भागो मत दुनिया को बदलो सूरज यही सिखाता :
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राधेश्याम बन्धु
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लखनऊ की प्रख्यात साहित्यकार एवम नवगीत की मर्मज्ञ डॉ रंजना गुप्ता जी बन्धु के वयक्तिव और कृतित्व पर एक विशेष टीप में अपनी बात कुछ इस तरह कहती है :--
"राधेश्याम बंधु जी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों बहुश्रुत है वे लगातार नवगीतों पर कार्य कर रहे हैं उनका कार्य समय की तराज़ू पर सदा भारी रहेगा
अवस्था और कार्य शक्ति का अद्भुत सामंजस्य बिठाया है उन्होंने अपने जीवन में सभी नवगीत सरल सुबोध और समय की विभाजक क्रूर रेखाओं को खींचते हैं उनका लेखन लोकोमुखी है वे रचनात्मकता को विनोद का कार्य नहीं मानते बल्कि समाज की पीड़ा का रेखांकन उनकी लेखनी द्वारा सदा होता रहे यही प्रयास उनका भरसक रहता है।"
भोपाल के चर्चित समीक्षक डॉ लक्ष्मी नारायण पयोधि बन्धु जी के समकालीन गीतों से गुजरते हुए अपनी बात को थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं:--दरष्टव्य है उनका कथन
"बन्धु जी के प्रस्तुत नवगीत बदलते समय की चालों-कुचालों,आधुनिकता के नाम पर निर्मम होती संवेदना और मनुष्य की प्रवत्तियों पर इन सबके प्रभाव को गहरी रेखाओं से चित्रित करते हैं।"
समूह वागर्थ आज अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका समग्र चेतना के सम्पादक वरिष्ठ कवि राधेश्याम बन्धु जी के चुनिंदा दस नवगीत वागर्थ समूह सदस्यों को प्रस्तुत नवगीतों पर खुली चर्चा के लिए अच्छा मंच उपलब्ध कराता आया है।
आशा हैं आप सब चर्चा में भाग लेंगे और प्रस्तुत नवगीतों पर अपना महत्वपूर्ण मत रखेंगे! आपकी टिप्पणियाँ समूह के उन साथियों को भी सीखने और जुड़ने का अवसर देती हैं जो वागर्थ में नए जुड़े हैं और आप को पढ़कर आपसे जुड़ना चाहते हैं।
आइए पढ़ते हैं वरिष्ठ कवि
राधेश्याम बन्धु के दस नवगीत
प्रस्तुति
समूह वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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१
अपना ही घर भूल गये
हम इतने आधुनिक हो गये
अपना ही घर भूल गये,
‘मोनालिसा’ के आलिंगन में,
ढाई आखर भूल गये,
शहरी राधा को गांवों की
मुरली नहीं सुहाती अब ,
पीताम्बर की जगह 'जीन्स’ की
चंचल चाल लुभाती अब,
दौलत की दारू में खोकर
घर की गागर भूल गये
विश्वहाट की मंडी में भी
खोटे सिक्कों का शासन,
रूप नुमाइश में जिस्मों का
सौदा करता दु:शासन,
खोटे सिक्कों के तस्कर बन,
सच का तेवर भूल गये,
अर्धनग्न तन के उत्सव में
देखे कौन पिता की प्यास ?
नवकुबेर बेटों की दादी
घर में काट रही बनवास,
नकली हीरों के धन्धे में
मां का जेवर भूल गये।
२
घर में सौ-सौ ताने,
दिन कट जाता है दफ्तर में,
घर में सौ-सौ ताने,
सूनापन आता रातों में,
यादों संग बतियाने,
रोज चाय ले गंध देह की
सुबह जगाने आती,
हाथों में दे टिफिन प्यार की
दफ्तर रोज पठाती,
भीड़ों में भी एक उदासी,
चलती साथ निभाने,
दूर हंसी का जलतरंग पर
गूंज हृदय के पास,
पुरवा छेड़ - छेड़ जाती है
आलिंगन की प्यास,
देहगंध सजधज कर आती,
संधिपत्र लिखवाने,
फाइल ने कब देखा प्यासी
आंखों का उपवास?
गली - गली में सपने भटकें
काट रहे वनवास,
दीवाली भी आती अब,
आंसू के दिये जलाने,
दिन कट जाता है दफ्तर में
घर में सौ-सौ ताने।
३
बन्द घरों में
बहुत घुटन है बंद घरो में,
खुली हवा तो आने दो,
संशय की खिड़कियां खोल दो,
किरनों को मुस्काने दो,
ऊंचे- ऊंचे भवन उठ रहे
पर आंगन का नाम नहीं,
चमक - दमक आपा- धापी है
पर जीवन का नाम नहीं ।
लौट न जाये सूर्य द्वार से,
नया सबेरा लाने दो ।
हर मां अपना राम जोहती
कटता क्यों बनवास नहीं ?
मेहनत की सीता भी भूखी
कटता क्यों उपवास नहीं ?
बाबा की सूनी आंखों में,
चुभता तिमिर भगाने दो ।
हर उदास राखी गुहारती
भाई का वह प्यार कहां ?
डरे- डरे अब रिश्ते कहते
खुशियों का त्योहार कहां ?
गुमसुम गलियों में ममता की
खुशबू तो बिखराने दो,
बहुत घुटन है बन्द घरों में,
खुली हवा तो आने दो ।
४
घर में
फिर-फिर जेठ तपेगा आंगन,
हरियल पेड लगाये रखना,
सम्बन्धों के हरसिंगार की
शीतल छांव बचाये रखना
दूर – दूर तक सन्नाटा है
सड़कें छायाहीन हो गयीं
बस्ती – बस्ती लू से घायल
गलियां भी जनहीन हो गयीं
बादल पाहुन लौट न जाये
वन्दनवार सजाये रखना
रिश्तों की बगिया मुरझायी
संशय की यूं उमस बढ़ी है
भूल गयी उड़ना गौरैया
घर - - घर में यूं तपन बढ़ी है
थके बटोही की खातिर भी
तन की जुही खिलाये रखना,
गुलमोहर की छाया में भी
गर्म हवा की छुरियां चलतीं
आंगन की तुलसी भी अब तो
अम्मा की अरदास न सुनती,
धवल चांदनी लौट न जायें
मन का दिया जलाये रखना,
फिर-फिर जेठ तपेगा आंगन,
हरियल पेड लगाये रखना,
५
एक शीतयुद्ध
आदमकद टूटन ने, दर्द इस तरह दिये
सतही समझौतों के प्यार के लिये जिये,
तकिये को मसल – मसल
बालों को नोचते
अखबारों में प्रातः
इन्क्लाब खोजते,
गुमसुम से रिश्तों में एक शीतयुद्ध छिडा
शिकनों से भरे हुए मस्तक के हाशिये,
फाइल से फरमाइश
की दूरी बढ रही
सांसों की छेनी नित
एक मूर्ति ग्ढ रही,
जाने कब पूरा हो चुकने का सिलसिला
भूख झुकी मेजों पर एक तृप्ति के लिये,
चूडी की खनक खडी
द्वारे पर थक गई
सूरज की मजदूरी
हाटों में चुक गयी,
प्रश्न हैं महाजन से दवार खटकटा रहे
सुबह के हलफनामें शाम बने मर्शिये!
६
उनकी खातिर कौन लड़े ?
उनकी खातिर कौन लड़े
जो खुद से डरे-डरे?
बचपन को बंधुआ कर डाला,
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भठठी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलने वालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही मां बहन बन गयी,
किस पर दोष धरे ?
चूड़ी की भठठी हो चाहे
कल खराद वाले,
छोटू के मुखपर ढावे ने
डाल दिये ताले,
पिता जहां लापता पुत्र,
किससे फरियाद करे?
आतिशबाजी के मरुथल में
झुलस रहा बचपन,
भीख मांगता भटक रहा है
सड़कों पर जनगण,
सौ-सौ घाव लगे बुधिया तन,
मरहम कौन धरे?
उनकी खातिर कौन लड़े,
जो खुद से डरे - डरे ?
७
धान रोपते हाथ
धान रोपते हाथ,अन्न
के लिए तरसते हैं,
पानी में दिनभर खटकर
भी प्यासे रहते हैं,
मुखिया के घर रोज दिवाली
रातें मतवाली,
क्रूर हवेली की हाकिम भी
करता रखवाली,
पर झुनिया की लुटी देह की
रपट न लिखते हैं,
जो भी शहर गया धनियां के
आंसू भूल गया,
सरपंचों की हमदर्दी का
कुंअना सूख गया,
होरी के सपने गोबर को
खोजा करते हैं,
त्योहारों में भी साड़ी का
सपना रूठ गया,
कर्जे की आंधी से तन का
बिरवा सूख गया,
सबकी फसल कटी मुनियां
के फांके चलते हैं,
धान रोपते हाथ, अन्न
के लिए तरसते हैं ।
८
शब्द बोलेंगे
जो अभी तक मौन थे,
वे शब्द बोलेंगे,
हर महाजन की बही का,
भेद खोलेंगे,
पीढ़ियाँ गिरवीं फसल के
बीज की खातिर,
लिख रहा है भाग्य मुखिया
गांव का शातिर,
अब न पटवारी घरों में
युद्ध बोयेंगे,
आ गयी खलिहान तक
चर्चा दलालों की,
बिछ गयी चौपाल में
शतरंज चालों कीं,
अब शहर के सांड फसलों
को न रौंदेंगे,
कौन होली, ईद की
खुशियां लड़ाता है?
औ हवेली के लिए
झुग्गी जलाता है,
हर सियासी मुखौटों का
किला तोडेंगे!
जो अभी तक मौन थे,
वे शब्द बोलेंगे!
९
भागो मत दुनिया को बदलो
जीवन केवल गीत नहीं है,
गीता की है प्रत्याशा,
पग-पग जहां महाभारत है,
लिखो पसीने की भाषा,
हर आंसू को जंग न्याय की
खुद ही लड़नी पड़ती,
हर झुग्गी की ‘कुन्ती’ भी अब
स्वयं भाग्य है लिखती,
लड़ता है संकल्प युद्ध में,
गांडिव की झूठी आशा,
'भागो मत दुनियां को बदलो’
सूरज यही सिखाता,
हर बेटा है भगतसिंह जब
खुद मशाल बन जाता,
सदा सत्य का पार्थ जीतता,
यही युद्ध की परिभाषा,
अखबारों में रोज क्रान्ति की
खबर खोजने वालो,
पर पड़ोस की चीखें सुनकर
छिपकर सोने वालो.
हर मानव खुद इन्क्लाब है,
हर झुग्गी की अभिलाषा,
१०
खुशियों का डाकिया
ओ बयार मधुऋतु वाली
झुग्गी में भी आना,
शहर गये भैया बसन्त
की चिठठी भी लाना,
महानगर मे हवा बसन्ती
भी आ बहक गयी,
कैक्टस की बेरुखी देख
बेला भी सहम गयी,
मुरझाये छोटू कनेर की
प्यास बुझा जाना,
गांवों की फुलमतिया
कोठी की सेवा करती,
सुरसतिया भी अब किताब
तज पोछा है करती,
मुनिया की बचपन बगिया भी
आकर मंहकाना,
खड़ा मजूरी की लाइन में
यौवन अकुलाता,
खुशियों का डाकिया नहीं क्यों
होरी घर आता?
दादी के टूटे चश्में का
खत भी पहुंचाना,
ओ बयार मधुऋतु वाली
झुग्गी में भी आना।
राधेश्याम बन्धु
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परिचय
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जन्म : १० जुलाई १९४० को पडरौना उत्तर प्रदेश भारत में
लेखन : नवगीत, कविता, कहानी, उपन्यास, पटकथा, समीक्षा, निबंध
प्रकाशित कृतियाँ-
काव्य संग्रह : बरसो रे घन, प्यास के हिरन
खंडकाव्य : एक और तथागत
कथा संग्रह : शीतघर
पता : बी-३/१६३ यमुना विहार,दिल्ली ११००५३
सम्पर्क सूत्र: 9868444666
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