मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

रामचन्द्र "चंद्रभूषण" के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

https://www.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1119451081832619/

~।।वागर्थ।।~
में आज पहली बार रामचन्द्र ’चन्द्र भूषण’ जी के आठ नवगीत और उनका एक दुर्लभ चित्र 
__________________________________
प्रस्तुति
मनोज जैन 

1.
दरवाजे फिर से
गदराई ऋतुगंधा।

चितवनिया
सुमिरन में बीत गई
छलकन में
गागरिया रीत गई
खाती हिचकोले
सरगम की सारंधा।

विजनवती
थालियाँ परोस रही
किरन-फूल
जूड़े में खोंस रही
पाकर वरमाल
झुका गेहूँ का कंधा।  

२.
मैं तुम्हें पुकारूंगा फूलों को प्रश्न से
गंध को विराम से
मैं तुम्हें पुकारूंगा
एक छद्मनाम से।

बांध लिया है सेहरा
खुशगवार दिन ने
जाफरियों से छनकर
आने लगी धूप।

साबुन के झाग- भरे
हौज में नहाकर
जवां शाखसारों के
सिरहाने लगी धूप ।

सूरज के घोड़े
गलियारों में भटक गए
रोके रुकते नहीं
रेशमी लगाम से ।

एक जलेबी नुमा
संबोधन ओढ़ के
हमने अंकवार लिया

चुहलबाज पल को
कुंठाएं तोड़कर
चुपके से चख लिया

फिर आदम -ईव के
उस वर्जित फल को ।
दुपहर में गूथूंगा
खुसरो की मुकरियां
सतसैया के दोहे
मांगूंगा शाम से।

3

तुमने दायित्व दिया क्षण का
बोध हुआ एक सगेपन का।

शब्द मेरे वे न थे -
कि जिन्हें गीतों में नींबू-सा निचोड़ा
शब्द थे वे
कि जिन्हें नक्षत्रों में प्रक्षेपणास्त्र-सा छोड़ा
रचनात्मक सूत्र गढ़ा
जिनसे
दिक्-काल के गठन का।

शिल्प मेरा वह न था
कि प्रश्नों को देखा विराम की आँखों
शिल्प तो वह था
कि इतिहास को देखा आयाम की आँखों

ज्यामिति जिसकी
परिभाषित
किया कोण मन का।

चित्र मेरे वे न थे
कि जिन्हें टाँगा कोठरियों,ओसारे पर
चित्र तो वे थे
कि जिनसे चरित्र लिया भाड़े पर

नया-नया अर्थ रचा
जिनसे
युग के संयोजन का।  

4

वंशी में बाँधो मत
मैं तो अनकथ्य किसी गोपन की राधा हूँ

झूलूँगी झूला
कदंबों की डाल में।
महलों में घेरो मत
मैं तो अनटूट किसी सर्जन की सीता हूँ

धूप में तपूँगी
पैठूँगी पाताल में।
चित्रों में आँको मत
मैं तो अनदेख किसी अर्पण की संज्ञा हूँ

चंपा हूँ डलिया में
दियरा हूँ थाल में।

वंशी में बाँधो मत
मैं तो अनकथ्य किसी गोपन की राधा हूँ

5

कट गया दिन
कट गया दिन
कट गया
शीर्षको-उपशीर्षकों में
बेवजह मन बँट गया ।

बीज बंजर में
नए बोते गए
और अपने-आप में
कुछ और हम होते गए

हाथ के आगे
उँगलियों का तकाज़ा
घट गया ।

डायरी में लिखी
कुछ मजबूरियाँ
शब्द के जूठन निगोड़े
और कुछ नज़दीक वाली दूरियाँ

एक टुकड़ा भर गलीचा
सूँघता
चौखट गया ।

6

बैला हुँकड़े -- हल गुहराए

बैला हुँकड़े
हल गुहराए
नींद लगी है खेत को ।

बूढ़ी अम्मा
कान उमेठे
बापू खोजे बेंत को ।

टूटी खाट
उराँचें ढीली
झींगा मछली

दूर गन्धाए
चौके पिचकी
पड़ी पतीली ।

सूखी टहनी
मरियल गिद्धा
टेर रहा है प्रेत को ।

गंगा घटकर
हुई कठौता

बौड़म विधना
ऐंठी अँतड़ी
भूखों से करती समझौता ।

बन्द हुआ
चौबे का पतरा

बेबस बहना
बाँध रही ताबीज़
दहकती रेत को ।

7

अधलिटी परछाइयाँ

अधलिटी परछाइयों की आँख निंदियाने लगी
और टीलों की कतारें मैन सिरहाने लगीं ।

चौंकती पुतलीघरों की
रेशमी अँगड़ाइयाँ
टेरती हमजोलियों को
मनचली पुरवाइयाँ
साँझ सीमान्ती विभा के पाँव सहलाने लगी ।

केतली के इन उफानों से
चुस्कियाँ फिर जुड़ गईं
हर चिलम की फूँक पर
सपनिल हिचकियाँ उड़ गईं
धुन्ध की रूपाम्बरा चुपचाप नियराने लगी ।

भीड़ के टूटे हुए क्षण
जोड़ती वनपंखिनी
हंस-मिथुनी आँचरों से
झाँकती जलसंखिनी
दर्द की दुहिता गुफ़ा के पास जम्हुआने लगी ।

8

जंगलों में खो गए हैं आदिवासी
_______________________

एक चुल्लू भर उदासी
आचमन में
कहाँ धर दूँ
बेतरह बढ़ने लगी है बदहवासी ।

दाँत सीने पर गड़ाती
रुह कोई
अजनबी भटकी हुई सी
गाड़ियाँ हैं
लेट चलतीं
जंक्शनों पर भीड़ है
अटकी हुई सी ।

लड़खड़ाकर
गिर पड़ा है
पीठ पर गट्ठर लिए
बूढ़ा खलासी ।

एक छल है
नाम लेना
आग में भुनते
गुलाबों का
हड्डियों में धँस गया है
गर्म शोला,
दोज़खों में भिनभिनाते
आफ़ताबों का ।

शीर्षकों से
शब्द टूटे जा रहे हैं
जंगलों में खो गए हैं आदिवासी ।

परिचय
______
पूरा नाम रामचन्द्र ’चन्द्र भूषण’  
प्रकाशन 
एक नवगीत संग्रह 
समय अब सहमत नहीं 
२००२ में आर्य बुक डिपो, नई सड़क, दिल्ली से प्रकाशित 
जन्मतिथि-३ जनवरी १९२७
जन्म स्थान -ग्राम मोहनपुर जनपद सीतामढ़ी बिहार के एक संभ़्रात कायस्थ परिवार में 
शिक्षा - केवल मैट्रिक तक
आजीविका -न्यायालयी कार्यालय में लिपिक 
रचनाकाल -सन् १९५० से अब तक लगभग २०० कविताओं की रचना
प्रकाशन -लगभग सभी कवितायें प्रतिष्ठित एवं प्रतिनिधि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो  चुकी हैं।'पाँच जोड़ बाँसुरी ' तथा अन्य कई काव्य संकलनों में भी गीत प्रकाशित हो चुके हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें