दूर होती जा रही है कल्पना ...
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आज एक दिसम्बर है।मुरैना (ग्वालियर) में 1927 में आज की तारीख़ को जन्मे,नवगीत के पुरोधा कीर्तिशेष वीरेन्द्र मिश्र जी का जन्म दिवस है।
......वह वीरेन्द्र मिश्र ....जो 1953 में प्रकाशित अपने गीत संग्रह 'गीतम' की इन पंक्तियों में जैसे करवट लेती हुए नयी चेतना सम्पन्न आने वाले गीत-धारा,जिसे बाद में नवगीत के रूप में जाना व रेखांकित किया गया,की अवधारणा की नींव रख देते हों कि --
"दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िन्दगी .."।
वीरेन्द्र मिश्र की गीत-यात्रा,
गीतम (1953) से प्रारम्भ हो कर,लेखनी बेला(1957) से होती हुई -- अविराम चल मधुवंती (1967),झुलसा है छायानट धूप में (1980) और सूर्यमुखी चन्द्रकौंस (1991) के श्रेष्ठ नवगीतों से होती हुई 'जलतरंग' के नवगीतों से सम्पन्न होती है।
इस बीच --
काँपती बाँसुरी (1986),गीत पंचम (1987) और उत्सव गीतों की लाश पर (1990) भी आते हैं .. साथ ही रेडियो नाटक व रूपक आदि भी आते हैं ...और ..नवगीत विमर्श की पत्रिका 'सांध्यमित्रा' के उल्लेखनीय अंक भी आते हैं।
उनका देहान्त पहली जून 1995 को हुआ था।
उससे पूर्व उनकी जीवन सहचरी श्रीमती प्रेमा जी का निधन हो चुका था।वह मुम्बई से दिल्ली आ गये थे।वियोग में डूबे हुए थे। स्मृतियों से गीत उभर रहे थे 'जलतरंग' के (जो उनके देहान्त के बाद प्रकाशित हुआ था)।
मेरा सौभाग्य है कि 'जलतरंग' के भावविह्वल कर देने वाले गीतों को मैं उनके मुख से सुन सका।..सरोजनी नगर (नई दिल्ली) वाले क्वार्टर के पहली मंज़िल के ड्राइंग रूम की वे गीतों व वार्ताओं की दोपहरियाँ मुझे अभी तक पूरी जीवन्तता के साथ याद हैं।
मेरे कई-कई गीत आग्रह व सम्मान के साथ सुनते व प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया तो देते ही थे .. साथ ही अपने ताज़ा गीत भी सुनाते भावविह्वलता के साथ..मेरे ग्राहक मन को भी भावविह्वल कर देने वाले...! ...स्वर लहरियाँ गूँजती.. और हवा करुणार्द्र हो जाती।...
"बिखर गया अँजुरी से जल
ठहर गया एक-एक पल
एक शाम कल
अश्रु-प्रलय राह-राह में
डूबा मन जल प्रवाह में
अस्त हुआ सूर्य दूर पर
रह गया धरा सिँदूर पर
प्रेम का कमल ..."
और.. ऐसे ही... यह नवगीत शतक गतिमान रहा।भूमिका भी लिखी...बस... और चले गये कदाचित् अपनी प्रिया-पत्नी के पास!
....लेकिन वैयक्तिकता के साथ-साथ सामाजिक संघर्ष भी स्वतः अनुस्यूत होते रहे उनमें।भूमिका में लिखे वीरेन्द्र मिश्र जी के ही शब्दों में --" ..यही कह सकता हूँ कि सामाजिकता या कलात्मकता का जो भी सामंजस्य मुझमें पहले से वाणी-मुखर रहा है,शायद यहाँ भी है ही।... प्रेम प्रसंगों से शुरू होकर जीवन-संघर्ष में रूपान्तरित यात्रा का मेरा यह हस्ताक्षर या ढलते हुए सफ़र का यह दस्तख़त, मेरी अन्तश्चेतना का कोमल गांधार है या मिश्र जोगिया,यह बताना तो मेरे लिए और भी मुश्किल है।"
वीरेन्द्र मिश्र के गीतों में भारत के मध्यवर्ग के वेतनभोगी कर्मचारी के जीवन का यथार्थ बड़ी शिद्दत के साथ उभरता है --
"आता है समय वधिक आता है
काटेगा सपनों के शीश को
एक दिवस महिने में ख़ुश होगा
अखरेगा बाक़ी उनतीस को.."।
राष्ट्रीयता स्वाभाविकता के साथ शब्दांकित होती है --
"जाग गयी जीत गयी भारतीय मुक्तिवाहिनी
यह तो संघर्षों की जीत है
खेतों में सरसों की जीत है .."
या
"मेरा दश है ये इससे प्यार मुझको..."
युद्ध का विरोध रेखांकन सहित उभरता है --
"आती है मृत्युगंध
देशों के पार से
मेरे अनुभूतिपूर्ण गीतों की मीनारें
रह-रह अँसुआ रहीं
मेरे कमरे की छत फर्श दीवारें
रक्त में नहा रहीं
एक विषैला झोंका
गुज़रा है द्वार से .. "।
यह उनकी प्रगतिशीलता व जन सरोकारिता ही है कि वह समाज में उपेक्षित से लोगों को भी गीतों में स्थान देते हैं,जैसे -- शादी समारोहों में बैंड बजाने वालों का रौशनी के पार अँधेरों में फँसा यथार्थपरक जीवन।
संगीत उनमें स्वभावतः रचा-बसा है।अपने गीतों में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शब्दावली का सार्थक प्रयोग व उल्लेख इतने व्यापक स्तर पर मैंने उनके अलावा किसी अन्य नवगीतकार में अभी तक नहीं देखा है।
पुष्ट नवगीतों की सरोकारी सस्वर प्रस्तुतियाँ बड़ी प्रभावी होती थीं।
वह ऐसे नवगीतकार थे जिन्होंने सृजन के साथ-साथ सैद्धान्तिकी का भी समय से पूर्व उल्लेख किया है।
असल में,गीतांगनी,कविता-64,पाँच जोड़ बाँसुरी,शम्भुनाथ सिंह जी की नौका गोष्ठी आदि की तो बातें वही हैं,जिन्हें सब जानते हैं,
लेकिन कविता-64 से भी पहले नवगीतकार वीरेन्द्र मिश्र जी ने 1956 के आस-पास गीत की नवता को लेकर बहुत सी बातें कही थीं इलाहाबाद के सम्मेलन में। यही नहीं बाद में 'सांध्यमित्रा' में नवगीत पर अर्थवान विमर्श भी हुआ था।
लेकिन,
मेरा मानना है कि वीरेन्द्र मिश्र के महत्वपूर्ण योगदान को अपेक्षित महत्व नहीं मिला।बाकी सब अपनी जगह हैं,परन्तु,वीरेन्द्र मिश्र अपनी जगह हैं -- पूर्ण अर्थवत्ता सहित।
बहरहाल ....!
बहुत से गीत हैं उनके... जो उल्लेखनीय हैं।
यहाँ,-- कसक,जिजीविषा व किरण थामे एक नवगीत के माध्यम से उनका स्मरण कर रहा हूँ --
"कितना कम तीर्थजल
मधुवंती!
फिर भी अविराम चल
मधुवंती !
धूल-भरी संध्या की रागिनी !
तू कितनी शापित मंदाकिनी
ढहते सुर के महल
मधुवंती!
फिर भी अविराम चल
मधुवंती !
बिजली यह व्यर्थ नहीं चमकी है
यात्रा या खोज यह स्वयं की है
त्रासद हर एक पल
मधुवंती !
फिर भी अविराम चल
मधुवंती !
डसने के बाद सर्प खिसका है
चूसे विष कौन,दाय किसका है
जलतरंग में गरल
मधुवंती!
तू ही अविराम चल
मधुवंती ! "
महत्वपूर्ण,ऐतिहासिक व मूल्यवान नवगीतकार
कीर्तिशेष श्री वीरेन्द्र मिश्र की अविस्मरणीय स्मृतियों व शब्दों
तथा प्रभावी व्यक्तित्व को श्रद्धा सहित नमन!
(इस समय मैं बैंगलोर में हूँ।मेरा निजी पुस्तकालय मेरे दिल्ली निवास पर है।उपर्युक्त -- दो शब्द -- हेतु सामग्री उपलब्ध कराने के लिए वीरेन्द्र मिश्र जी की सुपुत्री सुश्री गीतम मिश्र (पूर्व रिपोर्टर दूरदर्शन समाचार) का बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद।उनके परिवार के सभी सदस्यों -- सर्वश्री रूपम,पूनम व सर्जन,जो सभी सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं,का अभिवादन!)
आपका
सुभाष वसिष्ठ
01.12.2021
बैंगलोर।
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