गुरुवार, 22 जुलाई 2021

गरिमा सक्सेना की कृति "है छिपा सूरज कहाँ पर" समीक्षक राजा अवस्थी जी के विचार प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


कृति- है छिपा सूरज कहाँ पर (२०१९)

संवेदना से अटे-पटे दृश्यचित्रों की नवगीत कवितायें
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             नवगीत कविता अपनी यात्रा के सातवें दशक में है और इसी अवधि में गद्य कविता ने अपने कई नाम-रूप बदले, किंतु नवगीत-कविता अपने इसी नाम और चुनौतियों के साथ अपने यात्रा-पथ पर अग्रसर रही। इस यात्रा में नवगीत कविता ठीक वैसी ही नहीं रही, जैसे वह डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया या राजेंद्र प्रसाद सिंह के साथ थी। युग बदला, तो कवि का युगबोध भी बदला। कविता की चुनौतियाँ और जरूरतें भी बदली। कविता को देखने-पढ़ने और समझने का दृष्टिकोण भी इन्हीं बदली हुई चुनौतियों और युगबोध के आधार पर स्थिर होता है। गरिमा सक्सेना बिल्कुल युवा नवगीत कवयित्री हैं। इनका पहला नवगीत कविता संग्रह "है छिपा सूरज कहाँ पर" अभी हाल ही में आया है। इस संग्रह की कविताओं को भी इसी बदले समकालीन युगबोध, चुनौतियों और उनकी अभिव्यक्ति के आधार पर देखा-परखा जाना चाहिए। 136 पृष्ठों की इस किताब में गरिमा की कुल 53 नवगीत कवितायें संकलित हैं। 
                    "है छिपा सूरज सूरज कहाँ पर" की नवगीत कविताओं को पढ़ते हुए, जो एक बात स्पष्टतः समझ आती है, वह यह कि गरिमा सक्सेना सजग रचनाकार हैं और अपने आसपास के जीवन, जीवन- स्थितियों, भाव-संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील हैं। यही कारण है, कि इनकी कविताओं में ग्राम्य-संवेदना से अटे-पटे दृश्यों के स्मृति चित्र हैं। इन आत्मीय दृश्य - चित्रों में आ चुके और आ रहे बदलाव के दृश्य-चित्र हैं। इस बदलाव के साथ छीजते आत्मीय सम्बन्धों और भीतर तक पसर रहे एकाकीपन व तद्जनित अवसाद के दृश्य हैं। राजनीति और सत्ता के दोगले चरित्र को अनावृत करने के साथ लगातार अभाव, पीड़ा, संत्रास और उम्मीदों को टूटते देखने को विवश मनुष्य को वे अपनी कविताओं के केन्द्र में रखती हैं। यह सब करते हुए वे जीवन से हरापन गायब होने के बीच समाधान के गीत लिखते हुए समाधान के सूत्र भी देती हैं। उम्मीद और संकल्प का यह स्वर मनुष्य के संकल्प पर कवि के विश्वास को दिखाता है। वे लिखती हैं -
  "अँधियारे पर कलम चलाकर /सूरज नया उगायें /उम्मीदों के पंखों को /विस्तृत आकाश थमायें/.... ............ धूप नहीं लेने देते जो /बरगद के साये /उन्हीं बरगदों की जड़ में हम /जल देते आये /युगों - युगों के इस शोषण की /आओ बदलें रीत ।"
                गरिमा सक्सेना का कवि मन भारतीय संस्कृति के मूल आधार गाँव से इस तरह जुड़ा है, कि वह गाँव के सुख में सुखी होती हैंं और गाँँव के दुख में बेचैन। पारिवारिक-सामाजिक समीकरणों के जिस बदलाव की आहट हमें बीसवीं सदी के छठवें दशक से तीव्र हुए औद्योगिकीकरण और उसके कारण गाँँव के शहर की ओर पलायन के कारण हमें दिखाई-सुनाई पड़ने लगी थी ,वह बदलाव आज अपने विकराल रूप में दिखाई पड़ने लगा है। इतना विकराल, कि वह भीतर तक मनुष्य को तोड़ रहा है । खाली कर रहा है। पहले के पलायन में व्यक्ति गांँव लौटना चाहता था, किंतु पलायन के लिए शापित आज का युवा गाँँव में पीछे छूट चुके माता-पिता को भी महानगर लाकर अपने पलायन में उन्हें भी शामिल कर लेता है। किंतु , इसी क्रम में उन माता-पिता का भी सब कुछ टूट-छूट जाता है ।मुश्किल यह है कि इस यंत्रणा को झेलने के सिवा उनके पास कोई और दूसरा विकल्प बचता नहीं। ऐसी स्थितियाँ गरिमा सक्सेना की नवगीत कविताओं में पूरी आर्द्रता के साथ उतर कर आती हैं। देखें - "अम्मा आँखों की स्याही से /नया नहीं कुछ लिख पाती है/ जब से आई शहर सुआ-सा /रहता है यह मन पिंजर मेंं/........... ठहरी हुई नदी-सी अम्मा बस खुद में ही खो जाती है। अम्मा जिसके स्वप्न गांव में बार-बार अँखुआते थे/शहर हवा के साथ तैर कर/भागे-भागे आते थे/ उन्हें स्वप्न खँडहर पर अम्मा /दीपक रोज जला आती है।"
                   ' है छिपा सूरज कहांँ पर' में संकलित नवगीत कविताओं से गरिमा, जिस सूरज की तलाश में निकली हैं, वह सूरज स्त्री-अस्मिता का भी है और उस अस्मिता को चोट पहुँचाने वाले चेहरे को अनावृत करने वाले और अस्मिता रक्षा  के लिए खड़े रहने वाली जीवटता का भी है। पुरुष सत्तात्मक समाज में पूरी ताकत से दखल देती स्त्रियों का स्वर बनकर गरिमा पूरी पुरुष सत्ता को कटघरे में खड़ा कर देती हैं। देखें - 
     "सिसक रहीं मन की इच्छाएँ/ सपने सभी जले/          हम बागों के फूल जिन्हें खुद /माली ही मसले /.        नर-गिद्धों के सम्मुख हम सब /बस मांसल                  टुकड़े।" 
                   इतना ही नहीं, वह यह भी कहती हैं, कि वह हमीं हैं, जो प्रतिरोध खड़ा कर सकती हैं। वे अपने समकालीन स्त्री- समाज को एक तरह से ललकारते हुए उससे प्रश्न करती हैं, कि इस प्रतिरोध के लिए यदि हम नहीं, तो फिर कौन आएगा? यहीं वे यह भी समझती और कहती हैं, कि हमें तो बस! सत्ता तक पहुँचने के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया गया है, किंतु अब हमें इसका प्रतिरोध करना है। वे लिखती हैं - 
   "सत्ता-सुख की पृष्ठभूमि हम /बनकर सिर्फ रहे/          प्रश्नों के दावानल में हैं /उत्तर रोज दहे /हम बिन          आखिर प्रतिरोधों के /अक्षर कौन गढ़े।" 
          इस तरह हम गरिमा सक्सेना को पूरे विश्वास और साहस के साथ प्रतिरोध के लिए आमंत्रण देते हुए पाते हैं।
      " ढूँढ़ते हैं /है छिपा सूरज कहाँ पर /कब तलक            हम बरगदों की छाँव में पलते रहेंगे/ जुगनुओं
       को सूर्य कहकर /स्वयं को छलते रहेंगे /चेतते हैं         /जड़ों की जकड़न छुड़ाकर।....... चीखते हैं /.          आइए संयम भुलाकर।...... तोड़ते हैं /स्वयं पर           हावी हुआ डर।" 
                   गरिमा सक्सेना जिस समय और समाज में रह रही हैं, उसके कई-कई चेहरों में एक चेहरा प्रकृति का मानवकृत विनाश, जीवनदाई जलस्रोतों, नदियों की दयनीय दशा एवं लगातार प्रदूषित हो रहे समूचे पर्यावरण का है, तो दूसरा चेहरा उन जीवन स्थितियों का भी है, जहाँ सत्य की पूछ परख नहीं है, झूठ ही प्रतिष्ठित किया जा रहा है। जरूरी मुद्दों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए हंगामा खड़ा किया जाता है। लाखों भूखे पेटों के बीच हजारों टन सड़ता हुआ अनाज है! आश्वासन का ऐसा छद्म गढ़ा जाता है, कि सारा जन-मन चुप हो जाता है। ये केवल समाज की ही स्थितियाँ नहीं है, अपितु इनका भोक्ता होने के कारण ये मनुष्य की भी जीवन स्थितियाँ हैं। और इन जीवन स्थितियों को गरिमा पूरी नवता, मौलिकता और आधुनिकता से भरकर कविता में व्यक्त करती हैं। उनकी यह नवता युगबोध से भरी और भाषा के स्तर पर भी दिखाई पड़ती है। उनकी कविताओं में ज्ञानात्मकता संवेदना से सम्पृक्त होकर आती है। 
     "इस दुनिया को कब भायी है/ मन पर कोई क्रीज। जीवन के सच  दिखलाते हैं /दाग पड़े गहरे /मगर बने प्रोफाइल पिक्चर/ दाग-मुक्त चेहरे/पतझड़ बीता लेकिन मन ने /बदली नहीं कमीज। चटक-मटक कवरों के नीचे/ बिकी पुरानी चीज।............ चुप रहना-सहना सिखलाया /ओढ़े रहे कमीज़। "
                  यद्यपि यहाँ कुछ शब्द हिंदी के नहीं हैं, तथापि इनके प्रयोगों से संप्रेषणीयता और नवता दोनों ही बढ़ी हैं। किंतु, इस तरह के प्रयोग अधिक नहीं करना ही ठीक होगा। एक पंक्ति और देखते हैं - 
  " कैसे मानें सत्य, ट्रेंड में जब जुमला है। "इस तरह के अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग भाषा को विकृत करते हैं। इनसे बचना चाहिए। इस तरह के शब्द प्रयोग तब तक नहीं करना चाहिए, जब तक ऐसा करना अनिवार्य न हो। 
                    हमारे समय का एक बड़ा सच यह है, कि जो हमारा अन्नदाता है उसके बारे में अच्छी नीयत से कोई नहीं सोचता। न वह, जो उसके उगाये अन्न, फल, सब्जी से अपना पेट भरता है और न वह, जो उसकी उपज से अपनी तिजोरी भरता है। उसकी त्रासदी इतनी बड़ी है, कि उसका ठीक-ठीक अनुमान भी नहीं है। वह इसे सह नहीं पा रहा और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। गरिमा इस बात को इस तरह कहती हैं -
 "इस सूखे में बीज न पनपे / फिर जीवन से ठना युद्ध है। पिछली बार मरा था राजू /हल्कू भी झूला फंदे पर /क्या करता इक तो भूखा था/ दूजा कर्जा भी था ऊपर /घायल कंधे मन है व्याकुल / स्वप्न पराजित समय क्रुद्ध हैं।" 
                 गरिमा सक्सेना की नवगीत कविताओं में गाँव बार-बार आता है। उन्नति के नाम पर गाँव की पहचान समझी जाने वाली निश्चल आत्मीयता का खो जाना, आम-पीपल के पेड़ों का कट जाना, हेलमेल की जगह आपसी मनमुटाव, लड़ाई-झगड़े के दृश्य उन्हें क्षुब्ध करते हैं। यह सब अधिकाधिक भौतिक समृद्धि की अंधी लालसा के कारण हो रहा है। तो इस तकनीकी युग या कहें माइक्रो तकनीकी समय में जी रही पीढ़ी के सपनों में रुपये कमाने की लालसा और भौतिक सुविधाओं के उपभोग की भूख ने कब्जा जमा रखा है। फलतः इस पीढ़ी की दिनचर्या ऐसी हो गई है, कि उनकी जिंदगी किसी कैदी की तरह हो गई है। दिन- रात सिर्फ काम! काम! और काम! अपने लिए और अपने संबंधों के लिए वक्त ही नहीं बचता। इस कारण अवसाद जैसी कई समस्याएँ इनके जीवन में आम हैं। गरिमा इस समस्या को बड़ी सहज भाषा और लहजे में कहती हैं। 
     "दौड़ रहे धन की चाहत में /बने वक्त के बंदी हम। ओले, धूप व बारिश पहली /भूले उन स्वादों को चखना /दिन कैदी  ए. सी. कमरों के /कब देखा सूरज का ढलना/पैरों तले सुकून रौंदकर /छूने चले बुलंदी हम।संडे से कुछ वक्त चुरा कर/ रिश्तो की करते तुरपाई /जैसे तैसे जोड़ गाँठ कर /खुशियों की करते भरपाई /अवसादों पर लगा न पाये /फिर भी क्यों पाबंदी हम। "
                  गरिमा की कविता में आया सत्य अनुभूत सत्य है, इसीलिए वे छोटी-छोटी बातों पर गहराई से और सहजता से लिख पाती हैं। इस अनुभूत सत्य में व्याप्त करुणा का एक और नवगीत देखें - 
    " दफ्तर के चक्कर काट-काट /टेंशन में रहते बाबूजी। है पता नहीं कुछ फाइल का/ हो गए रिटायर साल हुआ /जो हाथ में आए विक्रम के/ पेंशन ऐसा बेताल हुआ/ नित नये अड़ंगे दुत्कारें /क्या - क्या ना सहते बाबूजी।" इस नवगीत को पढ़ते हुए बरबस परसाई जी की कहानी 'भोलाराम का जीव'  साकार हो उठती है। 
                   संघर्षशील समाज भी इस व्यवस्था में निरूपाय होकर अभाव, पीड़ा और संत्रास सहना ही अपनी नियति मान लेता है।" जितना है उतने में ही बस /मन को समझाना। चुप रह रोज देखते ढहते साहस की दीवार।" हमारे समय में भूख, बेरोजगारी, महंँगाई, भ्रष्टाचार, अन्याय-अत्याचार, पीड़ित किसान, शोषण आदि जितनी समस्यायें हैं, उन सभी को गरिमा अपनी नवगीत कविताओं का विषय बनाती हैं। कलाकार, कवि, सृजनधर्मी मन सदैव लोकमंगल की ही कामना करता है। उसके  सृजन का उद्देश्य भी यही होता है। गरिमा सक्सेना भी इसी लोकमंगल की कामना से भरी हुई हैं। तभी तो वह लिखती हैं-
     " तेल भरे सबके दीपक हों/ छा जाये हर ओर उजाला। सभी वर्ग के लिए खुशी हो /हटे सुखों से दुख का ताला।"  और
     "कब तक हम दीपक बालेंगे/ हमको सूर्य उगाना होगा। पीड़ाओं में प्रतिरोधों का /स्नेहिल लेप लगाना होगा। मन की आँच रहे ना मन में /हमको तन  सुलगाना होगा।" इनके नवगीतों की भाषा बिल्कुल आम है। लोक के शब्दों के प्रयोग हैं तो, किन्तु वे भी इस तरह आए हैं कि किसी भी बोली-क्षेत्र के पाठक को अपने ही लगेंगे। वे जिस भाषा को रोज बरतती हैं, उसी में लिखती हैं। उसी में जीती हैं। सूर्य उगाने की अभिलाषी कवयित्री गरिमा सक्सेना का यह 'है छुपा सूरज कहाँ पर' नवगीत कविताओं का संग्रह अपने नवगीतों के कथ्य शिल्प, भंगिमा, लय, प्रवाह, युगबोध व सहज-सरल भाषा के बूते अवश्य ही पढ़ा, गुनगुनाया और सराहा जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है। उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। बधाई।



राजा अवस्थी
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पिता - पं. दर्शरूप अवस्थी 
माता - श्रीमती गंगा देवी 
जन्म - 4 अप्रैल 1966
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी साहित्य), शिक्षा स्नातक
व्यवसाय - मध्यप्रदेश स्कूल शिक्षा विभाग में शिक्षक /प्रधानाध्यापक /जिला स्रोत व्यक्ति हिन्दी

लेखन - नवगीत एवं अन्य काव्य विधाओं में 

प्रकाशन - 'जिस जगह यह नाव है' नवगीत संग्रह का अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशन सन् 2006 एवं 
लगभग सभी महत्वपूर्ण समवेत नवगीत संकलन
यथा - नवगीत नई दस्तकें (संपादक - डाॅ. निर्मल शुक्ल), गीत वसुधा (संपादक - नचिकेता), समकालीन नवगीत कोश (संपादक - नचिकेता),
नवगीत के नये प्रतिमान, नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध, नवगीत का मानवतावाद (संपादक - डाॅ राधेश्याम बंधु), सहयात्री समय के (संपादक - डाॅ. रणजीत पटेल) सहित कई और समवेत संकलनों एवं नवगीत विशेषांकों में नवगीत संकलित। 

सन् 1986 से पत्र - पत्रिकाओं में कविताओं एवं आलेखों का प्रकाशन 

आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल के साथ स्थानीय चैनलों पर कविताओं का प्रसारण 

सम्मान - कादम्बरी साहित्य परिषद जबलपुर का अखिल भारतीय नवगीत सम्मान - निमेष सम्मान 2006(नवगीत संग्रह जिस जगह यह नाव है 'के लिये), 
प्रतिष्ठित किस्सा-कोताह नवगीत सम्मान 2020, इनके अतिरिक्त और भी कई संस्थाओं द्वारा सम्मान किन्तु विशेष उल्लेखनीय नहीं। 
विशेष - यूट्यूब पर 'नवगीत धारा' श्रृंखला अंतर्गत नवगीत पर चर्चा 

सम्पर्क - 
गाटरघाट रोड, आजाद चौक, कटनी 
483501, मध्यप्रदेश 
मोबा 9131675401 
Email - raja.awasthi52@gmail.com


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