मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

"धूप भरकर मुठ्ठियों में" कृति चर्चा : अनामिका सिंह


चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह जी ने रचना की तासीर में एक कृति
 "धूप भरकर मुठियों में"
की समीक्षा की है। 
अनामिका अच्छी नवगीतकार के साथ साथ कुशल समीक्षक भी हैं।
     पढ़ते हैं उनका एक आलेख

चेतना को स्पंदित करते नवगीत:
____________________________________
                                   अनामिका सिंह

                   सद्य प्रकाशित नवगीत संग्रह '"धूप भरकर मुट्ठियों में"की शुरुआत स्मृतिशेष पंकज परिमल जी की भूमिका से होती है। खटमिट्ठी भूमिका से आगे बढ़ते ही अगली सम्मति प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज जी की है जिसमें वे एक गीतांश के जरिये नवगीतकार की आत्मीयता / निश्छलता/निर्मलता  को रेखांकित करते हैं। कोई भी सजग पाठक इसी वाक्यांश से नवगीतकार के व्यक्तित्व की विशेषताओं से जुड़ाव महसूस कर संकलन के गीतों का मजमून भाँप सकता है ।
                                  अगली सम्मति आदरणीय राजेन्द्र गौतम जी की है जो उनके गीतों में लोक कल्याण और युगीन विडम्बना के दृश्य एवम् भाषा के स्तर पर उतरोत्तर व्यंजनात्मक  उत्कर्ष की उम्मीद रखते हैं ।
                   'बाजारवाद के संकट में सचेत कवि स्वर ' शीर्षक के तहत आदरणीय कैलाश चंद्र पंत जी एवं 'बात इतनी सी ' यानी बात पूरी और सही  ' शीर्षक के तहत स्मृतिशेष कुमार रवीन्द्र जी ने अपनी सूक्ष्म व आत्मीय दृष्टि से अर्थ पूर्ण नवगीतों की शुभाशंषा की है। फ्लैप मैटर में आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी ने कृति के गीतों पर अपनी स्नेह दृष्टि डाली है ।
 
   किसी साहित्यिक कृति की सार्थकता सिर्फ़ कथ्य , शिल्प से ही नहीं वरन उसकी सामाजिकता से भी जाँची परखी जानी चाहिये । साहित्य अपने समय एवम् समाज का दस्तावेज होता है तब जबकि साहित्यकार बिना किसी पूर्वाग्रह के समय /समाज का सच लिखे ।

     हर्ष का विषय है कि संकलन के नवगीतों ने समय से सच्चा साक्षात्कार किया है । श्रेष्ठ काव्य वही है जो संवेदनशील हृदय को स्पर्श कर उसकी चेतना को स्पंदित करे । मनोज जैन जी के नवगीत समरस समाज के निर्माण की बात बहुत -बहुत  शिद्दत से करते हैं ।
                वे स्वस्थ्य समाज की स्थापना की कामना सकारण करते हैं, क्योंकि उनका कविमन सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक दुरभिसंधियों , युगीन त्रासदियों,स्वार्थपरता , अवसरवादिता और पारिवारिक विघटन के तमाम कटु , यथार्थ दृश्यों को जीवन में आस -पास घटित होते देख रहा है । 
               सामाजिक विसंगतियों के मध्य आत्मसंघर्ष और लोकपीड़ा से उपजे संग्रह के नवगीत संवेदना , सघन अनुभूति , सधी भाषा व शिल्प के साथ वर्तमान यथार्थ और सामाजिक समस्याओं से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हुये  इन तमाम युगीन विसंगतियों पर शालीन विरोध दर्ज करते हैं ।
                    संग्रह का आरम्भ कुत्सित आत्मवृत्तियों से मुक्ति हेतु प्रार्थना के साथ ही समष्टि की शुभेच्छा की कामनाओं के साथ हुआ है । कहना न होगा कि सांस्कृतिक एवम् आध्यात्मिक चेतना के गीतों में व्यक्ति से लेकर समष्टि तक की बेहतरी हेतु मनोयोग से की गयीं कामनाओं में जुड़ी हथेलियाँ हैं । 
                  शब्द शाश्वत हैं, शब्द की सत्ता अनिर्वचनीय है , सिर्फ़ शब्द ही वो माध्यम है जिससे साहित्यकार की स्वअनुभूति पाठक को समानुभूति के स्तर तक पहुँचाती है । शब्द ही स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ अथवा पर की समानुभूति , जीवन एवम् समाज के अनुभव ही साया करते हैं । ऐसे में इस संग्रह के प्रथम गीत की पंक्तियाँ उदात्त कामनाओं से लबरेज़ हैं । आज के आपाधापी भरे कृत्रिम जीवन में जब बिना किसी स्वार्थ के 
किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं रह गया ऐसे में कवि की यह कोमल कामना हृदय को स्पर्श करती है ।
       कुछ नहीं दें किन्तु हँसकर 
       प्यार के दो बोल बोलें
       हर घड़ी शुभ है चलो 
       मिल नफरतों की गाँठ खोलें
       शब्द को वश में करें 
       आखरों की शरण हो लें ...( पृष्ठ - ३५ )
                 यथार्थ की अनुभूतियाँ संग्रह के गीतों में पंक्ति -दर -पंक्ति उपस्थित हैं । कवि ने छद्म उजालों का अनावश्यक स्तुतिगान न करके समाज , साहित्य , राजनीति के स्याह पक्षों को अनावृत किया है ।
           लाज को घूँघट /
           दिखाया/
           पेट को थाली /
           आप तो भरते रहे घर, 
           हम हुये खाली/
           गीत- हम बहुत कायल हुये ( पृष्ठ - ३८)

   स्वाभिमानी एवम् आत्मविश्वासी होना किसी भी व्यक्ति की नैसर्गिक चाह होती है । कवि को अपनी नैसर्गिकता बेहद प्रिय है जो इन पंक्तियों में तटस्थ होकर उभरती है 

            हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के 
            जो बोलोगे रट जायेंगे // 
            हम भी दो रोटी खाते हैं /
            तुम भी दो रोटी खाते हो ।  ( पृष्ठ- ३९)

                  संयुक्त परिवारों का  समाज में उदाहरण दिया जाता था / है  किन्तु भौतिकतावादी मशीनी युग में संयुक्त परिवारों की मूल पर मट्ठा डालने का कार्य हमने ही किया है ।  जहाँ पिता और पुत्र के मध्य संवाद के लहजे में भी परिवर्तन आया है । बीती बात हुई जब पुत्र- पिता का संवाद गरिमामय होता था । भौतिकता , स्वार्थपरता ,आधुनिकता ने हमारी संवेदनाओं और शऊर को गटक लिया है , आज की पीढ़ी अपने परिजनों से स्वस्थ्य संवाद करने में असमर्थ है। भारतीय परिवारों के बेहद आम किन्तु कष्टकारी दृश्यों को गीत के लिबास में हू-ब-हू पेश किया है ....

              बात -बात में बात काटता /
              बेटा अपने बाप की 
              कौन भला समझेगा पीड़ा /
              युग के इस संताप की । ( पृष्ठ- ९७)

              कैसा है भाई! 
              बैठ गया आंगन में /कुंडलियामार/ 
              गिरगिट से ले आया 
              रंग सब उधार/ 
              हक मांगो / दिखलाता/ 
              कुआँ कभी खाई/ 
              चूस रहा रिश्तों को 
              बनकर तू जोंक/ 
              जब चाहे बन जाता/
              चाकू की नोंक/ 
              घूरता हमें/
              जैसे अज को कसाई । (पृष्ठ - ४३)

आत्मबोध और आध्यात्मिक दृष्टि कोण कविमन में समानांतर उपस्थित रहा है , आत्मबोध की  प्रक्रिया के फलस्वरूप उच्चतम मानवीय बोध से संपृक्त समष्टि शुभता के गीत रचे गये हैं । 

           काश! हम होते /
           नदी के तीर वाले तट / 
           हम निरन्तर भूमिका /
           मिलने -मिलाने की रचाते /
           पाखियों के दल उतरकर/
           नीड़ डालों में सजाते /
           चहचाहट सुन /
           छलक जाता हृदय घट (पृष्ठ - ४४)

बीते समय की बात हुई  जब जनप्रतिनिधियों की छवि सम्मान योग्य होती थी , वर्तमान में  ' नेता ' सुनते ही मन मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वो इस गीतांश से इतर नहीं होती ....

           'चित ' पर नजर रखता पैनी
            पट में भी रखता है आशा
            पल-भर में हो जाता तोला
            क्षण- भर में हो जाता माशा 

           जो अंडे सोने के देता
           केवल उसी को है सेता // ( पृष्ठ- ७८)

 सत्ताओं और उनके सुशासन का हाल किसी से छिपा नहीं है । कवि ने  इसे रेखांकित करने में किसी तरह की कोताही नहीं बरती है ।

            कुछ प्रश्नों को //
            एक सिरे से /
            हँसकर टालकर गया //      
            मन को साल गया // 
            शकुनि सरीखी नया सुशासन चलकर चाल गया …( पृष्ठ -६१)
             मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर 
             बोल कबीरा बोल 
             चिंदीचोर विधायक के घर 
             प्रतिभा भरती पानी ।
             राजाश्रय ने वंचक को दी 
             संज्ञा औघडदानी । 
             खाल मढ़ी है बाहर -बाहर 
             है भीतर तक पोल । (पृष्ठ -७५)

राजनीति की उठापटक औ धींगामुश्ती में 
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है । (पृष्ठ -७६)

         चारो तरफ अराजकता है 
         कैसा यह परिवेश है,
         कैसा यह देश। (पृष्ठ -७७)

एक गीतकार के लिये गीत ही आत्मबल का केन्द्र होता है , उसके लिये गीत ही विषम परिस्थितियों में वह प्रकाश स्तम्भ  है जिसके जरिये अंधकार की सरणियों में उम्मीद की लौ जलाई रखी जा सकती है । ऐसे में कवि स्वयं तो विसंगतियों को उजागर करने हेतु प्रतिबद्ध है ही,वो कविकुल से भी इसी मुखरता की प्रत्याशा रखता है।

           दिखा आइना जो सत्ता का /
           पारा नीचे कर दे /
           जो जन गण के /
           पावन मन को समरसता से भर दे/   
           शोषक ,शोषण का विरोध जो करे  
           निरंतर हटकर .. ( पृष्ठ -११३)

    कृतिकार सामाजिक विसंगतियों के झंझावात से जूझने में प्रेम को दफ्न होने नहीं देता । हालांकि अजब विरोधाभास है कि प्रेम सदियों से समाज की आँखों की किरकिरी रहा अब भी है किन्तु प्रेम की महत्ता और अस्तित्व सृष्टि के उद्भव से है और चिरकाल तक रहेगा। शायद ही इस जगत में कोई ऐसा हो जिसे प्रेम न हुआ हो या प्रेम को किसी भी स्वरूप में महसूस न किया हो । कृतिकार प्रेम और उसकी नाजुकी की अभिव्यक्ति वर्ज्य नहीं समझता, संग्रह के कई गीत अपनी सम्पूर्ण भव्यता के साथ  प्रेम की सत्ता के अधीन हैं। 

      चाह थोड़ी इधर , चाह थोड़ी उधर 
      बंद आँखों से देखे गुलाबी अधर 
      सब्र के बाँध टूटे ,सभी रात को ।

(याद रखना हमारी मुलाकात को )   ( पृष्ठ- ५४)

कहा जाता है जब मन प्रेम के अधीन हो तो व्यक्ति विवेक ( संयम )खो देता है । ऐसे ही नाजुक पल का दृश्य इन पंक्तियों में उपस्थित होता है....

     हो गई है आज हमसे 
     एक मीठी भूल 
     धर दिये हमने अधर पर 
     चुंबनों के फूल /...
     लाजवंती छवि नयन में 
     फिर गई है झूल //  ( पृष्ठ -५५)

        इन्द्रधनु सा खींचता है
        कौन अपना ध्यान ।
        द्वंद्व में जा फँसा गहरे
        बुद्धि का विज्ञान ।
        हारने को सहज 
        अपना मन हुआ तैयार । (पृष्ठ- ६४ )

                    प्रेम सम सरल एक गीत की पंक्तियाँ अपनी सरलता से सम्मोहित करती हैं , जिनमें गीतकार गीत का गुरुत्व बढ़ाने हेतु भारी भरकम आयातित शब्दावली का प्रयोग न करके बाल कविता जैसे शब्दों का प्रयोग करता है और यही सहज शब्दावली इस गीत को वजनी बना देती है....

         मन का हिरन कुँलाचें भरता
         मन का मोर मगन हो झूमे
         मन का खरहा यूँ शरमाये
         मन की तितली उड़-उड़ जाए
         मन का पाँखी पंख पसारे ।
( पृष्ठ -९१)

 भाषा के स्तर पर मनोज जैन स्पष्ट एवं सहज संप्रेषणीय भाषा के पक्षधर हैं। संग्रह के गीतों की भाषा पाठक से मानसिक कसरत नहीं कराती अपितु गहन व्यञ्जनात्मक अभिव्यक्ति से संपृक्त नवगीतों की भाषा बेहद सरल और सहज है। बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग कर रचे गये ये गीत पाठक से तत्काल जुड़ते हैं , प्रचलित तत्सम शब्दों का प्रयोग भी संग्रह के गीतों में हुआ किन्तु अर्थबोध में बिना रुकावट पैदा करे ।
    संग्रह के विविधवर्णी गीतों को पढ़कर एक बिन्दु पर ध्यान बार - बार  अटकता है कि मनोज जी का चिंतन सामयिक व तर्कसम्मत है फिर भी वे कौन से कारक रहे जो कुछ गीतों में गीतकार की घनीभूत आस्था , चिंतन एवं तर्क की तरफ पीठ फेर बैठी है । बहुत सँभव है बचपन के संस्कार या ऐसा परिवेश जहाँ एक सजग कवि और आस्था का परस्पर सानिध्य हो। जिसका प्रभाव कुछ गीतों में उभरकर आता है।

                               कवि के चिंतन ने सँग्रह में प्रकृति पर्यावरण और परिवेश को महत्वपूर्ण स्पेस दिया है। इस खुरदुरे समय में जब, बच्चे आक्सीजन की कमी से दम तोड़ देते हैं, शमशान की राख ठण्डी नहीं होती, सत्ता आत्ममुग्धता के सारे पैमाने तोड़ निरंकुश हो लोक हितों के विपरीत नीतियाँ बनाकर अट्टहास कर रही है,तब "धूप भरकर मुट्ठियों" के नवगीत समाज,परिवार में प्रेम एवं समरसता के गुरुतर मूल्यों का प्रसार करते हैं।

             अनामिका सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें