1
दुनिया जादू- मंतर की
भैया रे! ओ भैया रे!
है दुनिया जादू- मंतर की।
पार समंदर का जादूगर
मीठा मंतर मारे
पड़े चाँदनी काली, होते
मीठे सोते खारे
बढ़ी- बढ़ी जाती गहराई
उथली धरती खंतर की।
अपनी खाते- पीते ऐसा
करे टोटका- टोना
कौर हाथ से छूटे, मिट्टी
होता सारा सोना
एक खोखले भय से दुर्गत
ठाँय लुकुम हर अंतर की।
उर्वर धरती पर तामस है
बीज तमेसर बोये
अहं- ब्रह्म दुर्गंधित कालिख
दूध- नदी में धोये
दिग-दिगन्त अनुगूँजें हैं
मन काले- काले कंतर की।
पाँच पहाड़ी, पाँच पींजरे
हर पिंजरे में सुग्गा
रक्त समय का पीते
लेते हैं बारूदी चुग्गा
इनकी उमर, उमर जादूगर
जादूकथा निरंतर की।
2
कम्प्यूटर- रोबोट
हम रिमोट से चलने वाले
कम्प्यूटर-रोबोट।
धरती पर है पाँव, और मन
अंतरिक्ष में खोए
रठराए हैं स्वस्थ बीज, नव-
उपग्रह पर बोए
कहाँ समय जो ढूँढे कोई
आखिर किसमें खोट।
चुकी बैटरी, ध्वनियाँ मद्धिम
सी पी यू गतिहीन
किसी तहलका डॉट कॉम पर
भूखे हैं तल्लीन
आँखें सहमी फटी-फटी-सी
और सिले हैं होंठ।
उनके खेल, जरूरत जितनी
उतनी विद्युत-धारा
उनकी ही मर्जी पर निर्भर
अपना जीवन सारा
बटन दबे औ' हम तो छापें
पट-पट अपने वोट।
3
लोकतंत्र के हौदे.
कतरा-कतरा
चूस रहे हैं
अमरबेल के सौदे।
नकली बीज, दवाएँ, खादें
ऋण-पूँजी का रोना
मौसम का पल-पल विध्वंसक
आतंकी भी होना
किधर तकें
असमंजस में हैं
सूर्यमुखी के पौधे।
शीत-ग्रीष्म के परहेजी ही
श्रम की कीमत आँकें
जलते हुए सवाल तमेसर
उत्तर बगलें झाँकें
एक सनातन
भोलापन है
लोकतंत्र के हौदे।
4
गाँधी चौराहे
शहर बीच गाँधी चौराहे
जाने किसकी लाश पड़ी है।
बिन देखे ही ज़हर उगलते
सर्र- फर्र हैं लोग गुजरते
बाबा की पथराई आँखें
झुर्र हाथ में गली छड़ी है।
हलवाई की मंद गिराकी
लाश खा रही गाली माँ की
संवेदन के उन्मूलन को
संकल्पित यह सदी खड़ी है।
काम बहुत मुंसीपल्टी को
टैक्स, दण्ड, सौ झंझट जी को
कब्जा, नालिश, पालिश, पानी
कागज- पत्तर, गड़ी- गड़ी है।
लोकतंत्र का सुस्त प्रशासन
पुलिस व्यवस्था फूटा बासन
न्याय- वृक्ष के हरे तने पर
राजनीति की कील गड़ी है।
5
लोक अपना
आग पानी में
लगाने का इरादा
क्या हुआ?
वे तने मुठ्ठी कसे थे
हाथ सारे
तालियों तब्दील कैसे हो गए
जलती मशालों से उछलते
हौंसले भी
राजपथ की रोशनी में खो गए
और रोशनदान से
गुपचुप अंधेरा
है चुआ।
चट्टान- से संकल्प कल्पित
बर्फ वाले ढेंकुले- से
हैं अचानक गल बहे
और शिखरों पार से आती
हवाओं के भरोसे
ध्वज बिना फहरे रहे
लोक अपना
स्वप्न बनकर
रह गया फिर अनछुआ।
6
मेरा डेढ़ बरस का बच्चा
मुझसे कलम छीन लेता है
मेरा डेढ़ बरस का बच्चा।
लौटाता है नहीं प्यार से
आँख दिखाने पर भी
डाँट-डपट बेमतलब उसको
नहीं किसी का डर भी
उसकी भोली शरारतों के आगे
हर प्रपंच है कच्चा।
लौटाने को कलम बढा़ कर
हाथ खींच लेता है
"बिल्ली कलम ले गई" कह कर
कहीं छिपा देता है
"गंदा" कहने पर कहता है-
"पापा गंदे हैं, मैं अच्छा!"
पन्नों पर बुन देता है वह
रेखाओं के जाले
और गौर से देखे जैसे
गहरे अर्थ निकाले
समझ नहीं, आते आएंगे
व्यवहारों में खाते गच्चा।
जैसे-तैसे कलम छीन लूँ
लिखने बैठूँ कविता
कभी ताल में आ सकती है
नदी सरीखी शुचिता
रचना-ज्ञान कहाँ दे सकते
बाल-सुलभ मन-सा सुख सच्चा।
7
समय को नाथ!
नाथ!
समय को नाथ!
रस्सी छोडे़
सरपट घोडे़
बदल रहे हैं
पाथ!
कीला टूटा
पहिया छूटा
नहीं
कैकयी साथ!
जीत कठिन है
बडा़ जिन्न है
झुका न ऐसे
माथ!
- शशिकांत गीते
परिचय-
नाम- शशिकांत गीते
जन्मतिथि- 6 अप्रैल 1961
जन्मस्थान- हरसूद, जिला- खण्डवा (म.प्र.)
प्रकाशन- नवगीत संग्रह "मृगजल के गुन्तारे" 1994 में प्रकाशित।
सम्पर्क- शशिकांत गीते
बी- 607, सेंचुरियन स्काई, कटारा हिल्स भोपाल (म.प्र) 462043
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