।।वागर्थ।।
में आज प्रतीक पुरुषोत्तम के नवगीत
___________________________
स्तरीय सामग्री के चयन के चलते समूह ~।।वागर्थ।।~ नवगीतकारों के मध्य तेजी से चर्चा में आया है।हम यहाँ किसी एक नवगीतकार को उसकी रचनाओं के साथ आदर से प्रस्तुत करते हैं।हर्ष का विषय है कि अब वागर्थ हजारों पाठकों तक पहुँच रहा है अनेक मित्र इसे साझा कर रहे हैं।आप भी चाहें तो,इसमें अच्छे पाठकों को जोड़ सकते हैं।
समूह में आज प्रस्तुत है पुरुषोत्तम प्रतीक जी के नवगीत और उनका एक दुर्लभ चित्र
प्रस्तुति
_____
वागर्थ
◆
रोटी उधार की कपड़े उधार के
हम ज़िन्दगी इसे कैसे पुकारते
पहले रहन रखी
है साँस-साँस तो
अब काम कर रहे
कर्ज़ा खलास हो
कविता बहार की मुखड़े मज़ार के
हम बन्दगी इसे कैसे पुकारते
हालात जज़्ब हों
करे क्या आदमी
हर ज़ख़्म शब्द है
कहे क्या आदमी
चर्चा सुधार की दुखड़े निहार के
हम आदमी इसे कैसे पुकारते
◆
कुछ सुना ना !
ज़िन्दगी के गीत गा ना !
जीवन—
पकड़ना मछलियाँ
—अपने पसीने में
फिर पकाना
खा न पाना
ज़िन्दगी का गीत गाना
आज तक सदियों पुराना !
जीवन
उड़ाना मछलियाँ
—डटकर करीने से
क्या पकाना
सिर्फ़ खाना
सिलसिला सदियों पुराना
ज़िन्दगी के गीत गाना !
◆
‘क‘ से काम कर,
‘ख‘ से खा मत,
‘ग‘ से गीत सुना,
‘घ‘ से घर की बात न करना, ङ ख़ाली ।
सोचो हम तक कैसे पहुँचे ख़ुशहाली !
‘च‘ को सौंप चटाई,
‘छ‘ ने छल छाया,
‘ज‘ जंगल ने, ‘झ‘ का झण्डा फहराया,
झगड़े ने ञ बीचोबीच दबा डाली,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे ख़ुशहाली !
‘ट‘ टूटे, ‘ठ‘ ठिठके,
यूँ ‘ड‘ डरा गया,
‘ढ‘ की ढपली हम,
जो आया, बजा गया ।
आगे कभी न आई ‘ण‘ पीछे वाली,
सोचो हम तक कैसे पहुँचे ख़ुशहाली
◆
ऐसे करील फूले / पुरुषोत्तम प्रतीक
पुरुषोत्तम प्रतीक » आदमी है सिन्धु »
करके तबाह चूल्हे
ऐसे करील फूले
सब कुछ करील भूले
आँधी पड़ हुई है
घर ख़ून की सुराही
कुछ माँस के खिलौने
पीले पड़े हुए हैं
हाड़ों का एक थैला
आकाश देखता है
यह अपशकुन सरासर
फिर भी गुनाह दूल्हे
ऐसे करील फूले
काँटे बने सिपाही
चेहरे गुलाब इनके
पत्ते नहीं तो क्या है
हरी शाख तो हरी है
हैं गाँव-गोहरे तक
फैली हुई जमातें
ठेंगा दिखा-दिखाकर
मटका रही हैं कूल्हे
ऐसे करील फूले
◆
सरसों के तेल के पराँठे
अम्मा ने एक-सार बाँटे
पर छोटू रूठ गया
हिस्सा भी छूट गया
और मिले बदले में चाँटे
बापू ने देख लिया
अम्मा ने एक दिया
साथ-साथ हम सारे डाँटे
उस दिन दीवाली थी
लगती दोनाली थी
गुस्सैलू होते हैं घाटे
◆
खाम-खाह आसमान तक दूँकें नहीं
धरती की सही बात कहने में
हम चूकें नहीं
आदमक़द जीकर आकाश
कैसे हो आख़िर विश्वास
परिचित हों इस अपनी भूल से
फूटेंगे शूल ही बबूल से,
बन्दूकें नहीं
ज्ञात अभी कितना अज्ञात
सोचें यदि इसका अनुपात
बदले में पाएँगे फोख ही
सन्तानें जन्माती कोख ही
सन्दूकें नहीं
पुरुषोत्तम प्रतीक / परिचय
_____________________
पुरुषोत्तम प्रतीक की रचनाएँ
पता :
पुरुषोत्तम प्रतीक
_____________
जन्म: 25 दिसंबर 1937
जन्म स्थान बनवारीपुर-घंघरावाली, ज़िला बुलंदशहर,उत्तर प्रदेश, भारत प्रमुख कृतियाँ
आसब-दर-आसन,
गीत आदमी है,
घर तलाश कर,
आदमी है सिन्धु (नवगीत)
प्रतीक जी दिल्ली में उन दिनों त्रिनगर में रहा करते थे। मैं त्रिनगर में ही ’समग्र’ प्रिण्टिंग प्रेस में काम करता था। इसी प्रेस में ’समग्र’ नामक पत्रिका का प्रकाशन होता था। यह 1978 की बात है। तभी मेरा परिचय रामकुमार कृषक और पुरुषोत्तम प्रतीक से हुआ था। पता लगा कि दोनों नवगीत लिखते हैं। नवगीतों पर मैं अपने बचपन से ही फ़िदा था। जब नौ-दस बरस का था, तभी से ’धर्मयुग’ और ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपने वाले नवगीत गुनगुनाया करता था। पन्द्रह-सोलह बरस का होते-होते मुझे दर्जनों नवगीत याद हो चुके थे। इसलिए जब ये पता लगा कि प्रतीक जी और कृषक जी नवगीतकार हैं तो मेरे मन में उनके प्रति विशेष आकर्षण पैदा हो गया।
जवाब देंहटाएं