गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

महेश अनघ जी के एक नवगीत पर टीप





इस तरह निर्वाह लो तुम जिंदगी को फूल जैसे शूल को निर्वाहता है:महेश अनघ

पता नहीं क्यों,
कीर्ति शेष महेश अनघ जी के गीत की यह पंक्तियाँ "फूल जैसे शूल को निर्वाहता है"पढ़ते ही मेरे जेहन में गहरे धस गईं।अवसाद के कारकों और कारणों पर यदि हम गौर करें तो पाश्चात्य सँस्कृति काअंधानुकरण भी बड़े कारणों में से एक कारण है दरअसल,हम अपनी जड़ों से कटे हुए लोग हैं,अपनी बोली,बानी,परिवेश,देश यहाँ तक की अपना घर और घर में भी एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग ,हमारी अपनी सांस्कृतिक रीति,रिवाज ,इत्यादि को छोड़कर वाकी जो बचता है,
वह सब हमें भाता है।
             यहाँ तक कि हम अपने उद्धरणों में  सिर्फ झूठा आभामंडल और अपनी फेक आइडेंटिटी बनाने के चलते उद्धरणों में विदेशी विद्वानों को कोट करनें में अपनी शान समझते हैं।इसका मत यह कतई नहीं कि मैं उनके दर्शन या ज्ञान का का विरोध कर रहा हूँ ।मेरा आशय सिर्फ यह कि,आँगन की तुलसी के पास कम से कम कैक्टस को किसी भी कीमत पर ना रोपें!
विश्व के किसी भी दर्शन में आत्म हत्या को कहीं कोई मान्यता नहीं मिली काशी करवट जैसी कुप्रथाओं के मूल में अज्ञान था।बहरहाल,यहाँ कुछ लोक में प्रचलित सूक्तियों का उल्लेख करना चाहता हूँ जो,हममें हमारी जिजीविषा को अन्तिम सांस तक बनाए रखने में हमारी मदद करती हैं।
यह हमारी जिजीविषा ही है जो,तिनके में भी सहारा ढूँढ लेती है।यह भारतीय चिंतन दृष्टि ही है,जो कहती ही नहीं बल्कि हमें यह सिखाती भी है,जीने की हो ना इच्छा मरने की हो ना वांछा।
"नर हो न निराश करो मन को"
पँक्ति के रचेयता राष्ट्रकवि दादा मैथली शरण गुप्त मुझे यह टिप्पणी लिखते समय विशेष रूप से याद आए, उन्होंने नर शब्द का प्रयोग किया क्योंकि आत्म हत्या की यह प्रवर्ति सिर्फ मनुष्यों में ही पायी जाती है। जैन आगम को यदि यहाँ आधिकारिक सन्दर्भ मानकर कहूँ,तो देवताओं और नारकियों के यहाँ आआत्म हत्या या आपघात जैसा भाव नहीं पाया जाता।बुद्धि और विवेक की सापेक्षता से पशु पक्षी भले ही मनुष्य से कमतर हों पर सन्दर्भित विषय के परिपेक्ष्य में देखा जाय तो,पशु-पक्षी कभी भी आत्म हत्या नहीं करते।
प्रकृति में आज तक कोई भी उदाहरण नहीं है जिसका उल्लेख इस सन्दर्भ में किया जा सके !
है न चिंतनीय विषय!!
खुदकुशी,अपघात,आत्महत्या करने से पहले उनके वारे में भी एक बार सोच लें जिनका अधिकार आपकी जिंदगी पर आपसे कहीं ज्यादा है!
पढ़ते हैं कीर्तिशेष महेश अनघ जी का एक गीत जिंदगी जिंदा दिली का नाम है।

टिप्पणी
मनोज जैन
106
विट्ठल नगर
गुफामन्दिर रोड़
लालघाटी
भोपाल
462030

एक गीत
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खुदकुशी से ठीक पहले सोच लेना
कहीं कोई है तुम्हें 
जो चाहता है

जिंदगी आखिर तुम्हारी व्याहता है 
ये निराशा मौत की दस्तक नहीं है 
आदमी खुद उम्र का चालक नहीं है 
पंछियों के नीड़ हैं जिन्हें डालियों पर 
टूटने का उन्हें कोई हक नहीं है

इस तरह निर्वाह लो विपरीत को भी
फूल जैसे शूल को 
निर्वाहता है 

खेल बाकी है अभी क्यों हारते हो 
कहीं तो रस है जिसे स्वीकारते हो 
गलतियां हैं तो सुधर भी जाएंगी 
जिंदगी को इस तरह क्यों मारते हो 

संगिनी उसकी सगी होती नहीं है 
पालता भी नहीं 
जो न सराहता  है 

जब सरसता सूख जाए तो बिखरना 
कामना को गोद में लेकर न मरना 
आग चारों ओर से जब घेर ही ले 
तब जरा-सा बच बचाकर सब्र करना 

दर्द तो सैलाब है दो-चार पल का 
आपकी जिंदादिली 
को थाहता है

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