मैं समूची सृष्टि के रूपांतरण में हूँ: कवि रामस्वरूप सिंदूर
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वागर्थ में आज
कीर्तिशेष राम स्वरूप सिंदूर जी के गीत
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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उनके अंतिम समय का एक गीत -
1
रात बीत जाये सपनों में
दिन काटे न कटे।
सब कुछ घट जाता है
लेकिन जो चाहूं न घटे।
दिहरी मुझको, मैं दिहरी को
जैसे भूल गया हूं
आसपास के लिए अजाना
मैं हो गया नया हूं
दूरी की खाई गहरी है
कोशिश से न पटे।
अब भविष्य पूछूं - देखूं
यह उत्साह नहीं है
छलनी- छलनी वसन, किसी की
कुछ परवाह नहीं है
आंधी चली, चीथडों - जैसे
कपड़े और फटे।
मन की दशा कि जैसे पल- पल
अतल - वितल होती है
श्वास - श्वास बरसात सावनी से
आंखें धोती है
बौराये आमों के नीचे
बिसरे गीत रटे।
2
रो-रो मरने से क्या होगा
हँस कर और जियो ।
वृद्ध - क्षणों को बाहु-पाश में
कस कर और जियो ।
रक्त दौड़ता अभी रगों में
उसे न जमने दो ,
बाहर जो भी हो ,
पर भीतर लहर न थमने दो,
चक्रव्यूह टूटता नहीं,
तो धँस कर और जियो ।
श्वास जहाँ तक बहे,
उसे बहने का मौका दो,
जहाँ डूबने लगे,
उसे कविता की नौका दो,
गुंजन-जन्मे संजालों में
फँस कर और जियो ।
टूटे सपने जीने का,
अपना सुख होता है,
सूरज, धुन्ध-धुन्ध आँखें
शबनम से धोता है,
ज्वार-झेलते अन्तरीप में
बस कर और जियो ।
3
खो गयी है सृष्टि
दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने !
इस अँधेरी रात में , यह क्या किया मैंने !
यूँ लगे , जैसे नदी में बह गया हूँ मैं ,
तीर पर , यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं ,
एक क्षण , पूरे समर्पण का जिया मैंने !
मिट गया अंतर , सुरभियों और श्वांसों में ,
छोड़ यह तन , छिप गया सब कुछ कुहासों में ,
अमृत से बढ़ कर , तृषा का रस पिया मैंने !
खो गयी है सृष्टि , या-फिर खो गया हूँ मैं ,
जन्म के पहले प्रहर-सा , हो गया हूँ मैं ,
काल-जैसे कुशल ठग को , ठग लिया मैंने !
हठ पड़ गया वसन्त
मन करता है फिर कोई अनुबन्ध लिखूँ !
गीत-गीत हो जाऊँ, ऐसा छन्द लिखूँ !
करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन-सुवर्णी रेखायें,
मैं गुन्जन-गुन्जन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गायें,
हठ पड़ गया वसन्त, कि मैं मकरन्द लिखूँ !
श्वास जन्म-भर महके, ऐसी गन्ध लिखूँ !
सरसों की रागारुण चितवन
दृष्टि कर गयी सिन्दूरी,
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी,
देह-मुक्ति चाहे, फिर से रस-बन्ध लिखूँ !
बन्धन ही लिखना है, तो भुजबन्ध लिखूँ !
सुख से पंगु अतीत, विसर्जित
कर दूँ जमुना के जल में,
अहम् समर्पित हो जाने दूँ
कल्पित-संकल्पित पल में,
आगत से, ऐसा भावी सम्बन्ध लिखूँ !
हस्ताक्षर में, निर्विकल्प आनन्द लिखूँ !
4
आँसू अनुपात हरे
मैं घर-द्वार छोड़ कर भटकूँ ,
वन-वन विजन-विजन में !
बड़ी विसंगतियां होती हैं ,
छोटे से जीवन में !
पीड़ा जितनी बढ़े , बढ़े उतनी ही नादानी ,
अपनी बनी भूल , सीख ली निर्जन की बानी ,
कोई भी अंतर न रह गया ,
गुंजन औ' क्रंदन में !
घाटी उतरे देह , प्राण पर्वत-पर्वत डोले ,
अधर-धरी बाँसुरी , स्वगत की भाषा में बोले ,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में !
झील आँख नम कर जाए , आँसू अनुपात हरे ,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे ,
रूप , दिखे पहले-जैसा
जल के अंधे दर्पन में !
तन्वंगी सुधि वशीकरण मन्त्रों का जाप करे ,
ऐसा लगे , कि शीश-धरे मेघों से गंध झरे ,
जाने श्वास कहाँ टूटे
कस्तूरी सम्मोहन में !
5
करतल चूमे संन्यास
झंकृत धरती आकाश ,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !
अनुगुन्ज्जित अंतर की घाटी ,
नर्तित चलती-फिरती माटी ;
बाँसुरी बनी नि:श्वास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !
जैसे हो वंदन की वेला,
अर्चन-अभिनंदन की बेला;
मुखरित निर्जन-अधिवास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !
सुधियों ने अवगुंठन खोले,
किसलय-दल-सा संयम डोले;
करुणा-विगलित उल्लास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !
युग से सुखे दृग, तरल हुए,
पहले-जैसे ही सरल हुए;
करतल चूमे संन्यास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने !
6
मेरा तो सर्वस्त रही है मात्रभूमि बचपन से !
मेरा कवि जन्मा , इस धरती के अनंत रस-क्षण से !!
गंगा रहे तरंगित मेरी रसपायी काया में ,
मैं निश-वासर रहूँ बोधितरू की प्रशांत छाया में ,
रूप संवारूं मैं कश्मीरी झीलों के दर्पण से !
मेरा कवि जन्मा , इस धरती के अनंत रस-क्षण से !
मैंने हिमगिरि-उदित सूर्य-आलोकित मन पाया है ,
जब गाया है , इस वाणी ने लोकगीत गाया है ,
मेरा हर पल अभिमंत्रित है मलयागिरि चन्दन से !
मेरा कवि जन्मा , इस धरती के अनंत रस-क्षण से !
यह तन ढाला है गीतों में लोकमुखी माटी ने ,
श्वास-श्वास में सुरभि घोल दी फूलों की घाटी ने ,
इस प्राणों के तार जुड़े हैं किसी गंधमादन से !
मेरा कवि जन्मा , इस धरती के अनंत रस-क्षण से !
मैं निर्झर-लय में जन-गन-मन को गाया करता हूँ ,
मुरली के नाद-सा शून्य में भर जाया करता हूँ ,
मैं अनुगुंज्जित रहूँ , आदिकवि के करुणा-क्रंदन से !
मेरा कवि जन्मा , इस धरती के अनंत रस-क्षण से !
7
जिन राहों पर चलना है,
तू उन राहों पर चल !
कहाँ नहीं सूरज की किरणे,
तूफ़ानी बादल !
मन की चेतनता पथ का
अँधियारा हर लेगी,
मंजिल की कामना प्रलय को
वश में कर लेगी,
जिस बेला में चलना है,
तू उस बेला में चल !
यात्रा का हर पल होता है
क़िस्मत-वाला पल !
सपनों का रस मरुथल को भी
मधुवन कर देगा,
हारी-थकी देह में नूतन
जीवन भर देगा,
जिस मौसम में चलना है,
तू उस मौसम में चल !
भीतर के संयम की दासी,
बाहर की हलचल !
उठे कदम की खबर
ज़माने को हो जाती है,
अगवानी के लोकगीत
हर दूरी गाती है,
जिस गति से भी चलना है,
तू उस गति से ही चल,
निर्झर जैसा बह न सके,
तो हिम की तरह पिघल !
8
मैं अकथ्य को
कहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
नए कोर्स की कठिन परीक्षा पास कर रहा हूँ।
हूक उठे मन में
तो उस पर काबू पा लेता,
यादें तंग करें तो आँखों को रिसने देता,
लोगों से मिलता हूँ मस्ती की मुद्राओं में
भीतर पूरा कवि हूँ, बाहर
पूरा अभिनेता,
जल में हिम-सा
बहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
आँसू पी न सकूँ, निर्जल-उपवास कर रहा हूँ।
निपट अकेले
रोने से जी हल्का होता है,
कोई नहीं पूछने-वाला तू क्यों रोता है,
ये, वे पल हैं, जो नितान्त मेरे-अपने पल हैं
यहाँ मौन ही अब मेरी
कविता का श्रोता है,
घर से बाहर
रहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
ऐसा लगता है, जैसे कुछ खास कर रहा हूँ।
दीवारों में
रहता हूँ, घर में वनचारी हूँ,
अब मैं सचमुच ऋषि कहलाने का अधिकारी हूँ,
मेरे सर-पर-का बोझा जो लूट ले गया है
मैं अपने अंतरतम से
उसका आभारी हूँ,
दुख को, सुख से
सहने का अभ्यास कर रहा हूँ।
सागर-डूबी धरती को आकाश कर रहा हूं ।
9
पंछी ने दृग मूँद, लिये हैं !
कितने ऊँचे आसमान से,
मेघों के पुष्पक विमान से,
छोड़ दिया नादान करों ने,
और पंख भी बांध दिये हैं !
पंछी ने दृग मूँद, लिये हैं !
इतनी चेतनता क्षण-क्षण में,
कब आयी होगी जीवन में,
एक घूँट में ही प्राणों ने,
अनगिन सूरज-चाँद पिये हैं !
पंछी ने दृग मूँद, लिये हैं !
कौन कहाँ आँचल फैलाये,
नीचे तो सागर लहराये,
तेज हवाओं के झोंकों ने,
सारे संबल दूर किये हैं !
पंछी ने दृग मूँद, लिये हैं !
10
मैं अरुण अभियान के अंतिम चरण में हूँ !
शब्द के कल्पान्त- व्यापी संचरण में हूँ !
सूर्य की शिखरांत यात्रा पर चला हूँ मैं ,
एक रक्षा- चक्र में नख शिख ढला हूँ मैं ,
मैं त्रिलोचन स्वप्न वाही जागरण में हूँ !
शशि-वलय तोडा प्रखर गति की चपलता ने ,
तृप्ति दे-दी सोम-रस डूबी तरलता ने ,
मैं प्रणय से , प्रणव के हस्तांतरण में हूँ !
राग-रंजित मन धुला आकाश-गंगा में ,
घुल गया हिम- खंड- सा संत्रास गंगा में ,
मैं महासंक्रांति-क्षण के संतरण में हूँ !
काल की आद्यन्त गाथा , शून्य गाता है ,
प्राण-परिचित नाद मुरली-सी बजाता है ,
मैं अनादि-अनंत लय के व्याकरण में हूँ !
गीत मेरे गूंजते-मिलते ध्रुवान्तों में ,
मैं मुखर हूँ , ज्वाल-मंडित समासांतों में ,
मैं समूची सृष्टि के रूपांतरण में हूँ !
रामस्वरुप 'सिन्दूर'
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नाम - रामस्वरूप सिन्दूर
जन्म - 27 सितंबर 1930
देहावसान - 25 जनवरी 2013
जन्म - ग्राम दहगवां, जिला जालौन ( उत्तर प्रदेश )
पिता - स्मृतिशेष राम प्रसाद गुप्त
माता - स्मृतिशेष सरयू देवी
शिक्षा - एम. ए. ( हिंदी साहित्य )
काव्य संग्रह - हंसते लोचन रोते प्राण, तिरंगा ज़िंदाबाद, अभियान बेला, आत्म - रति तेरे लिए, शब्द के संचरण में, मैं सफ़र में हूं
सम्मान - साहित्य भूषण ( उ. प्र. हिंदी संस्थान ) 2002
रस वल्लरी सम्मान
सारस्वत सम्मान ( साहित्य सम्मेलन प्रयाग )
सागरिका विशिष्ट सम्मान
प्रथम मणीनद्र स्मृति सम्मान 2005
नटराज सम्मान -1984 कानपुर
राष्ट्रीय काव्य सम्मान - 1962 लखनऊ
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