1.
कठिनतम परिस्थितियों में
जब मुट्ठी भर संवेदनशील लोग
शर्म से गड़े जा रहे हैं
पांच हज़ार बरसों में
लगभग चौदह हज़ार
युद्धों का इतिहास
चीख़ चीख़ कर कह रहा है
कोई राजा आज तक
शर्म से नहीं मरा
2.
सियासत के शतरंज में
सबकी अपनी चाल
किसी की शै
किसी की मात
चाल ही चाल में कभी-कभी
फ़ना हो जाती है
पूरी बिसात
ढाई घोड़ा
तिरछा ऊंट थोड़ा-थोड़ा
मोटा हाथी इस किनारे से उस किनारे
सीधा ही दौड़ा
राजा ढाई चले सिर्फ़ एक बार
पर वज़ीर बेधड़क कहीं भी जाने को
रहता हरदम तैयार
बेचारा बेऔक़ात प्यादा
जो एक बार चला
तो वापस भी न आ पाता है
पर वही प्यादा
बिसात के आख़िरी ख़ाने में पंहुच कर
जब हो जाता है वज़ीर
तब पलट जाती है बाज़ी
जब प्यादा खोलता है अपनी तक़दीर
वक़्त की शै से बचकर निकला प्यादा
फिर पलट देता है खेल का रुख़
सियासत के शतरंज में
3.
चुनाव
मैं छोटी थी तो मेरे पिता मेरे पहले दोस्त बने
हम चित्र बनाते
कहानियां सुनते सुनाते
खेलते पढ़ते
बातें करते
मैं बड़ी हुई तो पिता को सुनने लगी
देखने लगी उनके अलग-2 रूप
कुर्ता और सफ़ेद कॉटन लुंगी में देखती
तो लगता कोई दक्षिण भारतीय संभ्रांत व्यक्ति
पैंट शर्ट पहनते तो लगता कि कोई रोबदार अफसर
कुर्ता-पैंट में होते तो लगता कि एक मस्तमौला लेखक
और कंधे पर टँगा आर्टिस्टिक झोला उनकी पहचान सा ही था
समय के साथ दाढ़ी बढ़ती रही
पहले काली
फिर अधपकी
फिर सफ़ेद
बिस्तर पर फैली क़िताबें
सामने रखा लैपटॉप
और शेषनाग पर लेटे विष्णु टाइप का डैडी का पोज़
और हर वक़्त चेहरे पर बच्चों सी मुस्कान
जो आख़िरी साँस तक साथ रही
इन सबमें हमेशा एक बेहतरीन दोस्त दिखा जो एक पिता भी था
हिंदी बोलते तो लगता कि जैसे हिंदी ही इनकी विरासत है
कोंकणी बोलते तो लगता कि मानो सागर का संगीत बह रहा हो
संस्कृत बोलते तो ओज झरता
अंग्रेज़ी बोलते तो लगता कि कहीं चेरी ब्लॉसम के गुलाबी फूल बरस रहे हों
बांग्ला बोलते तो लगता कि टैगोर कहीं आस-पास ही हैं
मराठी बोलते तो कानों में मिसरी घुलती
असमिया उड़िया के गाने गुनगुनाते तो लगता था कि उसी में जान है बसी
पढ़ाते तो लगता कि ये लेसन कभी ख़त्म ही न हो
हम साथ बाज़ार जाते
अपनी मर्ज़ी चलाते
खूब शरारत करते
वो भी हमारे साथ बच्चे बन जाते
बेकरी की दुकान में स्वीट केक टोस्ट खरीदते तो
वेंडर चुपके से कान में कहता
बाबा इसमें अंडे हैं ..
और वो धीरे से कहते कोई बात नहीं हम अंडे खाते हैं
लेकिन किसी से कहना मत
फिर सब हँस पड़ते
चर्च के पादरी घर आते तो यूँ मिलते जैसे ईसाइयत ही हो उनका धर्म
गणेश पूजा में दादा जी के साथ मंत्र पढ़ते तो लगता कि ये विद्वत्ता की ख़ूबसूरत तस्वीर हैं
किसी पारसी से मिलते तो अगियारी की आग दिखती भीतर
बाज़ार में नमाज़ के बाद लौटते लोग सलाम करते
तो वो मुस्कुरा कर अभिवादन देते
घर में माँ के साथ चर्चा होती तो लगता कि अबूझ साहित्यकार हैं
हर बार आत्मीयता का महसूस होना मानो बुद्ध बैठे हों सामने
वो कवि थे
सारा भारत घूमते
और जहाँ भी जाते
वहाँ का कुछ हिस्सा अपने में ले आते
अब वो नहीं हैं
पर मैं असमंजस में हूँ
किस धर्म को स्वीकार करूं
किसे अस्वीकार
और मैं बस इंसान होना चुनती हूँ
क्योंकि ये मेरे समय की सबसे बड़ी चुनौती है
और मेरे पिता की थाती
(थाती : विरासत )
4.
चैत और फागुन के बीच के मौसम में
जब चलती रहती हैं सूखी हुई हवाएं
पेड़ों से पत्तियां झाड़ती
गाल और होंठ फाड़ती
सर्दी से बढ़ती हुई गर्मी के बीच
सब कुछ नहीं सूखता इस वक़्त भी
सरसों लहलहाती है
चना भी बेसुरे घुंघरू पहन इठलाता है
गेहूँ भी ठाठ दिखाता है
बोगनबेलिया की गहरी हरी बेलों पर आते हैं फूल
गहरे गुलाबी रंग के
जंगली घास में फूल खिलते नारंगी गुलाबी नीले
इस मौसम में जब हवा सर्दी के दुशाले हटाने लगती है
धौल ढाक के बिना पत्तों वाली शाखों में भी
लगते हैं ख़ूबसूरत चटख लाल रंग के फूल
और छोटी काली हमिंगबर्ड चुनती है पराग उन्हीं फूलों से
सूखी हवा में भी प्रेम झरता है
और लिखता है कविताएं
गेहूँ की बालियों में
चने के बूट में
सरसों में फूलों में
बोगनबेलिया में
जंगली घास में
और ढाक की सूखी शाख़ों पर भी
चटख लाल फूल टांक कर
हमिंगबर्ड एक पेड़ से दूसरे पेड़
बायने में प्रेम बांट आती है.
(ढाक के फूलों का परागण ये हमिंगबर्ड ही करती है)
5.
भविष्य का बच्चा
जब तुम बूढ़े हो चुकोगे
और तुम्हारी अगली पीढ़ी जवान
तब वो भविष्य की सुनहरी किरण
जो तुम्हारी चुप्पी की कालिख में धुंधली हुई है
तुमसे पूछेगी
जब समय इतना क्रूर था
तब तुमने क्यों नहीं फूँका
बग़ावत का बिगुल ?
भविष्य का बच्चा
पूछेगा एक बूढ़े बुद्धिजीवी से
क्यों नहीं दिखाई
नए रास्ते पर रोशनी
भविष्य का बच्चा
पूछेगा सवाल अपने माता पिता से
क्यों नहीं पूछ पाये सवाल
जब तुम दरकिनार बच्चे थे
भविष्य का बच्चा
पूछेगा सवाल अपने समाज से
किस नींद में थे कि
सोकर ही बर्बाद कर दिया
हमारा आज
जो उस वक़्त तुम्हारा ही भविष्य था ?
भविष्य का बच्चा
पूछेगा सवाल बूढ़े हो चुके कवि से
तुम्हारी कलम की सियाही
आग क्यों नहीं बनी तब
जब हमारे आज को तबाह करने के लिए तुम्हारे सियासतदां
पुरज़ोर कोशिश में लगे थे
भविष्य का बच्चा पूछेगा
सवाल अपनी पुरानी नस्लों से
समय बेशक़ अंधेरा रहा होगा
अंधेरा आँखों को ग़ुलाम कर सकता है
पर आवाज़ को नहीं
और तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं होगा
क्योंकि तुम आज सो रहे हो
भविष्य से आती हुई उस चीख़ से अनजान
जो तुम्हारी ही आने वाली पीढ़ी की है.
क्योंकि भविष्य का बच्चा
ग़ुलामी से दोस्ती नहीं करेगा
6.
परमेश्वर ने लोगों के गुनाहों के लिए
अपने बेटे को सूली पर चढ़ा दिया
ज़रूर परमेश्वर
कोई अनपढ़ होगा
परमेश्वर को किसी कॉलेज में जाकर
पढ़ना चाहिए
मनोविज्ञान
जिसका पहला सबक़ ये है
कि जब भी तुम बच्चे को कुछ करने से मना करोगे
बच्चा वही करेगा
जो उसे मना किया जाएगा
7.
मन मधुमक्खी के छत्ते सा
ना जाने कितने कोटर
सबके अलग अलग
और कोई भी एक दूसरे से मिलता नहीं
इतने पास होकर भी
एक दूसरे से कितने दूर
मन मधुमक्खी के छत्ते सा
हर कोटर में शहद सा ज़हर
सब उगलते हैं
और कोई भी नहीं पीता किसी का ज़हर
सब अपने ज़हर से ही बेहोश हैं
गलतफहमी में
कि मेरे ज़हर से वो मर गया
मन मधुमक्खी के छत्ते सा
8.
ऐसे समय में
जब हर तरफ मचा हो
पीड़ा में होड़ का घमासान
कवि भी लिख रहे हों
भारी भरकम शब्दों में
अकर्मण्यता और निराशा भरी कविताएं
ऐसे समय में
मैं नहीं लिख पा रही
नरसंहार की दशाएं
नहीं कह पा रही
तीर और तलवार की महानता
ऐसे समय में भी
मैं लिखना चाहती हूं
प्यास से पानी का प्रेम
बीजों के जंगल में बदल जाने की कहानी
हवाओं के परों पर पानी के उड़ने की कहानी
एक देश का पानी दूजे देश बरसने की कहानी
हाँ मैं नहीं लिखना चाहती
थकी हुई हताश ऊर्जा
मैं थमाना चाहती हूँ बच्चों के हाथों में वो किताब
जिसमें सिर्फ़ प्रेम लिखा हो
क्योंकि नफ़रत और जंग की ज़रूरत
सिर्फ़ सियासत को है
बिल्कुल उसी तरह जिस तरह
जंगल की ज़रूरत इंसान को है
जंगल को इंसान की नहीं
9.
मथुरा के रास्ते से घर लौटते हुए
एक बार
बीन लाई थी कदम्ब की गेंदों में तुमको
और तोड़ लाई थी कुछ घुँघरू
तुम्हारी रासलीला के
तुम्हारे माथे के मोरपंख को
कानों के कुंडल बना पहना था मैंने
तुम्हारी बांसुरी अधरों पर लगा
और नाचती रही उन घुंघरुओं को पहन
तुम्हारी त्रिभंगी छवि बना
गूंजते रहे कवित्त के बोल
नीर भरत यमुना तट पर
भर भर नीर उठावत गागर
मोहे छोड़ छोड़ माधो माधो माधो
तभी तो मेरा नृत्य
खींच लाया तुम्हे मेरे आँगन तक
और तुम छोड़ आये थे वृंदावन
उस निविड़ निशा में
और तुम्हारी चमकती हुई कृष्ण आभा में
कस्तूरी ढूंढते हुए नीलाभ मृग से
मैं ही तो थी तुम्हारी कस्तूरी
तुम्हीं में समेकित
तुम्हारी नाभि में स्थित
अंतर सुगन्धित
तुम हर जगह ढूंढते हो
मेरा मन
मन कस्तूरी सा
ढूढ़ रहा था मृग नाभि
तुम्हे पाया
वेदना छलक कर प्रेम हो गई
10.
धरती देती है संकेत
समय समय पर
आदमी समझ नहीं पाता
जंगल जलाता है
ईंधन जलाता है
सुविधा बटोरने में जान भी जलाता है
कई बार घर भी
और हर बार मन जलाता है
आदमी कितना जलनखोर है
इसे सिर्फ जलाना आता है
आदमी
बुझाता कुछ भी नहीं
✍️ सिमन्तिनी
परिचय :
नाम : सिमन्तिनी रमेश वेलुस्कर
उम्र : 35 वर्ष (विवाहित)
पता: जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ
शैक्षिक योग्यता : जीवन विज्ञान में परास्नातक
स्वतंत्र लेखन
फ़ोन- 9888695851
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