मंगलवार, 29 जून 2021

डॉ राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ

वागर्थ प्रस्तुत करता है डॉ राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत डॉराजेन्द्र गौतम  जी का काम  नवगीत के इतिहास में मील का पत्थर है 'नवगीत का उद्भव और विकास' जैसी ( समीक्षा ) कृति, नवगीत के उद्भव से लेकर विकास और विकास से लेकर अब तक की नवगीत यात्रा में हुए अन्यत्र कामों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
गौतम जी के यश-कीर्ति खाते  में अनेक उपलब्धियाँ दर्ज हैं ।
प्रस्तुत हैं उनके कुछ नवगीत 
उनकी फेसबुक वॉल से साभार

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल

1
धारा ऊपर तैर रहे हैं
सब खादर के गाँव।

टूटे छप्पर छितरी छानें
सब आँखों से ओझल
जहां झुग्गियों के कूबड़ थे
अब जल, केवल जल
धंसी कगारें, मुश्किल टिकने
हिम्मत के भी पाँव।

छुटकी गोदी सिर पर गठरी
सटा शाख से गात
साँपों के संग रात कटेगी
शायद ही हो प्रात
क्षीर-सिन्धु में वास मिला है
तारों की है छाँव।

मौसम की खबरें सुन लेंगे
टी वी से कुछ लोग
आश्वासन का नेता जी भी
चढ़ा गए हैं भोग
निविदा अख़बारों को दी है
बन जाएगी नाव

घास-फूस का टप्पर शायद
बन भी जाए और
किंतु कहां से लौटेंगे वे
मरे, बहे जो ढोर
और कहाँ से दे पाएँगे
साहुकार के दाँव

2

चाँदनी की गंध से है 
भर गया आकाश

अधलिखा जो गीत था 
कल मेज पर छोड़ा 
छंद उसमें जा सकेगा 
अब नया जोड़ा 
हो गयी इतनी युवा अब 
सर्जना की प्यास

मौन के ही जो सगे थे
होंठ वे अब क्यों न हों वाचाल
कुमुदिनी-सा ही खिला होगा
कहीं जब देह का छवि-ताल 
आ जुटेगा सिलसिला संबोधनों का 
चुप्पियों  के पास

शब्द तो सब खो गए हैं 
रह गयी केवल कहानी
पास मेरे आ सटी जब 
कल्पना-सी रातरानी
सुन रहे कुछ कान 
कुछ बतिया रहे उच्छ्वास

3
लगी तोड़ने खामोशी को 
बंजारिन वाचाल हवा की 
 नर्म-नर्म पगचापें 

सूनी पगडंडी पर पड़ते 
मुखर धूप के पाँव 
धुन्ध चुप्पियों की फटती है
लगे दीखने गाँव
कुहरे ढकी नदी पर दिखती--
हिलती-कंपती छांव 
मौसम के नाविक ने खोली 
बंधी हुई फिर नाव
लहरों पर से लगी चीरने 
अँधियारे की परतों को अब
 चप्पू की ये थापें 

बछड़ों से बिछुड़ी गायों-सी 
रंभा रही है भोर
डाली-डाली पर उग आया 
कोंपलवर्णी शोर 
सारस-दल की क्रेंकारों से
गूँजे नभ के छोर
झीलों में आवर्त रच रहे
रंगों के हिलकोर
गंध थिरकती है पढ़-पढ़ कर 
सन्नाटे की रेती पर ये--
 पड़ी गीत की छापें

4

शीशम का नीमों से
नीमों का पाकड़ से
बना हुआ अब भी संवाद है।

शहतूतों की टहनी
धीरे से हाथों में
ले-लेकर सहलाना
शिशु-सा गोदी में भर
बफीर्ली आँधी के
दंशों को भुलवाना
यह क्या कम है अब तक-
बासंती हवा! तुम्हें
वचन रहा याद है।

डरा-डरा सहमा-सा
मुँह लटकाये रहता
खामोशी का जंगल
खाल तनों की उधेड़
निर्दय पच्छिमी हवा
हँसती थी कल खल-खल
अँखुओं की खुशबू से
पेड़-पेड़ ने रख ली
ऋतु की मरजाद है।

5

यह भी क्या? मुट्ठी भर
यादों के साथ जिए !

इतनी चुप रातें
किस कोलाहल से कम हैं
सन्नाटों के फैले
सरहद तक गम हैं
ठहरे हुए समय में
आंधी के हाथ जिए !

हारी-थकी हवाएँ
लौटी हैं पुकार कर
सागर ने प्रश्नों का
दिया नहीं उत्तर
सब सपने झुलस गए
कैसी बरसात जिए!

6

सब बंद मदरसे/जारी जलसे
गलियाँ युद्धों का मैदान।

अब कैसी होली/लाठी-गोली
भेंट मिली है जनता को
क्यों मांगे रोटी/किस्मत खोटी
गद्दी को बस जन ताको
थे ही कब अपने/सुख के सपने
पड़े रेत में लहूलुहान।

कल नन्हीं चिडि़या/भोली गुडि़या
भेंट चढ़ी विस्फोटों में
अब तेरा टुल्लू/उसका गुल्लू
आँके इतने नोटों में
क्यों भावुक होते/गुमसुम होते।
ले लो यह है नक़द इनाम।

यह साँड़ बिफरता/आता चरता
फसलें भाईचारे की
कट शाख गिरेंगी/देह चिरेंगी
धार निकलती आरे की
कर क़त्ल नदी का/ध्येय सदी का
फैलाना बस रेगिस्तान।

7

जाने कब से कॉलबैल का  
बजना बंद पड़ा है 

पहले भी घर के पिछवाड़े 
कोयल कूका करती 
कई दिनों से और अधिक यह 
कातर-सी रोती है 
आँगन में टूटा-बिखरा-सा 
उसका छंद पड़ा है  

मोबाइल पर रोज कहानी 
यों नई सुनाता हूँ
लेकिन बंद-बंद-सी जब से 
कमरे में पोती है 
तब से ही उसका खुल-खुल कर 
हँसना मंद पड़ा है

देखे थे कल स्काइप पर वे 
दिल्ली वाले गमले 
सुबह चैत की इस नगरी में 
ऐसी भी होती है?
फूल नहीं थे शायद सूखा-- 
कुछ मकरंद पड़ा है.

8

तुम हमारी जान ले लो 
यह  बहुत  सस्ती मिलेगी

बेदखल हम खेत से हैं 
बेदखल खलिहान से हैं  
कब भला दिखते तुम्हें हम 
इक अदद इन्सान से हैं 
पाँव छाती पर धरे हो 
या कि गर्दन पर रखे हो 
देह अब सामान, ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

पीपलों को बरगदों को काट देना 
उधर स्वीमिंग-पूल होगा
बस्तियाँ जब तक न उजड़ेंगी यहाँ 
मौसम कहाँ अनु’कूल’ होगा 
झील-परबत-जंगलों पर 
सेज बिछनी है तुम्हारी 
गाँव की पहचान ले लो 
यह बहुत सस्ती मिलेगी

तुम खुदा, हाकिम तुम्हीं हो
स्वर्ग का बसना यहाँ पर लाजिमी अब
छू रहे आकाश तुम हो
राह रोके कौन अदना आदमी अब
चाँद-तारों से सजी 
बारात निकली जा रही है 
रात की तुम शान ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

9
दे रहे कितनी तसल्ली
नीम के पत्ते हरे
पिघलने लावा लगा जब
हर गली बाज़ार में।

जून के आकाश से जब
आग की बरसात होती
खिलखिलाते
गुलमुहर की अमतलासों से भला क्या
देर तक तब बात होती
जानते हैं मुस्कुराते
नीम के पत्ते हरे
सुलगने आवा लगा जब
खेत में या क्यार में।

जामुनों के छरहरे-से पेड़
हिम्मत से लड़े हैं,
बरगदों की पीठ पर जब
लपलपाती सी लुओं के
बेरहम साँटे पड़े हैं
पूरते हैं घाव सारे
नीम के पत्ते हरे
दहकने लावा लगा
पर जीत वन की हार में।

हर दिशा की देह बेशक
जेठ के इस दाह में है
चण्ड किरणों ने मथी
प्यास लेकिन जनपदों की भी
बुझाती आ रही
यह हिमसुता भागीरथी

छटपटाहट भूल जाते
नीम के पत्ते हरे
जब धरें जलतीं दिशाएँ
पाँव अमृता धार में

10

जटा बढ़ाये एक अघोरी 
करता मंत्रोच्चार 

छोटे-बड़े-मझोले झोले
अगल-बगल लटकाये   
सम्मोहन-मारण-उच्चाटन  
जन पर रोज चलाए 
नरमुंडों से कापालिक को 
बेहद-बेहद प्यार 

डाकिनियों का, शाकिनियों का 
बढ़ा रहा उल्लास 
भूत-पिशाचों की टोली को  
रखता अपने पास 
खूनी खप्पर भरने को यह 
हरदम है तैयार 

काल-रात्रि का यह पूजक है 
साधे शव शमशान 
भैरव और भैरवी पूजे 
काँपें सब के प्राण 
जाने कितनीं जानें लेगा 
काला जादू मार

 डॉ राजेन्द्र गौतम
_____________

राजेन्द्र गौतम
प्रोफेसर, (सेवा निवृत्त) दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

संक्षिप्त परिचय : 
 जन्म: 06 सितंबर 1952, ग्राम बराहकलाँ (जिला जींद), हरियाणा। 

o कवि, समीक्षक और शिक्षाविद। 
o काव्यशास्त्र, लोकसाहित्य, तकनीकी शब्दावली और अनुवाद के क्षेत्र में व्यापक कार्य। 
o वर्ष 2018 में साहित्य द्वारा समाज-सेवा के लिए “लोकनायक जयप्रकाश नारायण अवार्ड”।  
o काव्य-कृतियाँ: ‘बरगद जलते हैं’, ‘पंख होते हैं समय के’ तथा गीत पर्व आया है’ चर्चित नवगीत-संग्रह। ‘नवगीत दशक-3’, ‘नवगीत अर्द्धशती’ तथा ‘यात्रा में साथ साथ’ आदि प्राय: सभी प्रतिनिधि नवागीत-संकलनों में उपस्थिति। ‘कवि अनुपस्थित है’ छंदमुक्त कविताओं का संयुक्त संग्रह।
o ‘बरगद जलते हैं' 1998 में तथा 'गीतपर्व आया है' 1984 में हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कविता-पुस्तक के रूप में पुरस्कृत। 1974 में आचार्य ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध पुरस्कार’, 1978 में ‘आठवें दशक के प्रबंध काव्य’ समालोचना पर हरियाणा भाषा विभाग पुरस्कार. 1996 में ‘हंस कविता सम्मान’.
o समालोचना-ग्रंथ: ‘काव्यास्वादन और साधारणीकरण’, ‘दृष्टिपात’, ‘ पंत का स्वच्छंदतावादी काव्य ’, ‘हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास’ तथा ‘रचनात्मक लेखन’। 
o ललित गद्य: ‘प्रकृति तुम वंद्य हो’।
o गद्य-पद्य की कम-से-कम आठ पुस्तकें प्रकाशन की राह देख रही हैं।
o अंग्रेजी में लिखी कई कविताएं ‘कविता इंडिया’, ‘ईवन ट्यून्ज़’, ‘हरियाणा रिव्यू’, ‘पोइट्री रिव्यू’, आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित  
o सम्पादित: 1. पुस्तक: ज्ञान कलश, कविता-यात्रा, कथावीथी, आधुनिक कविता, भूमिजा।  
         2. पत्रिकाएं: The Journal of Humanities and Social Sciences, सारंग।
o 'विश्व हिंदी सचिवालय, मारीशस'  के उद्घाटन-समारोह (12.08.04-22.08.04) में मुख्य अतिथि।
o ‘पाकिस्तान अकादमी ऑफ लेटर्स’ द्वारा इस्लामाबाद में 10-11 जनवरी 2013 को “लोकतन्त्र और
साहित्य” विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे व्याख्यान।
o 'वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग' एवं अन्य प्रतिष्ठानों की 100 से अधिक संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में विषय-विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित। 
o 400 से अधिक हिन्दी, अंग्रेजी और हरियाणवी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे प्रकाशित; आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित। 
संपर्क: 
906, झेलम, प्लॉट: 8, सेक्टर: 5, द्वारका, नई दिल्ली-110075. 
Mob:  9868140469. E-mail: rajendragautam99@yahoo.com


 डॉ राजेन्द्र गौतम

2 टिप्‍पणियां:

  1. वागर्थ पटल पर आज नवगीत इतिहास के मील के पत्थर जिन्होंने नवगीत का उद्भव और विकास जैसी कृति के सृजन से नवगीत धारा में अमृतत्व का समावेश किया है, डॉ राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत प्रकाशित हैं। "जटा बढ़ाये एक अघोरी करता मंत्रोच्चार" की धुन से गीतकार जब वशीकरण प्रयोग करता है तो सचराचर पाठक वृंद डॉ गौतम की नवगीत धारा में अवगाहन कर वशीभूत हो जाता है। डॉ गौतम जी की सृजनात्मक शक्ति अकथनीय है, सृजन अनुष्ठान आजतक सतत् क्रियाशील हैं। प्रथम गीत में गांव में आई बाढ़ की विभीषिका का वर्णन चित्रात्मकता के कारण सजीव हो उठा है। देखिए-- टूटे छप्पर छितरी छानें,सब आंखों से ओझल, जहां झुग्गियों के कूबड़ थे,अब जल केवल जल। पूरा कि पूरा गीत विभीषिका को व्यंजित कर मानव की विवशता को स्वर देते प्रतीत होता है। गीतकार की सृजनप्यास आज भी युवा है ,अतृप्त है। गीत लिखने की प्रक्रिया को सरल शब्दों में कहता गीत अद्भुत है। कवि बंजारिन वाचाल हवा की नर्म पगचाप सुनता हुआ अब अंधियारे की परतों को चीरने लगता है।तो ये कवि की ही लेखनी का कौशल ही है। और फिर वह प्रकृति का सहचर होकर रंगों के हिचकोले खाता हुआ सन्नाटे की रेती पर गंध के साथ थिरकते हुए गीत की छाप छोड़ जाता है जिसे हम अब तक देख रहे हैं। वास्तव में शहतूत की टहनियों से सहलाने का अहसास ,बासंती हवा को उलाहना देता उच्छवास,और मुंह लटकाते खामोश जंगल की सहमी सी सांस की अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति डॉ गौतम के गीतों में ही परिलक्षित होती है। लेखकीय गरिमा के अनुरूप शिल्प एवं शब्द संयोजन गीतों को विशिष्ट बना रहे हैं। समसामयिक युगबोध को जीते गीत क्रं ६ की धार कवि के जनपक्षधरता को उद् घाटित करती है। नवगीतकार डॉ गौतम जी आधुनिकता के संदर्भ भी अपने गीतों के माध्यम से व्यंजित करने में उतने ही सफल हैं जितना प्रकृति चित्रण में समर्थ। सभी रचनाएं अपनी कहन, और व्यंजना से संपृक्त होकर जन-मन को आकर्षित करती हैं। डॉ गौतम जी की लेखनी सतत् सृजन रत रहे यही शुभेच्छा है, इससे हमारा, हिन्दी साहित्य का और पाठकों का भला होगा। पटल के संपादक श्रेष्ठ कवि नवगीतकार मधुर जी को साधुवाद।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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  2. दीदी कांति शुक्ला जी की महत्वपूर्ण टिप्पणी
    ______________________________

    जो रचना सहज रूप में गेयत्व और स्वानुभूति पर अबलंबित होती है, सहज उद्गार उतनी ही तीव्रता से प्रवाहित होते हैं , उसकी कोमलता आनंददायी और मधुर होती है । गीत से नवगीत के सफर तक आते रूपाकार बदला है , वर्जनाएं टूटी हैं और समय की सापेक्षता में अपने समय की हर चुनौती स्वीकार करते अनेक सुधी नवगीतकार नये प्रतीक और नये बिम्बों से सुसज्जित अपूर्व नवगीत रच रहे हैं । इसी क्रम में सुविख्यात मनीषी नवगीतकार डॉ. राजेन्द्र गौतम के अद्भुत नवगीत आज 'वागर्थ' में पढ़ने को मिले जो वास्तव में भाव व्यंजना , लय प्रवाह , युग बोध,चिंतन और लालित्य समग्र दृष्टि से सराहनीय हैं । समय के जटिल यथार्थ और संस्कृति के साथ लोक तत्वों का समावेश रचनाकार की सकारात्मक सोच का परिचय देता है । नवगीत को लोग भले ही छंद सम्बंधित नियमों से मुक्त मानते हों परंतु लय, मात्राएं और गेयता संतुलित रहे , इस तथ्य को ध्यान में रखकर अपने नवगीतों में लयात्मकता का निर्वाह करने में भी राजेन्द्र जी ने अद्भुत कौशल दर्शाया है । कवि की संवेदनशीलता प्रभावी और मर्मस्पर्शी है-

    ' किंतु कहाँ से लौटेंगे वे
    मरे, बहे जो ढ़ोर ।'

    सामयिकता और यथार्थ का अनुपम संयोजन और विचारोत्पादक बिम्ब मनमुग्धकारी हैं-

    ' मौसम की ख़बरें सुन लेंगे
    टी.वी. से कुछ लोग
    आश्वासन का नेता जी भी
    चढ़ा गए हैं भोग
    निविदा अखबारों को दी है
    बन जाएगी नाव।'

    कवि काअपनी बात कहने का ढ़ंग नवीन और प्रभावशाली है। शब्द चयन में अमिधा की शक्ति है तो प्रतीकों में निहितार्थ ललित सुकोमल यथार्थपरक भाव । राष्ट्रीय भावधारा, रचना वैविध्य ,संघर्ष की स्वीकृति में अविस्मरणीय भूमिका लिखते वैचारिक प्रगतिशील यथार्थवादी चिंतन और अन्तर्द्वन्द्व के नवगीत विश्वास का उन्मेष करते हैं तो विद्रोह और चुनौती का उद्घोष करने में भी सक्षम हैं ।कुंठाओं ,वेदनाओं, संत्रासों और निराशाओं को अपने नवगीतों में ढ़ालने के बाद भी कवि का आशावादी दृष्टिकोण और नवाचार की संकल्पना प्रभावी है। कवि की कल्पनाएं विविधवर्णी हैं जिनमें प्रकृति के सूक्ष्म मनोहारी शब्दांकन हैं। कवि की अनुभूतियां और संवेदन व्यापक हैं । शब्दसंयोजन चित्ताकर्षक जिसे सर्वथा नवीन प्रतीकों का प्रयोग कर प्रभावपूर्ण रूप में अलंकृत किया गया है। आज का मानव स्वार्थ संकुल है, मानवीय मूल्यों का विस्मरण , संवेदनहीनता और सामाजिक विसंगतियों के मार्मिक चित्र कवि के ह्रदय को व्यथित करते हैं। भोर के चित्रांकन का अभिनव प्रतीकात्मक प्रयोग देखें-

    " बछड़ों से बिछड़ी गायों सी
    रंभा रही है भोर"

    " बंजारिन वाचाल हवा की
    नर्म -नर्म पगचापें"

    पर अभी भी सब संवेदन समाप्त नहीं हुए -

    "शीशम का नीमों से
    नीमों का पाकड़ से
    बना हुआ अब भी संवाद है।"

    " दे रहे कितनी तसल्ली
    नीम के पत्ते हरे"

    सामाजिक सरोकारों से जुड़े चिंतन में कल्पनाओं के माध्यम से सत्यान्वेषण के लिए यथार्थ और आदर्श के मध्य कवि को उस भाव बोध की तलाश है जिसकी समाज को आवश्यकता होती है । महामारी की त्रासदी ने बड़ों के साथ बालमन को भी किस तरह आहत किया है जिसकी ह्रदयस्पर्शी अभिव्यक्ति
    नवगीत को सार्थकत्व प्रदान कर रही है-

    " जाने कब से कॉलबैल का
    बजना बंद पड़ा है
    लेकिन बंद-बंद सी जब से
    कमरे में पोती है
    तब से ही उसका खुल-खुल कर
    हँसना मंद पड़ा है ।"

    मानवीय मूल्यों के संरक्षण और नवगीत के क्रमिक विकास को गति प्रदान करते ये मौलिक नवल स्वर कवि की संवेदना , भावना तथा सामाजिक पीड़ा को उजागर करने में पूर्णतः सक्षम हैं ।
    इतने सुंदर और सटीक नवगीतों से रूबरू कराने के लिए 'वागर्थ' के सारस्वत मंच और प्रिय मनोज जैन जी को साधुवाद जिन्होंने मुझ जैसी अल्पज्ञ और नवगीतों से अनभिज्ञ को भी लिखने को बाध्य कर दिया ।

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