शनिवार, 3 जुलाई 2021

दुनिया इन दिनों' में मोहन नागर पर लिखा मोहन सगौरिया जी संस्मरण : प्रस्तुति वागर्थ

 'दुनिया इन दिनों' में मोहन नागर पर लिखा मोहन सगौरिया जी  संस्मरण

चला गया
साहित्य का दुर्वासा : मोहन नागर
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इस वर्ष ग्यारह जून की सुबह न होती तो अच्छा होता। न सुबह होती, न उसके विदा होने की ख़बर मिलती। वह सुबह भी हुई तो सुबह जैसी नहीं थी, एक अंधकार फैल रहा था- उजाले को डसना हुआ। अलस्सुबह से सोशल मीडिया पर मोहन नागर की तस्वीरें और उसकी कविताएँ शाया हो रही थीं- उसके रुख़सत होने की ख़बर के साथ। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा लेखक स्तब्ध और ग़मगीन था। इस ग़म में शामिल होने के लिए मैं तैयार न था। बार-बार लगता था कि कोई आकर कह दे- झूठी ख़बर है, यार!
लेकिन, सच इतने ठोस रूप में अकसर सामने आता है कि उसे चाहे-न-चाहे स्वीकारना होता है। ख़बर फेसबुक पर थी, रोहित रूसिया ने लिखा था- ‘तुम्हें ऐसे नहीं जाना था मेरे दोस्त!’ साथ में मोहन की चिरपरिचित मारू अदा वाली फोटो पोस्ट थी। जैसे कह रहा हो- ‘‘भाई जी, अपन तो खुल्ले सांड हैं।’’
रोहित से मोहन का गहरा राब्ता था। 23 मई को आईसीयू से मोहन ने उसे कविता रूप में दो संदेश भेजे थे। एक में उसने लिखा था-

     अ़भी आख़री पत्ता झरा नहीं
      बाकी है
      अभी बसंत की उम्मीद
      बाकी है।

दूसरे में उसने लिखा था-

     तूफान जिसे उखाड़ चुका था
     कि धाँस दी नई जड़
     और अब नई कोपल।
      ये पेड़ 
     मैं हूँ।
उसकी जीवटता और जिजीविषा से हम सभी मुतमईन थे कि बस अभी-अभी वह आएगा और कहेगा- ‘‘भाई जी, अपना क्या है? डाॅक्टर हैं, लोगों की सेवा करेंगे।’’
डाॅक्टर के पेशे में रहते वह पिछले दो वर्षों से कोविड मरीजों का इलाज भी कर रहा था। दोनों वैक्सीन लगवा चुका था और आश्वस्त था कि इस जंग में वह पूरी मनुष्यता के साथ जीतेगा, मेडिकल साइंस जीतेगा। वैक्सीन लगवाने के बाद उसे कुछ काम्पलीकेशन्स हुए थे जिसके बारे में उसने सार्वजनिक तौर पर लिखा था कि ये वैक्सीन की वजह से है या नहीं कहना मुष्किल है। लेकिन मैं अपील करूँगा कि सब लोग वैक्सीन लगवाएँ, अपने आस-पास सफाई रखें, कीटनाशक का छिड़काव करें, और स्वयं का ख्याल रखें। कोई सरकार आपको बचाने नहीं आएगी। बचाना आपको स्वयं को है।

‘कोई नहीं आएगा’ जैसे खरी-खरी कहना उसका मूल स्वभाव था। चाहे सरकार हो, चाहे मंत्री हो, चाहे कोई तुर्रमखाँ या साहित्यकार हो, जो उसके रडार पर आया समझो-काम खल्लास! वह साहित्य का दुर्वासा था और किसी को बख़्शता नहीं था। कितने ही ऐसे प्रसंग हैं जहाँ वह इकलौता चट्टान की तरह खड़ा दिखता है। ऐसा ही एक वाक़या था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का। तारीख थी- बीस जनवरी दो हजार चौदह। 

‘कविता क्रमश:’ नामक कार्यक्रम में देश भर के लेखक जुटे थे। एक गोष्ठी आयोजित थी जिसमें ‘अपठनीयता’ जैसे कुछ विषय पर विमर्श था। मोहन नागर को भी बोलना था। अन्य वक्ताओं का तो याद नहीं लेकिन उसकी धज कुछ अलग ही थी। किसी नए पुरस्कृत लड़के के विषय में वह बोल रहा था। कुछ देर तो वह संयत रहा फिर उसने सभी को आड़े हाथ लिया। दरअसल पुरस्कृत कवि का जो संग्रह था उसमें अधिकांश कविता कुमार अंबुज की कविता जस की तस छपी थी। मोहन ने निर्णायकों पर सवाल खड़े किए। उसने कहा कि आम तौर पर निर्णायक वरिष्ठ साहित्यकार होते हैं तो क्या वे इतने अपढ़ हैं कि उन्होंने कुमार अंबुज की कविताएँ भी नहीं पढ़ी। दूसरी बात जो मोहन ने कही उससे सारी सभा में सनाका खिंच गया। उसने कहा- अब अपठनीयता के बारे में क्या कहूँ? मैं एक बड़े साहित्यकार के घर से रद्दी में से एक ऐसा संग्रह उठाकर लाया हूँ जिसे इस वर्ष का वागीषश्वरी पुरस्कार मिला।

उसे जब सच कहना होता था तो वह किसी का लिहाज नहीं करता था। ग़लत बात उसे चुभती थी। फेसबुक पर उसकी रचनाओं और टिप्पणियों से जो महरूम रहा, समझो उसने अपना बड़ा नुकसान किया। आशी दुबे की राजेश जोशी वाली एक पोस्ट पर युवा कवि वसंत सकरगाए ने लिखा - ‘‘बड़े मीटर की कविता का प्रस्थान बिन्दु माने जाने वाले राजेश जी मेरे इष्ट कवि हैं। उनके देखा-देखी कई वरिष्ठ, उनके समकालीन और बाद की पीढ़ी ने बड़े मीटर की कविता लिखने की बहुतेरी कोशिश की, मगर लय और प्रभाव को राजेश जी की तरह साधने ने लगभग असफल रहे।’’
इसके जवाब में मोहन नागर ने लिखा- बसंत सकरगाए भाई, आप ये विष्णु खरे दादा के लिए लिखते तो निर्विवाद रूप से स्वीकार होता। देवताले जी के लिखते तो भी। इतने बड़े शब्द न लिखें राजेश जोशी जी के लिए, कि उनके जायज लेखन की हैसियत को आपकी अतिरेकता के चलते उल्टा कमतर ही कर दे। उनकी देखा-देखी वरिष्ठों ने बड़े मीटर की कविता लिखने की बहुतेरी कोशिश की? वरिष्ठों ने? समकालीन और बाद की पीढ़ी भी लिखते तो हजम हो जाता। उनके वरिष्ठों में विष्णु खरे दादा, चंद्रकांत देवताले जी, भगवत रावत दादा ... और भी बहुत से लेखक आते हैं जिन्हें पढ़ते राजेश जोशी ने लिखना सीखा। आप उन लोगों को राजेश जोशी के नीचे रख रहे हैं? उनसे कमतर? ये तक कि उनके ऐसे वरिष्ठ तक राजेश जोशी जैसी कविता लिख नहीं पाए? थोड़ा सोचकर लिखा करें। मैं सबको जानता हूँ और सबका लेखन देखा है। राजेश जोशी से लेकर मंडलोई जी तक, भगवत रावत दादा से लेकर, विष्णु खरे दादा और देवताले जी के शिष्य की तरह भी। इसलिए आज ये आपत्ति! बाकी आप पर।
टिप्पणी करने के बाद उसने तुरंत मुझे फोन लगाया- ‘भाई जी, ये राजेष जोषी भी कैसे-कैसे चूतियों को अपना  शिष्य बना लेते हैं?’
‘क्यों, क्या हुआ?’
‘आशी की पोस्ट पर पढ़ लेना।’
मैं समझ गया कि दुर्वासा का कोप किसी पर फूटा है।
‘अपन तो खुल्ले सांड हैं, भाई जी! अपने लिए तो जैसे राजेश जोशी वैसे ही मंडलोई जी।’ उसने आगे कहा- मंडलोई जी भी अच्छे कवि थे। क्या रेंज थी कविताओं की। वो कविता पढ़ी है आपने? जिसमें माँ अपने बच्चे को दूध नहीं पिला पाती।
‘‘याद नहीं आ रही! क्या कविता है?’’ मैंने कहा।
‘‘एक मजदूरन अपने नवजात बच्चे को घर छोड़कर काम पर जाती है और वह बच्चा भूखा मर जाता है। बाद में वह बच्चे की कब्र पर जाकर अपना दूध निचोड़ती है। बाप रे, क्या कविता है-भाई जी। लेकिन मंडलोई जी अफसरी मेंटेन करने और दूसरी तरह की उलझनों में रह कर अपने कवि के साथ न्याय नहीं कर पाये।’’
मंडलोई जी ने सभी की तरह उसकी तीखी प्रतिक्रिया पर कोई प्रतिकार कभी नहीं किया। इसके दो कारण थे एक तो वह स्पष्ट बोलता था और निःसंकोच बोलता था। दूसरा कारण यह था कि वे अपने रिश्ते का लिहाज भी करते थे। यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली, शायद बहुतों को तो अब भी पता न हो कि मोहन नागर,लीलाधर मंडलोई का भांजा था। ‘सौ बामन, एक भांनेज’ मंडलोई जी के मन में हमेशा यह बात बनी रही। लेकिन, मोहन ने कभी इस रिश्ते को उजागर नहीं किया- न कोई लाभ उठाया। वह अपनी पहचान अपने बल पर बनाने का पक्षधर था। बात यह नहीं थी कि उसे रिश्तेदारियों से परहेज था। लीलाधर मंडलोई को जितनी बार उसने ‘मामा’ न कहा उससे अधिक बार तो वह हरि भटनागर और सुधीर सक्सेना को मामा बुलाता था। जब भी समय होता फोन करता- ‘‘अरे, मामा कोई साहित्यिक टूर बना लो। पिपरिया में रुकना और पचमढ़ी में दाल-बाटी। गोष्ठी की गोष्ठी, आनंद का आनंद।’’
 पिपरिया में मोहन और निष्ठा भाभी ने मिलकर अस्पताल खोला था। कविता की पाठशाला की तरह यहाँ का वातावरण था। दीवारों पर कविताएँ और ‘स्लोगन’। जब भी कोई शिशु अस्पताल में जन्मता वह प्यार और जतन से उसे गोद में लेकर फोटो खिंचवाता। उसे तस्वीर को फेसबुक पर षुभकामनाओं के साथ पोस्ट  करता। नये जीवन का स्वागत कैसे किया जाना चाहिए यह उसके भीतर का चिकित्सक सबको सिखाता था और वह जीवन की सीख देता। साथ ही वह दुनिया के बहुरंगी, बेढंगी, बहुआयामी और कदाचित क्रूर चेहरों को भी सामने लाता।

वर्षों पहले उसने किसी महिला के नाम से फेसबुक पर फेक आईडी बनायी थी। हफ्ते-दस रोज में उसने अपनी ओरिजनल वाॅल पर पर लिखा- आज मेरी महिला आईडी पर साढ़े चार सौ लोगों ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। इनबाॅक्स में शताधिक व्यक्तियों ने प्यार का इजहार किया। सभी लोगों को प्यार भरी चुम्मी! ऐसी ही लगे रहो, लुच्चो! तुम्हीं से मेरा देष महान बनेगा, कमीनो!

इतना ही नहीं उस महिला आईडी से उसने कुछ कविताएँ पोस्ट की। एक वरिष्ठ संपादक पीछे पड़ गए कि मैं आपकी कविताओं पर टिप्पणी लिखूँगा और कविताओं को रेखांकित कर प्रकाशित भी करूँगा। मोहन ने उस कवि-संपादक को भी उज़ागर किया। 

भारत-भवन के प्रकरण में भी जब लीलाधर मंडलोई ने कहा कि यह सब बंद होना चाहिए तब मोहन ने कठोर लहजे में लिखा कि बस, आपके ही कारण मैं कुछ नहीं कहता लेेकिन आप कभी-कभी गलत लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं। भारत भवन द्वारा मध्यप्रदेश के साहित्यकारों की उपेक्षा होती रही- इस बात को उसने सार्वजनिक तौर पर लिखा और मलय से लेकर रोहित रूसिया तक के कवियों की सूची पारित की।
इतना सब करने के बावजूद उसका पढ़ना-लिखना कभी बाधित नहीं हुआ। इधर कुछ दिनों से वह लघुकथाएँ लिख रहा था। तेवर तो वहीं मंटो वाले थे किंतु आकार छोटी कविताओं-सा। साफ़-साफ़ और बेबाक कथाएँ। वेषश्याओं के जीवन पर उसने श्रृंखलाबद्ध लघुकथाएँ लिखें। ‘मदारी’ सीरिज में सत्ताधारियों को बेनकाब करने वाली कविताएँ।

वह कविताएँ लिखता, कहानियाँ लिखता, टिप्पणियाँ लिखता, मित्रों से बतियाता- शेष समय अपने मरीज़ों के साथ बिताता। अप्रैल माह में वह और निष्ठा भाभी कोविड से संक्रमित हो गए इस समय उसने मुझे एक कविता भेजी। 
मैंने मैसेज किया- ‘‘कविता ने मेरी बेचैनी बढ़ा दी है। मैं आपको इसलिए पसंद करता हूँ कि आप सीधे चोट करने में विश्वास करते हैं। सीधी बात, नो बकवास!  लेकिन, इसे कविताई दृष्टि से पढ़ रहा हूँ तो मुझे लगता है कि इसमें अभी संपादन की जरूरत है।’’
‘‘मैंने इसलिए आपको भेजी कि ये कविता नहीं, न लिखने का समय, ख़ासकर मेरे लिए।’’
‘‘मैं नहीं लिखना चाहता भाई जी कविता... डाॅक्टर हूँ, इस वक़्त अपना काम ज़रूरी है। संपादन भी नहीं कर सकता। कोई एक पढ़ ले जो हो चुका। मैं यहीं कर सकता था इस वक़्त जो हो ही गया, बस!’’
‘‘मैं आपकी दुविधा समझ सकता हूँ। कुरुक्षेत्र में ही गीता कही जा सकती है।’’
‘‘आप इसे ड्राॅफ्ट के रूप में ले लें और एक ज़रूरी कविता लिखें, ये कविता आपकी। भले ही चार लाइन जोड़ें और अपनी कर लें जैसे चाहें। यदि आपको लगता है कि ये लोगों तक पहुँचाना ज़रूरी है। मैं आपकी कविता के तौर पर पढ़ लूँगा, इसे।’’
‘‘मैं इसे नहीं लिख सकता। हर कवि का एक मूल तेवर होता है। मैं लिखूँगा तो इसका नाष हो जाएगा, यह आपके तेवर की कविता है।’’
‘‘तो मैं इसे भूल जाता हूँ, फिलहाल ... कब तक ये नहीं पता।’’
वह भूल गया, लेकिन मैं नहीं भूला;  और यह भी नहीं भूल सकूंगा कि वह कविता उसकी अंतिम कविता बन गयी- उस कविता का शीर्षक है- अघोरी!

 भाभी कुछ समय बाद ठीक हो गई लेकिन मोहन के फेफड़ों तक संक्रमण फैल गया। हार्ट और किड़नी की समस्या भी हुई। इतनी तकलीफ झेलते हुए भी वह आशान्वित था कि ज़िंदगी जीत जाएगी। लेकिन, जून के इस दिन बीतते-बीतते वह भी बीत गया। 

जून के दसवें दिन लीलाधर मंडलोई का फोन आया- हाँ, मोहन, कैसा है तू?
‘‘ठीक हूँ, आप बताएँ।’’
‘‘यार, दूसरे मोहन की तबियत ठीक नहीं है। इंफेक्शन ज्यादा फैल गया है और लंग्स सपोर्ट नहीं कर रहे हैं।’’
सुनकर धक्का लगा।
इधर सब उसके स्वास्थ्य को लेकर चितिंत थे। ओम भारती, हरि भटनागर, सुधीर सक्सेना, घनषश्याम मैथिल, कुमार सुरेश, प्रज्ञा रावत, संवेदना रावत, ब्रज श्रीवास्तव, मनोज जैन, राजुरकर राज सहित छिंदवाड़ा के सभी मित्र पल-पल की जानकारी ले रहे थे कि दूसरे दिन जानकारी खबर में बदल गई।

उसकी याद में मित्रों ने अपनी फेसबुक आईडी पर तीन दिन तक उसकी तस्वीर लगायी और उसकी रचनाएँ पोस्ट करके उसे याद किया। यह याद किया कि वह कैसे पल भर में मित्र बना लेता था। 

युग्म और त्रयी बनाने में उसकी गहरी रुचि थी। एक साहित्यिक आयोजन में वह मणि मोहन मेहता के साथ मुझे पकड़कर फोटो खिंचवाने लगा। मेरा विस्मय भाव देखकर बोला- भाई जी, यह युवा कवियों में मोहनों की त्रिवेणी है।

तब किसे पता था कि चंद ही वर्षों में वह त्रिवेणी टूट जाएगी। गंगा, जमुना और सरस्वती के संगम में वह सरस्वती की तरह लुप्त हो गया।

मोहन नागर की अंतिम कविता -

अघोरी

तंत्र के जन पर सम्पूर्ण आधिपत्य के लिए
तांत्रिकों की शरण लेते लेते
एक दिन यूं हुआ
कि चांडालों ने एक दिन 
सबसे बड़े अघोरी को ही हुक्मरान चुन लिया ।

उस अघोरी के गले
सैंकड़ों नरमुंडों की माला थी
जवान आदमी से लेकर बूढ़ी औरत तक की
एक नरमुंड तो ऐसा भी था
जो अजन्मे बच्चे का
जिसे उसके चांडालों ने
एक गर्भवती के पेट से चीरकर
अपनी तलवार पर लहराया था
पर ये तमाम नरमुंड जनता को 
फूल दिखाई देते थे

चांडाल की मुस्कान किसी देवदूत सी
और सबका ये मानना था कि 
ये नरमुंड माल अब प्रबुद्ध हो आया है
जो आते ही ऐसे ऐसे मंत्र फूंकेगा
कि दूध की नदियां बहेंगी
शेर और बकरी एक घाट पानी पिएंगे
रामराज आ जाएगा । 

अघोरी तो फिर अघोरी था
कोई अमृत तो बरसा नहीं सकता था 
सो उसने आते ही सभागार खुदवा डाला
और देखते ही देखते बीच दरबार एक मसान कुंड
और अगले ही दिन 
ऊं हीं क्लीं चामुण्डायै ऊं फट स्वाहा !

मसान कुंड की प्रज्जवित ज्वाला से उठती
मुर्दों की बू पहले से तो दरबार थर्रा उठा
पर शीघ्र ही उनकी बू 
बहुत से सभा सदों को भाने लगी 
कि बचे कुचे भी अब चांडाल हो चले थे !

मुर्दों की बू इतनी मदमस्त 
कि हर मदमस्त सभासद चांडाल अब 
अघोरी का भक्त हो चला था 
जो इस बू से परेशान वे दरबार से बाहर 
जनता की तमाम शिकायतों, मांगों की अर्जियां
बतौर आहूति मसान कुंड में डाली जाने लगीं !

पर एक दिन अनजाने ही मसान कुंड में गिर गया 
एक जीता जागता इंसान
दरबार के गलियारों में उस दिन जो बू फैली
वो अब तक का सबसे अलहदा नशा था
जिसमे अघोरी इतना मदमस्त हुआ
कि उसने आइंदा से आदेश दिया -

अब से हवनकुंड में केवल जिंदा इंसान झोंके जाएं
इस हवनकुंड की आग भड़कती रहनी चाहिए
इसमें रोज किसी जिंदा की आहूति होती रहनी चाहिए !

चांडाल स्वयं इस नई बू की महक में अब
इतने मदमस्त हो चले थे
कि उन्होंने खुद आहूतियां तैयार करनी शुरू कर दी

अघोरी सांझ पकते ही
मादरजात नंगा हो जैसे ही मसान कुंड पर आता 
मसान कुंड पर राल मारते मंत्र जपते -
ऊं हीं क्लीं चामुण्डायै ऊं फट  ..

चांडाल जिंदों को आग में झोंकते दोहराते -
स्वाहा !

इन आहुतियों की बू में
हलाक होते बकरों की मिमियाहट थीं
कहीं परकटे परिंदों की चिक चिकाहट
तो कुछ ...  कभी कुछ भी नहीं
पर कान लगाकर सुनो तो आर्तनाद से लेकर
पार्श्व में तलवार की नोंक पर छिदे 
एक अजन्मे की किलकारी सुनाई देती शायद
गर न गूंज रहा होता परिदृश्य में 
रक्तरंजित तलवार को थामे चांडाल का उद्घोष -
 ऊं हीं क्लीं चामुण्डायै ऊं फट स्वाहा !!!!

पर अब ये बू दरबार से बाहर आ चली थी ...
जो इस बू में मदमस्त हो चले थे
वे चांडाल हो रहे थे

जो इस बू से थर्राए 
वे आहूत होने से बचने का तरीका खोज रहे थे 

और बचने के भागने का जो रास्ता था
वो अब सीधे हवनकुंड को जाता था ।


संस्मरणकार
मोहन सगौरिया

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