वागर्थ प्रस्तुत करता है कवयित्री
रूपम झा के कुछ नवगीत
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समूह वागर्थ नए रचनाकारों को आरम्भ से ही उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप बड़ा मंच उपलब्ध कराता आ रहा हैं। आज हम जिस रचनाकार को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, वह नवोदित नहीं है, उनकी रचनाएँ इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में, देखने और पढ़ने में आ रही हैं। हाँ, इतना जरूर है, वह आज के विज्ञापन वाले युग में अपना काम बिना शोर गुल किए निरन्तर करती आ रही हैं। कभी समूह और ब्लॉग वागर्थ में प्रकाशनार्थ हमनें उनसे कुछ नवगीत आमन्त्रित किए थे, उन्होंने गीत भेजे और भेजने के बाद प्रकाशनार्थ किसी प्रकार का कोई तगादा आज तक नहीं किया।
रूपम जी मैथिली अनुवाद के साथ ही अन्य विधाओं में भी सक्रिय हैं और निरन्तर काम कर रहीं हैं। इन दिनों वे पठन-पाठन में अतिव्यस्त हैं। उनके प्रस्तुत नवगीतों में बहुत सम्भावनाएं हैं। यहाँ उनके द्वारा प्रेषित नवगीतों में से हम उनके कुछ चयनित नवगीत वागर्थ के पाठकों के समक्ष समूह में प्रतिक्रियार्थ जोड़ रहे हैं।
रूपम झा जी का पहला नवगीत 'घसगढ़नी' कितना मोहक और चित्रात्मक बन पड़ा है एतदर्थ उन्हें बहुत बहुत बधाइयाँ!
रूपम झा के गीत
(1)
गुज़र गई कई सदी
मिली न कोई रोशनी
जो भूख का सवाल था,
है आज भी वहीं खड़ा
वहीं हमारा ख़्वाब भी
लहूलुहान है पड़ा
लहास बन के रह गई
हमारी पूरी जिन्दगी
बढ़ा ही जा रहा यहाँ
सितमगरों का कारवां
यों जंगलों के रास्ते से
जा रही सदी कहाँ
सहम चुका है आज क्यों
यहाँ हरेक आदमी
रहेंगे और कब तलक
यूं चुप्पियों पर चुप्पियाँ
लुटेंगी और कब तलक ये बस्तियाँ ये झुग्गियाँ
हमारा वर्ग कब तलक सहेगा सिर्फ़ बेबसी
कबूल अब हमें नहीं
ये मुफलिसी ये जिल्लतें
न ढो सकेंगे और हम
ये झूठ और नफरतें
हमारे हर सवाल का
जवाब चाहिए अभी
(2)
देखते हैं हम तुझे हर बार घसगढ़नी
है तेरे हसिये में कितनी धार घसगढ़नी
सर पर है बोझा कमर में एक हसिया डालकर
पाँव को रखती ढलानों पर बहुत संभाल कर
हांकती जाती बकरियाँ चार घसगढ़नी
घर-गृहस्थी काम-धंधा कर्ज-पैचों की
दाल-रोटी दवा-पानी बाल-बच्चों की
ढो रही कितने दिनों से भार घसगढ़नी
है मरद घर पर निठल्ला पीटता तुझको
जो भी लाती तू कमा कर छीनता है वो
सह रही कितने दुखों की भार घसगढ़नी
इस जहाँ से आज लड़ना सीखना होगा
आग की मानिंद तुझको दीखना होगा
जिन्दगी होगी नहीं दुश्वार घसगढ़नी
(3)
चल सुबह की बात कर
वो हमारी आंसुओं से बार-बार खेलता
हाथ पांव काटकर जमीन पर धकेलता
ढा रहा है मुद्दतों से हम सबों पर क्यों कहर
निकालना है आदमी को मजहबों के जाल से
देश हिल गया है पूंजीवाद के दलाल से
एक एक जोड़ कर कड़ी नई जमात कर
राजा जी तो आजकल हवा में सैर कर रहे
देश को वे लूटकर थैलियों में भर रहे
आफतें पड़ी यहाँ हमारी रोटी भात पर
अंधेरा हो गया बहुत सियासतों के स्याह से
जिंदगी तबाह है अंधेरी काली राह से
निकाल कोई आफताब रो न काली रात पर
(4)
नारी त्याग अश्रु आँखों से
रख आँखों में नूतन सपना
सदियों से पीड़ा की मारी
बनी रही अब तक बेचारी
तुझपर तेरा जीवन भारी
आज बदल दो तुम पथ अपना
दुनिया कितनी नयी हो गई
सुर्ख और सुरमई हो गई
उठो बढ़ो गाओ मुस्काओ
छोड़ो दुख का मंतर जपना
लड़ना होगा, लड़कर हक लो
पूरा-पूरा अंतिम तक लो
बनो प्रेरणा जग की खातिर
छोड़ो रोना और कलपना
फूल तुम्हीं हो तुम हो माला
मत डालो होठों पर ताला
नियम बदल दो जंगल वाला
सीखो तुम लोहे-सा तपना
(5)
फटक रही हूँ एक नयापन
कर आँखों को सूप
नहीं गाँव में टूटे सपने
औ रिसते खपरैल
कहीं नहीं बाँधा मिलता है
अब खूँटे से बैल
हुआ मशीनी कल्चर हावी
सुविधा के अनुरूप
अब बेटे के संग बेटियां
जाती हैं स्कूल
और गांव में भी अब छत है
हैं गमले, हैं फूल
पहुँच रही है कोने-कोने
अब सरकारी धूप
प्याऊ छोड़ गांव भी पीता
अब डिब्बे का नीर
न्यू जेनरेशन के दिमाग में
अपनी ही प्राचीर
नदिया बन शहरों से जुड़ते
अब गाँवों के कूप
(6)
रो रहा है पेड़ कटता
देखकर जंगल
आरियों को देखकर उसकी
दरकती है सदा छाती
देखता है पेड़ कटता
फूल, पत्ते, बिखरती पाती
हो रहा है पेड़ खोकर
रोज वह निर्बल
हर तरफ ही इस रुदन में
है हुआ शामिल हरा कानन
पेड़ से लिपटी लताओं के
हुए हैं म्लान अब आनन
सभी पेड़ों के लिये
अब तो यही है कल
देख मानव की हिमाकत
रो रहा है पेड़ समझाकर
बो रहा है मौत मानव
जंगलों पर सितम को ढाकर
लील जायेगा सभी कुछ
मानवों का छल
(7)
दिन बसंत के
कहाँ खो गये
रंग चढ़ गया शहरी
फगुनाहट दस्तक देती थी
बौराते थे आम
देहरी आनंदित होती थी
गाती थी हर शाम
महकी महकी
पुरवा के संग
खोई मदिर दुपहरी
लाल-लाल दहके पलाश का
जीवन का उल्लास
किस्से में ही कहीं खो गया
महुआ चढ़ा सुवास
कहीं दिखाई
नहीं दे रहे
कोयल और गिलहरी
आज पहाड़ी मदिर हवा भी
हैं विष डूबे तीर
साँस-साँस की गंध खो गई
टीस हुई प्राचीर
किस किस की हम
कथा सुनायें
हवा, नीर सब जहरी
(8)
कोरोना में बेटा खोकर
अम्मा कैसे जी पाएगी
उस बूढ़ी बेबा के घर में
था बस एक कमाने वाला
राशन और दवा-पानी का
पूरा खर्च उठाने वाला
मूंद लिया वह आँखें अपनी
अब अम्मा किस-किस के आगे
जाकर आँचल फैलाएगी
बेटा जब बीमर पड़ा था
अम्मा दर-दर भटक रही थी
ऑक्सीजन के लिए चीखती
अपने सर को पटक रही थी
कैसे अब जीवन काटेगी
कैसे खुद को समझाएगी
कहती है वह नहीं मरा है
उसे व्यवस्था ने मारा है
जीते जी हम दुखियारी को
जैसे घरती में गाड़ा है
पीट-पीट कर छाती अपनी
लगता है वह मर जाएगी।
(9)
ताक रही हैं हमें निरंतर
खंजर-सी लगती हैं आँखें
गली-गली की हवा ज़हर है
हर नुक्कड़ से लगता डर है
तन-मन को घायल करती हैं
घर में चारों ओर सलाखें
जो चिड़िया कल थी उड़ान में
चहक रही थी आसमान में
आज वही लाचार पड़ी है
कटी मिली हैं उसकी पाँखें
ऐ चिड़िया कुछ करना होगा
स्वयं कुल्हाड़ी बनना होगा
जिस दरख़्त से भय लगता हो
काटो मिलकर उसकी शाखें।
(10)
बैनर पर बाजारी सपने
घर में सूखी आँत
बेच रहा है वक़्त काल बन
अब रोटी की गंध
राख न हो जाये यह जीवन
चारो ओर प्रबंध
चाह रहे हैं बोया जाए
फिर खेतो में दाँत
नई किरण लेकर आएगी
झुग्गी में सरकार
बोल रही जन-जन के हिस्से
अब होगा रोजगार
लेकिन केवल बातों से ही
हुई भूख कब शांत
पाँच बरस में 'क्योटो' अपना
भूल गया है ख्वाब
जिसके हिस्से जल होना था
मिला उन्हें तेजाब
लेकिन 'शाह' अभी भी खेले
देता शह औ मात
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