~।।वागर्थ ।। ~
में आज प्रस्तुत हैं रवि खण्डेलवाल जी के नवगीत ।
रवि खण्डेलवाल जी के गीतों में जनमानस की वेदना से उपजी पीड़ा व तंत्र में अफसरसाही की विकृतियों पर प्रहार है । समरसता व बाँधुत्व भावना का क्षरण ,अवसरवादिता व तंत्र की नीतियों जैसे आवश्यक विषयों पर ध्यानाकर्षण करते इनके नवगीत सराहनीय व समर्थ हैं । इनके गीतों से गुजरते हुये पाया कि मात्रिक मीटर दुरुस्त रखने हेतु एकाध जगह मूल शब्द से छेड़छाड़ हुयी है,जिसे हमने वागर्थ के सुधी पाठकों के लिये आंशिक सम्पादन के साथ प्रस्तुत किया है। हमारा मानना है कि प्रयास रहे शब्दों को उनके मूल रूप में ही लिखा जाये (आँचलिक शब्दों में यह बदलाव खलता नहीं )
बहुत प्यारे ,संदेशप्रद व समर्थ नवगीतों के रचाव हेतु वागर्थ आपको बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
~ अनामिका सिंह 'अना'
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(१)
मैं क्या आज लिखूँ
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लिखने बैठा समझ न आया
मैं क्या आज लिखूँ
पाँवों के मैं घाव लिखूँ
आँखों के ख्वाब लिखूँ
किसके शब्दों ने है किसके
दुख को सहलाया
सुख के ऊपर हर पल देखा
दुख का ही साया
सोचा उसके दुख-दर्दों पे
झंडू बाम लिखूँ
छीना हमने ठौर ठिकाना,
बरगद- पीपल से
काट दिया पंखों को हमने
उड़ने से पहले
पंछी का कैसे कर यारो,
मैं संताप लिखूँ
हर ओहदे पर जालिम बैठा
मंसूबे लेकर
बनता नहीं काम कोई भी
अब लेकर देकर
आखिर बोलो किसको मैं
अपनी फरियाद लिखूँ
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(२)
क्या है इसका हल
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संघर्षों में जीवन बीता
दुविधाओं में पल
जीवन क्या है समझ न पाया
क्या है इसका हल
एक ओर आरक्षण सुख का
दूजी ओर विलाप
बंदर बाँट मचाकर उसने
बाँटा मेल मिलाप
हर चेहरे पर दुख की छाया
माथे पर है सल
जीवन क्या है समझ न पाया
क्या है इसका हल
मुट्ठी भर अहसासों ने है
सपनों को रौंदा
झोली भर विश्वासों को है
इक-इक पल कौंधा
खाली पलड़ा निबल सदा से
भारी सदा सबल
जीवन क्या है समझ न पाया
क्या है इसका हल
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(३)
बाजू बने धड़े
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किस्से होने लगे रोज के
वो भी बड़े- बड़े
धड़ के दोनो ओर हमारे
बाजू बने धड़े
मनमौजी हो गई हवाएँ
सरहद के अंदर
बाहर की हम बात करें
कैसे,औ' क्या खाकर
अवसरवादी मुद्दों से फिर
कैसे कोई लड़े
धड़ के दोनो ओर हमारे
बाजू बने धड़े
जब तब भी हैं पाले हमने
आस्तीन के साँप
आस्तीन में घुसकर अक्सर
बाजू रहते नाप
देख रहे उन्मादी होकर
सपने बड़े-बड़े
धड़ के दोनो ओर हमारे
बाजू बने धड़े
खाते हैं इस धरती का
और गाते उस थल की
स्वारथ के मारे बंदे हैं
ख़बर नहीं कल की
खुद का ही फेंका पत्थर
कल खुद पर आन पड़े
धड़ के दोनो ओर हमारे
बाजू बने धड़े
खुली हुई हैं इनकी-उनकी
डर की शाखाएँ
जहाँ-तहाँ फहराते फिरते
रोज पताकाएँ
आकाओं के साये में
खुद डर कर हुए बड़े
धड़ के दोनो ओर हमारे
बाजू बने धड़े
(४)
युग का पैगंबर
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खेल आँकड़ो का खेला करता
वो तो अक्सर
वक्त गुज़ारा करता
तिकड़मबाजी में दिन भर
उसके गोरख धंधों का
ना पूछो तुम हमसे
उसके एक इशारे पर
सोना- चाँदी बरसे
वो इस युग का
सबसे काबिल शातिर जादूगर
वक्त गुज़ारा करता
तिकड़मबाजी में दिन भर
उसकी अपनी है बिरादरी
उसकी अपनी जात
जहाँ बैठ जाए होती फिर
शुरू वहीं से पाँत
दहशतगर्दी में कहलाता
युग का पैगंबर
वक्त गुज़ारा करता
तिकड़मबाजी में दिन भर
(५)
मत बनो विधायक से
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पसर गया सन्नाटा क्यों कर
आज अचानक से
कहा किसी ने नहीं किसी से
कुछ भी तो यारो
फिर क्यों आखिर मौन हुए सुर
कुछ तो उच्चारो
असर दिखाओ होने का
मत बनो विधायक से
उठा कमण्डल चल मत देना
सन्यासी होकर
हाथ नहीं कुछ भी आएगा
स्व वजूद खोकर
बनो एक दूजे के साथी
बनो सहायक से
सच का होता नहीं आइना
आईने का सच
बतलाओ तो कैसे कोई
पाए सच से बच
पूछ रहा है उलटा चश्मा
मेहता तारक से
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रवि खण्डेलवाल
*।। संक्षिप्त जीवन परिचय ।।*
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नाम : रवि खण्डेलवाल
जन्म : १४सितम्बर १९५१ । मथुरा (उ.प्र.)
शिक्षा : आगरा विश्वविद्यालय (डॉ.बी. आर.अम्बेडकर यूनीवर्सिटी)से स्नातक।
प्रकाशन-
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नई कविता, गीत, नवगीत, हिन्दी ग़ज़लें, मुक्तक, निबन्ध, दोहे आदि, देश की प्रतिष्ठित एवं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन
रंगमंच -
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स्वास्तिक रंगमण्डल, मथुरा के तत्वावधान में मंचित 'खामोश अदालत जारी है', 'सिंहासन खाली है' आदि नाटकों में प्रमुख भूमिका अभिनीत एवं सह निर्देशन।
सम्प्रति -
महा-प्रबन्धक, फैरो कांक्रीट कंस्ट्रक्शन [इण्डिया] प्रा.लि. मध्यप्रदेश इन्दौर में सेवारत।
सम्पर्क सूत्र -
207, व्येंकटेश नगर एरोड्रोम रोड, इन्दौर (म.प्र.) 452005 चलभाष : 076979- 00225 e-mail : ravikhandelwal14sep@gmail.com
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