शनिवार, 19 जून 2021

अवनीश त्रिपाठी जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ समूह एवं वागर्थ ब्लॉग

वागर्थ प्रस्तुति ~
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सुल्तानपुर निवासी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर आदरणीय अवनीश त्रिपाठी जी के नाम को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आपके नवगीत संवेदना के उत्स हैं ।  भौतिकता की चकाचौंध  और आवश्यकताओं की विवशता वश जनमानस के एकाकीपन का उत्तम उदाहरण ' बस यही हैं चेष्टायें ' नवगीत है । अवनीश जी के नवगीत व्यवस्था पर शाब्दिक प्रहार व चिंतन को विवश करते हैं । राजनीतिक व सामाजिक विसंगतियों की सहज अभिव्यक्ति इनकी यशस्वी क़लम से सदैव निसृत होती आयी है ।
नवगीत के समस्त अवयव इनके सृजन में स्पष्टया दृष्टव्य हैं ।
समसामयिक विसंगतियों पर प्रहार करता नवगीत 'उत्तर का व्यापार ' इसका उत्तम उदाहरण है ।

 स्वभाव से अति शिष्ट व सरल अवनीश जी की क़लम श्रंगार पर भी मोहक हस्तक्षेप रखती है । 

 ' कर्पूरी रातों में संदल 
परछाईं रतनार 
सगुन पंछियों की आहट पर 
खोल दिया मन द्वार '
 

अभी दुधमुँही नेह नदी पर 
लगा हुआ है पहरा ।

इच्छाओं के प्यासे पंछी की 
पहली अँगड़ाई 
गन्ध लिये पावस की चिट्ठी 
हौले -हौले आई ।

(गीतांश ) 

पाठक पढ़कर मंत्रमुग्ध हुये बिना नहीं रह सकता ।
     शब्द चयन , भाव पक्ष , सामाजिक सरोकार , बेधकता , लयबद्धता , टटके बिम्ब , कधन का बेबाकीपन  , तथ्यात्मकता , मानवीय सरोकार  व सृजन की सार्थकता के मापदंडों पर आदरणीय अवनीश त्रिपाठी जी के नवगीत निश्चित ही खरे उतरते हैं।
     ' वागर्थ ' आपके सृजन की उतरोत्तर प्रगति हेतु शुभकामनाएँ प्रेषित करता है 💐💐💐

(१)
सुनता हूँ आपातकाल है
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सोशल दीवारों पर चिपके 
कई दिनों से हैं विज्ञापन 
सुनता हूँ आपातकाल है!

विज्ञापक का नाम देखकर
भीड़ उमड़ आई है काफी,
उत्तेजित टिप्पणियों वाली
चूस रहे सब मिलकर टॉफी,

प्रश्न खड़े सब चार हाथ के
उत्तर पहुँच गए हैं बावन
सुनता हूँ आपातकाल है!

अख़बारों की भट्ठी में ही
दहक रहा हर शब्द गढ़ा है,
समाचार का नहीं आचरण
अल्प विषय पर शोर बढ़ा है,

थोप रहे सब हर दिमाग पर
वैचारिक खनिजों का ज्ञापन
सुनता हूँ आपातकाल है!

सन्नाटों के बिम्ब सोचते
सच्चाई होगी कुछ शायद,
मन का दर्पण जान रहा है
षड्यंत्रों की बड़ी कवायद,

बोल रहा विज्ञापनकर्ता
साफ बचाकर अपना दामन
सुनता हूँ आपातकाल है!

(२)
 लूट गई मृगतृष्णा
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मरुथली बगूलों का 
समझ गईं मर्म,
लिख रहीं हवाएं अब
पानी पर नाम।

धूलभरी शंकाएँ 
खोजतीं पड़ाव,
मुट्ठी से रेतों का
बढ़ा मनमुटाव,

उलझन में सन्नाटा
पड़ा हुआ आज,
लहरों की साजिश से
होकर नाकाम।

सिसक रहे पुलिनों पर
अभी तक सवाल,
लावारिस पड़े हुए
बेसुध बेहाल,

मौन हुए शब्दों के
सारे संवाद,
प्रश्नों की उलझन में
पड़कर तमाम।

रेतीले बिस्तर पर
हाँफ रही धूप,
भटक रहा प्यास लिए
नागफनी रूप

खिंची है लकीरों की 
नंगी दीवार
लूट गई मृगतृष्णा
जिसे खुले आम।

(३)
 अक्षर से मनुहार

कर्पूरी रातों में संदल 
परछाईं रतनार,
सगुन पंछियों की आहट पर
खोल दिया मन-द्वार।

अँजुरी भर खुशबू मलयज की
लेकर आई भोर
चम्पा को गुदगुदी कर रहा
हरसिंगार चितचोर

होंठ सिले रह गये सुमन के
चुप बैठी कचनार।

सन्यासी आकाश लिख रहा
मधुऋतु का अध्याय
ललछौंहे सूरज ने बदला
प्राची का पर्याय

सकुचाई धरती का कितना
लाजभरा व्यवहार।

सुधियों की पायल के स्वर ने
रची नई तस्वीर,
एक अचीन्ही प्यास उतरकर
बदल गई तकदीर,

प्रेम ग्रन्थ के पृष्ठ कर रहे
अक्षर से मनुहार।

(४)
अभी दुधमुँही नेहनदी पर
लगा हुआ है पहरा।

इच्छाओं के प्यासे पंछी
की पहली अंगड़ाई,
गन्ध लिए चिट्ठी पावस की
हौले हौले आई,

लिखा हुआ है 'ढाई आखर' 
सुंदर और सुनहरा।

ललछौंहे अधरों पर फिर से
लाज उतरकर आई,
छुई-मुई सी शाम लिपटकर
शरमाई-शरमाई,

बाहों में चुप्पी का थोड़ा
अंश अभी तक ठहरा।

बूँदों का संदर्भ गढ़ रहे
वर्षा के हरकारे,
प्रेमभरे पथ के अक्षों में
जीत-जीत कर हारे,

मन का इंद्रधनुष खिल आया
रंग चटक है गहरा।

(५)
 बस यही हैं चेष्टाएँ
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है अकेलापन,उदासी
और बूढ़ी भावनाएँ।

आजकल बीते समय की
कुछ किताबें बाँचते हैं
खोलकर के कवर उसके
पृष्ठ में भी झाँकते हैं

उम्र के धुँधले समय में
बस यही हैं चेष्टाएँ।

बात की गुंजाइशें सब
पायताने पर पड़ीं हैं
हर असहमति की बलाएँ
रोज सिरहाने खड़ीं हैं

झेलकर तन्हाइयों को
थक चुकीं हैं चेतनाएँ।

वर्गफुट की जिंदगी में
शेष है अवसाद केवल
होंठ का है झुर्रियों से
हो रहा संवाद केवल

रोज दर्पण में झुलसतीं
बिम्ब की सब धारणाएँ।

(६)
 उत्तर का व्यापार
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प्रश्न कर रहे मन के 
माफिक
उत्तर का व्यापार।

पूँजीवादी बर्तन सारे
क्यों इतने बेडौल
समाधान की बूढ़ी आँखें
समझ रहीं माहौल

विज्ञापन का रूप 
बदलता
बाजारू आकार।

जोड़ तोड़ वाली हाटों का
बदला हुआ मिजाज,
प्रिंट रेट के आगे झुकता
मोल भाव है आज,

घुड़की देते हर 
लम्हे का
बदल गया व्यवहार।

मुँह से गिरने को आतुर है
रूखा सूखा कौर
तूल दे रहे आश्वासन के
जुमलों का है दौर

झूम रहे राजा का 
कायल
है पूरा दरबार।

रचनाकार परिचय -
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परिचय--
नाम- *अवनीश त्रिपाठी*
शिक्षा-एम.ए.,बी.एड.
सम्प्रति- इंटर कालेज में प्रशिक्षित स्नातक अध्यापक।
*साहित्यिक परिचय-*
नवगीत संग्रह-'दिन कटे हैं धूप चुनते', 
दोहा संग्रह- 'सिसक रहा उपसर्ग'
कविता संकलन -'शब्द पानी हो गए'
सम्पादन- नई सदी के नये गीत, पाँव गोरे चाँदनी के

समवेत संकलन-नेह के महावर, उत्तरायण,नई सदी के नवगीत,अक्षर बंजारे,समकालीन गीतकोष,गुनगुनायें गीत फिर से,दोहा शतक में रचनाएँ संकलित।गीत-नवगीत/दोहे एवं ग़ज़ल का निरंतर लेखन एवं देश की लगभग सभी पत्रिकाओं में प्रकाशन।

*स्थाई पता--*
पता-ग्राम/पत्रालय-गरएं, जनपद-सुलतानपुर, उ•प्र•, पिन-227304
चलभाष-9451554243/9984574242
मेल आईडी- tripahiawanish9@gmail.com

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