बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

प्रदीप पुष्पेंद्र के नवगीत और एक उत्प्रेरक टीप प्रस्तुति वागर्थ

वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं प्रतिभाशाली कवि प्रदीप पुष्पेन्द्र जी के दस नवगीत

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प्रस्तुति
वागर्थ
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प्रदीप पुष्पेन्द्र जी के गीतों से मेरा पहला परिचय डॉ भावना तिवारी के चर्चित पटल शिवोहम की कवि पुष्पेन्द्र पर एकाग्र प्रस्तुति में हुआ था।ऐसा नहीं कि मैंने उनके गीत इससे पहले न पढ़े हों।सीमा अग्रवाल जी के पटल "एक दिन एक गीत" पर भी मैं उन्हें पढ़ चुका हूँ ।
                शिवोहम का जिक्र इसलिए की इस एकाग्र प्रस्तुति में पुष्पेन्द्र ने तक़रीबन बीस से बाइस गीतों का पाठ किया था,तभी मेरा ध्यान इन गीतों की रचना प्रक्रिया और इन पर पड़े प्रभाव पर गया था।प्रदीप पुष्पेन्द्र की प्रतिभा में कहीं कोई शक की गुंजाइश नही है।
उनके गीतों को सुनकर तब भी हतप्रभ था और आज इस पटल पर प्रस्तुत करके मुझे प्रसन्नता है।
यदि आप इन गीतों के रचाव पर ध्यान दें तो इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि पुष्पेन्द्र के रचाव में कवि महेश अनघ जी का थोड़ा नहीं, पूरा प्रभाव -देखा जा सकता है।इन गीतों को पढ़ते हुए निजी तौर पर मुझे तो महेश अनघ जी ही याद आए !पुष्पेन्द्र ने अपने अवचेतन में अनघ जी को इंस्टाल कर रखा है ।कहीं कहीं तो वह उनकी पूरी की पूरी पँक्ति का उपयोग करने से भी नहीं हिचकिचाते।
                    मेरा आशय इस बहाने उन प्रतिभाशाली कवियों से इतना ही कहना है कि अपने अवचेतन में पड़े अन्य के प्रभाव को हटाए बिना आप अपनी मूल पहचान क़ायम नहीं कर सकते ऐसा ही प्रभाव गाज़ियाबाद के कवियों पर इन्द्र जी का और रायबरेली के आसपास डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी का देखने में आता है।
 वागर्थ के सम्पादक मण्डल ने उनके गीत यहाँ रखने की अनुमति मुझे दी मैं सम्पादक मण्डल का आभार व्यक्त करता हूँ साथ ही पुष्पेन्द्र को बहुत बहुत बधाइयाँ देता हूँ ।
              इस आशा के साथ की वह अपनी प्रतिभा से अपनी निजी शैली जल्द विकसित करेंगे।

मनोज जैन 

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                             प्रदीप पुष्पेन्द्र
1
दरवाजे से लगी रसोई
भीतर पूजाघर है
दोनो ओर धुआँ उठता है
खुशबू का अंतर है

कलतक राहगीर के पैरों की 
जो ठोकर खाता 
वही आज ऊँचे मंदिर के  
भीतर पूजा जाता

जिसे तराशा था भावों ने
मूरत वह पत्थर है  
शिल्प कला का आभारी तो  
सदियों से ईश्वर है 

खुशबू पर आसक्त वासना 
नहीं पा सकी तर्पण  
मगर अमर इतिहास बन गया 
परवाने का अर्पण

नज़रों से जो भी दिखता है
वह तो आडम्बर है
नयन मूँदकर अगर पढ़े तो
सब ढाई आखर है

प्रतिमाओं में राम बसाया
रावण अपने मन में
आदर्शों पर कफन चढ़ाया
श्रद्धा नश्वर तन में

शांति मंत्र जपने वालों के
हाथों में खंजर है
सूरत तो मानव की पायी
अंतस चिड़ियाघर है

2

गीत

जीने के  कितने   ही   साधन
किन्तु  एक ही  चीज नहीं  है.

डैने  भी   भीगे   से     लगते
दूर  बहुत  आकाश  हुआ  है.
लेकिन  बीते कल  ने इसको
जाने   कितनी  बार  छुआ है.

दुनिया भर के  तो हैं बन्धन
एक  वही   नाचीज़   नहीं है.

परदे   के    पीछे    बहेलिया
रंगमंच   पर   लगता    मेला.
कदम कदम पर जाल बिछाये
दाने   दिये   उसी  ने   फैला.

जाने  कितनी   घेरे  उलझन
बचने   को ताबीज़  नहीं   है.

बहुत   दूर तक  भरी  उड़ानें 
और झुनझुना  हाथ लगा  है.
मन तो खुद को समझा बैठा
जीत- हार   तो  साथ  लगा है.

केवल हुई  समय से अनबन
मन  में  कोई  खीज  नहीं है ।

3

.
सभी रसीले पेड़ उखाड़ 
दिये हैं आँधी ने
शेष बचा है बरगद या फिर
घास बगीचे की ।

बिन मौसम ही जाने कैसी
पछुआ यहाँ चली ।
हुयी सभ्यतायें विकसित
व्हिस्की की गली गली |

नागफनी के पौध पल रहे
तुलसी के आँगन
भेड़चाल में खोये, भूले
संस्कृति पीछे की ।

भव्य इमारत करती रही
आसमाँ से बातें ।
इधर काटती रही झोपड़ी
अँधियारी रातें ।

दर्द नहीं पहचाना मध्यम
बौझिल पैरों का
धरा बहुत पथरीली, कीमत
बहुत गलीचे की ।

शोषण पिंजरे से नन्हा
पंछी कब उड़ पाया ।
बहुत पढ़ा तोता कंठीवाला
क्या पढ़ पाया ।

मूल्य इमारत का आँका है
सदा कंगूरों से
नींव नहीं देखी आँखों ने
कच्ची नीचे की ।

4

नवगीत 
 
बहुत पूज्य हैं ये बूढे़ उपदेश 
मगर इच्छायें ।
कब तक कैद रहें घूँघट में ।

जितनी चादर की सीमा हो 
सुविधा ! उतने पैर पसारो ।
जो कुछ भी करना है उससे 
पहले सौ सौ बार विचारो 

भला लगेगा उनका यह संदेश 
अगर लिप्सायें
यूँ ही बंद रहें चौखट मॆं ।

उमस घुटन मॆं कली खिले क्या 
बिखरे हैं सब ख्वाब सुनहले।
जबरन हारों मॆं गूँथा है 
यौवन के आने से पहले ।

सर आँखों मॆं झेला यह आदेश 
कि अभिलषायें
तह करके रख देना घट मॆं ।

पंछी के व्याकुल हैं डैने 
देखा करते मुक्त गगन कॊ ।
शिक्षायें पिंजरे दर पिंजरे 
सहते रिश्ते के बंधन कॊ 

घर ही उनके लिये हुआ परदेश 
कि अब आशायें
शायद पूरी हों मरघट मॆं ।

5

धारदार हो गये शब्द
घिसते घिसते व्यवहार में
अब शायद हत्या होगी 
अहसास की ।

द्वार द्वार स्वागतम् लिखा है
हम  तोते  जैसा  रटते  हैं ।
परदे  के   पीछे    वधशाला
रिश्ते  बकरों से  कटते हैं ।

तार तार हो गये भाव
इस नकली शिष्टाचार में
अगवानी है भावुकता  की
लाश की ।

जंगल ने   पोशाकें   पहनी
शहरों  के तन दिखते नंगे।
संस्कृति पहुँच गयी संसद में
सभ्य लोग करवाते दंगे ।

आरपार हो रहे प्रश्न
भाषण की मारामार में
हुयी फजीहत मानव के
इतिहास की ।

चेहरा  एक मुखौटे अनगिन
रोज  नयी भूमिका  निभाते ।
जैसी कथा वस्तु मिल जाती
वैसा अभिनय कर दिखलाते।

होशियार हो गये पात्र
अपने अपने किरदार में
और जरूरत है शायद 
अभ्यास की ।

6
                
बस इतनी सी बात
कि आँसू हँसते हैं
क्रम अनंत हो गया
किताबें लिखने का.

आँखों में सावन ऋतु मचली
पर अधरों से रूठ गयी वो.
जैसे नदी निकल उद्गम से
बीच राह में सूख गयी हो.

सागर गम कितना पीता है
दुनिया ने तो इतना जाना.
अनब्याही आँखों का सपना
अनब्याहा रह गया पुराना.

सहते यूँ आघात
कि अविरल बहते हैं,
मन तुरंत हो गया
किताबें लिखने  का.

खारापन सस्ता मिलता है,
इससे उसका मोल न आँको.
आँसू के बाजार नहीं है,
इससे उसका तोल न आँको.

जाने कितनी खुशियाँ झेलीं
एक बूँद मोती बन पाया.
पानी की इन घटनाओं से
गीतकार दुनिया में आया.

तब पायी सौगात
कि सब कुछ सहते हैं,
हल दुरंत हो गया 
किताबें लिखने का.
7
अगर आँख में बूँद न होती
सुख -दुख का व्यापार न होता.
मन के जंगल में घर जैसा
जीने का आधार न होता.

दिल न धड़कता, दर्द न होता
रिश्ते का आभास न होता.
नफरत होती, प्यार न होता
दुनिया का इतिहास न होता.

दिन में भी है रात
सितारे कहते हैं
भ्रम ज्वलंत हो गया
किताबें लिखने का. 

8

देखो अपना मन   
बुहारकर रख लेना 
किसी समय भी आज
देवता आयेगा ।

श्रद्धा के आसन पर 
मत शतरंज रखो ।
पूजा की थाली मॆं नहीं
प्रपंच  रचो ।

धुआँ उगलती रहीं 
अगरबत्तियाँ अगर 
दीप आस्था का 
कैसे जल पायेगा ?

घर ऐसा रखना 
जिसमें वातायन हो ।
खुला हुआ दरवाजा 
पावन आँगन हो ।

नयनों  मॆं रखना 
गीली बंदनवारें
आगंतुक घर का 
होकर रह जायेगा ।

भाव बिना तो 
शिला कहाती है नारी ।
भाव सहित पाहन 
पूजे दुनिया सारी ।

तुम अपने मन कॊ 
आँसू मॆं धो लेना 
तब इस मन मॆं 
कान्हा रास रचायेगा ।

9

शब्द समझ कर फेंक न देना
यहाँ चेतना सोयी है. 
महज गीत ही नहीं
दूध में रुई भिगोयी है.

आँगन में पौधे गुलाब के
बैठक में गुलदस्ते हैं.
शयनकक्ष में टूटे सपने
अक्सर रोते हँसते हैं.

नमीं आँख की रूमालों में
हमने बहुत संजोयी है.
महज गीत ही नहीं दूध में
रुई भिगोयी है.

सुर लहरी पर भाव सुकोमल
नट के जैसे चलते हैं.
हृदय सीप में पलते मोती
शब्दों में तब ढलते हैं.

खारे पानी के अनुभव की
माला बहुत पिरोयी है.
महज गीत ही नहीं दूध में
रुई भिगोयी है.

माँ की गोद बिना बालक सा
दीनहीन यह मन अपना.
न्यायाधीश समय अँधा है
खारिज है बचपन अपना.

नर्म रुई  के फाहे जैसा
जीवन देता कोई है.
महज गीत ही नहीं दूध में
रुई भिगोयी है.

10

आज नहीं तो कल चुप होंगे
तुरही ढोल मँजीरे ।
तब के लिये बचाकर रखले
अनहद नाद फकीरे ।

अभी बहुत ही धुआँ धुआँ है
कैसे दीप जलेगा ?
हुआ अगर अपव्यय ताकत का
सचमुच बहुत खलेगा ।

जोश -जोश में अभिमन्यु तुम 
होश नहीं खो देना 
चक्रव्यूह के पेंच खुलेंगे
लेकिन धीरे धीरे ।

कहने को भण्डार अभी हैं
पास तुम्हारे ज्यादा ।
ओढ़ लिया है तभी अहं का
तुमने एक लबादा ।

किन्तु जरूरत से यदि ज्यादा
करते रहे विदोहन 
एक दिवस यूँ चुक जायेंगे
पन्ना मोती हीरे ।

दुरभि संधियाँ आज हो रहीं
पीपल में बरगद में ।
नाखूनोंं के पैर बढ़ रहे
अमराई सरहद में ।
 
अब तो बाँध बनाने होंगे
इन अल्हड़ नदियों पर
तभी सुरक्षित रह पायेंगे
ये नदिया के तीरे ।

परिचय
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प्रदीप पुष्पेन्द्र
जन्म: ग्वालियर
शिक्षा : ग्वालियर
मूल विधा: गीत/नवगीत
मूलनिवास:ग्वालियर मप्र.
हालनिवास:ग़ाज़ियाबाद
सम्प्रति: गोपालजीआनंदा, नोयडा
शिक्षा:स्नातकोत्तर हिन्दी

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