डॉ अजय पाठक जी के दस नवगीत
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समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में नवगीतकार अजय पाठक जी का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं हैं।अनेक शोध सन्दर्भ ग्रन्थों में अजय पाठक जी के नवगीत शामिल किए गए हैं।पाठक जी ने नवगीत की धारा में लगभग डेढ़ दर्जन से अधिक नवगीत संग्रहों का प्रदेय देकर नवगीत की समकालीन धारा और समृद्ध करने में अपना योगदान सुनिश्चित किया है।
उनके नवगीत यथार्थ की ठोस नींव पर खड़े होते हैं।प्रस्तुत नवगीतों में जरूरी प्रतिरोधी स्वर हैं,जिन्हें स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है।वर्तमान परिदृश्य में ऑन लाइन पाठ का छल-छद्म चारो ओर परसा हुआ है।इसकी गिरफ्त में वे सब चर्चित कवि भी हैं,जो कभी अच्छे खासे कवि को मंचीय कवि कहने से नहीं चूकते थे,पर ऑन लाइन पाठ के व्यामोह ने इन्हें भी ग्रस लिया है।अजय पाठक जी एक मात्र ऐसे नवगीत कवि हैं,जिन्हें आज दिन तक यह रोग छू भी नहीं सका।
हमारा विरोध ऑन लाइन पाठ से बिल्कुल भी नहीं पर वहाँ लोग खुले तौर पर सब धान बाइस पसेरी में तौल रहे हैं।जिन्हें पाठ का शऊर तक नहीं वे भी मंच पर लदे हैं,संचालक उनके सम्मान में कसीदे गढ़ रहा है!किसी को निराला बनाया जा रहा है तो किसी को पंत!
खैर, आधुनिक निरालाओं और पन्तों को हमारा दूर से प्रणाम!
ऑन लाइन कविता पाठ छिछले मंच का ही एक रूप है जैसे कवि सम्मेलनों में कविता को छोड़कर सब होता है।वैसे ही ऑन लाइन पाठ में गीत को छोड़कर शेष सब होता है इन दिनों गीतों का बेड़ा गर्क करने के लिए ही इस नयी व्यवस्था ने जन्म लिया है।
।यहाँ पर नकली आयोजक और नकली कवि नकली संरक्षक सब के सब अपनी नकली पहचान कायम करने में वैसे ही खड़े हैं जैसे कभी लंकेश के दरबार में अंगद!
अंतर इतना है अंगद ऑरिजनल थे इसीलिए उनके संकल्प के समक्ष आसुरी शक्ति ने घुटने टेक दिए पर इन डुप्लीकेट अंगदों का आज नहीं तो कल एक दिन भांडा फूटना तय है।
आइये पढ़ते है इस विशेष टीप के साथ ऑरिजनल कवि अजय पाठक जी के दस नवगीत
प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~
1
"बूढ़े हुए कबीर"
बूढ़े हुए कबीर
आजकल
ऊँचा सुनते हैं।
आंखो से है साफ झलकती
भीतर की बेचैनी
हुए अकारथ साखी-दोहे
बिरथा गई रमैनी।
खांस-खांस कर
समरसता की
चादर बुनते हैं।
रह जाते हैं कोलाहल में
शब्द सभी खोए
दुखिया दास कबीर अहर्निश
जागे औ´ रोए
आडंबर के
लेकिन जब-तब
रेशे धुनते हैं।
मगहर का माहौल सियासी
पहले जैसा है
माया ठगिनी की बस्ती में
सब कुछ पैसा है
पंडित, मुल्ला
अब भी
कांकर-पाथर चुनते हैं।
बात-बात पर उन्हें चिढ़ा कर
बालक हंसते हैं
बड़े सयाने जब तब उन पर
ताने कसते हैं
धरम-धजा के वाहक
उनसे जलते- भुनते हैं।
2
"धर्मसभा"
धर्मसभा में साधु झगड़े
भिड़े संत से संत
निर्मोही ने गला दबाकर
निर्गुनिया को मारा
जटा-जुट वाले साधु से
तिलक त्रिपुंडी हारा
अनहोनी के डर से मठ में
दुबके रहे महंत
एक संत चिल्लाकर बोला
पंथ हमारा ऊंचा
तुम लोगों ने मेट दिया है
वातावरण समूचा
हम ही धर्मध्वजा के धारक
संवाहक जीवंत
प्रश्न हुआ कि कौन बड़ा है
किसका पंथ महान
कितने गुण को धारण करता
है किसका भगवान
कोलाहल मच गई सभा में
मुद्दा हुआ ज्वलंत
जूते उछले, माइक टूटा
हुआ घोर संग्राम
निकल न पाया धर्मयुद्ध का
कोई भी परिणाम
व्यासपीठ ने हाथ जोड़कर
किया सभा का अंत
3
"युगबोधी"
युगबोधी चतुराई सीखी
समकालीन हुए
अंधे युग में काम नहीं
आती है चेतनता
बुद्धिमान हो जाने भर से
काम नहीं चलता
पढ़े पेट का रामपहाड़ा
रीढ़ विहीन हुए
अपने कंधे पर नाहक
ईमान नहीं ढ़ोते
अब हम छप्पनभोग दबाकर
देर तलक सोते
इनकी-उनकी निंदा करने में
तल्लीन हुए
दंडकवन की पर्णकुटी में
तपना छोड़ दिया
नैतिकता की राम कहानी
जपना छोड़ दिया
अवसर पाकर आसन पर
हम आसीन हुए
4
"पिता"
पिता तुम्हारे साथ
चिता पर मैं भी सोया
लकड़ी,चंदन,धूप-गंध की
सेज बनाकर
अपने हाथों अग्नि की
ज्वाला सुलगाकर
भरे नयन से अंतिम बार
निहारा तुमको
याद नहीं मैं फुट-फुटकर
कबतक रोया
मरघट से घर तक आने के
बीच सफर में
मरता, फिर जिंदा होता ही
रहा डगर में
देह टूटकर खंड-खंड हो गई
और मैं
आंखों से बहते निर्झर से
बदन भिगोया
यह सारा ब्रहांड छिपा था
जिसके अंदर
तुम ही तो आकाश पिता थे
तुम्ही समंदर
तुम वटवृक्ष तुम्हारी छाया में
पलते हम
तुमको खोकर हमने अपना
जीवन खोया
5
"वर्णमाला"
वर्णमाला देह की खण्डित हुई है
नेह के भी व्याकरण बदले हुए हैं
तीन-तेरह की नई भाषा चली है
हाशिये पर आ गई है मान्यतायें
मूल्य की स्थापनाओं को तमाचे-
मारती है आजकल की सभ्यतायें
आदमी तो आदमी है पर यहां तो
मौसमों ने आचरण बदल हुए हैं
शोर की अतिरंजना में ही उलझकर
सुर विलोपित हो गये अपनत्व के
आसुरी दुर्घष के परचम पुरोधा
बोध करवाने लगे संतत्व के
श्वेत कपड़ों में छिपे हैं मांसभक्षी
भेड़ियों ने आवरण बदल हुए हैं
दर्द है, कुहराम है, संत्रास भी है
छटपटाहट से भरे दिन हैं कसैले
आंख में ज्वाला हृदय में तल्खियां हैं
सांप है आस्तीन में काले विषैले
आदमी तो है मगर उनके हृदय में
आदमी के मर चुके अंतः करण हैं
वर्णमाला देह की खण्डित हुई है
नेह के भी व्याकरण बदले हुए हैं
6
"बेताल"
उज्जयिनी मैं भेष बदलकर
घूम रहा बेताल
नये-नये विक्रम को ढूंढे
उनको रोज तलाशे
वाग्जाल में उलझाकर वह
हर विक्रम को फांसे
उनके सिर के टुकड़े कर दे
और खींच ले खाल
भूखे अधनंगे लोगों को
सब्जबाग दिखलाये
धर्म-कर्म की बात बता कर
आपस में लड़वाये
रोजी-रोटी का झांसा दे
चले सियासी चाल
कहता है कि तुम राजा हो
हम हैं दास तुम्हारे
तुम हो तो अस्तित्व हमारा
पालनहार हमारे!
दिल में दिल्ली और दृष्टि में बसा
हुआ भोपाल
राजदंड धारण कर बैठेगा
वह राजभवन में
गूंजेगा जयगान उसी का
धरती और गगन में
लक्ष्मी उसकी दासी होगी
रक्षक भैरव काल
उज्जयिनी में भेष बदलकर
घूम रहा बेताल
7
"गंगादीन"
रात रात भर दुख का पर्वत
ढोते गंगादीन
नींद नहीं आती खटिया पर
लेटे हैं चुपचाप
रोग नहीं है कोई लेकिन
हैं बेटी के बाप
एक ब्याह ने कमर तोड़ दी
शेष बची हैं तीन
चिंता करते हैं तो दिल की
धड़कन बढ़ जाती है
गला सूख जाता है जमकर
खांसी चढ़ आती है
तड़पा करते हैं जैसे की
पड़ी रेत पर मीन
दान-दहेज कहां से देंगे
घर में दाम नहीं
ओछे दिन में हित-मीत भी
आते काम नहीं
तरह-तरह की आशंकाएं
छाती पर आसीन
रात रात भर दुख का पर्वत
ढोते गंगादीन
8
"शालभंजिका"
शालवृक्ष की टहनी थामे
खड़ी हुई है शालभंजिका
चिंता मे है लीन किसी की
उसे प्रतीक्षा है
उसके मन के विश्वासों की
अगिनपरीक्षा है
उथल-पुथल है अंदर
गहरे टीस उभरती है
लेकिन अपने मुँह पर ताले
जड़ी हुई है शालभंजिका
बाँह थामकर सम्मोहन के
सुर गाता होगा
उसका प्रियतम इसी ठौर पर
ही आता होगा
लेकिन आज अनिश्चित लगता
है उसका आना
किंतु प्रतीक्षारत मिलने पर
अड़ी हुई है शालभंजिका
सदियाँ बीत गईं भरहूत के
दिन भी बहुर गये
राजपथों पर दिखते हैं अब
नायक नये-नये
शालवृक्ष कट गये, विजन वन
भी आबाद हुए
प्रेक्षागृह मे धूल फाँकते
पड़ी हुई है शालभंजिका!!
9
"उसको पढ़ना"
मेरी कविता के शब्दों के
कोलाहल के
भीतर मे जो मौन छिपा है
उसको पढ़ना !!
भूख, हताशा और गरीबी
या कुंठायें
इन पर ही तो मैने अब तक
किया शोध है
मेरे प्रतिरोधी स्वर की
भाषायें समझो
यह सब मेरे भीतर का
अपराधबोथ है
मेरे बिम्ब,प्रतीकों या फिर
उपमानों की
पंक्ति पंक्ति मे कौन छिपा है
उसको पढ़ना
लंपट,चोर-,लबार , जनों ने
चोले बदले
गिरहकटों की भीड़ कहाती
है ब्रजवासी
रजधानी मे धूर्तजनों की
रेहड़ जमती
सत्ता के नवतीर्थ कहाते
गोकुल-काशी
हर की पौढी़ , हरहर गंगे पर
मत जाना
मथुरा मे जालौन छिपा है
उसको पढ़ना
सभ्य समाजों मे जड़ता के
चिन्ह उभरते
तब तब पशुता मग्नहृदय
नर्तन करती है
औंधे मुह गिर जाता है
मानस का संबल
नस नस मे तब कलम नई
उर्जा भरती है
कविता का सामर्थ्य समझने
वाले मित्रों !!
आधे मे जो पौन छिपा है
उसको पढ़ना !!
10
"सौ-सौ चीते"
बची हुई साँसों पर आगे
जाने क्या कुछ बीते
एक हिरण पर सौ-सौ चीते।
चलें कहाँ तक, राह रोकती
सर्वत्र नाकामी
कहर मचाती, यहाँ-वहाँ तक
फैली सुनामी
नीलकंठ हो गए जगत का
घूँट-हलाहल पीते।
सागर मंथन के अमृत पर
सबका दावा है
देव-दानवों के अंतर का
महज दिखावा है
सबको बाँट-बाँट संपतियाँ
हाथ हमारे रीते।
सूरज उगा, किरणों की
उनको सौगात मिली
चाँद सितारे उनके, हमको
काली रात मिली
जीते-जीते रोज मरे हम
मर-मर कर जीते।
चलता रहा अभाव निरंतर
अब तक यही सिला
है अपना प्रारब्ध यही तो
किससे करे गिला ?
अब तो जीवन बीत रहा है
फटे वसन को सीते।
डॉ. अजय पाठक
एल-1, विनोबा नगर
बिलासपुर, छत्तीसगढ़
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