~।। वागर्थ।। ~
प्रस्तुत करता है यश मालवीय जी के नवगीत ।
#सिंहासन_के_आगे_पीछे_जी_भर_डोलेगी_जब_जैसा_राजावोलेगा_परजा_वोलेगी
कुछ समय पहले वागर्थ ने एक पोल आयोजित किया था , उसमें यश मालवीय जी के नाम पर सर्वाधिक सम्मतियाँ आईं थीं , अतः पाठकों की सम्मति का स्वागत करते हुए वागर्थ यश मालवीय जी पर केन्द्रित ये विशिष्ट अंक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है ।
यश मालवीय जी , जिनको साहित्यिक पृष्ठभूमि विरासत में मिली , का नाम और काम किसी परिचय व भूमिका की दरकार नहीं रखता ।
गीत उनकी दिनचर्या का हिस्सा है , रोजमर्रा के तमाम दृश्यों पर वह सधे शिल्पकार की तरह बड़ी कुशलता से गीत रचते हैं , उनके गीतों का स्वर प्रतिरोधी तो है ही , इसके साथ ही वे उन विषयों पर गीत रच देते हैं जिस पर अमूमन अन्य गीतकारों की दृष्टि पहुँच ही नहीं पाती , पिछले दिनों लाकडाउन के समय जब वे थोड़ा अस्वस्थ्य हुए उस दौरान लगभग रोज ही उन्होंने एक दो गीत रचे जिससे गीत के प्रति उनका अनुराग व समर्पण सहज ही समझा जा सकता है , प्रख्यात समीक्षक व गीतकार ओम निश्छल जी यदि उन्हें गीतों का करघा कहते हैं तो सच ही कहते हैं ।
यश मालवीय जी कहते हैं कि " गीत लेखन मेरी आंतरिक ज़रूरत है।मैं लिखता इसलिए हूँ कि अपने को ज़िन्दा अनुभव कर सकूँ।एक बेसुरे कविता समय से मुझे ख़ौफ़ सा होता है,मैं अपने गीतों में लाउड होने की सीमा तक पंचम स्वर में गाना चाहता हूँ।इसे मेरा बड़बोलापन न समझा जाय,हर अनुभव को गीत बनाने की ज़िद है मेरी।निराला की नवगति से ही मैं अपने नवगीत को जोड़कर देख पाता हूँ।गीत में आपबीती को ही जगबीती की शक्ल में मससूस करता हूँ।गीत के समूचे शिल्प से ही प्यार करता हूँ।छंद में ही सोचता हूँ लेकिन छछन्द से बचता हूँ।कविता का कथ्य अपने आसपास से उठाता हूँ,सातवें आसमान से नहीं लाता।गीत के लिये गेय होना वैसी ही ज़रूरी शर्त मानता हूँ,जैसी कि पहिये के लिये गोल होना,चौकोर पहिया नहीं चल सकता,अगेय गीत भी नहीं चलेंगे।तुक को एक तर्क की तरह रखता हूँ।हमारे तुक भी सोच को दिशा देने की एक विनम्र कोशिश होते हैं,हाँ!तुकाराम शैली का कवि अवश्य ही नहीं हूँ।गीत को कविता से अलग करके नहीं देखता। मैं पहले कवि हूँ,फिर कहीं गीतकार,इसलिए भी समकालीन कविता के कथ्य को ही छंद में जीने का यत्न करता हूँ ।"
अपने गीतों और कविताओं से साहित्य जगत में लगातार सक्रिय रहने वाले यश मालवीय जी की पक्षधरता किसी से छिपी नहीं है और इस पक्षधरता की व्यक्तिगत तौर पर उन्हें क्षति भी उठानी पड़ी है किन्तु विपरीत परिस्थितयों में उनकी जन पक्षधरता हेतु प्रतिबद्धता में रंचमात्र कमी नहीं आई ।
यश मालवीय जी के नवगीतों की काव्यभाषा सहज किन्तु बेहद कसी हुई व संप्रेषणीय है । आपके नवगीतों की विशेषताओं में सटीक शब्द-चयन, भाषा मुहावरा ,कहावत, बिम्ब, प्रतीक और संकेतों का चुनाव बिल्कुल हटकर प्रयोग हुआ है जो आपको एक अलग ही सफ में खड़ा करता है ।
वागर्थ ब्लॉग में भी आपके आलेख और नवगीतों को पढ़ा जा सकता है , यश मालवीय जी वागर्थ के क्रिया कलापों के समर्थक हैं । आपकी सद्भावनाएँ वागर्थ समूह और ब्लाॅग से पहले दिन से जुड़ी हैं । वागर्थ आपको हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
प्रस्तुति
~।।वागर्थ ।।~
सम्पादक मण्डल
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(१)
जब जैसा राजा बोलेगा
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सिंहासन के आगे-पीछे
जी भर डोलेगी
जब जैसा राजा बोलेगा
परजा बोलेगी
राजा अगर हँसेगा
तो परजा भी हँस देगी
समझ न पाएगी अपनी
गर्दन ही कस लेगी
जागी-सी आँखों देखेगी सपना,
सो लेगी
ख़ून चूसते जो
उन पर ही वारी जाएगी
हर उड़ान, उड़ने से पहले
मारी जाएगी
उम्मीदों के नुचे हुए से
पर ही तोलेगी
अंधियारों के ज़ख़्म
रोशनी के प्यासे होंगे
हर बिसात पर
उल्टे-सीधे से पाँसे होंगे
सिसक-सिसककर हवा चलेगी
आँख भिगो लेगी
तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो
गाती जाएगी
आँगन होगा, आँगन से
सँझवाती जाएगी
दुनिया अपनी साँस गिनेगी
नब्ज टटोलेगी
राजभवन के आगे भी
कुछ भिखमंगे होंगे
तीन रंग वाले क़िस्से भी
सतरंगे होंगे
धूप जल रही सी पेशानी
फिर-फिर धो लेगी
(२)
सच सा लगे हमें अब ऐसा झूठ बोलना है
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बुला रही है हमें सियासत,
ज़हर घोलना है
सच सा लगे हमें अब ऐसा
झूठ बोलना है
फैलाना अफ़वाह
और दहशत फैलानी है
उड़ा रही,टट्टर-छप्पर
आँधी सैलानी है
घर भरना है
औ'सोने के पंख तोलना है
हैं विचार से शून्य,
अनमनी दसों दिशाएँ हैं
पत्थर पर सिर पटकें,
वैचारिक संज्ञाएँ हैं
पद-मनसब के आगे पीछे
सिर्फ़ डोलना है
लाखों का वारा न्यारा,
हम चार परानी हैं
ठकुरसुहाती वाली,
बस बातें दुहरानी हैं
ऊँचे दामों में ख़रीदना,
सत्य मोलना है ।
(३)
आश्वासन, भूखे को न्यौते
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पग-पग पर आहत समझौते
दादी माँ का पान-सुपारी
पिछली पहरी हुआ उधारी
अब घर में हैं सिर्फ़ सरौते
जीवन किसी मुक़दमे जैसा
तारीख़ों पर हैं तारीख़े
चीर गया मन का सन्नाटा
बधिक,कहाँ सुनता है चीखें
काठ मारते बड़े कठौते
घाव हुआ तलवार दुधारी
जनमत,सत्ता और जुआरी
आश्वासन, भूखे को न्यौते
मरा एक रोटी को कोई
पर तेरही पर महाभोज है
उत्सवजीवी इस समाज का
ये कैसा त्यौहार रोज़ है
कैसी पूजा मान-मनौते
उँगली पर गिनता त्यौहारी
ले जाएगा धूर्त पुजारी
भक्तजनों के चढ़े चढ़ौते
(४)
जनतंत्र की प्रस्तावना है
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ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे हैं
ज़ेहन में जंगल घना है
तेज़ खुजली उठ रही है
और खुजलाना मना है
बस वही है देखना
जो भी
दिखाया जा रहा है
मौसमों का भी
यहाँ
पट्टा लिखाया जा रहा है
खिल रहा है कमल
पर अस्तित्व कीचड़ में सना है
बोलना है बस वही,
जो बोलने की,
है इजाज़त
ले रहा है साँस
आक्सीजन बिना
अधमरा भारत
सोच में नफ़रत
मगर होठों सजी सद्भावना है
थक गए हैं लोग,
फिर से
सुर्खरू दिखते सियासी
आपदा में देखती,
अवसर
महामारी-उदासी
फिर चुनावी है फ़िज़ा,
जनतंत्र की प्रस्तावना है ।
(५)
विष बुझी हवाएँ
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नीम अंधेरा
कड़वी चुप्पी
औं' विष बुझी हवाएँ
हुई कसैली
सद्भावों की
वह अनमोल कथाएँ
बचे बाढ़ से पिछली बरखा
सूखे में ही डूबे
'कोमा' में आए सपनों के
धरे रहे मंसूबे
फिसलन वाली
कीचड़–काई
ठगी ठगी सुविधाएँ
मन की उथली
छिछली नदिया
की अपनी सीमाएँ
यह आदिम आतंक डंक सा
घायल हुए परस्पर
अलग अलग कमरों में पूजे
अपने–अपने ईश्वर
चौराहों पर
सिर धुनती हैं
परसों की अफ़वाहें
आज अचानक
जाग उठी हैं
कल वाली हत्याएँ
(६)
कहो सदाशिव
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कहो सदाशिव कैसे हो !
कितने बदल गए कुछ दिन में
तनिक न पहले जैसे हो
खेत और खलिहान बताओ
कुछ दिल के अरमान बताओ
ऊँची उठती दीवारों के
कितने कच्चे कान बताओ
चुरा रहे मुँह अपने से भी
समझ न आता ऐसे हो
झुर्री–झुर्री गाल हो गए
जैसे बीता साल हो गए
भरी तिजोरी सरपंचों की
तुम कैसे कंगाल हो गए
चुप रहने में अब भी लेकिन
तुम वैसे के वैसे हो
माँ तो झुलसी फ़सल हो गयी
कैसी अपनी नसल हो गयी
फूल गए मुँह दरवाजों के
देहरी से भी 'टसल' हो गयी
धँसी आँख सा आँगन दिखता
तुम अब खोटे पैसे हो
भूले गाँव गली के किस्से
याद रहे बस अपने हिस्से
धुआँ भर गया उस खिड़की से
हवा चली आती थी जिससे
अब भविष्य की भी सोचों क्या
थके हुए निश्चय से हो
घर–आँगन चौपाल सो गए
मीठे जल के कुएँ खो गए
टूटे खपरैलों से मिलकर
बादल भी बिन बात रो गए
तुमने युद्ध लड़े हैं केवल
हार गए अपने से हो
चिड़िया जैसी खुशी उड़ गयी
जब अकाल की फाँस गड़ गयी
आते–आते पगडंडी पर
उम्मीदों की नहर मुड़ गयी
अब तो तुम अपनी खातिर भी
टूट गए सपने से हो
सुख का ऐसा उठा फेन था
घर का सूरज लालटेन था
लोकगीत घुट गए गले में
अपना स्वर ही तानसेन था
अब दहशत की व्यथा–कथा हो
मन में उगते भय से हो ।
(७)
ऐसी हवा चले
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काश तुम्हारी टोपी उछले
ऐसी हवा चले,
धूल नहाएँ कपड़े उजले
ऐसी हवा चले ।
चाल हंस की क्या होगी
जब सब कुछ काला है,
अपने भीतर तुमने
काला कौवा पाला है,
कोई उस कौवे को कुचले
ऐसी हवा चले ।
सिंहासन बत्तीसी वाले
तेवर झूठे हैं,
नींद हुई चिथड़ा,
आँखों से सपने रुठे हैं,
सिंहासन- दुःशासन बदले
ऐसी हवा चले ।
राम भरोसे रह कर तुमने
यह क्या कर डाला,
शब्द उगाये सब के मुँह पर
लटका कर ताला,
चुप्पी भी शब्दों को उगले
ऐसी हवा चले ।
रोटी नहीं पेट में लेकिन
मुँह पर गाली है,
घर में सेंध लगाने की
आई दीवाली है,
रोटी मिले, रोशनी मचले
ऐसी हवा चले ।
(८)
धर्म का संकट कहें या धर्मसंकट
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धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
बहुत मुश्किल में फँसी है ज़िन्दगी
हर तरफ़ पहचान खोती रोशनी
ढह रहे हैं क़िले गुम्बद हर तरफ़
बोनसाई हुए बरगद हर तरफ़
आदमी औ ' आदमी के बीच में
खींच दी किसने ये सरहद हर तरफ़
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
नाचती निर्वसन होकर तीरगी
सिर धुने लाचारगी - बेचारगी
पाँव में औ ' जीभ पर छाले पड़े
कौन बोले , शब्द के लाले पड़े
देखने की बात कैसे हो कहीं,
भोर की भी आँख में जाले पड़े
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
हर कहीं है दर्द की रस्साकशी
कील कोई कहीं मन ही में धँसी
सभ्यता के नाम पर है सनसनी
मूर्तियाँ हैं कुछ बनी , कुछ अधबनी
ख़ुशबुओं का नामलेवा कौन हो
हर तरफ़ चलती हवाएँ अनमनी
धर्म का संकट कहें
या धर्मसंकट
रेत की मछली हुई है हर नदी
होंठ सूखे , साँस लेती तिश्नगी
(९)
चलो याद की चाभी से तिथियों के ताले खोलें
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बहुत दिन हुए
अपने से ही कुछ बतियाएँ-बोलें
चलो याद की चाभी से
तिथियों के ताले खोलें
रातों को सूरज देखें
औ' दिन में तारे देखें
बँधी नाव को हिलते-डुलते
नदी किनारे देखें
जागी आँखों सपने देखें,
जागी आँखों सो लें
अलग-अलग सी होली थी वो
और अलग दीवाली
एक डायरी बुला रही है
शायद नब्बे वाली
मिलकर हँसें साथ में,
बीती सी बातों पर रो लें
कुछ ऐसी तरक़ीब करें
मौसम हो जाय सुहाना
नयी-नयी सी धुन पर गाएँ
कोई गीत पुराना
हवा संग भीगें ख़ुशबू में,
धीरे-धीरे डोलें ।
(१०)
हमें अपना वही एहसास होगा
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यक़ीनन ये धरा,आकाश होगा
हमें अपना,वही एहसास होगा
मिलेंगे लोग चेहरे और क़िस्से
मिलेंगे रोज़ इससे और उससे
उजाले लौट आएँगे सुबह के
हमारा घर,हमारे पास होगा
धुआँ होगा,ये मौतों का धुआँ फिर
जगेंगे नींद से मस्ज़िदें-मंदिर
खिलेगी ज़िन्दगी फिर पास अपने
कि फिर ज़िंदा वही इतिहास होगा
कि फिर से बतकही का दौर होगा
गली में आम का फिर बौर होगा
तुम्हें फिर रोज़ देखेंगे नज़र भर
नहीं फिर आँख का उपवास होगा
कि लौटेगा समय फिर क्यारियों में
नहीं होगा कोई बीमारियों में
हँसेंगे फूल मुरझाए हुए से,
महकती साँस में मधुमास होगा ।
(११)
एक अनुभव है नदी को देखना
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एक अनुभव है
नदी को देखना
बोलती,कुछ बात करती है
लहरती,दिन-रात करती है
होंठ से तटबंध छूती है
आँख से बरसात करती है
एक अनुभव है,
नज़र का फेंकना
उठ रही है भँवर सीने पर
मुग्ध है आँसू-पसीने पर
धुंध कुहरे और बादल से,
छन रहा सूरज सफ़ीने पर
एक अनुभव है
समय का सेंकना
पुज रही फिर भी अपूजी है,
पीर कोई नहीं दूजी है
जग रही अनवरत बरसों से
नींद के बिन आँख सूजी है
एक अनुभव है,
विनत-शिर टेकना।
(१२)
गहरी उमस साफ़ कहती है,पानी बरसेगा
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कोई नहीं रेत के घर में
प्यासा तरसेगा
गहरी उमस साफ़ कहती है
पानी बरसेगा
गीत-घरौंदे भरी भीड़ में
आँखें खोलेंगे
चुप्पी साधे हैं जो चेहरे
जीभर बोलेंगे
भूखे बच्चों को यह मौसम
थाली परसेगा
टूट गए सपनों की भी
भरपाई होगी ही
कोई नहीं जियेगा,
ज़िंदगानी आधी-तीही
जागेंगे दालान-बरोठे,
आँगन हर्षेगा
बर्फ़ीले पहाड़ पर भी
पदचिन्ह बनाएँगे
काई का अस्तित्व,
फिसलते पाँव बताएँगे
ख़ुद उधेड़बुन की आँखों को,
सूरज दरसेगा।
(१३)
इस दफ़ा त्यौहार आकर भी नहीं आए
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खिलखिलाती ख़ुशी के
बादल नहीं छाए
इस दफ़ा त्यौहार,
आकर भी नहीं आए
रास्ते भी मिले,
कतराए कटे से
हम कि सुनते ही रहे,
जुमले रटे से
राग छूटे,रंग छूटे,
कौन क्या गाए?
रचा स्वस्तिक,
देहरी पर अनमना
आँख में पानी भरा,
कुछ गुनगुना
बात भी करते नहीं,
हमराज़-हमसाए
क्या दशहरा,क्या दिवाली
और क्या होली
ईद पर भी नहीं दीखीं
सूरतें भोली
सब डरे हैं,
कौन किसके पास अब जाए?
(१४)
इतना तो करो बंधु!
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इतना तो करो बंधु!
अपने से प्यार करो
जीवन तो बीत रहा
तुम बीतो नहीं मगर
साँसों में जगने दो
धूप - दीप , गंध - अगर
इतना तो करो बंधु !
मन को उजियार करो
सोचो तो सपनों की
हर दिशा तुम्हारी है
पर पहले तोड़ो ,
जो नींद की ख़ुमारी है
इतना तो करो बंधु !
सच को स्वीकार करो
मोड़ों पर ठिठके से
सन्नाटे कहते हैं
पोंछ लो क़रीने से
आँसू जो बहते हैं
इतना तो करो बंधु !
रस्ते हमवार करो
क़दम-क़दम,एक नहीं,
सौ-सौ लाचारी है
खुलकर खिल नहीं सके,
सुख की दुश्वारी है
इतना तो करो बंधु!
दुख भी दुश्वार करो ।
- यश मालवीय
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परिचय -
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जन्म : १८ जुलाई, १९६२ को कानपुर में
शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक
कार्यक्षेत्र :
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साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन – प्रमुख रूप से गीत लेखन – पत्र–पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन–दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण– बाल गीत संग्रह "ताक धिना धिन" तथा 'लिये लुकाठी हाथ' प्रकाशित। व्यंग लेखन में भी रूचि ।
प्रकाशित नवगीत संग्रह -
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कहो सदाशिव
उड़ान से पहले
एक चिड़िया अलगनी पर,एक मन में
कुछ बोलो चिड़िया
बुद्ध मुस्कुराए
वक़्त का मैं लिपिक
एक आग आदिम
नींद काग़ज़ की तरह
समय लकड़हारा
रोशनी देती बीड़ियाँ
काशी नहीं जुलाहे की।
सम्मान एवं पुरस्कार-
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‘कहो सदाशिव’ नवगीत संग्रह पर उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के निराला सम्मान से सम्मानित। वर्ष २००० के युवा कव्रिश्रेष्ठ पुरस्कार से मोदी कला भारती मुम्बई का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त। उ.प्र. हिन्दी संस्थान के उमाकांत मालवीय बाल साहित्य सम्मान से भी सम्मानित ।
नवगीत कुल के वारिस, जिनको गीत की मिठास, अभिव्यक्ति की सहजता और देशज शब्दों की विरासत मिली हो तो उनकी लेखनी का दरस-परस पाकर, नवगीत क्यों नहीं जीवन्त होगा! गीतों के शब्द सामर्थ्य कोअपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ अभिव्यंजित करने में समर्थ भाई यश मालवीय जी का "यश" चतुर्दिक प्रकाशित हो रहा है। वर्तमान परिवेश में व्याप्त गुलामी की मानसिकता को स्वर देता नवगीत आदरणीय महेश अनघ जी की याद दिला देता है -- जैसा राजा बोलेगा परजा बोलेगी। और फिर इसकी नियति को बड़ी जिम्मेदारी से कह भी देते हैं- खून चूसते जो,उन पर ही वारी जाएगी,हर उड़ान उड़ने से पहले मारी जायेगी।
जवाब देंहटाएंअन्याय और जुल्मो-सितम के लिए प्रतिरोध के स्वर उनका वैशिष्ट्य रहा है। राजनैतिक परिदृश्य हो या पारिवारिक संदर्भ सभी के कथ्य की व्यंजना पाठक के सम्मुख नवीन सत्य प्रस्तुत करता है। और फिर प्रतीक और टटके बिंबों के सहारे सहजता से पाठक के मन में अपनापन दिखाकर पैठ बना लेता हैं। राजनीति के लिए किये जारहे कुचक्रों पर प्रहार करते हुए कहते हैं- फैलाना अफवाह और दहशत फैलानी है,उड़ा रही टट्टर छप्पर आंधी सैलानी है,घर भरना है और सोने के पंख तौलना है। ये पंक्तियां लिखकर कवि राजनीति के महारथियों के कुत्सित इरादे बताकर आमजन को सतर्क कर देता है।
एक गीत में " अब घर में है सिर्फ सरौते" कहकर हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि की बखिया उधेड़ देता है। मानव की विवशता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा कि तेज खुजली उठ रही है और खुजलाना मना है। अद्भुत व्यंजना है लेखनी में। पृकृति में बढ़ रहे प्रदूषण और मानवीय रिश्तों पर दिखाई दे रहे प्रभाव को अभिव्यक्ति देता गीत अनुपम है मनोरम है। यों तो जीवन परिवर्तन शील है परन्तु जब ये चुभने लगे तो कवि को कलम उठाना पड़ती है और वह कह उठता है -झुर्री झुर्री गाल हो गये, जैसे बीता साल हो गये,भरी तिजोरी सरपंचों की, तुम कैसे कंगाल हो गये। सामाजिक जीवन में घटती समरसता और स्नेह को पुरजोर तरीके से आवाज देती ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ढह रहे हैं क़िले गुंबद हर तरफ, बोनसाई हुए बरगद हरतरफ, आदमी औ'आदमी के बीच में खींच दी किसने ये सरहद हर तरफ। आदरणीय मालवीय जी के गीतों की ये विशेषता है कि पाठक किसी भी वर्ग,जाति,संम्प्रदाय का हो उसे उनमें अपना ही अक्स दिखता है। यही कविता की कविताई है, मनुष्य की नब्ज टटोलने की सिध्दाई है और फैली बीमारी की दवाई है। भाई यश जी इसमें खरे उतरते हैं तब ही जन-मानस में सर्वतोभावेन हैं। लेखनी को सादर प्रणाम। वागर्थ पटल की संपादकीय टीम को साधुवाद सार्थक और सामयिक सृजन से परिचित कराने के लिए सादर आभार।
डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी