खिला दिसम्बर खिल गए,भाप भरे सम्वाद
ठिठुर रहे जनतंत्र में,प्रजातंत्र असहाय
भाप छोड़ती केतली,ठंडी होती चाय।।
दिशा-दिशा में घुल रहा,रोली और गुलाल
कुहरे में छूटा कहीं, सूरज का रूमाल।।
उछल-उछलकर डोलती,सर्दी रस्सी कूद
चख-चखकर है फेंकती, बेर और अमरूद।।
खिला दिसम्बर खिल गए, भाप भरे सम्वाद
यादों का होने लगा,छवियों में अनुवाद।।
सूरज आँखें मल रहा,भूला अपनी धाक
ठंड पार्क में खेलती,पहन धूप की फ्रॉक।।
एक आग सिगड़ी जली,एक हृदय के बीच
दोनों हाथों प्यार को,मौसम रहा उलीच।।
धूप काटती मौन हो,सर्दी के नाख़ून
हुआ इलाहाबाद भी,जैसे देहरादून।।
धूप दिसम्बर की लगे,जैसे उबटन देह
जस-जस किरनें छू रहीं, तस-तस दमके नेह।।
ये जाड़े की धूप तो,लगती अपरम्पार
जैसे ताज़ा नज़्म से,झाँक रहे गुलज़ार।।
खिड़की परदे रोशनी, सब लगते जासूस
बात प्रिया से कर रहे,कातिक अगहन पूस।।
आँगन में बैठी हुई,फटक रही है सूप
आज कैजुअल लीव पर,घर अगोरती धूप।।
दिसंबर के दोहे शीतकालीन मौसम की विवेचना करने में सहजता से उपलब्ध हैं। अनेक नये बिंब कैजुअल लीव पर धूप का जाना मन को गर्माहट दे रहा है। आदरणीय मालवीय जी के नवगीत हों, गीत हों या दोहे सभी लय,छंदानुशासन में परिपूर्ण होते हैं, अपनी कहन में गजब की व्यंजना से संपृक्त दोहे हमारे अपने करीब के से लगते हैं,और यही वैशिष्ट्य यश जी को जन-मन का लाड़ला गीत कवि बनाता है। -- डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट कथ्य और व्यंजना की अनुपम दोहे हैं। अभिनव प्रतीकों का प्रयोग आकर्षक है।
जवाब देंहटाएंएक जिज्ञासा- क्या संवाद और अनुवाद उचित तुकांत माने जा सकते हैं?
धूप काटती मौन हो,सर्दी के नाख़ून
जवाब देंहटाएंहुआ इलाहाबाद भी,जैसे देहरादून।।
अप्रतिम!!
नमन है कलमश्रेष्ठ को ।