दसवीं कड़ी
दिनेश शुक्ल
के समकालीन दोहे
समकालीन दोहा की दसवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं
दिनेश शुक्ल जी के दोहे
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समकालीन दोहे को लेकर जहाँ तक मेरा मानना है, हममें से वह हर एक दोहाकार जो, समकालीन दोहे पढ़ने या लिखने में जरा भी रुचि रखता है; वह कम से कम दिनेश शुक्ल जी के नाम से तो अपरिचित नहीं हो सकता। दोहे जैसे विस्मृत छन्द को समकालीन कविता में पुनर्स्थापित करने में जिन दोहाकारों का नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाता है; दिनेश शुक्ल जी का नाम उन नामों में से सबसे पहले क्रम पर रखा जाता है।
जैसे आज भी सुपर स्टार शाहरुख खान या महानायक अमिताभ बच्चन के नृत्य की भंगिमाओं में पुराने जमाने के अभिनेता भगवान दादा की छवि सुस्पष्ट दिखाई देती है, वैसे ही समकालीन दोहों में हमें जो भाषा का स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ता है; वह सब शुक्ल जी के काम का ही विस्तार है। शुक्ल जी ने विलुप्तप्राय दोहे को सबसे पहले घिसी -पिटी और लिजलिजी भाषा की कैद से रिहाई दिलाने में अपना योगदान सुनिश्चित किया इसी के साथ उन्होंने एक बड़ा काम और किया, दोहा छन्द में विषय वैविध्य का बीजारोपण कर समकालीन दोहा को जन सरोकारों से जोड़ दिया।
13 ,11 मात्राओं वाले दोहे के जीर्ण -शीर्ण शरीर में नवीनता के प्राण फूँकने से; देखते ही देखते मृतप्राय दोहा फीनिक्स पक्षी की भाँति अपने नए स्वरूप उठ खड़ा हुआ।
वातावरण निर्मिति के बाद दिनेश शुक्ल जी के समकालीन दोहे,तत्कालीन ख्यातलब्ध पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होने लगे।
हंस से लेकर नया ज्ञानोदय तक सभी चर्चित पत्रिकाओं ने दोहाकारों के लिए पत्रिकाओं में प्रकाशन के रास्ते खोल दिए । इसी के साथ अन्य समकालीन दोहाकारों ने भी अपने अपने स्तर पर समकालीन दोहों के लिए शानदार वातावरण बनाया।
दिनेश शुक्ल जी के खाते में (१) 'पानी की बैसाखियाँ'(२) 'जागे शब्द गरीब ' कुल जमा दो कृतियाँ दर्ज हैं। शुक्ल जी का दोहा संग्रह 'पानी की बैसाखियाँ' हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद उत्तर प्रदेश द्वारा वर्ष 1995 में 'साहित्य भारती' पुरस्कार से सम्मान राशि सहित पुरस्कृत हुआ तदुपरांत हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग राज उत्तर प्रदेश द्वारा वर्ष 1998 में हिंदी साहित्य में दोहे जैसे विस्मृत छन्द को अपनी ऊर्जावान रचना धर्मिता से समकालीन कविता में पुनर्स्थापित करने के उल्लेखनीय कार्य हेतु हिन्दी की श्रेष्ठ मानद उपाधि 'साहित्य महोपाध्याय' से सम्मानित किया गया।
आइए पढ़ते हैं दिनेश शुक्ल जी के समकालीन दोहे
प्रस्तुति
मनोज जैन
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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मजहब की ये बोलियाँ, कड़वी जैसे नीम।
धर्म यहाँ पर हो गया,पानी घुली अफ़ीम।।
लोग आधुनिक हो गए,कहलाये ये सभ्य।
मन से तो बौने रहे,आदिम वही असभ्य।।
गलियारे जब से हुए ये सोचों के तंग।
दीन, धरम की सड़क पर चढ़ा लहू का रंग।।
परम्परा की गली में,कैद खड़ा ये धर्म।
पीढ़ी ने समझे नहीं, ये मजहब के मर्म।।
उम्मीदें मुरझा गईं स्वप्न हुए सब धूल।
उत्तर की भाषा रही, प्रश्नों के प्रतिकूल।।
ये संसद के आँकड़े जारी हुए बयान।
जनमत को बहला रहे तोते चतुर सुजान।।
मरे नमक की खाल पर, बैठ हँसे ये तख्त।
साँप बना फुँफकारता कसे कुन्डली वक्त।।
जोड़ भाग बाकी गुणा हासिल दुख का तीन।
कंप्यूटर युग में हुए बच्चे यहाँ मशीन।।
कठिन साधना शब्द की,कठिन शब्द का पंथ।
या तो जोगी साधता या साधक या संत।।
दुख की जात न थी यहाँ कल तक सुनो सुजान।
पंडित काजी ने रचे इनके नए विधान।।
केवल बदले साथियों दुर्योधन के नाम।
रोज महाभारत लड़ा हमने आठों याम।।
कभी बने सेवक यहाँ, कभी बने ये भूप।
यहाँ बदलते भेड़िये नित नित अपना रूप।।
बहा स्वेद की इक नदी ,कर अमृत का दान।
किस्तों में करते रहे लोग यहाँ विषपान।।
उनके दिन जैसे फिरे सब के फिरें हुजूर।
बंदर बैठे खा रहे सेजों पर अंगूर ।।
समय महाजन खाँसता,लेने आया ब्याज ।
लो गिरवी फिर रख दिया प्रजातंत्र का ताज ।।
दीवारों पर छिपकली दरवाजों पर कीट।
फटे समय के चित्र को कब तक देते पीठ।।
द्वारे पर सूखा खड़ा सर पर खड़े चुनाव।
अनबोले दुख दे गए, प्रजातंत्र के घाव ।।
आँखों में आंसू भरे,समय करे विषपान।
शब्दों की चादर फटी ओढ़े हैं रसखान ।।
रहिमन तो मारे गए फिर सरयू के तीर ।
तुम होते इस दौर जो बचते कहाँ कबीर ।।
नहीं आरियों को पता,कैसे कटते पेड़ ।
या दुख जाने पेड़ ये या दुख जाने मेड़।।
प्रजातंत्र करता रहा नित-नित नए प्रयोग।
जिसने चाहा कर लिया,आपने हित उपयोग।।
नाम पढ़े खाने चढ़े निगरानी सौगात।
झोली में डाले गए, कटे अंगूठे हाथ।।
शहरों में कर्फ्यू लगा,लोग घरों में कैद।
बूढ़े रमजानी मरे बिन हकीम बिन वैध।।
आम आदमी बन गया,हरी भरी इक मेड़।
जब जी चाहा चर गई, राजनीति की भेड़।।
बस्ती- बस्ती हादसे हर घर तंगी क्लेश।
अपशकुनों के गाँव में पैदा हुए दिनेश।।
दिनेश शुक्ल
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