सोमवार, 26 जुलाई 2021

कैलाश मनहर के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग



                                    कैलाश मनहर 

             स्वामी मुहल्ला,मनोहरपुर(जयपुर-राज.)

                            मोबा.9460757408



(एक) 

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भोग-लोभ के अंध-कूप में,

जान-बूझ कर मरना भी क्या ?


कब तक सहन करें,झूठों को,

सच कहने से डरना भी क्या ?


अपने पर्वत,अपनी नदियाँ, 

अपनी धरती,अपने जंगल I

पर विकास का कपट-ढोंग रच, 

ऐश करे धनपति-शासक दल II 


प्रकृति को ही नष्ट करे जो, 

उस विकास का करना भी क्या ?


सब संसाधन गिरवी रखकर, 

जो पूँजी निवेश करवाये I

उस शासक का क्या यक़ीन यदि, 

देश समूचा बेचे खाये II 


पराधीन बन खाना-पीना, 

सजना और सँवरना भी क्या ?

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(दो) 

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पावस रूप सरूप पिया का |


गगन घटा चढ़ आये मेघा 

भाग जगा कुछ लिया-दिया का ||


धरती ओढ़े धानी चूनर,

बूँदें डाल रही हैं घूमर |

हुलस रहा गौरी का तन-मन,

हरियाली को आँखों में भर ||


स्वाद मधुर-सा लागे अब तो,

कच्ची कच्ची-सी अमिया का ||


मकई बीज दी है धरती में,

चाही अनचाही परती में ||

करे निराई साजन के संग,

रिमझिम-सी बारिश झरती में ||


उमग रहा जोबन अरु बंधन,

कसमस करे हाय अँगिया का ||


पावस रूप सरूप पिया का |


हहराती आई है नदिया,

उमग रहा है मन रसिया का ||

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(तीन) 

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कंक्रीट के  

भर जंगल में,

नदी ढूँढ़ता है 

इक पागल ||


गलियाँ संकरी 

लोग हैं चौड़े |

हर कोई 

जल्दी में दौड़े ||

पथिक भटकता 

किससे कोई, 

अन्तर्मन का 

नाता जोड़े ||


चल रे मन 

चल कहीं और चल||


सूनी छतें 

धूप है तीखी |

जन-जिजीविषा 

कहीं न दीखी ||

प्रेम प्रतीक्षा 

भी लगती है,

दह-दह दहकी 

ज्वाल सरीखी ||


निकल गये 

बिन बरसे  बादल ||

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(चार) 

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तुम ही मेरे भीतर हो और

तुम ही मेरे बाहर भी हो

तुम ही मेरे अपने हो और

तुम ही साफ़ पराये भी हो


ओ मेरे मन!


भीतर हो लिप्साओं में ईमान ढूँढ़ते

बाहर हो सुविधाओं का सामान ढूँढ़ते

मेरे हो तो मुझको ही सुख-देते हो

और पराये हो कि याद उनको करते हो


ओ रे जीवन!


बहुत बुरे हो तुम कि बहुत पीड़ायें दी हैं

किन्तु तुम्हारे संग बहुत क्रीड़ायें की हैं

बार बार थकता हूँ और हार जाता हूँ

किन्तु प्रयत्नों से भी कहाँ पार पाता हूँ


ओ मेरे धन!


शब्द कमाये हैं उनसे ही कोष भरा है

स्वप्न कमायें हैं उनसे संतोष भरा है

जो भी जग से मिला उसे सहता आया हूँ

अपने जन की बात सदा कहता आया हूँ


चाहता हूँ बस साहस बना रहे इतना-सा

मू्ल्यांकन कर सकूँ स्वयं का मैं जितना-सा

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(पाँच) 

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टूटा दर्पण

टूटा है मन

टूटा सपनों का सांझापन |

किन्तु बचाये रखना

साथी! 

अपने भीतर का संवेदन ||


उनका काम घृणा फैलाना

अंधास्था के छद्म-जाल से |

किन्तु सचेत बने रहना तुम

शैतानों की हर  कुचाल से ||


धर्म  औ" मज़हब

ख़ुदा,  राम,  रब

हरा-भरा रक्खें मन-आँगन |

सदा बनाये रखना

साथी! 

अपने भीतर  का  संवेदन ||


राजनीति  ने  किया धर्म से

जब भी अपवित्र  गठबंधन |

वैमनस्य  फैला  समाज  में

लोकतंत्र  करता  है  क्रन्दन ||


जन-मन में भय

मेल-जोल   क्षय

आपाधापी में जन-जीवन ||

संभल बनाये रखना 

साथी! 

अपने भीतर का संवेदन ||

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(छह) 

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झूठी सौगन्ध उठाते हैं

पाखण्डी बात बनाते हैं 

अँधास्था फैलाते हैं जो

ज़हरीली फसल उगाते हैं


जो बात बात पर देश का सिर

दुनिया में झुकाते आये हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा


जो तलवारें लहराते हैं

मंदिर-मस्ज़िद को ढहाते हैं

मुँह पर है झूठा राम-नाम

जो छुप कर छुरी चलाते हैं 


मिट्टी में मिला कर मानवता

जो हत्यायें करवाते हैं

वे बेशर्मी से कहते हैं 

यह देश नहीं झुकने दूँगा


जब लालकिला तक गिरवी है 

गिरवी हैं रेल्वे स्टेशन

गिरवी हैं हवाई अड्डे तक

है लोकतंत्र भी मरणासन्न 


चुपचाप विदेशी बैंकों में

जो सोना गिरवी रखते हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं बिकने दूँगा


करते रैलियाँ चुनावी जो

और भीड़ इकठ्ठी करते हैं 

अपने वोटों के लालच में

जो महामारी फैलाते हैं 


अपनी अधकचरी भाषा से 

औरों की हंसी उड़ाते हैं 

जो भेष बदल कर बार बार

बहुरूपी स्वाँग रचाते हैं

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा 


जो राम के हैं ना अल्लाह के

न गंगा के न यमुना के 

जो विश्वनाथ की काशी में

अपनी जय-जय बुलवाते हैं


जो हर हर महादेव को तज

अपनी हर हर करवाते हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा 


जनता इनका सच जान चुकी

इनका चरित्र पहचान चुकी

ये हैं दलाल धनपतियों के

सारी दुनिया यह मान चुकी


सब लोग कह रहे साफ़-साफ़

अब नहीं करेंगे इन्हें माफ़


अब इन्हें तनिक भी देश में हम

अन्याय नहीं करने देंगे 

इस देश की आज़ादी को हम

ख़तरे में नहीं पड़ने देंगे

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(सात) 

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गड़बड़,सड़बड़,बड़बड़ मत कर

बातें मत कर,घसड़-फसड़ तू |

मेरी छाती क्यों छीले है,

जा ज़ुल्मी का गला पकड़ तू ||


हिन्दू-मुसलमान में बाँटे 

जति-धर्म-ईमान बखाने |

गाय-भैंस और ऊँट-गधे के

प्राणों में भी अन्तर माने ||


झूठी-सच्ची ज़ुमलेबाज़ी

तड़ीपार की धमकी-बोली ||

खट्टन की षड्यन्त्री चालें

सड़कों पर हैं गाली-गोली ||


चरड़-चरड़ सुन लोकतन्त्र की

बन थोड़ा,अग्गड़ तग्गड़ तू |


बेरुजगार बाप-बेटे की

घर-घर में हर रोज़ लड़ाई ||

सभा-सम्मिलन में शासन की

भक्त करें लयबध्द बड़ाई ||


प्राणवायु बिन मर रही जनता

लाशें गंगा की लहरों पर |

हैं लाखों किसान आँदोलित 

असर नहीं होता बहरों पर ||


बना रहे कानून ये काले

मनमर्जी करता है शासन |

जीडीपी पाताल पहुँच गई

निर्धन को मिलता नहीं राशन ||


राजनीति के इस कबाड़ में

बना है जर्जर लोह-लक्कड़ तू |

मुरझा चुका कमल तो कब का

दुर्गंधित कीचड़ में सड़ तू ||


ऊपर से सलवारी बाबा

बना हुआ सरकारी दल्ला |

फैला कर बेबात वितण्डा

मचा रहा पाखण्डी हल्ला ||


देश-भक्ति की बजी डुगडुगी

जय-जय,जय-जय,बम-बम गूँजे ||

घास छीलते हैं घसियारे

भाड़ झोंकते हैं भड़भूँजे ||


झूठी खड़-खड़,भड़-भड़ मत कर

सच के हक़ के ख़ातिर अड़ तू ||


मुझ से पंगा क्यों लेता है

हिम्मत कर गुण्डों से लड़ तू |

मेरे पथ का काँटा मत बन

सत्ता की आँखों में गड़ तू ||


सिर्फ़ हवा में फड़-फड़ मत कर

धरती की भी सुन धड़-धड़ तू |

माला में गुँथ कर मत इतरा

शूलों को भी दिखा अकड़ तू ||


फिर भी यदि डर लगता है तो

भग,दल्लों के पाँवों पड़ तू |

ला,दे मेरी सुल्फ़ी-साफ़ी

फूट,सा'ब की चिलम रगड़ तू ||

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(आठ) 

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आते जाते  बात बनाते 

घाट घाट पर  शीश नवाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये II 


अरुणिम स्वस्तिक चिह्न रचा कर 

मंगल मंत्र  बहुत उच्चारे I

यश-धन की लिप्सा में लिथड़े 

पड़े रहे  देवों के द्वारे II 


गिनते चुनते  कहते सुनते 

देहरी देहरी  फूल चढ़ाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||


पथ पर श्रीफल भी तोड़ा और

नींबू मिर्ची  भी लटकाये |

दिशाशूल भी  वाम रखा और

मिश्री मेवे  भी बंटवाये ||


शुभ मुहूर्त पर  प्रदक्षिणा कर

सारे रीति-रिवाज़  निभाये |

औने पौने  औछे बौने

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||


झूठों की  विष-बेल  बढ़ाई 

सुख-सुविधा हित  पचते पचते I

सिद्धान्तों को  रखा ताक पर 

संघर्षों से  बचते बचते II 


जोड़ तोड़ कर  भाग दौड़ कर 

पकड़ रहे  सत्ता के पाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||

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(नौ) 

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बादल बरसें जन मन हरसें

जीवन में आशायें सरसें


बाट जोहतीं अँखियाँ अनथक बरसो रे |


कड़कड़ गड़गड़ घरड़ घरड़ घर |

सपट सड़ाका धूम धड़ाका

दमक-दामिनी दिवस-यामिनी

जल-थल थल-जल एकमेक कर ||


पेड़ पात हो जायें लकदक बरसो रे |


नदी नाल सब लहर उफनतीं |

सर-तड़ाग डबरे सब भरतीं

तटबंधों को तोड़ वेग से होड़ लगें ज्यों 

चहुँदिशी हो जलराशि उमगतीं ||


मिटें लोक के सारे पातक बरसो रे |

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(दस) 

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गर्जन-तर्जन ही मत कर हाँ बरस

बरस कुछ और ज़ोर से |


मैदानों में बरस 

खेत में बरस 

मरुस्थल में भी जा |

वन-बीहड़ में 

तृषित भटकते

मृग-छौनों की 

प्यास बुझा ||


सूखे में हरियाली ले आ

खुशियाँ लहकें पोर पोर से |


बरस बरस कुछ और ज़ोर से ||


बरस गाँव और

ढाणी-ढाणी 

बरस नगर हर बस्ती में |

मिट जायें 

सारे अभाव और

जन-जन झूमें 

मस्ती में ||


धरती के आँचल में उपजें

हर्षित अंकुर नव-नकोर-से |


बरस बरस कुछ और ज़ोर से ||

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(ग्यारह) 

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हम नहीं तो काहे के तुम शाह जी


राज कर लो भींतड़ों पर

हर तरफ़ ड्योंडी पिटा दो

सच कहणिये सब जनों को

ज़मीं पर से ही मिटा दो 


अँधभक्तों से बुलाओ हर बखत वाह वाह जी


हैं भले सरकार यह जैकार

बुलवाओ खुशी से

बेच सारा मुल्क मस्ती में इसे

खाओ खुशी से


मत सुनो मरते गरीबों की तनिक भी आह जी


हैं अभी ये लोग सोये

चाहे जितना लूट लो तुम

इनको आपस में लड़ा कर

चाम इनकी च्यूँट लो तुम


जग गई जिस दिन ये जनता तो तुम्हें फिर

भागने की भी नहीं मिल पायेगी कुछ राह जी

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(बारह) 

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डर लगता है

प्रधान जी की

खँजर-सी चुभती आँखों से

डर लगता है


डर लगता है

मंत्री जी की

खुल कर दी जाती धमकी से

डर लगता है


डर लगता है

मुखिया जी की

बदला लेने की बातों से

डर लगता है


डर लगता है

प्रवक्ताओं के

बात बात पर हर कुतर्क से

डर लगता है


डर लगता है

अभिनेत्री के

झूठे पाखण्डी अभिनय से

डर लगता है


डर लगता है

पुलिस-फौज के

कीलित बूटों की धम धम से

डर लगता है


डर लगता है

छुटभैय्यों की

लाठी गाली और गोली से

डर लगता है


डर लगता है

कभी किसी दिन

जनता उनसे नहीं डरेगी

उनको भी तो

डर लगता है

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(तेरह) 

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विस्मृतियों  के  बीहड़  वन में, 

स्मृतियों का   पथ   ढूँढ़  रहे हैं ||


रहे    संधियों   से   आशंकित, 

संघर्षों    पर   किया    भरोसा |

हमने  अपनी थाली  में  खुद,

पीड़ाओं   का   गरल   परोसा ||


कह न सके जो  कहना चाहा, 

शेष वह   अकथ   ढूँढ़   रहे हैं ||


सिध्दान्तों के प्रति  संकल्पित,

रहे   जूझते   तिमिर-काल   में ||

समता-स्वप्न नहीं  फँस  पाया,

विषम जगत के  छद्म-जाल में ||


छूट गया  जो जीवन-रण   में, 

वह    टूटा   रथ   ढूँढ़   रहे  हैं ||

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(चौदह) 

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बिन  नदियों  के  पुल बनते हैं

सड़कें  बनतीं . पेड़  काट कर |

खेत  छीन कर  बने  कम्पनी

सत्ता  मिले  समाज  बाँट  कर ||


गौरक्षा   के  नाम  पे  की  हैं,

जाने    कितनी    ही   हत्यायें |

ढूँढ़   रहीं   खोये   बेटों   को,

कई    नज़ीबों    की   अम्मायें ||


अँधास्था   यूनिवर्सिटीज   में,

फैलाने . .का   लिये  लक्ष्य  वे |

छात्र-युवाओं  के  स्वप्नों   को,

बना   रहे   प्रतिशोध  भक्ष्य वे ||


झूठ  बोल  कर  राज करें  वे,

नोट  बंद   कर   खुशी  मनावें |

जनहित में वे टैक्स  लगा कर

जनता . को  नित मूर्ख  बनावें ||


बोलो  तो  ऐसे   विकास  को

कैसे    समझदार  मानें    हम |

घी  बेचे   और   तैल   खरीदे,

भला उसे  क्या  पहचानें  हम ||


बेरुजगार   युवाओं को   अब

नहीं  आ रहा  क़तई  रास यह |

मूर्ख  लग रहा है  विकास यह,

पागल लगता है विकास  यह ||

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(पन्द्रह)

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खिले हुये हैं मनोभूमि पर

पीले फूल उदासी के |


यह आश्विन की धूप,स्मृतियाँ 

चमक रहीं हैं हर पादप पर |

निखर रही भादों की बारिश, 

दिन की कड़ी धूप में तप कर ||


रेत भरी है नदी किन्तु हैं

गीले कूल उदासी के ||


इस जंगल में से जाती हैं,

महानगर तक जो भी राहें |

कभी खुशी से आँखें चमकें,

कभी हृदय से निकलें आहें ||


मीठा-मीठा दर्द दे रहे

चुभते शूल उदासी के ||

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(सोलह) 

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अँधास्था में डूबे रह कर 

कहो मुबारक आज़ादी |

ज़ुल्म-ओ-तानाशाही सह कर 

कहो मुबारक आज़ादी ||


उनकी जुमलेबाजी सुन कर 

कहो मुबारक आज़ादी |

प्रतिपल अपना सिर धुन-धुन कर 

कहो मुबारक आज़ादी ||


रुपया सत्तर पार हो गया

कहो मुबारक आज़ादी |

पम्फलेट अखबार हो गया

कहो मुबारक आज़ादी ||


टी.वी. चैनल हैं ग़ुलाम सब

कहो मुबारक आज़ादी |

सच्चाई प्रतिबंधित है अब

कहो मुबारक आज़ादी ||


मची हुई है हाहाकारी

कहो मुबारक आज़ादी |

बढ़ती जाये बेरुज़गारी

कहो मुबारक आज़ादी ||


कट्टर हत्यारों से घिर कर

कहो मुबारक आज़ादी |

गटर गर्त में गहरे गिर कर

कहो मुबारक आज़ादी ||


छद्मी राष्ट्रवाद में फंस कर

कहो मुबारक आज़ादी |

दुर्गंधित दलदल में धंस कर

कहो मुबारक आज़ादी ||


महामारी से मरते मरते

कहो मुबारक आज़ादी |

संभल संभल पग धरते धरते

कहो मुबारक आज़ादी ||


निर्धन जन का निशिदिन शोषण

कहो मुबारक आज़ादी |

धनपतियों का होता पोषण

कहो मुबारक आज़ादी ||


नष्ट हुई निजता की गरिमा

कहो मुबारक आज़ादी |

गाओ बस सरकारी महिमा

कहो मुबारक आज़ादी ||

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(सत्रह) 

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उथले उथले से जीवन का

तल जाने है कहाँ अतल में ?


चेहरा तो निश्चिन्त किन्तु है

मन में चिन्ताओं का डेरा |

उड़े उड़े-से मन पाखी को

सदा चाहिये नीड़ बसेरा ||


कल की आशा संजो रहे हैं

सब अपने इस आज विकल में ||


धरा-गगन के बीच हमेशा

साँसों की सरगम बहती है |

संवेदित शब्दों में भाषा

अपने सब दु:ख-सुख कहती है ||


शमन कर रहे हैं काया का

स्वप्न लोक के दावानल में ||

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(अठारह)--स्वयं के बारे में

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फिर पाँवों में चप्पल पहनी, 

फिर बाज़ार चले मनहरिया I

लगे आज भी वैसे ही वे, 

जैसे थे पहले मनहरिया II 


उस गुमटी पर बीड़ी पी कर,

मंदिर में लेटे अध-घण्टे I

चिलम मण्डली में कश खींचे,

भूल गये घर के सब टण्टे II 

हरेक बात पर ठोकें अक्सर,

नहले पे दहले मनहरिया II 


अज़ब उमर है,गज़ब ज़िन्दगी,

अज़ब-गज़ब हैं बातें इनकी I

दिन जैसे ठेंगे पर बैठा, 

और ठोकर में रातें इनकी II 

सुबह पीर, दोपहरी फक्कड़,

जोगी शाम ढले मनहरिया II 


राजनीति और अर्थ-तन्त्र में, 

लापरवाह रहे जीवन भर I

चलते रहे डगर पनघट की,

समगति, समलय संभल-संभल कर II 

खुद की ख़ातिर बहुत बुरे हैं, 

सब के लिये भले मनहरिया II


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