वरिष्ठ साहित्यकार गिरिमोहन गुरू के रचना संसार की एक और संक्षिप्त झलक: नाव वाले हाथ में है जाल
प्रस्तुति और टिप्पणी
मनोज जैन
इसमें कोई संदेह नहीं कि,कवि गिरिमोहन गुरू का लेखन उन तमाम बड़े नामचीन लोगों से अधिक श्रेष्ठ है जिन्हें हम महज विज्ञापनवाजी के चलते बिना पढ़े ही महान मानने का भरम पाल कर मन के अवचेतन में कपोलकल्पित अवधारणा बना लेते हैं।
कल की पोस्ट पर मित्रों की प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आधार पर आज उनके साहित्यिक विषय वैविध्य की एक मनोरम झाँकी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
एक श्रेष्ठ रचनाकार के रचनाकर्म पर चर्चा करना हर कविताप्रेमी का धर्म है।
सुप्रीमकोर्ट पर प्रशांत भूषण के मामले को लेकर इन दिनों चर्चाएं जोरों पर हैं प्रख्यात पत्रकार और फ़िल्म निर्माता प्रतीश नंदी के एक कॉलम की हेडिंग पर नजर पड़ी उसे गीत नवगीत के सन्दर्भ से जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।वे कहते हैं कि
"जब तक बहस,चर्चा,आलोचना नहीं होगी,तब तक इस मुश्किल दौर में कोई संस्थान नहीं बच पायेगा।"
ऐसा नहीं है कि,यह बात सिर्फ संस्थानों पर ही लागू होती है रचनात्मक कार्यों पर हमारे और आपके मौन के सन्दर्भ में भी प्रतीश नंदी जी के निहितार्थों को समझना आवश्यक है।
विचार करें,हम और आप दूसरे के लिखे साहित्य पर जितना हो सके,अपने स्तर पर ही सही पर चर्चा अवश्य करते रहें!
पढ़ते हैं,कविवर गिरिमोहन गुरूजी की बहुरंगी रचनाएँ
टिप्पणी
मनोज जैन
दर्द का आकाश
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आओ जिएँ
कुछ करें ऐसा कि
गीले दृग हँसें
मुठ्ठियों में दर्द के
नभ को कसें
अधर शिकवों के सिएँ।
उम्र की सौगन्ध
सांसो में भरें
सूर्य को रजनीश का
टीका करें
सिन्धु अँजुरी से पिएँ।
पींजरा रंगीन
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तिमिर किरनों से मिलाकर हाथ
मंच पर आसीन दिखता है।
स्वयं के अस्तित्व की रक्षा
बिना वैशाखी नहीं संभव
मूल्य बाजारू हुये सारे
मूल्यांकन कर रहा अनुभव
शक-शकुनि की फिर कुटिल चालें
मामला संगीन दिखता है।
चंद रुपयों की चकाचौंधी
मूंद देती है विवेकी आँख
धुली दिखती दूध से लेकिन
पंक में डूबी हुई हर पाँख
आजकल हर एक पंछी को
पींजरा रंगीन दिखता है।
रेत पर बन नाव
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हम रहे शीतल भले ही
आग के आगे रहे।
रेत पर बन नाव चलना ।
स्वयं को ही स्वयं छलना
वह मिला प्रतिपल कि जिससे ।
उम्र भरा भागे रहे।
कल्पना के सुमन चुनना।
शूल पाकर शीश धुनना।
दृग रहे स्वप्निल,भले ही
रात भर जागे रहे।
कामना की बिजलियाँ
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अश्रु जल में तैरते हैं
स्वप्न के शैवाल।
सूर्य,सुख का दिख रहा
बदला हुआ इतिहास।
वेदना के बादलों से,
त्रस्त हृदयाकाश।
कामना की बिजलियों के
लोचनों में ज्वाल।
लिये कुम्हलाए हुए
चेहरे,कमल,तालाब।
खोजते हैं तीर पर
विश्वास वाली नाव।
नाव वाले नाविकों के
हाथ में है जाल।
बिलख रही महतारी
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खड़ी रँभाती गाय द्वार पर
बछड़ा दिखा नहीं
घर घर फैला रोग
चिकित्सा रामभरोसे बारी ।
दूध नहीं मिलता बच्चों को ,
बिलख रही महतारी ।
भोजन भी भरपेट भाग्य में
इनके लिखा नहीं।
हाड़ तोड़ मेहनत के बदले ,
रूखी सूखी पाते ।
फटे चींथड़े कपड़े लत्ते,
पहने दिवस बिताते।
बासा या उचिछष्ट द्वार पर,
इनके फिंका नहीं।
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