहा है कि पाठ नहीं हो रहा।अरे भाई वाचिक परम्परा तो अक्षय परम्परा है!भला यह कभी खत्म थोड़ी न होगी!खैर,गहन शोध के उपरान्त इस प्रश्न का उत्तर पहले से ही मेरे दिमाग में था।
             इन दिनों इन बेतालों की सर्वाधिक उपस्थिति कोविड 19 के चलते,असमय उग आये लोकेषणा के विक्रमी पेजों पर बनी हुई है।
                       जहाँ,सिर्फ ये लोग छंद कविता का बेड़ा गर्क करने पर तुले हुए हैं इसमें कोई शक नहीं इन तथाकथित दस्तावेजी नवगीतकारों ने सिर्फ़ नवगीत के नाम और बैनर को भुनाया भर है 'नवगीत के अवदान  के नाम पर किया कुछ भी नहीं!
                               अगर कुछ किया होता तो आज नवगीत के अस्त्तित्व पर संकट के बादल नहीं मंडरा रहे होते आज के समय पर दृष्टिपात करें तो गीत के अस्तित्व पर तो नहीं पर 
नवगीत के अस्तित्व पर खतरा जरूर मंडरा रहा है
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                     युवा नवगीतकारों को मेरे कथन को सकारात्मक अर्थ में लेने की जरूरत है और स्वयं के लेखन के सिंहावलोकन की!आइये सिंहावलोकन में आज पढ़ते हैं वरेण्य नवगीतकार डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के 34 वर्ष पहले लिखे गए तीन नवगीत जिन्हें उनकी पुस्तक "खुशबुओं के दंश" से लिया गया है।
                                           पुस्तक की बेहद रोचक भूमिका नवगीत के शिखर पुरुष डॉ देवेंद्र शर्मा इन्द्र जी ने लिखी है।साथ ही स्वयं योगेन्द्रदत्त शर्मा जी का पुरोवाक 
"कुछ अपनी,कुछ अपने युग की" आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना चौतीस साल पहले था।सिंहावलोकन शब्द मैंने यहीं से उठाया है ।जिसने पूरी टिप्पणी लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया
टिप्पणी
मनोज जैन
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टूटकर गिरने लगे कंधे
अरे यह बोझ!

बंट रही कहवाघरों में क्रांति 
रेस्तरा में 
मिट रही है भ्रांति
धुंध पीती हुई गलियों में 
कर रहे हैं आंख के अंधे 
सुखों की खोज !

साहबों की 
चमचमाती कार 
कर रही है 
धूप का व्यापार 
और ये नीले पड़े चेहरे 
मिल नहीं पाते इन्हें धंधे
चुका है ओज !

धौंकनी से 
गर्म निकली सांस 
चुभ रही
सूखे गले में फांस
पेड़ से लटके हुए झूले
गर्दनों पर कस रहे फंदे
नये हर रोज!
●●
तीर हाथों में लिये पैना
शिकारी आ गये!
नींड़ में सहमी मेरी हुई मैना
शिकारी आ गये!

आंख में 
भीगा हुआ क्रंदन
दृष्टियों में 
मूक संबोधन 
दर्द से चटका हुआ डेना
शिकारी आ गये!

गोद में 
सिमटे हुए चूजे 
जंगलों के 
शोर अनगूंजे 
स्याह गहरी हो गई रैना
शिकारी आ गये! 

हूक -सी 
उठने लगी दिल में 
आ गई है 
जान मुश्किल में 
कंठ में ही फंस गए बैना
शिकारी आ गये!

पहेली बूझने में
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जूझने में!
कट गया 
कट गया दिन फिर पहेली बूझने में 
एक मछुआ 
डालता है जाल जल में 
किन्तु फंस पाती न मछली
सिर्फ कछुआ
युक्ति भी आती न कोई
सूझने में!
एक कुचला दर्प
बैठा है समय की कुंडली पर 
फन उठाये 
बन विषैला सर्प
सारी उम्र गुजरी, नागदह को 
पूजने में !
एक उन्मन मौन  घहराया हुआ
परिवेश से थक-ऊब 
तोड़े कौन
अब तो व्यसत हैं स्वर,
खंडहरों में गूँजने में!

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