वागर्थ प्रस्तुत करता महेन्द्र नेह जी के नवगीत
और नवगीत पर उनके विचार
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वर्तमान दौर नवगीत के सामने नई चुनौतियाँ लेकर उपस्थित हुआ है। इस बाजारवादी सर्वसंग्रहवादी व्यवस्था में नवगीतकारों के विभ्रमित हो जाने और बिक जाने के सभी खतरे मौजूद हैं। नवगीत के सामने अपनी विधागत उपस्थिति को अपने सौंदर्यशास्त्र को विकसित करने की चुनौती भी सामने खड़ी है। मेरा मानना है कि नवगीत की शब्द सामर्थ्य अभी चुकी नहीं है। जब तक जीवन में लय और राग की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती रहेगी, गीत मर नहीं सकता। यह आवश्यक अर्थ और विस्तार की लय के बिना शब्द सामर्थ्य आगे तक नहीं जा सकती। यह और विचार की लय ही थी जिसने निराला के गीतों में नवभाव बोध और जागरण की परिवर्तनकामी आकांक्षाओं को हिमालय जैसी ऊंचाई और व्यापकता प्रदान की। वर्तमान समय भी नवगीत से वैसे ही शक्ति शाली हस्तक्षेप की मांग कर रहा है। जाहिर है, यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि नवगीत,जन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को किन गहराइयों तक व्यक्त करता है और सामाजिक परिवर्तन की आसन्न लड़ाई में अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वहन कितनी ईमानदारी से करता है ।वह जनपक्षधरता ही है, जो नवगीत की नये काव्य संस्कारों,नई अनुभूतियों और नए कला शिल्पों से समृद्ध करेगी।
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
सहयोग
अनामिका सिंह
महेन्द्र नेह
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(१)
हम सर्जक हैं
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हम सर्जक हैं समय सत्य के
नई ज़िंदगी को स्वर देंगे
मैली बहुत कुचैली चादर
घर की मर्यादा बतलाकर
इसे नहीं धोने देते हैं
मुर्दा संस्कृति के सौदागर
वे इसको जर्जर करते हैं
हम इसमें तारे जड़ देंगे
पाखण्डों के नगर बसाकर
प्रवचन झाड़ रहे हैं तस्कर
जिधर दृष्टि डालो पतझर है
यह कैसा आया संवत्सर
ये युग को बर्बर करते हैं
हम इसमें अमृत भर देंगे
एटम डालर की ताकत पर
रोब गाँठते दुनिया भर पर
यह तो उनका मरण पर्व है
समझ रहे जिनको जन्मान्तर
वे इसको कर्कश करते हैं
हम इसको नव लय स्वर देंगे ।
२
ये जो बाजार है
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ये जो बाजार है
जी हाँ बाजार है
सत्य बिकता यहाँ
झूठ गुलजार है
हैं तिलस्मी महल
झोपड़ी गुम यहाँ
जादुई दृश्य हैं
आदमी गुम यहाँ
तन का सौदा यहाँ
मन गिरफ्तार है
एक के दो नहीं
हैं करोडों यहाँ
आ गए चुप रहो
सर न फोड़ो यहाँ
न्याय तुलता यहाँ
धर्म लाचार है
हर ग़ज़ल का यहाँ
एक ही क़ाफिया
आदमी का लहू
किसने कितना पिया
मौत का जश्न है
ज़िंदगी हार है
३
माफिया ये समय
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माफिया ये समय
हमको नित्य धमकाता
छोड़ दो यह रास्ता
ईमान वाला
हम कहें वैसे चलो
बदल दो सांचे पुराने
हम कहें वैसे ढलो
माफिया ये समय
हमको नित्य हड़काता
त्याग दो ये सत्य की
तोता रटंती
हम कहें वैसा कहो
फेंक दो तखरी धरम की
हम कहें जैसा करो
माफिया ये समय
हमको नित्य दहलाता
भूल जाओ जो पढ़ा
अब तक किताबी
हम कहें वैसा पढ़ो
तोड़ दो कलमें नुकीली
हम कहें जैसा लिखो
माफिया ये समय
हम को नित्य धमकाता
(४)
कैदखानों में
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हैं हम सब कैदखानों में
भले ही ट़्रेन में करते सफर
या बसों में हैं
हो कुर्सी काठ की ए सी
हमारे आफिसों में हो
भले ही हों मकानों में
भले ही हों दुकानों में
हैं हम सब - कैदखानों में
गुलामों की न कोई जात
कोई पाँत होती है
गुलामी सिर्फ़ काली रात
काली रात होती है
भले ही हम जुते हों खेत
या फिर कारखानों में
हैं हम सब कैदखानों में
अरे सैय्याद जालिम है
बहुत से रूप धरता है
कभी शब्दों कभी हथियार
की बौछार करता है
भले ही हम जमीं पर हों
भले हों आसमानों में
हैं हम सब कैदखानों में ।
(५)
ये समय
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ये समय अपकर्षकारी
ये समय है दुर्विकारी
ये समय है.द्वन्द -दर्पित रथ
उच्चता है सिर्फ़ उनको जो कुटिल त्राटक
चीन्हता है महज उनको जो पतित दाहक
ये समय है कपट हन्ता
ये समय है आत्म हन्ता
ये समय है कलह कल्पित कथ
देखता है स्वयं की छवि आत्म सम्मोहन
बोलता है शब्द धूमिल क्लांत विस्फोटक
ये समय है दुःस्वप्न गामी
ये समय है विपथ गामी
ये समय है वेग घर्षित श्लथ
दौड़ता है अन्धता के उच्च शिखरों पर
चाहता है लील जाना भू उदधि अंबर
ये समय विध्वंस पक्षी
ये समय है सर्वभक्षी
ये समय है खून से लथ-पथ ।
(६)
बेच डाली है धरा की गन्ध
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बेच डाले हैं सभी संबंध
बाकी क्या बचा है
बहन बेटी माँ पिता भाई
प्रेमिका नव ब्याहता पत्नी
बन गए हैं सब बिकाऊ पण्य
भ्रूण में जो पल रही धड़कन
उसे भी बेच डाला
बेच डाले हैं सभी अनुबंध
बाकी क्या बचा है ।
मन्दिरों की घण्टियाँ , ध्वज पताकाएँ
पुस्तिकाएँ , देवता , ईश्वर
सभी कुछ हो रहा नीलाम
आस्था श्रद्धा अटल विश्वास
सभी नीलाम घर में
बेच डाली हैं सभी सौगन्ध
बाकी क्या बचा है
वृक्ष ,नदियाँ ,ताल ,झीलें
हवा पुरवाई , बाँसुरी के स्वर
देश , सीमाएँ शहीदों के कफन
माल में उपलब्ध है सब कुछ
बेच डाली है धरा की गन्ध
बाकी क्या बचा है ।
७
कन्धे हुए
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आँख होते हुए
लोग अन्धे हुए
स्वार्थ ही स्वार्थ के आचरण
हट गए अब सभी आवरण
धन्धा करते हुए
लोग धन्धे हुए
भाव ऊँचे चढ़े तो सपन
लाँघ आए हजारों गगन
गिर गए भाव तो
लोग मन्दे हुए
देश के नाम पर खा गए
धर्म के नाम पर खा गए
चन्दा करते हुए
लोग चन्दे हुए
चाहे उजड़े स्वयं का चमन
डालरी सभ्यता को नमन
सिर को गिरवी रखा
लोग कन्धे हुए
सोए हम तो जगाने लगे
जग गए तो सताने लगे
यों गले से लगे
लोग कन्धे हुए
८
हम बदला लेंगे
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हम बदला लेंगे
तुमसे ए बटमार !
तुमने तोड़े मेरे सपने
तुमने मारे मेरे अपने
हम बदला लेंगे
तुमसे सरमायेदार
बूढों को बहुत सताया
बच्चों को बहुत रुलाया
हम बदला लेंगे
तुमसे ओहदेदार
थे बदन में उग आये कांटे
जब तुमने मारे चांटे
हम बदला लेंगे
तुमसे हवलदार
फसलों पे चलाया रोलर
तुम लूट के ले गए घरभर
हम बदला लेंगे
तुमसे जमींदार
ये दमन का कैसा मंज़र
तोड़े हैं अस्थि -पंजर
हम बदला लेंगे
तुमसे ए सरकार
(९)
वर्जनाएँ अब नहीं
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आसमानों
अर्चनाएँ
वन्दनाएँ अब नहीं
ज़िंदगी अपनी
किसी की मेहरबानी भर नहीं
मौत से बढ़कर
कोई आतंक कोई डर नहीं
मेहरबानों
याचनाएँ
दास्ताएँ अब नहीं
ये हवा पानी
जमीनें , ये हमारे ख़्वाब हैं
ये गणित कैसी
ये सबके सब तुम्हारे पास हैं
देवताओ
ताड़नाएँ
वर्जनाएँ अब नहीं
जन्म से पहले
लकीरें , हाथ की तय हो गईं
इक सिरे से
न्याय की सँभावना गुम हो गई
पीठिकाओ
न्यायिकाएँ
संहिताएँ अब नहीं ।
(१०)
अग्नि पथ
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रो रहे हैं खून के आँसू
जिन्होंने इस चमन में
गन्ध रोपी है
फड़फड़ाई सुबह जब
अखबार बनकर
पाँव उनके पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उनके साँकलों में थे ।
सी रहे हैं फट गई चादर
जिन्होंने
इस धरा को चाँदनी दी है
डगमगाई नाव जब
पतवार बनकर
देह उनकी हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उनकी हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं धूप की पोथी
जिन्होंने
बरगदों को छाँह सौंपी है
छलछलाई आँख जब
त्योहार बनकर
प्राण उनके युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश होकर
कदम उनके अग्नि - पथ पर थे
सह रहे हैं मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को ज़िन्दगी दी है ।
# महेंद्र नेह
परिचय
जन्म -२३ नवंबर १९४८ मथुरा उत्तर प्रदेश
शिक्षा -स्नातकोत्तर हिन्दी ( विद्युत इंजीनियरिंग में डिप्लोमा )
सम्मान - प्रो कमर रईस सद्भावना पुरस्कार , अमरावती साहित्य सम्मान , अक्षर सम्मान २०१८
प्रकाशन - गीत ग़ज़ल संग्रह -सच के ठाठ निराले होंगे (२००४-२००५)
हम सब नीग्रो हैं (२०१६)
कविता संग्रह -थिरक उठेगी धरती (२००९) हमें साँच ने मारा (२०१५)
व उसे नहीं मालूम लघुकथा संग्रह (२०१५ ) भगत सिंह चालीसा (२०२१)
संप्रति - महासचिव , विकल्प अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा
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