रविवार, 25 जुलाई 2021

ठाकुर प्रसाद सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागार्थ

#नदी_के_उस_पार_तुम_इस_पार_हम_छोड़ो_विदा_दो

 ~।।वागर्थ ।।~

         प्रस्तुत करता है कवि ठाकुर प्रसाद सिंह जी के नवगीत -

   
       ठाकुर प्रसाद सिंह जी का नाम भारत में नवगीत विधा के कवियों में प्रमुखता से लिया जाता है। इन्होंने हिन्दी तथा प्राचीन भारतीय इतिहास व पुरातत्व में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। कई वर्षों तक अध्यापन और पत्रकारिता के बाद ठाकुर प्रसाद सिंह उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में चले गए। वहाँ हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे। ठाकुर प्रसाद सिंह ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। नाटक तथा उपन्यास भी लिखे। कविता के क्षेत्र में इनके 'महामानव (प्रबंध-काव्य) एवं 'वंशी और मादल (गीत-संग्रह) विशेष चर्चित रहे।

बहुमुखी सृजन प्रतिभा के रूप में ठाकुर प्रसाद सिंह अपनी पीढ़ी के रचनाकारों में प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित रहे हैं। उपन्यास, कहानी, कविता, ललित निबन्ध, संस्मरण तथा अन्यान्य सभी विधाओं में उनका कृतित्व अपनी मौलिकता के कारण उल्लेखनीय है, किन्तु संथाली लोकगीतों की भावभूमि पर आधारित गीतों के संग्रह ‘वंशी और मादल’ के द्वारा वे हिन्दी नवगीत के प्रतिष्पाठक रचनाकारों में अग्रगण्य हैं।

साहित्यकार होने के साथ-साथ नयी प्रतिभाओं के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। वे एक विशिष्ट रचनाकार के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। उनकी रचनाओं में पीड़ा की सामाजिकता दिखती है लेकिन जीवन में उनकी बातचीत हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण रहती थी ।  
    ठाकुर प्रसाद सिंह ने कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर कार्य किया और साहित्य में अपनी कृतियों के जरिए अवदान किया लेकिन वे मूलतः पत्रकार ही  रहे ।
     उनका स्वभाव रहा  कि  वह स्वयं  के प्रति एकदम निरपेक्ष थे। उन्होंने सैकड़ों लोगों की पुस्तकें छपवाई किन्तु उनके समय में उनकी रचनाएँ नहीं छप सकीं ।

ठाकुर प्रसाद सिंह जी को परिस्थितियों ने काशी से सुदूर संथाल परगना में पहुँचा तो दिया पर उनका जीवन थमा नहीं। जीवन के सतत अन्वेषणों ने उन्हें जीवन-लक्ष्य दे दिया आदिवासियों के मध्य रहकर उनके आदिम संवेगों को निरखने परखने का ।

     जैसा कि ज्ञात है कि राजेन्द्र प्रसाद जी ने १९५६ -१९५७ में  नवगीत को ’नवगीत’ नाम दिया था। उससे पहले १९५३ से १९५६ के बीच ठाकुर प्रसाद सिंह ने वे गीत लिखे थे, जिन्हें राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत कहकर पुकारा था। बाद में निराला के पास भी उसी शैली के कुछ गीत मिले, जो निराला ने १९४०-४६ में लिखे थे । 

    उनके छोटे अंतरों के  गीतों में प्रेम के संगीत की अनूठी स्वरलिपि है जिसमें  संथाल के आदिवासियों का सामाजिक ताना-बाना है, ठाकुर प्रसाद सिंह जी के गीतों में संथाल की सघन अनुभूतियों का अद्भुत बोध है। यहाँ पग-पग पर भाषा की कोमल चारुता की अनन्य झाँकी मिलती है ।
           
                                             प्रस्तुति 
                                        ~।।वागर्थ ।।~
                                       सम्पादक मण्डल
           

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(१)

पाँच जोड़ बाँसुरी
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पाँच जोड़ बाँसुरी
वासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी ।

(२)

नदी के उस पार तुम 
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नदी के उस पार तुम, इस पार हम
छोड़ो, विदा दो
नहीं सम्भव है कि हम-तुम एक तट
पर हों, विदा दो

तनिक आँचल खोलकर स्मृति का
करो स्वीकार माला, मुद्रिका या
याद इससे ही करोगी आज की सरि
चन्द्रिका या
चांदनी का तीर मावस का हृदय
जैसे भिदा हो
विदा दो

वही मान्दोली मुझे दो
मैं अवश हूँ धड़कनों से
यह बनेगी प्यार की थपकी
मुझे पागल क्षणों में
स्वप्न-सा जीवन मिला दु:स्वप्न-सा
उसको बिता दो

(३)

बेला लो डूब ही गई
झलफल बेला
झिलमिल बेला
बेला लो डूब ही गई

रो-रोकर नदी के किनारे
धारे, धारे
प्राण विकल तेरे रे हारे
दिशा तुम्हें भूली रे
नइहर के दूर हैं सहारे

वही हुआ, नाव की तुम्हारे
लो डोरी छूट ही गई
बेला लो डूब ही गई ।

(४)

आछी के वन
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आछी के वन अगवारे
आछी के वन पिछवारे
आछी के वन पूरब के
आछी के वन पच्छिमवारे

महका मह-मह से रन-बन
आछी के वन

भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप

हवाएँ सन सन
आछी के वन ।

(५)

चिड़ियों ने पर्वत पर घोंसला बनाया
दिन में रो रात-रात जी भर कर गाया

फिर पलाश फूले रंगते वन के छोर
रंग की लपट से छू जाती है कोर
आँखें भर आईं प्रिय मन यह भर आया

कोंपल के होंठों ने बाँसुरी बजाई
पिड़कुलियों ने सूनी दोपहर जगाई
पतझर ने आज कहाँ सोने मुझको दिया
तुड़े-मुड़े पत्तों ने खिड़की खटकाई
मन ने पिछले सपनों को फिर दुहराया 

(६)

आने को कहना
पर आना न जाना
पर्वत की घाटियाँ जगीं, गूँजीं
बार-बार गूँजता बहाना

झरते साखू-वन में
दोपहरी अलसाई
ढलवानों पर
लेती रह-रह अंगड़ाई
हवा है कि है
केवल झुरमुर का गाना
बार-बार गूँजता बहाना ।

(७)

पर्वत पर आग जला वासन्ती रात में
नाच रहे हैं हम-तुम हाथ दिए हाथ में

धन मत दो, जन मत दो
ले लो सब ले लो
आओ रे लाज भरे
खेलो सब खेलो
होठों पर वंशी हो, हवा हँसे झर-झर
पास भरा पानी हो, हाथों में मादर

फिर बोलो क्या रखा
दुनिया की बात में ?
हाथ दिए हाथ में ।

(८)
कटती फसलों के साथ
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कटती फसलों के साथ कट गया सन्नाटा
बजती फसलों के साथ ब्याह के ढोल बजे
मेरे माथे पर झुक-झुक आते पीत चन्द्र
तुम इतने सुन्दर इसके पहले कभी न थे

चांदनी अधिक अलसाई सूनी घड़ियों में
बाँसुरी अधिक भरमाई टेढ़ी गलियों में
कितनी उदार हो जाती कनइल की छाया
कितनी बेचैनी है बेले की कलियों में

पीले रंगों से जगमग तेरी अंगनाई
पीले पत्तों से भरती मेरी अमराई
पर्वती.सरीखी तुम्हें कहूँ या न भी कहूँ
हर बार प्रतिध्वनि लौट पास मेरे आती

अच्छा ही हुआ कि राहें उलझ गईं मेरी
यदि पास तुम्हारे जाती तो तुम क्या कहते ?

(९)

देह यह बन जाए केवल पाँव
केवल पाँव
अब न रोकेंगे तुम्हें घर-गाँव
घन लखराँव

पाँव ही बन जाएँ
तेरी छाँव

ये अधूरे गीत
टूटे छन्द
जूठे भाव
इन्हें लेकर खड़ें कैसे रहें
बीच दुराव ।

(१०)

पात झरे फिर -फिर हरे होंगे
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पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे

साखू की डाल पर उदासे मन
उन्मन का क्या होगा
पात-पात पर अंकित चुम्बन
चुम्बन का क्या होगा
मन-मन पर डाल दिए बन्धन
बन्धन का क्या होगा
पात झरे, गलियों-गलियों बिखरे

कोयलें उदास मगर फिर-फिर वे गाएँगी
नए-नए चिन्हों से राहें भर जाएँगी
खुलने दो कलियों की ठिठुरी ये मुट्ठियाँ
माथे पर नई-नई सुबहें मुस्काएँगी
गगन-नयन फिर-फिर होंगे भरे

पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे

(११)

तिरि रिरि, तिरि रिरि, तिरि रिरि

बजी बाँसुरी

चन्दन बन

मलयागिरी

तिरि रिरि

रात का बिराना पल

आखिरी

बजी बाँसुरी

तिरि रिरि

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जन्म- २६अक्टूबर, १९२४, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

ठाकुर प्रसाद सिंह की मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-

महामानव (१९४६)
वंशी और मादल कबीर (१९७७)
कुब्जा सुन्दरी (१९६३)
आदिम (१९७८)
हिन्दी निबंध और निबंधकार (१९५२)
पुराने घर नये लोग (१९६०)
बाबू राव विष्णु प्राणकर (१९८४)
स्वतंत्र आन्दोलन और बनारस (१९९०)
१५अगस्त
पहिए
कठपुतली
गहरे सागर के मोती

1 टिप्पणी:

  1. नवगीत के प्रतिष्ठापक, पांच जोड़ बांसुरी के सर्जक, बंशी और यादव के गायक आदरणीय सिंह साहब के नवगीत अपनी भाव-भंगिमा सीधी-सादी कहन और अनूठी ध्वंन्यात्मकता के कारण अद्भुत हैं। सभी गीत लोक संस्कृति की परम्पराओं अटूट रसधार से रससिक्त होकर मन की धरा पर हाथ में हाथ लेकर, नृत्य की भाव-भंगिमा के साथ शब्दायित हो रहे हैं। गीतों के पठन-पाठन से नवगीत के आत्मतत्व का दिग्दर्शन होता है। और यही प्रदेय आदरणीय ठाकुर साहब को नवगीत धारा का आदिस्रोत घोषित करता है। सहज सरल और सरस टटके बिंबों से सजे हुए गीत मन को छूते ही रस का प्लावन कर देते हैं जिससे मन को सुकून मिलता है। संपादक द्वय मनोज मधुर जी, अनामिका सिंह जी को सादर साधुवाद।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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