शुक्रवार, 25 जून 2021

राम सेंगर जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

आज  सुपरिचित नवगीतकार राम सेंगर जी का जन्म दिन है।समूह वागर्थ इस सुअवसर पर पाठकों को लेकर आया है उनके सात नवगीत
प्रस्तुति
(2 जनवरी 21 को वागर्थ समूह में प्रकाशित पोस्ट)

    मनोज जैन 
~।।वागर्थ।।~

नए 
गीतकवि से / राम सेंगर
 _________________
गीत या नवगीत
जो भी लिख,
आदमी के पक्ष में ही दिख !

विधा कोई
है नहीं छोटी
कहन का अपना स्वचेतस रूप ।
कथ्य, केवल
कथ्य होता है
रम्य हो या रँग से विद्रूप ।
शिल्पविधि
है इसी की चेरी,
हेतु जिसमें खुलें न्यूनाधिक !

रचे में बोले न
यदि मिट्टी,
तुष्टि के सम्मोह की कर जाँच ।
कुछ नहीं होता
करिश्मों से,
हो न जब तक भावना में आँच ।
स्वयँ से
बाहर निकल कर देख
दीन-दुनिया से न जाए छिक !

गा-बजा कर
आत्मश्लाघा में,
नए के सँघर्ष से मत भाग ।
तोड़ परतें
जगा
अर्जित कर,
लोकमानस से सृजन की आग ।
ज़िन्दगी की
टूट का प्रज्ञान,
सम्भ्रमों पर ही न जाए टिक !

गीत या नवगीत
जो भी लिख,
आदमी के पक्ष में ही दिख !

दो

रामदीन / राम सेंगर
_______________
 
ज्यों का त्यों
अब भी है काँटा
रामदीन की आँख का ।

खेत चर रहीं मेंड़
भेड़ बाड़े को रौन्द रही ।
कुतर रहा नाख़ून
पेट में बिजली कौन्ध रही ।
ऋतु बदली, पर
अभी हरा है
फोड़ा उसकी काँख का ।

बिम्ब अभी मन में
सूरज का
बना हुआ काला ।
घुसा हुआ पूरा सीने में
पूँजी का भाला ।
दबा रहेगा
कब तक जाने
यह अँगारा राख का ।

ज्यों का त्यों अब भी है काँटा
रामदीन की आँख का ।

तीन

बात न कोई बात / राम सेंगर
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हार गए हैं
बात न कोई बात है ।
नयी परिस्थिति की रौनक का साथ है ।

कालमेघ ने
बुद्धि-भाव की आँच को
बुझा दिया
यह झूठ है ।
फिर-फिर हरा हुआ है
पूरा सूखकर
मन
झाऊ का ठूँठ है ।
सहजधर्म की
सर्प-कुण्डली खुल रही
बीती दुःस्वप्नों की काली रात है ।

एक जुझारू
आत्मजयी हुँकार का
भीतर
हाँका चल रहा ।
सिर पर पाँव धरे
भागेंगे दैत्य-क्षण
प्रण
यक़ीन में पल रहा ।
डर का हौआ
गीदड़ ख़ाम-खयाल का
अपने आगे
इसकी कौन बिसात है ।

चार

पाटों के बीच / राम सेंगर
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पिसना दो पाटों के बीच ,
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!

तने हुए मुक्के पर
टाँग ले सवालों को,
धैर्य-धर्म की डफली
और नहीं पीट गला फाड़ कर ।
ड्योढ़ी पर खड़ा-खड़ा
गुलुर-गुलुर क्या करता,
चीर कर झपट्टों को
दे लातें ज़ोर से किवाड़ पर ।

पूँजी का दिया हुआ घाव नहीं भरने का
सुविधा के दोने को छुला नहीं माथे से
रबड़ी में मिली हुई कीच !
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!

भभ्भड़ में बात नहीं
सिर्फ़ लोंडहाई है ,
काट त्यौरियों के इस
माथे पर पुरे हुए जाल को ।
भीतर का झन्नाटा
पक-पक कर लाल हुआ,
उड़ा हुआ सुर्रा है —
मछली ने पी डाला ताल को ।

नट-कँजड़ शैली में , पाँवों में बाँस बान्ध
वहीं-वहीं क़दमताल करना, मर जाना है,
रूपक दूजा कोई खींच !
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!

पाँच

हम हिरन के साथ हैं / राम सेंगर
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हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ,
थक गए हैं,
मौत के सदमे उठाते ।

सूँघ कर भी आहटें
आसन्न हमले की
ठिठक कर
वहशी दरिन्दे
एकटक देखे ।

हर झपट्टे से
मिलाई आँख
तब दौड़े
बच निकलना
प्राथमिक था
लक्ष्य ले-देके ।

कौन जाने
धर लिए जाएँ कहाँ कब गप्प
जैविकी सम्वेदना में
झिलमिलाते ।

हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ,
थक गए हैं,
मौत के सदमे उठाते ।

छह


प्रगति का घाव / राम सेंगर
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जबरा मारे
अबरा रोए ।

कौन अजान सुने मुर्गी की
राजा और न बख़्तरपोश ।
जहाँ जाएगी भेड़ मुड़ेगी
जाति भेड़ है इतना दोष ।
कथानकों में सच के निर्मम
पहलू सारे मथे-बिलोए ।

जबरा मारे
अबरा रोए ।

पत्थर नहीं कि जोंक न लागे
लग जो गई चूसती खून ।
वे क्या मारेंगे जोंकों को
जिनके घर में नमक न नून ।
बनी सनसनीखेज़ ग़रीबी
पूँजी ने सब नशे निचोए ।

जबरा मारे
अबरा रोए ।

घृणा खुन्स नँगई लुच्चई
कितने नए वीडियो गेम ।
गाँव लूट खाया चौकी ने
मिला लूट का किसको क्लेम
अपकर्मों का दमनचक्र है
सब हो जाए, सब कुछ होए ।

जबरा मारे
अबरा रोए ।

गुणी चुगद हैं, चुगद गुणी हैं
लँगड़ी भिन्नों के उलझाव ।
घोड़े मरे, गधे पॉवर में
सड़ने लगा प्रगति का घाव
विडम्बना के खेल निराले
दाग़ न छूटें, कितना धोए

जबरा मारे
अबरा रोए ।

सात
______
अँधा पीसे 
कुत्ता खाये। 
देह धरे का स्वाँग निराला 
हर बन्दर के हाथ आइना 
शठ धारे हैं  कंठी-माला  
                      माँगे कौन कैफ़ियत किससे 
                      किसका पर्दा कौन उठाये ।
चोरों की दाढ़ी में तिनके 
छायांकित अपराध ढबों पर 
नकली चेहरे, उनके-इनके 
                      बुद्धि-भावना की न लड़ाई
                     बेमतलब के किले बनाये ।
बातें कोरी यहाँ-वहाँ की 
संशय के कीड़ों ने शायद 
रगड़ नहीं देखी पनहा की 
                       जीभ दोगली, हाथ दोगले
                      कीर्तिमान क्या ख़ूब बनाये ।
ब्याह ऊँट का, गधे गवैये 
ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे 
पचकल्याण-भाँड़-नचकैये 
                       लूट रहे हैं सुघड़बड़ाई
                      किया धरा कुछ नज़र न आये ।
खुलेआम कम तोले बनिया
लूट सके सो लूट मची है 
कहे-सुने किससे रमधनिया  
                       घुग्घू हों या घाघ मंच पर
                       सब धन्नासेठों के जाये ।
है मज़ाक कितना यह गन्दा 
जिसको देखो फूल रहा है 
खा-खाकर जनहित का चंदा 
                       चरागाह है देश समूचा
                       हैं स्वच्छन्द यहाँ चौपाये ।
मुँह के आगे दिखे न खाई 
बेलगाम हैं शब्द-बछेड़े 
रोके उसकी शामत आयी 
                      झूठ कहे सो लड्डू खाये
                     साँच कहे सो मारा जाये ।
परम्परा की निर्मल धारा 
सूख रही है धीरे-धीरे 
नहीं उठ रही लहर दोबारा 
                      संवेदन का बना मलीदा
                      दिन लग रहे ताप के ताये ।
सदाशयी व्यवहार कपट के 
दीख रहे हैं जिजीविषा पर 
मँडराते बादल संकट के
                       आग बचा कर रखें, सफ़र में,
                      कब कैसा क्या मौक़ा आये ।
अंधा पीसे
कुत्ता खाये ।

कवि परिचय

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राम सेंगर

 जन्म 2 जनवरी 1945
 जन्म स्थान गाँव नगला आल, सिकन्दरा राऊ, हाथरस, उत्तर प्रदेश, भारत
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
शेष रहने के लिए (1986), जिरह फिर कभी होगी (2001), एक गैल अपनी भी (2009), ऊँट चल रहा है (2009), रेत की व्यथा-कथा (2013), बची एक लोहार की (सभी नवगीत सँग्रह), पंखों वाला घोड़ा (ग़ज़ल सँग्रह), कुछ न हुए कवि हो गए (दोहा-सँग्रह)
 विविध
हिन्दी नवगीत में एक अग्रणी नाम।

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