काश शब्द की छाया में कवि नदी किनारे का वृक्ष होने की कामना करता है। यह गीत सुंदर से असाधारण तब हो उठता है जब आगे की पंक्तियों में यह भेद खुलता है कि कवि अपने चेतन अस्तित्व को लगभग नकारते हुए ऐसी जड़ अवस्था की इच्छा सिर्फ इसलिए रखता है कि वह इस स्थिति को प्रेम के अधिक अनुकूल पाता है लेकिन आगे की पंक्तियां हमें फिर चौंकाती हैं कि कवि का उद्देश्य सिर्फ अपना एकांगी प्रेमालाप नहीं बल्कि शाश्वतता से साक्षात्कार भी है। वह यह भी विश्वास रखता है कि उसके इस प्रयास का प्रतिउत्तर वह शाश्वत - सत्ता भी उसी अनुराग से देगी।
गीत की जीवन यात्रा एक सुबह जैसी इच्छा के उदय से चांदनी का पट निहारने तक की है। यह किसी व्यक्ति का अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को तिरोहित कर अपनी बहुत सारी सुविधाओं को तजकर अपने बहुत सारे स्वार्थों से उठकर, महाविराट प्रकृति की सत्ता में अपना विनम्र स्थान पा जाने की इच्छा भर है जिसका उद्देश्य कोई महान उदाहरणीय संज्ञा हो जाने से भिन्न मैथिलीशरण गुप्त की नियति नटी का दर्शक भर हो जाना है।
यह शुद्ध प्रकृतिवाद है।
पढ़िए मनोज जैन मधुर का गीत।
काश,हम होते नदी के
काश हम होते नदी के
तीर वाले वट!
हम निरंतर भूमिका
मिलने-मिलाने की रचाते
पाखियों के दल उतरकर
नीड़ डालों पर सजाते
चहचहाहट सुन ह्रदय का
छलक जाता घट!
नयन अपने सदानीरा से मिला
हँस -बोल लेते।
हम लहर का परस पाकर
खिलखिलाते ,डोल लेते
मन्द मृदु मुस्कान बिखराते
नदी के तट!
साँझ घिरती ,सूर्य ढलता
थके पाखी लौट आते
पात -दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते
झुरमुटों से झाँकते हम
चाँदनी के पट!
देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते
जिन्दगी होती तनिक -सी
किन्तु कद में बड़े होते।
सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट!
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