इस दुष्कर समय में जो भी परिचित अपरिचित हमारा साथ छोड़ गए , उनके प्रति वागर्थ अपनी गहरी संवेदनाएँ व्यक्त करता है । समय कितना भी कठिन रहा हो साहित्य की विशेष भूमिका रही है , अतः वागर्थ का प्रयास है इस विषम समय में हम सभी की सकारात्मकता व निरन्तरता बनी रहे .....
इसी क्रम में वागर्थ में आज उमाकांत मालवीय जी के गीत
#ज़िंदगी_नेपथ्य_में_गुजरी_मंच_पर_की_भूमिका_तो_सिर्फ़_अभिनय_है
बम्बई में जन्मे उमाकांत मालवीय जी की शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में उमाकांत मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। उनका मत रहा कि आज के युग में भावों की तीव्रता को संक्षेप में व्यक्त करने में नवगीत पूर्णतया सक्षम है । उनके गीतों में उनके व्यक्तित्व का स्वाभिमानी पक्ष स्पष्ट दृष्टिगत है । इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर इन्सान की विशिष्ट कार्यशैली होती है जिसमें वह सहज रूप से अपना श्रेष्ठ प्रतिदान दे सकता है किसी अन्य की बनाई हुई लीक पर चलने में उसे असुविधा व असहजता का सामना करना पड़ेगा । उमाकांत मालवीय जी ने // मैं तुम्हारे चरण चिन्हों पर चलूँ , ऐसा दुराग्रह क्यों , ऐसी दुराशा क्यों // किस मनोस्थिति में लिखा होगा किन्तु व्यक्तिगत अनुभवों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी भी समझ व कार्यशैली को हैक्ड करने के असफल प्रयास हुए होंगे ..
और उनका यह नवगीत आज भी उतना ही तरोताज़ा और प्रासंगिक है ।
" झण्डे रह जाएँगे आदमी नहीं " पढ़कर कोई भी उनकी दृष्टि का कायल हुए बिना नहीं रह सकता । लगता है कि यह गीत आज ही उन्होंने रचा हो ।
उनके गीतों में आज के परिदृश्य का सटीक अंकन है । यही उनकी रचनाधर्मिता की विशेषता है कि उनके रचे गीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं ।
भूख प्यास घर -घर रीते
जूठे बासन खँगारती
यात्राएँ दिशाहीन हैं
बिके एक -एक सारथी
बदनीयत करों से भविष्य की
वल्गाएँ छूटें तो कैसे ।
उमाकांत मालवीय जी की पावन स्मृतियों को वागर्थ नमन करता है .....
प्रस्तुति
~।।वागर्थ ।।~
संपादन मण्डल
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(१)
मैं तुम्हारे चरण चिन्हों पर चलूँ
मैं तुम्हारे दिए साँचे में ढलूँ
ऐसा दुराग्रह क्यों
ऐसी दुराशा क्यों
अनुकरण अनुसरण से यदि दूर हूँ
यह न भ्रम हो दर्प मद से चूर हूँ
भीख में पाए उजाला सूर्य से
मैं निकम्मे चन्दर्मा सा ही जलूँ
और कल की जूठनों पर ही पलूँ
ऐसा दुराग्रह क्यों
ऐसी दुराशा क्यों
भूमिका कल की बड़ी थी मानता
आज को जो दाय वह भी जानता
दूँ दुहाई सदा स्वर्ण अतीत की
मूँग छाती पर दिवंगत की दलूँ
आज का दायित्व कंधों पर न लूँ
ऐसा दुराग्रह क्यों
ऐसी दुराशा क्यों
(२)
ज़िंदगी नेपथ्य में गुजरी
मंच पर की भूमिका
तो सिर्फ़ अभिनय है
मूल से कटकर रहे
परिशिष्ट में
एक अंधी व्यवस्था की दृष्टि में
ज़िंदगी तो कथ्य में गुजरी
और करनी ?
प्रश्न से आहत अनिश्चय है
क्षेपकों के हाशियों के लिए हम
दफ्न होते कागजी ताजिए हम
ज़िंदगी तो पथ्य में गुजरी
और जन परहेज का बीमार संशय है ।
(३)
प्रतिश्रुत हूँ जीने को
कुछ थोड़े आँसू को
ढेर से पसीने को
मीरा सुकरात और
शंभु की विरासत
सादर सिर आँखोँ पर
लेने की आदत
अमृत मिले न मिले
किन्तु जहर पीने को
पत्थर पर घन प्रहार
बड़ी अजब है सूरत
आघातों से उभरी
आती है मूरत
चोट खा निखरने के
सहज कटु
करीने को
झेलूँगा जून के
धूल भरे बवंडर
सह लूँगा आए जो
ठिठुरता दिसंबर
कैसे भूलूँ सावन
फाग के महीने को
(४)
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना ही सामान रहा
चुभन और दर्शन
पैने यथार्थ के
पग- पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किन्तु भूले से कुछ नहीं कहा
एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की
इन्हीं के भरोसे क्या -क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इन्तिहा
एक कसम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे
बात क्या बने
देखता रहा सब कुछ सामने खड़ा
मगर किसी के कभी चरण नहीं पड़ा
(५)
झण्डे रह जाएँगे
आदमी नहीं
इसलिए हमें सहेज लो ममी सही
जीवित को तिरस्कार
पूजें मकबरे
रीति यह तुम्हारी है
कौन क्या करे
ताजमहल , पितृपक्ष , श्राद्ध सिलसिले
रीति यह अभी नहीं कभी थमी नहीं
शायद कल मानव की
हों न मूरतें
शायद कल हमीं रह जाएँ सूरतें
आदम की शक्लों की यादगार हम
इसलिए हमें सहेज लो डमी सही
पिरामिड अजायबघर
शान हैं हमीं
खूब देखभाल लो
ज़रा कमी नहीं
प्रतिनिधि हम गत आगत दोनों के हैं
पथराई आँखों में है नमी कहीं
(६)
बालू से तेल तुम निचोड़ेगे कब
शब्दवेधी वाण तुम छोड़ोगे कब तक
दिशा दिशा से उठते
तैरते अँधेरों में
दिए और जुगनू की
हत्या के घेरों में
दोपहरी में सूरज
तोड़ोगे? कब तक ?
इतिहासों को झुठलाती
हुई किताबों पर
अचकन में टँके हुए
ढीठ कुछ गुलाबों पर
धधकते हुए सच को
मरोड़ेगे कब तक
बहलाओगे कोरे
नारों से मंत्रों से
परिचित हो चले सभी
घिनहे षणयंत्रों से
बढ़ते सैलाबों को
मोड़ोगे कब तक
(७)
सील गई धुधुआती आग में
ज्वालाएँ फूटें तो कैैसे
घुटनों में सिर छिपे हुए
कुण्ठाओं के निदान है
कुहरों में गर्क घर हुए
स्थगित हो गए विहान हैं
आस्था भक्षी अंधी मूरतें
प्रतिमाएँ टूटे तो कैसे
भूख प्यास घर -घर रीते
जूठे बासन खँगीरती
यात्राएँ दिशाहीन हैं
बिके एक -एक सारथी
बदनीयत करों से भविष्य की
वल्गाएँ छूटे तो कैसे
पौरुषेय उद्बोधन भी
प्रतिनिधि बन लौट चले हैं
ऐसे अस्तित्वों की
अनस्तित्व लाख भले हैं
कैद मुट्ठियों में जो हो गईं
उल्काएँ छूटे तो कैसे
(८)
महुआ का मद
फिर पलाश की आँखों में उतरा ।
यह कैसा गुलाल
वन - वन के
अँग अँग छितरा
एक कुँवारी हवा
छिऊल के तन पर लहराती
छाँव , तने से हिरनी
अपना माथा खुजलाती
टेसू के ठसके
क्या कहने
कैसा घम बदरा
शोणभद्र के बीच धरी
तहियाई चट्टानें
अठखेलियाँ कर रहीं लहरें
भरती हैं तानें
अँगो की उभरन , सौ नखरे
चलती है इतरा
काले कमल सरीखे पत्थर
गोपद बीच खिले
फूलों से ज्यादा यह सुन्दर
पाहन मुझे मिले
फेनों की उजरौटी
श्यामल पाहन चितकबरा
(९)
सूर्य कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा
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सूर्य ,
कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा ,
जन्म से मिली जिसको
कठिन अग्निदीक्षा
उसको क्या है
संकट ,चुनौती , परीक्षा
सोना तो सोना है,
टीन नहीं होगा
लपटों के पलने में
जनम से पला है
सुलगती सचाई
की ध्वजा ले चला है
तिल तिल कर ढले, मगर हीन नहीं होगा ।
दर्द , बड़े ,छोटे हों
या कि हों मँझोले
विज्ञापित नहीं किए
टीसते फफोले
ग्रहण लगेगा तो भी
दीन नहीं होगा ।
(१०)
गीत एक अनवरत नदी है
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गीत एक अनवरत नदी है
कुठिला भर नेकी है
सूप भर बदी है
एक तीर तोतले घरौंदे
खट्मिट्ठे गाल से करौंदे
नागिन की बीन
सुरसधी है ।
पत्थर के पिघलते मसौदे
पर्वत पर तुलसी के पौधे
सावन की सुदी है
बदी है
लहर -लहर किरण वलय कौंधे
मीनकेतु फिसलन के सौदे
अनलहक पुकार
सरमदी है ।
~ उमाकांत मालवीय
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परिचय
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नाम - उमाकांत मालवीयजन्म २ अगस्त, १९३१जन्म मुंबई, महाराष्ट्रमृत्यु
११नवम्बर, १९८२ मृत्यु स्थान इलाहाबाद,
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