1.
यह हवन शुभ हो
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बन नहीं पाया अभी वह सातिया
किस तरह फिर आगमन शुभ हो
बस प्रदर्शन के लिए हैं धर्म से संबंध
तोड़ते हैं हर समय हम कर्म के अनुबंध
चल रहे पर लक्ष्य कोई भी नहीं
फिर भला कैसे थकन शुभ हो
सात्विकता का पलायन है विचारों से
सोच-सरिता मिल नहीं पाती किनारों से
मन विकारों के यहांँ गिरवी पड़ा
किस तरह चिंतन मनन शुभ हो
पढ़ रहे हैं लोग केवल हस्त रेखाएं
भाग्य के आगे हमेशा हाथ फैलाएं
डालते हैं हम गलत आहुतियां
सोचते हैं यह हवन शुभ हो
हंस की पोशाक में बगुले मिले सारे
भ्रष्ट होते जा रहे हैं सिलसिले सारे
हे प्रदूषित आचरण सबके यहां
किस तरह संसद- सदन शुभ हो
2.
छंद ढूंढ़ते हैं
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लोग खुशबुओं को
खरीद कर चाहे खुश हो लें
हम तो कांटों में
जीवन की गंध ढूंढ़ते हैं
साहस को हम
पराकाष्ठा तक ले जाते हैं
और असंभव को
संभव का मित्र बनाते हैं
अलगावों के बीच
मधुर सम्बन्ध ढूंढ़ते हैं
हमने जीवन के
कुछ ऐसे चित्र उकेरे हैं
रोज अभावों में
उत्सव के रंग बिखेरे हैं
दुख की बस्ती में
मन का आनंद ढूंढ़ते हैं
अभिनय के सब पात्र रहे
जिनके सुलझे- सुलझे
वो ही कितनी बार
अबोले दर्पण से उलझे
वो कागज के फूलों में
मकरंद ढूंढ़ते हैं
जीवन की परिभाषा का
हर शब्द अनोखा है
वैसे शब्दों- शब्दों में भी
कितना धोखा है
लोग समय के शिलालेख पर
छंद ढूंढ़ते हैं
3.
गुम कहीं अपने नकाबों में
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हो गई संवेदना ओझल
दृश्य होंगे अब कहीं
शायद किताबों में
भीड़ है पूरे भरे पंडाल प्रवचन के
बिक रहे हैं मंदिरों में तिलक चंदन के
बस रटी है प्रेम की पोथी
है बहुत कमजोर हम
शायद हिसाबों में
लोग नारायण नहीं अब ढूंढते नर में
सिर्फ तस्वीरें लगाकर खुश हुए घर में
क्या पिएं वह अश्रु पीड़ा के
जो मजा लेते रहे
केवल शराबों में
तुम कहीं खुद से मिले हो तो बता देना
फूल पत्थर पर खिले हों तो बता देना
एक निर्मल सात्विक चेहरा
हो गया है गुम कहीं
अपने नकाबों में
4.
जीते मरते हैं
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आओ बैठो
सुख-दुख की कुछ बातें करते हैं
तुम्हें सुनाएं कुछ अपनी
कुछ सुने तुम्हारी भी
चलो चुकाएं आज तुम्हारी
शेष उधारी भी
यादों के गुलमोहर
द्वार पर झर झर झरते हैं
अपने सुख-दुख की गवाह
यह दीवारें भी हैं
घर में मरहम भी है ,लेकिन
तलवारें भी हैं
जाने कितनी बार
यहांँ हम जीते मरते हैं
अपनी अपनी जिम्मेदारी
हमने ढोईं हैं
पैदा कुछ भी हो हमने तो
खुशियांँ वोईं हैं
अंधियारों की
सरहद पर हम दीपक धरते हैं
अभिशापों को भी अक्सर
वरदान लिखा हमने
आंँसू की स्याही से भी
मुस्कान लिखा हमने
जीवन के खालीपन को
हम ऐसे भरते हैं
5.
बाणों का संधान
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बेष आदमी जैसा
लेकिन लगता है शैतान
भूल गया वो वेद ऋचाएँ
भूल गया वो मंत्र
सिद्धहस्त हो गया
आजकल रचने में षड्यंत्र
भूल गया खुद से ही खुद की
सही-सही पहचान
अच्छी और बुरी चीजों का
कोई तर्क नहीं
रक्त और मदिरा में जिसको
कोई फर्क नहीं
कैसे भी बनना है उसको
जर्रे से चट्टान
स्वाभिमान के तत्व
सभी विकृत कर डाले हैं
और आस्तीनों में नाग
अहं के पाले हैं
लक्ष्य विमुख ही रहा
हमेशा बाणों का संधान
6.
सूरज से प्रतिवाद
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फिर बबूल- सा हुआ
कसैला आम्रफलों का स्वाद
इधर अमीरी उधर गरीबी
सरहद कांटेदार
कद से ऊंची हुई
विषमता की लंबी दीवार
अलग-अलग सब
अर्थशास्त्र का करते हैं अनुवाद
हुईं औपचारिकताएं
सब दुर्घटना से ग्रस्त
सम्बन्धों का खेल हुआ है
पक्षपात से त्रस्त
गूंगे सुनते रहे उम्र भर
बहरों के संवाद
पीड़ा की चट्टानों के
नीचे मुस्काने हैं
और अभावों की सेना
बन्दूकें ताने हैं
सांसों के घर की रखवाली
करते हैं जल्लाद
गिरवी रखी महाजन के घर
नेकी और बदी
उथली -उथली होती जाती
जल से भरी नदी
करते रहे गहन अंधियारे
सूरज से प्रतिवाद
7.
ढाई आखर है
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नौकर मालिक बन बैठाअब मालिक नौकर है
सैयादों के हाथों में सारा चिड़ियाघर है
इंसानों से बदबू आती आदमखोरों की
और खजानों पर रखवाली है अब चोरों की
खंडहरों में हमको रोता हुआ कबीर मिला
नफरत की खूनी पंजों में ढाई आखर है
कांटे फूलों के अभिनय में सफल हो रहे हैं
और परिंदे पेड़ों से बेदखल हो रहे हैं
हाथों में अमृत घट है पर जहर बांटते हैं
इनके चेहरों के पीछे का चेहरा विषधर है
पुरवाई अब आंधी में तब्दील हो रही है
और सभ्यता लगातार अश्लील हो रही है
लोग ढो रहे रोज अराजकता को कांधे पर
और व्यवस्था का पूरा ढांचा ही जर्जर है
भटक रहे हैं लोग प्रश्न को होठों पर टांगे
बहरों की बस्ती में वह किससे उत्तर मांगे
दर्दो और अभावों की दरवाजों पर दस्तक
लेकिन सिंहासन वर्षों से वही निरुत्तर है
8.
युग बदलने का
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हम बहुत ऊंचाई तक तो आ गए
बढ़ गया डर अब फिसलने का
उंगलियों के पौर से छू लें गगन हम
पर धरा पर ही रहें यह पांव मेरे
मन शहर सा हो न जाए अहंकारी
लुट न जाएं सदाशय यह गांव मेरे
चांदनी अवकाश पर है इन दिनों
पर समय है सूर्य ढलने का
उठ रहीं हर ओर दीवारें
और आंगन की उठी शवयात्राएं
मृत्यु से ही सीखना है हम सभी को
बस यही दो-चार जीने की कलाएं
हम स्वयं के चक्रव्यूहों में फंसे हैं
रास्ता ढूंढें निकलने का
लोग सारे चाहते हैं युद्ध लेकिन
शब्द के हथियार भी तो हैं नहीं
आग भीतर की जले कैसे भला अब
आंख में अंगार भी तो है नहीं
सब महूरत ढूंढते पंचांग में
आततायी युग बदलने का
9.
कुछ भी नहीं कहा
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बरस ,मास, दिन ,पल -छिन तुमने
कितना दर्द सहा
पौं फटने से पहले ही
तुम तो उठ जाती हो
घर का कारज करते- करते
क्या -क्या गाती हो
कितने आँसू पिये
किसी से कुछ भी नहीं कहा
अपने हिस्से की खुशियाँ
तुम सबको देती हो
सबके हिस्से के सारे दुख
खुद ले लेती हो
शीतलता बाँटी है
अपना जीवन भले दहा
ईश-वन्दना और हाथ में
पूजा की थाली
चाहे रात अमावस की
या पूनम उजियाली
रोज स्वप्न का महल बनाया
चाहे रोज ढहा
संबन्धों के धागे
सब मजबूत बनाये हैं
कदम-कदम पर प्यार भरे
कालीन बिछाये हैं
शुभ आशीषों वाला झरना
मुख से रोज बहा
10.
एक चुल्लू भर
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क्या उलीचें
क्या सहेजे हम
बस समय है एक चुल्लू भर
रिक्त होती जा रही है
सांस की गागर
और भरना चाहता हूंँ
बांह में सागर
किस तरह अब
यह बने संभव
दिन-ब-दिन काया हुई जर्जर
जिन्दगी हर रोज
सजती है संवरती है
किन्तु फिर हर बार
पारे सी बिखरती है
उम्र भर जो कुछ सहेजा है
वह सभी कुछ है यहां नश्वर
द्वार पर अवसान अब
सांकल बजाता है
जान कर भी
कुछ नहीं वह जान पाता है
पुण्य का तिनका नहीं कोई
पाप के लादे रहे गट्ठर
11.
कितने अश्रु बहाये हैं
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सुबह हुई फिर चिड़ियों ने
डैने फैलाए हैं
आटे का डब्बा खाली है
खाली सभी घड़े
रोटी की चिंता में घर से
सारे निकल पड़े
शाम थके -मांदे
सब घर को वापस आए हैं
चिंताएं भी जाने कितनी
गहरी पैठी हैं
और समस्याएं घर के
द्वारे पर बैठी हैं
बेमौसम ही गम के
काले बादल छाए हैं
मुस्कानों से मुलाकात
अब होती मुश्किल से
कुशल क्षेम तक नहीं पूछती
नदिया साहिल से
बार-बार आंखों ने
कितने अश्रु बहाए हैं
12.
जीवन रोशन है
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जोड़ ,घटाना ,गुणा ,भाग ही
सारा जीवन है
कण -कण के जुड़ जाने से ही
पत्थर बनता है
बूंद - बूंद के योगदान से
सागर बनता है
फूल ,पत्तियां ,पेड़ जुड़ें
वह वन है उपवन है
धोखाधड़ी, फरेब, झूठ के
सारे अंक घटा
नफरत का दशमलव बीच में
है तो उसे हटा
सूरज निकले , तिमिर घटे तो
जीवन रोशन है
सदविचार में मानवता का
गुणा करें हम सब
और असंभव कुछ भी कर ले
यह होगा संभव
कई बार तप तप कर सोना
बनता कुन्दन है
चलो चलें दुख की संख्या से
सुख का भाग करें
जो कुछ शेष बचे
उतने से ही अनुराग करें
मन तो है धनवान
जिंदगी चाहे निर्धन है
महेश अग्रवाल
परिचय
______
नाम : महेश अग्रवाल
पिता : स्व.राजमल जी अग्रवाल
जन्म : 04 . 08 . 1946 (भोपाल)
शिक्षा : वणिज्य स्नातक ( B. Com)
साहित्य की
विधा : मूलतः ग़ज़लकार
प्रकाशन 1 . और कब तक चुप रहे
2 . जो कहूंगा सच कहूंगा
3. पेड़ फिर होगा हरा
4. मेरे साथ कबीर
( चारों गजल संग्रह)
5. एक गीत संग्रह प्रकाशनाधीन
6. रंग पर्व और जनसंवाद
(संपादन)
7. प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में
निरंतर प्रकाशन
8. अनेक ग़ज़ल संकलनो में
ग़ज़लें संकलित
9. देश के सात प्रतिनिधि
गजल कारों के गजल
संकलन ग़ज़ल सप्तक में
ग़ज़लें शामिल
सम्मान : मध्य प्रदेश के राज्यपाल द्वारा
1998 में सम्मानित तथा देश
की अनेक संस्थाओं द्वारा
सम्मानित / पुरस्कृत
सम्प्रति : भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि.
भोपाल से 2006 में सेवा-
निवृत / वर्तमान में पूर्ण
साहित्य साधना
निवास : 71- लक्ष्मी नगर , रायसेन
रोड भोपाल 462022
मोबाइल : 91-9229112607
ई-मेल gazalmahesh@gmail.com
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