मिल्टन से टकराता रहता रोज ईसुरी फाग के बहाने:- जंगबहादुर बन्धु जी के दो गीतों पर एक चर्चा
मनोज जैन
राय भवन,
जुमेराती भोपाल,
साहित्यिक विरादरी का शायद ही कोई शख्स ऐसा हो जिसका सम्बन्ध पुराने भोपाल के इस,सांस्कृति तीर्थ से न जुड़ता हो,तीर्थ इसलिए कि जिस भवन में महीयसी महादेवी वर्मा,भवानी दादा,शिवमंगल सिंह सुमन,शरद जोशी,हरिशंकर परसाई,बालकवि वैरागी,रतन भाई पत्रकार,प्रोफेसर अक्षय कुमार जैन,डॉ चन्द्र प्रकाश वर्मा,मूलाराम जोशी,शिव कुमार श्रीवास्तव, मदन मोहन जोशी,राजेन्द्र अनुरागी,दिवाकर वर्मा,भगवत रावत, राजमल पवैया, उपेंद्र पांडेय,राजेन्द्र नूतन,रामनारायण प्रदीप,कैलाश चन्द्र पंत,देवीशरण,देवेंद्र दीपक जैसे वंदनीय साहित्यिक मनीषियों के चरण पड़े हों,जहाँ तत्कालीन भोपाल विलीनीकरण जैसे आंदोलनों की रणनीतिक बैठकें सम्पन्न हुई हों,जो भवन भारत के राष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा जी की महती उपस्थित का साक्षात साक्षी रहा हो,स्वाभाविक है उस स्थान को किसी तीर्थ से कम तो किसी भी कीमत पर नहीं आँका जा सकता है।
तत्कालीन जिला सीहोर के गजेटियर में उल्लेखित कला-मन्दिर राजधानी की एक मात्र सबसे प्राचीन रजिस्टर्ड संस्था रही है,संस्था की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र भी राय भवन ही हुआ करता था। कला मन्दिर की नियमित मासिक गोष्ठियाँ यहीं संचालित होती रही हैं।एक समय रहा है जब,रायभवन और कला मन्दिर एक दूसरे का पर्याय हुआ करते थे।कथन की दृष्टि से ना तो यह अति रंजना है और ना ही अतिशयोक्ति।लेख की स्थापना में राय भवन का जिक्र इसलिए कि यह वही स्थल है जहाँ मैंने साहित्यमर्मज्ञों और साहित्य साधकों से कविता का ककहरा सीखा।और कला मन्दिर का जिक्र विशेषतौर से इसलिए कि मुझे इस गौरवशाली संस्था में लगभग एक दशक तक सचिव के रूप में अनेक अध्यक्षों सर्व श्री रामनारायण प्रदीप, हरिविट्ठल धूमकेतु,डॉ हुकुम पाल सिंह विकल,राजेन्द्र शर्मा अक्षर और डॉ राम वल्लभ आचार्य जैसे अनेक मूर्धन्य विद्वानों के साथ काम करने और अपनी प्रतिभा को माँजने का सुअवसर मिला।
याददाश्त पर थोड़ा सा बल देने पर,संस्था के वार्षिकोत्सव और मासिक गोष्ठियों की यादों की रील मेरे जेहन में आज भी जस की तस घूम जाती है।
कुछ पंक्तियां जो मैंने उस दिन कला मन्दिर की विशेष गोष्ठी में,उन धवलकेसी से सुनी,जो आपको आज भी अक्षरशःसुना सकता हूँ ,विशुद्ध भारतीय पारम्परिक सफेद धोती और,खादी के कुर्ते में सुसज्जित सुखासन में विराजमान,भरे-पूरे ऊँची कद-काठी के जो पुरुष थे,वे दिखने में तो हूबहू निराला से मिलते जुलते थे पर निराला नहीं थे।
निराला ना सही पर पर निराले व्यक्तित्व के धनी कोई और नहीं बल्कि जाने-माने छन्द साधक अक्षर पुरुष श्रीजंगवहादुर श्रीवास्तव बन्धु जी थे।जो उन दिनों सिंचाई विभाग से सेवानिवृत्त होकर भोपाल आए थे। राय भवन जुमेराती में,कला मन्दिर की गोष्ठी में (सम्भवतःपहला पाठ भी), पहली बार ही,अपने पाठ के प्रभाव से सब के दिलों में खासा असर छोड़ गए,जिसकी छाप मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित है।
उनकी प्रस्तुति में गजब का कॉन्फीडेंस था जिससे पूरा सदन चकित था।यथा नाम वे जंग के बहादुर तो थे ही फिर चाहे जंग कविता की हो,या जीवन की,जीतना उन्हें बखूबी आता है।
जरूरी नहीं कि हर कवि कोट किये जाने के मामले में दुष्यंत और अदम गोंडवी ही हो,बहुत कम लोगों के हिस्से में यह यश आता कि उनका लिखा सीधे लोगों की जेहन में उतरे,मुझे बन्धु जी इस मामले में उन बहुत कम लोगों में से लगते है जिनके यहाँ खास किस्म की कोटेविलिटी है।यही कारण है कि उनकी पंक्तियाँ आज भी लोगों के जहन में वैसी की वैसी हैं।बन्धु जी ने उस एक नहीं पूरे तीन गीत पढ़े थे एक गीत का अंश द्रष्टव्य है।
कंठ लोटे का फंसा है डोर से/
और सौ-सौ हाथ गहरा है कुंआ/
बन्धु फिर भी पूछते हो क्या हुआ/
यह पंक्तियाँ आज हममें से,अनेक लोगों को याद हैं।वैसे तो जंगबहादुर जी के यहाँ उच्चकोटि का काव्य कौशल और चातुर्य है, उनके कवि की अन्यतम विशेषता यह भी है कि, वह पाठक को पहले बाँधता है फिर पंक्तियों के ध्वन्यार्थ खोलने को विवश करता है।गीत के प्रस्तुत अंश को ही लें,तो यहाँ 'लोटा'आम आदमी का प्रतीक है और 'डोर' सत्ता का।आम आदमी की विषमताओं को कवि ने सौ हाथ गहरे कुएं के रूपक में बांधा है।यह एक मात्र जिजीविषा ही है,जो आम जन को जीवन भर निरन्तर हतोत्साहित करने वाली और तोड़कर रख देने वाली परिस्थितियों में भी जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए रीढ़ के बल खड़ा रखती है।कविता अपने अस्तित्व के बचाव की कोशिश के साथ आवाज भी उठाती हालांकि यहाँ प्रतिरोध का स्वर उतना बुलन्द नहीं है जितना होना चाहिए।तभी वह कहते हैं :-/बन्धु फिर भी पूछते हो क्या हुआ/
हम अपने अस्तित्व को पूरी तरह बचा पाने में तभी सफल होंगे,जब हम प्रश्न उठाएंगे।बन्धु जी के काव्य में ऐसे अनेक सामयिक प्रश्न उठते हैं,जिनका संज्ञान लिए जाने की जरूरत है।अक्षर की प्रकृति और प्रयोग जानने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी गीतकार जंगबहादुर बन्धु जी के यहाँ प्रभावी कविताओं की कमी नहीं है।देखिये एक गीत का अंश-
जिसमें उन्होंने कोमल प्रकृति की अपनी स्वयं की पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया है।
"चीखता चंदन घिसो मत/पत्थरों की पीठ पर/
हे विधाता/ गंध वाली देह मत देना किसी को/"
रचनाप्रक्रिया के तल में उतर कर इतना तो समझ मे आ ही जाता है कि कवि की रचनात्मकता का उत्स उसका अपना निजी जीवन और परिवेश ही होता है जहाँ से कविता आकार ग्रहण करती है।
"फूँक मारती है" शीर्षक से
बन्धु जी का एक बहुत ही चर्चित गीत है
जिसके धरातल को,जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ,सीधा प्रभाव टूटते विखरते सँयुक्त परिवारों की घुटन से उपजे, घर के मुखिया पर पड़े परस्थिति जन्य द्वंदात्मक प्रभाव को स्पस्ट रूप से देखा जा सकता है।हो सकता निराला की तरह बन्धु जी यहाँ खुद ही अभिव्यक्त हो रहे हों!और नहीं भी
कुल मिलाकर बन्धु जी के कवि का गीत नवगीत पर काम कर रहे आलोचकों का ध्यान जाना ही चाहिए और आप भी यदि इस महत्वपूर्ण कवि को नहीं पढ़ पा रहे हैं तो आप बहुत कुछ मिस कर रहे हैं।
मानस पर धारा प्रवाह बोलने वाले इस कवि के सन्दर्भ में यदि इनके काव्य में प्रयुक्त मिथकों की चर्चा ना की जाय तो बात अधूरी ही होगी सामयिक सन्दर्भ में जितने खुलकर मिथकीय प्रयोग जंगबहादुर जी के यहाँ मिलते है वह अन्यत्र दुर्लभ ही है!
यद्धपि यह नितांत वैयक्तिक और निजी मामला है परन्तु प्रसंग वश मुझे यहाँ एक बात और जोड़ना जरूरी लगा बन्धु जी ने मुझे उस समय गीतकार कहा था जब मुझे कविता की रंच मात्र समझ भी न थी।
प्रस्तुत है उनके कुछ गीत ,इन गीतों का वैशिष्ठ यह है कि इनमें सम्पूर्ण भारत और भारतीय परिवेश श्वास लेता है।
गीत
(१)
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परंपरागत सास
बहू की बातें समकालीन
एक जलाती दिया
दूसरी फूँक मारती है
घर में दाने नहीं मगर धुन
चना भुनाने की
तन पर चिथड़े लेकिन
आदत पान चबाने की
खोटी किस्मत शाही सपने
क्या होगा अंजाम
एक पूजती प्रेत
दूसरी भूत झारती है
पानी सुबह शाम की सब्जी
तू तू मैं मैं रोज
घर का बूढ़ा गंगू तेली
बाकी राजा भोज
हल्दीघाटी कुरुक्षेत्र में
ठन जाता संग्राम
एक चलाती तीर
दूसरी खड़ग धारती है
जी में जैसलमेर बसा है
अधरों पर जलगांव
घर में चलती चामुंडा के
देख रहा हूं पांव
ममता माया व्यंग दनादन
घोड़ी बिना लगाम
एक डुबाती नाम
दूसरी वंश तारती है
निर्णय करना बहुत कठिन है
किसमें कितनी आग
मिल्टन से टकराता रहता
रोज ईशुरी फाग
किसको कहूं अशर्फी गिन्नी
किसको कहूं छदाम
एक सुष्मिता सेन
दूसरी उमा भारती है
एक जला दिया दूसरी
फूँक मारती है।
गीत
(२)
चीखता चंदन घिसो मत
पत्थरों की पीठ पर
हे विधाता गंध वाली
देह मत देना किसी को
शुक हुआ बंदी कि उसने
आदमी के बोल सीखे
सींग सुंदर क्या मिले
मृग झेलता है तीर तीखे
बूंद बरसे या न बरसे
हानि आंगन की नहीं
जल रहित पर जहर वाले
मेह मत देना किसी को
हस्तिनापुर की सभा ने
फिर नए पाँसे मंगाए
देखना कोई युधिष्ठर
फिर कहीं छलने न पाये
गिरि कंदराओं में कहीं
रत्न मण्डित लाख वाले
गेह मत देना किसी को
एक छल हो तो विवेकी
मन उसे परखे सम्हाले
घन तिमिर पूरित निशा में
कब कहां विषधर न खा ले
मंथरा बैठी हुई है
केकई के कक्ष में
अथ अनर्गल मानसिक संदेह
मत देना किसी को
वैराग्य के पूरे शतक में
दर्द का हिम शैल देखा
बज्र से खींची गयी है
छंद के प्रत्येक रेखा
भरथरी की तप गुफा से
चीख आती है निरंतर
पिंगला जैसी प्रिया से
मत देना किसी को
रायभवन,जुमेराती और साहित्यिक संस्था कला मन्दिर का आज भी शुक्रगुजार हूँ,जहां मैन ऐसे ही अनेक कवियों विचारकों को सुनकर अपने ज्ञान में और अनुभव में हमेशा नया जोड़ा।
मिल्टन के बरक्स लोक कवि ईसुरी को बड़े फलक पर रखने वाले कवि जंगवहादुर जी शतायु हों।
मनोज जैन
106,
विट्ठल नगर गुफा मंदिर रोड
भोपाल
462030
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