[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: एक नवगीत ##########
किसको फुरसत
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की ||
सूरज है अलमस्त
बोलता
मस्ती भरी अवाज
बादल भी आवारा - सा
नित
खोल रहा है राज
भोर उनींदी
थका हौंसला
गौरैया पर-घर की ||
चूल्हा ठण्डा
द्वार अटपटा
माटी नहीं पोतनी
खिड़की-दरवाजे
हैं बेबस
अनमन हुई अरगनी
टूटा छप्पर
रिसता पानी
देहरी भी दरकी ||
बूढ़ा बाप
खाँसता द्वारे
भीतर अम्मा लेटी
फटे बसन
लज्जा तन ढांके
हुई सयानी बेटी
खाली बैठा
सरजू बागी
बात कहे हर-घर की ||
किसको फुरसत
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की ||
@@@ डॉ. मुकेश अनुरागी ,शिवपुरी
[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: नवगीत अपनी विरासत को सहेजने के निमित्त
सभी बिके बेमोल ..................|
अब न कभी ,
उर झंकृत करते
मुख से निकले बोल |
अब तो इन्हें
सम्हारौ भइया
मन की आँखें खोल ||
*
नीम तले
ना दद्दा दिखते
ना घर में भौजाई
नहीं दीखती
बैरुन रतिया
मूँज बुनी चारपाई
भोर 'कलेवा' संझा 'ब्यारू'
गौरेया भी गोल || अब तो इम्हें ..........
*
झीने रिश्ते
तार-तार हैं
'बखिया ' बिन तुरपाई
अम्मा खाँसें
सूनी 'बाखर'
बड़की हुई पराई
भइयू जिज्जी कक्का हुक्का
सभी बिके बेमोल || अब तो इन्हें.....
*
नहीं खनकती
खनखन चूड़ी
नहीं जगाये प्रभाती
नहीं बुलाने को
अब बहुरी
दरवज्जा खटकाटी
आँगन भी सँकरा सा
लगता
बहू फिरे सिर खोल || अब तो इन्हें .........
##डॉ.मुकेशअनुरागी ,शिवपुरी म.प्र.
[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: एक गीत
खोने को अब शेष नहीं है.......... ।
कंपित अधर,
नीरमय नैना
सघन पीर ना
निकसे बैना
दर्दीला है बैरागी मन
खुशियों का अभिषेक नहीं है ।
खोने को अब शेष नहीं है ।।
अधुनातन संस्कृति
की हलचल
स्वार्थ जनित
रिश्ते हैं प्रतिपल
जिसमें अपनापन मिलता हो
प्रेममयी परिवेश नहीं है ।
खोने को अब शेष नहीं है ।।
किससे मनकी
बातें कहते
अन्तस घुटन
होगई सहते
उलझन का अंबार लगा पर
मन की पीर विशेष नहीं है ।
खोने को अब शेष नहीं है ।।
डॉ. मुकेशअनुरागी
[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: ************नवगीत ***************
०0००००००००००००००0०००००००0००
बिटिया जब भी
घर से निकलो
बैग में चाकू रखना ||
पगडंडी अब
सड़कें हो गईं
बहुत फिसलनी हैं
सूपों में
अब छेद ढूँढ़तीं
फिरती चलनी हैं
बहुत कठिन
हो गया
व्यवस्थाओं पर काबू करना ||
बिटिया घर से .........,......|
पता नहीं
कब कोई आकर
झूठी आस बँधाये |
मन में पाले
कैसी इच्छा
तुम्हें समझ ना आये |
नहीं भरोसा करना
नजरें आजू-बाजू रखना ||
बिटिया .......…........||
नजरें
वहशी हो गईं
तोड़ें उम्र के सारे बन्धन |
मानवता और
सच्चाई की
हो गई मन से अनबन |
इसीलिये
अब ना कुरते में
कोई खुशबू रखना ||
बिटिया घर से
जब भी निकलो
बैग में चाकू रखना ||
##डॉ मुकेश अनुरागी ,शिवपुरी
[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: नवगीत
कितना अब ठहरें ...............!
जीवन धारा
कुछ कुछ बाधित
कितना अब ठहरें ।
पल पल
भय दोहित होता मन
कैसे धैर्य धरें।।
आशा और उमंग उल्लसित
पग पग पर मृदुहास रहा
क्षणक्षण कण कण शोभित तन-मन
जीवन सरस सुवास रहा
हुए बेखबर,
दूषित घर घर
कोरोना पहरें ।।
स्व शरीर से मिलन न होता
चलित वार्ता मन समझाये
दूर की कौड़ी हुआ नेहधन
जो मिलता बस पीर सुनाये
भूले देहरी
सड़क नापना
क्या बगिया क्या नहरें।।
अपनापन दिखता छल, चंचल
मन आई जो बात कही है
बात घात प्रतिघात सजे हैं
सिर्फ स्वार्थ की गंध रही है
खाली जीवन
एकाकी मन
कैसे मंसूबे संवरें।।
कैसे धैर्य धरें।।
डॉ मुकेश अनुरागी , शिवपुरी
[18/05, 22:06] Mukesh Anuragi: डॉ मुकेश अनुरागी
(डॉ मुकेश श्रीवास्तव अनुरागी)
बी.एससी.एम.ए.(हिन्दी)पीएच.डी.(लोकसाहित्य)
छंदधर्मी नवगीतकार
१०-११-१९६६
प्रकाशित---
आस्था के गांव से (गीत कलश)
सुबह की धूप ( नवगीत कुंज)
सुर बांसुरी के (कवित्त, सवैया,घनाक्षरी)
प्रकाशनाधीन----
हम समंदर हैं (ग़ज़ल गुलदस्ता)
लोकगीत-(आंचलिक भाषा के लोकगीतों का संग्रह)
प्रसारण__ आकाशवाणी शिवपुरी से समय-समय पर गीतों का प्रसारण
समवेत संकलन--
गीतायन, गीत अष्टक प्रथम,शब्दायन, गीत वसुधा, समकालीन गीतकोष, अंजुरी भर अनुराग, नवगीतों का लोकधर्मी सौंदर्य बोध, नवगीतों में मानवता वाद साथ ही साक्षात्कार,हरगंधा, उत्तरायण, साहित्य सागर, गीत गागर, आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
सम्मान--
सारस्वत सम्मान, साहित्य शलाका सम्मान,प्रज्ञाभारती समयमान, हिन्दी सेवी सम्मान, शब्दरत्नाकर सम्मान, उत्कृष्ट कर्मचारी सम्मान, साहित्यकार सम्मान ,श्रीहरिओमशरण चौबे स्मृति गीतकार सम्मान
आत्मकथ्य-- जब-जब मन की पीर घनीभूत होकर उद्वेलित करती है तो मन के भाव लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाते हैं,वर्ष १९८० से साहित्य पर का पथिक हूं, परन्तु सदैव साहित्य का विद्यार्थी ही रहा हूं,
संप्रति--
स्व श्रीमति इंदिरा गांधी शासकीय कन्या महाविद्यालय शिवपुरी में शासकीय सेवा में
चलित वार्ता-- ९९९३३८६०७८
सम्पर्क सूत्र--
एच २५फिजीकल रोड शिवपुरी म.प्र.४७५३३१
[18/05, 22:07] Mukesh Anuragi: उथल पुथल हो गई जीवन में
बब्बा कक्का लाली लाला
सांसें सीमित हाथ प्रकम्पित
मुंह तक आकर गिरा निवाला
धधक रही मरघट की ज्वाला ||
आई काली रात घनेरी
मृत्यू बजा रही रणभेरी
बेबस इच्छा बदहवास सी
दौड़ लगाती तेरी मेरी
घर-घर मातम पसर रहा है
धनी श्रमिक या सब्जीवाला ||
धधक रही मरघट की ज्वाला ||
किसको अपनी पीर सुनायें
यम के दूत हैं दायें बायें
खुशियां जैसे परदेसिन हैं
नहीं आयेंगी बिना बुलायें
थका है सूरज क्षीण उजाला ||
धधक रही मरघट की ज्वाला ||
आखिर कब तक तपन रहेगी
जिंदगी कब तक पीर सहेगी
होंगे पुष्पित और पल्लवित
कोयल मीठे बैन कहेगी
आयेगा फिर दिन मतवाला ||
और बुझेगी धधकी ज्वाला ||
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:07] Mukesh Anuragi: अपनी अपनी
खींचातानी में
सहमा आंगन |
चूल्हे भी अब
धुंआ छोड़ते
उखड़ी-उखड़ी सांसें
घर-घर शकुनी
आ बैठे हैं
फेंक रहे हैं पांसे
शांत युधिष्ठिर
भीम पस्त हैं
बेचारा अरजुन |
किससे कहें
सुनायें किसको
मुखिया अपनी बातें
हर कोई मदमस्त
स्वयं में
मधुमेही घातें
सुलझाने में
और उलझती
नित नित नई उलझन |
पकड़े बैठा
है दरवाजा
ले आशा की डोर
रश्मिरथी होकर
आयेगी
उल्लासों की भोर
छीजा यौवन
घूंघट भी फिर
विहसेगा बचपन |
अपनी-अपनी
खींचा तानी में
सहमा आंगन ||
@ डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:07] Mukesh Anuragi: ######एक गीत ######
मत घोलो ज़हर ------------
मत हवाओं में घोलो ज़हर दोस्तो
पंख फैला रहीं ,
उड़ने को तितलियां
खोलने दो इन्हें अपने पर दोस्तो |
मत हवाओं में घोलो ज़हर दोस्तो |
रात काली थी लेकिन नहीं कुछ था डर
भोर की आस थी तो सबेरा हुआ |
पर चहकती महकती हुई ना सुबह
न ही किरणों का पथ ही सुनहरा हुआ |
पंछी व्याकुल हैं बेबस हैं
घबरा रहे
लग रहा भोर में तम पहर दोस्तो |
मत हवाओं में घोलो ज़हर दोस्तो |
तिनके तिनके जुटाकर
बनाया था घर
आंधियों से बचाया तो धरती हिली
प्यार के बोल सुनने तरसता रहा
हरतरफ स्वार्थ की तेज लपटें मिलीं |
जल गये आग में आस विश्वास कण
भावनाएं गयीं उनकी मर दोस्तो|
मत हवाओं में घोलो ज़हर दोस्तो |
प्रेम के ये घरोंदे गिराते रहे
रेत के ऊंचे महलों पर इतरा रहे
इसलिए हर दिशाओं में
आकाश की
रक्त के मांस के कतरे छितरा रहे |
तोड़कर विष की थैली
करो बस में अब
वरना होगी दवा बेअसर दोस्तो |
मत हवाओं में घोलो ज़हर दोस्तो |
@ डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:07] Mukesh Anuragi: सधे कदम से
चले जा रहे
सिंहासन की ओर
घबराहट में
पांव जो फिसला
आये बहुत अड़ंगे |
रपट पड़े तो हर-हर गंगे ||
सोच समझ कर
चाल चली थी
लेकिन बाजी उलटी
सूरज की आशा में
घूमा,
घनी रात फिर पलटी
लेकर हाथ
कटोरा आये
बड़े बड़े भिखमंगे |
रपट पड़े तो हर-हर गंगे ||
आंख मूंद कर
जो सोता है
उसकी सुबह न होती
और गांठ में
रही बची जो
सारी पूंजी खोती
तन -मन में
बीमारी घुसती
टूटें मन के चंगे |
रपट पड़े तो हर-हर गंगे ||
समरसता की
बोली बोलें
लेकिन मन के काले
एक हाथ से
माला फेरें
दूजे रखते भाले
कथनी और करनी में
अंतर
कर,करवाते दंगे |
रपट पड़े तो हर-हर गंगे ||
@ डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:09] Mukesh Anuragi: मार मार कर मन को अपने
संयम सब निघटे
घनीभूत होती पीड़ा तो
ज्वालामुखी फटे
मात-पिता से सीखा हमने
सबका मान करो
सुख बाँटोतुम जग में अपना
सबकी पीर हरो
लेकिन सुख की देहरी पर
भी मेरे शनि डटे ||
भोर से सांझ तलक खटती थी
कि सुख चैन रहे
सबने अपना मतलब साधा
मीठे बैन कहे
अर्ध्द रात्रि को स्वप्न भी आते
मुझको बंटेबंटे ||
हम पंछी है पिंजरा वाले
देदोगे खालेंगे
नहीं उड़ेंगे नभ में अब तो
द्वार भले खोलेंगे
बोलेंगे ना बोल पुराने
फिर से रटे रटे ||
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:13] Mukesh Anuragi: अस्पताल से लौटने पर हुआ एक नवगीत
बहुत दिनों के बाद ,
मिली है
मुझको घर की दाल ||
यों बचपन से ही
घर अपने ,
रोटी- दाल ही खाई |
अच्छे दिन की आस
में लेकिन
खूब चढ़ी मँहगाई ||
झूठे वादे और इरादे
बस जी का जंजाल ||
जिसकी गलती दाल
उसी का जीवन
सफल हुआ |
वरना पल पल
घटता जीवन
छल औ' गरल हुआ ||
शायद समझ
न पाये थे हम
क्रूर समय की चाल ||
सब ने अपने अपने
मन से
मुझको आंका है |
जिसको जैसी
फ्रेम मिली है
उसमें टांका है |
अनुरागी पर,
पूछ न पाये
मेरे मन का हाल ||
@@डॉ. मुकेश अनुरागी
[18/05, 22:15] Mukesh Anuragi: एक गीत ***************
हर चेहरे पर मुस्कानें ही चिपकी देखीं
नहीं कोई भी चेहरा मुझको सहज मिला है
सिर्फ स्वार्थ की गंध मिली मुझको सांसों में
जाने कैसा इस दुनिया में दौर चला है ||
हर कोई मिलता है अपना राग अलापे,
नहीं किसी को कभी किसी की हुई फिकर है
दिवस बीतता जिनका केवल गुणा भाग में
और रात को फल निकला तो मिला सिफ़र है
जोड़ तोड़ का ऐसा निकला गणित आधुनिक
ब्रेकिट में रिश्तों को करके बना भला है ||
जाने कैसा इस दुनिया में दौर चला है||
लेकर अपनी प्यास भटकता पनघट पनघट
और रास्ता छोड़ चुका है सागर वाला
भूल गया है प्यास बुझाने चाहे पानी
किंतु प्यास के सम्मोहन में पीता हाला
लेकर अपनी प्यास व्यर्थ ही उम्र गुजारे
अनुरागी आशा में प्यासा गया छला है||
जाने कैसा इस दुनिया में दौर चला है||
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
[18/05, 22:23] Mukesh Anuragi: एक गीत ग्रीष्म का ००००००००० |
भुनसारे की धूप चुलबुली
दोपहर गर्म हवा |
ज्यों ज्यों होय सयानो सूरज
धरती लगे तवा ||
बिरखा ठाड़े सावधान में
हलचल कोई नहीं |
सूनी गैल सोई सी नदिया
कलकल कोई नहीं |
बगिया में ना कोई आहट
पंछिन कों लकवा ||
ज्यों ज्यों होय सयानो सूरज
धरती लगे तवा ||
सूनी-सूनी सड़के हो गईं
देहरी देहरी सन्नाटा |
खिड़की बन्द किवारे उढ़के
लू भी लिये फौजफाटा |
इसने जिसे नजरभर हेरा
लगती नहीं दवा ||
ज्यों ज्यों होय सयानो सूरज
धरती लगे तवा ||
सिर मुड़वाये खेत हो गये
चटकी दोपहरी |
अमुवा की बगिया है सूनी
घर भागी महरी |
रीते बोर , कुआ भी प्यासे
घटता दबदबा ||
ज्यों ज्यों होय सयानो सूरज
धरती लगे तवा ||
@@ डॉ. मुकेश अनुरागी
[22/05, 15:07] Mukesh Anuragi: नित्य प्रति
सुनकर निधन
जीवन्तता का।
हो गया
अब कोष रीता
संवेदना का।
प्राण वायु
अब न टिकती
देह में।
बस रुदन
ही है रुदन
हर गेह में।
धूम्रवर्णी रंग
होता
संचेतना का।
हर अधर सूखे
आंखें
नम यहां।
अनगिनत
हैं ग़म, नहीं हैं
कम यहां।
आपाधापी
हौसला भी टूटा
वेदना का।
डॉ मुकेश अनुरागी
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