मंगलवार, 24 मई 2022

ईश्वर दयाल गोस्वामी जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग


भीष्म गर्मी में तितर-बितर हुए जीवन को रेखांकित करते ईश्वर दयाल गोस्वामी के 
नवगीत 

        (1)    

बूँद-बूँद को तरसा गाँव                                  बूँद-बूँद को
तरसा गाँव  ।

चार बोर हैं
पाइपलाइन है,
घरों-घरों में
टोंटी नल है ।
कुएँ बहुत हैं
ताल खुदे हैं,
कहीं न लेकिन
किंचित जल है ।

सूखे पत्ते
रूठी छाँव ।

गैयें प्यासीं,
बकरीं प्यासीं,
गौरैया में 
छाई उदासी ।
तितर-बितर हैं
जीव-जन्तु भी,
प्यासा उल्लू
भरे उँघासी ।

कौओं की भी
सूखी काँव ।

उधर प्यास है,
इधर प्यास है,
प्यास खोजती
किधर प्यास है ।
खोज-खोज कर
लाते पानी
कुछ लोगों 
का ही प्रयास है ।

उल्टे पड़ते
सारे दाँव । 

बूँद-बूँद को 
तरसा गाँव ।           
       (2)        
 तप रहे हैं प्राण भी      
  
गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।

झकर उतरी जंगलों की
झुलसतीं हैं पत्तियाँ सब,
ठूँठ-से ठाँड़े हैं बिरछा,
सिसकतीं हैं डालियाँ सब ।

लपट लेकर
हवा आती 
तप रहे पाषाण भी ।

मर चुकी है काई सारी,
नदी जलती, घाट तपते ।
गैल सूनी पनघटों की,
कुएँ रीते,पाट तपते ।

सुलगती
अमराई छैयाँ,
तप रहे हैं त्राण भी ।

जरफराते पंख कोमल,
किलबिलाते चर-चरेरू ।
तपा खूँटा,गरम रस्सी,
तमतमाते  हैं  बछेरू ।

अँगीठी-सी
जिन्दगी का 
दग्ध है निर्वाण भी ।

गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।        
                        (3)                                                   :: भाप बहती है सबेरे ::                         --------------------------------               
भाप बहती 
है सबेरे,
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

आँख तपती,
कान तपते,
तप रही है
वात बहती ।
साँझ तपती,
याम तपते,
तप रही है
रात ढहती ।

चाँद ने 
नैना तरेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

पत्तियों के
उजड़ने से
तप रही
संपूर्ण वन्या ।
मंद भावों 
की तपन से
तप रही है
धान्य-धन्या ।

जल रहे हैं
घर,बसेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

तप रहे
नक्षत्र सारे,
कुण्डली के
मेल तपते,
लग्न,भाँवर
की तपन से
शुभाशुभ के
खेल तपते ।

दग्ध हैं अब
सात फेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।           
   
                             (4)                                                   :: गर्म साँसें,जल रहा मन ::                           -----------------------------------      
   गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।।

नाक ढकते,
कान ढकते,
नख बराबर
बंद हैं, पर,
दग्ध-वायु
जोर देकर
खोल देती
देह के दर ।।

चिपचिपाता
स्वेद से तन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

आँख भारी,
होंठ सूखे,
तमतमाते
गाल मेरे ।
कंठ रीता,
प्रहर बीता,
कसमसाते
बाल मेरे ।।

धूप चढ़ती
घन-घनाघन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

घर तपा
आँगन तपा है,
ताल तपता
कूप तपता ।
पंछियों के
पर तपे हैं
प्रकृति का
रूप तपता ।

गर्म राका,
तप्त उडगन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।


       पसीने के कोण 
  --------------------------                   
खींचती है
उष्ण-चतुर्भुज,
गर्मी अपने
बिन्दु-बिन्दु से ।।

खींचती है
वक्र रेखाएँ लपट कीं 
पसीने के 
कोण पर यह ।
बनाती है
वृत्त लू के बाह्य,भीतर
गली,घर 
औ' मोड़ पर  यह।।

फूँकती
पावक बराबर 
मेघ,नभ,रवि
और इन्दु से ।।

काटती हैं
वक्र किरणें,समानांतर
धैर्य की 
रेखाओं को भी ।
तोड़ती है
लू परिधि को 
व्यास को,
त्रिज्याओं को  भी ।।

आ रही हैं
उष्ण पवनें 
झील,सरिता
और सिंधु से ।

बनाती है
उष्ण-चतुर्भुज
गर्मी अपने
बिन्दु-बिन्दु से ।

     (6)                                                     नदी की पपड़ी उखड़ी ::     


 तपे,
घाट के पाट,
नदी की
पपड़ी उखड़ी ।।

कि उठती
गरम-गरम 
अब पीर ,
नदी के 
तप्त हृदय से ।
कि रीता
रस-रस 
मीठा नीर ,
रेत पर
लिखे प्रलय से ।।

थमा,
वाव का ताव,
वदी की
भाँवर मचली ।।

कि उठती
उद्गम से
जो हूक,
शोक के 
गीत सुनाती ।
हुई जो
पहले हम-
से चूक,
दृश्य वो 
आज दिखाती ।

लिए
ठूँठ का बोझ,
सदी की
काँवर पसरी ।
      000 
            ----- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
 (7)       
 रूखा रे ! यह झाड़ ::               
 रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा, भरोसे ।।

चट-चट करती शाख,
तने से छाल उतरती ।
पत्ते गिरे ज़मीन,
तपन से आँच उभरती ।।

वर्षा की उम्मीद
हृदय में पाले-पोसे ।।

रस-रस सूखा नीर,
जड़ों से चीख निकलती ।
यह नैसर्गिक पीर,
दर्द के अर्थ बदलती ।।

ओ ! निर्दय रवि आज,
काव्य-मन तुझको कोसे ।।

रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा,भरोसे ।।
      
 (8)                                 

::: झर चुके सब पात सुख के :::


उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
झर चुके सब
पात, सुख के ।

चिटचिटाती
शाख, मन की,
चिपचिपाती
धाक, तन की ।
तड़फड़ाते
जीव-जन्तु,
कसमसाते 
प्रेम-तन्तु ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
जहर सूखे
नाग-मुख के ।

धकधकाती
साँस, शव की,
चुभ रही है
फाँस, भव की ।
चरमराते
कर्म सारे ।
तपतपाते 
मर्म सारे ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
मंद होते 
भाव, दुख के ।

तमतमाती
आँख-पुतली,
किलबिलाती
पाँख,तितली ।
उबलती है
नदी सूखी,
मचलती है 
सदी भूखी ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
ताव उतरे
गरम-रुख के ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
झर चुके सब
पात, सुख के ।

     
     (9)                                                        सूरज से मनुहार 
-------------------------

अरे ! भाई सूरज
समझ,सोच,गुन ।

अजब तेरी भक्ति,
गजब तेरी शक्ति ।
मगर यार मेरी
जरा टेर सुन ।

अजब तेरी किरणें,
गजब तेज उनमें ।
मगर यार धरती 
को ऐंसे न घुन ।

कि सत ताप तेरा,
असत पाप मेरा ।
मगर यार फूलों
में काँटे न बुन ।

तेरे हाथ जीवन,
मेरे हाथ तन-मन ।
मगर मौत उसमें 
से अब तू न चुन ।

अरे ! भाई सूरज
समझ,सोच,गुन ।

                   --- ईश्वर दयाल गोस्वामी

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