युवा रचनाकार दीपक कामिल से परिचय दो दिन पहले ही हुआ,इतने कम समय में किसी के व्यक्तित्व के वारे में कुछ कहना शायद जल्दबाजी ही होगी। दीपक कामिल, रहस्यमय ढंग से मैसेंजर में प्रकट हुए और अपने कुछ दोहे पहली किस्त में प्रकाशनार्थ भेज दिए। मैंने पढ़ने के उपरान्त इन्हें किसी प्रकार का कोई प्रतिउत्तर नहीं दिया, तदुपरांत दीपक के एक के बाद एक, रहस्यमय डायलॉग मैसेंजर पर रिफ्लेक्ट होने लगे। इन संवादों से मुझे दीपक के व्यक्तित्व को समझने में थोड़ी मदद मिली।
दीपक युवा हैं ,और पूरी ऊर्जा के साथ लेखन में संलग्न हैं। प्रस्तुत दोहों में इनके शायराना अंदाज़ को समझा जा सकता है। दोहों में शायरी की झलक है, पूरी प्रस्तुति में कुछेक दोहे अच्छे और समकालीन बन पड़े हैं।
यह प्रस्तुति समकालीन दोहों की प्रस्तुति ना होकर दीपक कामिल की प्रतिभा की सराहना की प्रस्तुति भर है।
आइए पढ़ते हैं दीपक कामिल के दोहे
प्रस्तुति
संपादक मण्डल
वागर्थ ब्लॉग
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सागर छलिया है बड़ा, खींचे सुबह-ओ-शाम.
डूब न जाऊं मैं कहीं, हाथ पकड़ लो राम.
छुटका बचपन चीख कर, मारे मुझे पुकार.
कामिल जीने के लिये, सपनों को मत मार.
अधनंगी फिर द्रोपदी, पूर्ण नग्न फिर राज.
कृष्ण नही तो ना सही, विदुर कहां है आज.
कुत्तों से भी है गिरी, उन मर्दों की ज़ात.
जो करते मासूम सी, कलियों पर आघात.
किसी देह को नोचना, कर देना बदनाम.
हैवानों ये है नहीं, मर्दों वाले काम.
बेरुज़गारों ना करो, हाय हाय रुज़गार.
तख़्त हिलाकर चीखिऐ, सोये हैं सरकार.
ख्वाजा नानक राम है, गंगा जमुना नीर
सारी दुनिया में नहीं, भारत सी तासीर
बस में कर ले सांवरे, तेरे चंचल नैन
दिन में ये चित ले उड़े, खा जाते हैं रैन
खुद में तपना जानिये, खुद ही हो कर बंद
तब जा कर निखरे कहीं, कुछ दोहों के छंद
हाथ कलम कर दीजिए, उस शायर के आप
जो बिन डूबे लिख रहा, दर्द-ए-दिल का नाप
थोड़ी सुध तो ले ख़ुदा, क्यूं तू है अनजान
तेरे बच्चे कट रहे, ले कर तेरा नाम
सब के पी का हे सखी, सब के भीतर वास
क्या जाना कैलाश फिर, क्या काबे से आस
तपती धरती देख कर, सावन बरसा खूब
मानो मरहम कर रहा, है कोई महबूब
उनसे मिलकर हँस पड़ी, मन की गहरी पीर
कितने भीतर तक गये, उन नैनों के तीर
दुनिया गर ये जंग है, वो खुद में है फौज
माँ के जैसा शेर दिल, खोज सके तो खोज
बरसों से थी इश्क में, बिछड़न आग शराब
जाने कैसे आ घुसा, इस में अब तेज़ाब
जो भी बोले काट दें, उसकी आप ज़ुबान.
क्या ऐसे ही है बना, कोई देश महान.
कुदरत का कानून भी, कितना बेपरवाह.
इक के हिस्से रतजगे, इक के हिस्से ब्याह.
कामिल काली रात का, क्या है तुझ से बैर.
कितने सपने कर रहे, खुली आँख में सैर.
कविता तेरी भूख अब, बनी गले की फाँस.
सब रातें खा कर कहे, लाओ दिल का माँस.
होते जिसके वास्ते, हर दिन नये फ़साद.
उस सत्ता को क्यूं नहीं, उसके बच्चे याद.
एक न मानी आपने, काम काम बस काम.
कुदरत से खिलवाड़ का, भुगतो अब परिणाम.
बिखरी-बिखरी थी वफ़ा, छलनी छलनी प्यार।
दूजे की बारात जब, आई तेरे द्वार।
क्या रिश्ते क्या दोस्ती, क्या जीवन उल्लास
आऐ जाने के लिये, सब ही मेरे पास
दुनिया में भोजन मिले, लेकिन फीका स्वाद.
माँ की रूखी रोटियाँ, ज्यूं पौधे को खाद.
लड़ते लड़ते थक गया, मैं जीवन के साथ.
आ माँ सर पर फेर दे, अपने कोमल हाथ.
जितने लेखक तर गये, ऐ दिल तेरे साथ
उस से ज्यादा मर गये, ऐ दिल तेरे हाथ
परिचय
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नाम : दीपक कामिल
जन्म तिथि :
चार आठ सित्यान्वे, सावन की बौछार
तब कामिल संसार में, रोया पहली बार
शिक्षा एम. कॉम.
निवासी :
बार्ड क्रमांक -56 प्रतिभा नगर
चूरू (राजस्थान)
रचनाएँ : ज्यादातर छंद में लिखना पसंद करता हूँ पर अतुकान्त से भी कोई बैर नही है उस विधा में भी कभी कभी लिखता हूं।
दीपक जी शानदार दोहे, समसामयिकता को समाहित किए हुए, बेहतरीन दोहों के लिए बधाई।।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ,,दोहे,, भीगे भीगे ,, खुद के जन्म 4 8 97 की क्या बात ,कबीरा जब हम पैदा हुवे ,, शुभमंगल कामनाओं के साथ
जवाब देंहटाएंअशोक शर्मा जी की एक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंदीपक कामिल इस सदी के हिन्दी साहित्य की मील के पत्थर साबित होगें.क्योंकि साहित्य को गंगा जमनी तहजीब इस साहित्य जगत को देने का प्रयास कर रहे है, उसने उर्दु का खुलेआम किया जो कबीर की परंपरा
को कायम रखने में कामयाब होगे।
अशोक शर्मा
कामिल जी को बधाई उनका स्वागत है
जवाब देंहटाएंदीपक कामिल के दोहों की नवीनताएं प्रभावित करती हैं।समकालीन दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई.......वीरेन्द्र आस्तिक जी की टिप्पणी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसूफ़ियाना तूलिका से शायराना कैनवास पर उकेरे गए सामाजिक विसंगतियों के नायाब चित्र ।
जवाब देंहटाएंदीपक जी को बधाई
मनोज जी का आभार
वैचारिक गहराई लिए सार्थक दोहे। सोच का खुलापन और परिवेश पर सूक्ष्म दृष्टि यह कामिल जी की विशेषता है। कहन में ताजगी है।
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