सोमवार, 6 जून 2022

डॉ.कामता नाथ सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

डॉ.कामता नाथ सिंह
ग्राम- बेवल, पोस्ट-सुजवरिया, जनपद-रायबरेली, 
पिन-229307 
उ.प्र.,भारत
सेवा निवृत्त शिक्षक
सृजन-संसार
जय सुभाष (महाकाव्य)
गीत-गुन्ज (स्वरचित गीतसंग्रह),
बन्जारे गीत (स्वरचित नवगीत संग्रह),
गलबाँहीं (स्वरचित गीतसंग्रह)
"टीसें"(स्वरचित ग़ज़लें)
मुक्तक,दोहा, छन्द, गीत, नवगीत, ग़ज़ल आदि विविध छन्दवद्ध विधाओं और गद्य साहित्य में सृजन,
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, काव्यसंग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित
बहुत से राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से काव्यपाठ

एक
धुनी रुई-से हम

धुआँ-धुआँ सी हुई ज़िन्दगी
 धुनी रुई-से हम।
महज़ रह गये सम्बन्धों में
छुईमुई-से हम।।

 किर्च-किर्च बिखरी साँसों के
 दर्पण टूट गए,
हमराही सपनों के सतत्
 समर्पण,छूट गए;

 अनुबन्धों को सीते,धागा
 बिना सुई-से, हम।

व्यथा-कथाएं सदा सुहागन
भर आँचल बैठीं,
आँखों में सावन छलकाए,
अन्तस् तक पैठीं;

धीरे-धीरे सूख रहे हैं,
 खाल मुई-से, हम।

घटवारों-सा छेंके बैठे
 हैं सारी हलचल,
पल-पल का मुजरा लेते हैं
 ये अनजाने पल;

 बन्द मुहाफि़सखाना, फाइल
गुमी हुई -से, हम।।

दो

हैं  अभी जीवित सभी सम्भावनाएँ

लो सुनो नेपथ्य से 
आती हुई आवाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनायेंं।

कुछ हवाओं ने कहा 
कुछ सर्जनाओं ने,
मुँह छुपा कर पीठ फेरी
वर्जनाओं ने;

गर्जनाओं ने दहे
यों पीर के अन्दाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी संभावनाएं!

फिर उमंगें खोलतीं-सी
 राज़ अपनों के,
कामनायें काटती हैं
कान सपनों के:

भावनाओं के पखेरू के
नये परवाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनाएँ

प्रतिक्रियाएं हो रहीं
 मौसमी चालों पर,
चहलकदमी कर रहीं 
यादें रुमालों पर ;

लालिमा लिखती 
कपोलों पर नये अलफाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनाएँ

तीन

चिन्तन के ऋजुकोण
  
सूरजवंशी आभाओं के
चिंतन,चित्र,चरित्र सशंकित,
तामस की तमसाओं के
मूल्यांकन नये उछाहों पर है!!

कैसे कीर्तन-भजन सुनाएँ
पर्णकुटी में मन भरमाएँ
जाग उठी लगतीं संसृति की 
सारी सोमरसी इच्छाएँ

खजुराहो अब नये अर्थ में
तक्षशिला तक पहुंच गया है,

कामाख्या की     प्रतिमायें
निर्वस्त्र खड़ी चौराहों पर हैं!!
तामस की तमसाओं के
 मूल्यांकन नए उछाहों पर हैं!!

छद्मकथाओं के क्षेपक में
परीलोक के स्वर्ग दिखाये,
रक्त निचोड़ रहे मायावी
सपनों के नख-दन्त छिपाये;

कालचक्र काशेय पहनकर
कालनेमि-सा   घूम रहा है,

चिन्तन के ऋजुकोण अभी
वंचित-मन के दोराहों पर हैं!!
 तामस की तमसाओं के
मूल्यांकन नये उछाहों पर हैं!!

चार

कन्त बसन्त हुए
****************
कन्त बसन्त हुए
सौतन होने से डरती है ।
नई नवेली धरती
कितने संशय करती है ।।

रसवन्ती रसाल-मंजरियों
से भौंरों की बात,
कई कनखियाँ,सैन, इशारों 
में उठते वे हाथ;

हवा कहाँ किसकी चुगली
करने से डरती है।।

फागुन की आहट से 
सीवाने चैतन्य हुये,
लहकी अमराई,महुआये
सपने धन्य हुए

गीतों की रुनझुन पायल-सी
बन्जर परती है।।

दहके-दहके से पलाश-वन,
बहकी-बहकी रात,
तारों के निकुन्ज में चन्दा 
की बासन्ती-घात ;

पात-पात को चूमचूम
चाँदनी उतरती है ।।
कन्त बसन्त हुये, धरती
सौतन से डरती है।!

पाँच

अँगनाई की धूप

लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप धूप ।
कभी रोशनी है मुखड़े पर
कभी कुहासी रूप।।

कभी चुलबुली भोरहरी-सी
कभी दुपहरी चंट,
कभी लजाती छुईमुई के
 फूट गये से कंठ;

छिन में नदी पहाड़ी चंचल
बन जाती है कूप।।
लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप।।

कभी लिपट जाती है मन से
 कभी उड़नछू-सी,
मैल छाँटती अमरूदों-सी
कभी आबनूसी;

पल पल बदले बदले लगते 
कितने रंग अनूप।
लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप।।

बर्फीला कुहरा कर रहा
 शिकायत किसमत से,
छेड़छाड़ कर रही हवा यह
उसकी अस्मत से;

और जेठौते की गुड़धनियाँ
बाँट रहा है सूप ।
लुकाछिपी सा खेल रही है
अँगनाई कीधूप।।

छह

आंँखें खोलकर देखो

क्या यही है युग नया, परिवेश
आंँखें खोलकर देखो ।।

वे अकिंचन,बोझ सिर का,
और उस पर ज़िन्दगी का
भार, कन्धे पर,

जा रहे, लादे हुए, 
आंँखें हिकारत से भरी, 
भगवान अन्धे पर;

हांँ, मगर जीवन्तता 
है शेष
आंँखें खोल कर देखो।। 

पीर की अठखेलियांँ 
मुख पर, 
थिरकती है युगों से, 
भूख आंँतों में,

चीखती हैं
स्वार्थ में बिकती हुई संवेदनाएं, 
गूढ़ बातों में;

घेर कर बैठे हुए 
सौ क्लेश,
आंँखें खोलकर देखो।।

नित नए सन्त्रास, कुंठायें,
 व्यथायें तैरती हैं, 
फिर हवा में काल बनकर;

तान कर चट्टान-सा सीना
 खड़ा ज्वालामुखी-सा मौन,  
अब भूचाल बनकर;

काल के विद्रूप का
अवशेष,
आंँखें खोल कर देखो।।

सात

आग लगाके नाचे सूरज
 
आसमान कुढ़के धरती पर
 डाल रहा पेट्रोल!
आग लगाके नाचे सूरज 
 बजाबजा के ढोल!!

 रह-रह ज्वालामुखी उगलते
ऊसर, बन्जर, परती,
दुपहरिया. सतहरिया, संझा,
 भोर कुलांचे भरती;

कुंजों के आंगन, मुंहझौंसी
 पछुआ करे किलोल!!

अंग-अंग सौ-सौ अनंग,
 पुरजोर पसीना सींचे,
 तपती कंचन-काया,आतप
 फिर-फिर आग उलीचे;

 आंचर-कोर दबाये
 घुंघुटाही दुलहिन के बोल!!

 ठेठ, जेठ की बोली-बानी
 मगहर जैसी लागे,
बेबस उसके आगे जैसे
 सारे पुन्न अभागे;

 गाछ-गाछ के पात-पात में
 गई अगन है घोल!!

आठ

काले मेघा दे जा पानी

सबके अपने ठाट-बाट हैं,
सबकी अपनी रामकहानी!
  एक अकेला जेठ आ गया,
    मरी हुई है सबकी नानी!!

सन्नाटे का भूत चढ़ा है,
 गली-मुहल्ले सब सूने हैं,
विधवा की बेटी-सी सिमटी
नदिया के भी दु:ख दूने हैं;

ताल-तलैया, पोखर प्यासे 
 लगी रामरट पानी-पानी!!

हंसे गुलमुहर खड़ा दुआरे
 जाने किसकी बाट निहारे,
और अगन-सी तपन,थपेडे़
 सहता अमलतास मन मारे;

सुगना की टिटकोर पियासी,
दुपहरिया की चढ़ी जवानी!

हवा प्यास से व्याकुल हांफे,
 डगर-डगर छेड़े मनमानी,
धरती के हौंसले पस्त हैं
मौसम करता आनाकानी;

आंखों में कुछ पानी हो तो 
काले मेघा दे जा पानी!!

नौ

"हरसिंगार के फूल झरे हैं"

 लगता है मन के आँगन मेंं
 हरसिंगार के फूल झरे हैं।

दूर क्षितिज में बात चली है,
बजने वाली है शहनाई,
ललछौंही लाली ऊषा की
लेती है ऐसी अँगड़ाई;

और लजाती कनबतियों के
लगते राज़ बड़े गहरे हैं!

 कब तक मन मारे बैठे वह
सूरज भी आता ही होगा,
फिर बारात तितलियों,कलियों,
अलियों की,लाता ही होगा;

मधुयामिनी निकट ही होगी
टूट गए सारे पहरे हैं!

 पोर-पोर रस-गन्ध रचाये
ठिठके,सकुचाये अमराई,
और चुहलबाजी करती सी
गली-गली मादक पुरवाई;

 बोला है मुँड़ेर पर कागा
 बिरहिन के भी दिन बहुरे हैं!

 लगता है मन के आँगन में
 हरसिंगार के फूल झरे हैं!!

दस

फिर पलाश वन दहक उठे हैं

फिर पलाश वन
 दहक उठे हैं,
 नयी आग के।।

 धधक उठे हैं
 बहुत दिनों के बाद
 दबे शोले,
रूपवन्त के 
आँगन मेंं
इच्छा के मुँहबोले;

आखर-आखर
 चहक उठे हैं
 दिन सुहाग के।।

थिरक रहे
 कोयल के स्वर में
 अमराई के बोल,
कलियों के 
अधरों से टपके है
 मकरन्द अमोल;

लगता है मन 
बहक उठे हैं,
 वीतराग के।।

सन्त बसन्त हुए,
 दिगन्त तक
 कन्त कहाँ दिखते...
फगुआये आँचल पर 
कितने छन्द
 यहाँ लिखते;

गदराये तन
 लहक उठे हैं,
 अंगराग के!!

ग्यारह

हम क्या जानें

 सूरज इतना
 आगबबूला क्यों है,
आखिर हम क्या जानें !

 नरम तबीयत है
मौसम की, 
गरम माथ है,
धूप तेज़ है,

मृगमरीचिकाओं का 
कोई किस्सा भी,
 सनसनीखेज़ है;

 अनचाहा कुछ
 हुआ यहां पर, 
मगर क्या हुआ, 
हम क्या जानें!

 टन्न हुई खोपड़ी,
 निकलते ही घर से
बैशाख आ गया,

लू का हरकारा,
 स्वाहा करने की
 लेकर डाक आ गया!

दुपहरिया में शिमला,
 जैसलमेर क्यों हुआ
 हम क्या जानें?

बड़े बाप की बेटी हैं
 सूरज की किरनें,
   जो ऐंठी हैं,

फुलबगिया का 
मुंह उतरा है
 मन मारे
 कलियां बैठी हैं;

 कोयल क्यों
 सौ चुप हजार चुप,
सन्न पड़ी है,
 हम क्या जानें ??

बारह

यहां पी गये ताल मछेरे

सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!
बात मछलियों की क्या करना 
यहां पी गये ताल मछेरे!!

जाने कितने जाल छिपे हैं,
बंसी में कैसे चारे हैं,
 झूठे सम्मोहन में फंसते
हम भी कितने बेचारे हैं;

 चारे की तलाश में सारे
बगुले देखो भगत हो गये,

बात मछलियों की क्या करना 
यहां पी गये ताल मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

अपना यह परिवेश अकिंचन
कितना मैला और कुचैला,
और क्षितिज के पार देखना
 देवों का नन्दनवन फैला;

वहां नये आकाशद्वीप में
परियों के मेले में रहना,

 कहते हैं छोड़ो ये दुनियांदारी, 
सब जंजाल, मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

राजनीति की डायन को
 दामाद बहुत प्यारे होते हैं,
बच्चे भी खा जाती, जब
 सत्ता के गलियारे होते हैं;

 अपने मुंह मिट्ठू बनने की
 कोशिश में दिन-रात लगे हैं,

दुनियां भर को ज्ञान बांटते
बजा रहे बस गाल मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

तेरह

मौसम के बोल

बदल गये मौसम के बोल |
प्यार हुआ बाबा के मोल |

बौराये आमों के 
बासन्ती तूर्यनाद,
उल्लसित उमंगों के
समदर्शी सूर्यवाद ;

खुलती सी एक एक पोल !!

सरसों के रंगों में
खिलीं भावनायें,
जलतरंग-सी गुञ्जित
सभी कामनायें ;

आवारा हवा  रही तोल !|

कोमल किसलय 
रचते नये अनुप्रास,
ललक भरे टेसू-वन
करते  परिहास ;

कोयल स्वर में अमृत घोल !!

द्वारे गुनगुनी धूप
प्रणय-पत्र बाँचे,
गदराये अंग-अंग
में अनङ्ग नाचे ;

तन-मन के बदले भूगोल!!
बदल गये मौसम के बोल !!

चौदह

भटके   हुए   कबीर
     
अपनेपन की झरबेरी में
      अटके हुए कबीर।
देहरी-आँगन बाँट रहे हैं,
       भटके हुए कबीर।

 अँधियारे-उँजियारे जैसे
 पाले बँटे हुये,
अपनों के सम्मुख ही अपने
 वाले डटे हुए;

हुए हलाल किसी की खातिर 
झटके हुए कबीर !

मुल्ला पंडित झूठे थे
     अब खु़दाबन्द झूठा,
भाव-भक्ति की शाखें सूखीं
      मन-तरुवर ठूंँठा;

 डाल-डाल, बेताल सरीखे
 लटके हुए कबीर।

झीनी बिनी चदरिया के
 रेशे-रेशे ढीले,
मुई खाल की साँस मुई
 मौसम हैं जहरीले;

क्या काशी, क्या मगहर, 
    किस्से टटके हुए कबीर।
अपनेपन की झरबेरी में
     अटके हुए कबीर।
पन्द्रह

अभिसार के सपन

आँखों ने आँज लिए फिर
अनगिन अभिसार के सपन !!

फूलों को कौन क्या कहे,
कलियाँ भी हुईं बदचलन,
      काँटे महसूस कर रहे
      पोर-पोर से उठी चुभन;

जाने क्यों फूलने लगे
बात-बात में बबूल-वन।।

मन की हर हूक चूककर
सिहरन को ओढ़ सो गई,
   पसुरी-पसुरी की चिलकन
   पावस की पीर हो गई ;

असमन्जस में है मौसम,
सन्दली समीर की छुवन।।

बूंँद-बूंँद नेह की झरे
बदरी गाये गाँव-गाँव,
     मार टिहोका निकल गई
      बिजुरी कोई पाँव-पाँव;

नये-नये  दाँव खेल के
साँस-साँस की बढ़ी तपन।।

 आँखों ने आँज लिए फिर
अनगिन अभिसार के सपन !!

सोलह

घट-घट के हुए कबीर

समयशिला पर कालचक्र
के पटके हुए कबीर।
    ऐसा लगता है जैसे 
     घट-घट के हुए कबीर।

भेदभाव के रंग भरे कब
 अपनी चादर में,
 समरसता के चाव भरे सब
 आखर-आखर में;

द्वेष-जलन को शीतल-जल
 के मटके हुए कबीर। 
      ऐसा लगता है जैसे
       घट-घट के हुए कबीर।।

दुनियाँ के सारे आडम्बर 
को नंगा करके,
खरी-खरी कंचन-सी बानी
 को गंगा करके,

जीते-मरते बोलो कब
 बेखटके हुये कबीर।
     अब तो लगता है जैसे
      घट-घट के हुए कबीर!!

राई को पर्वत करके
उत्तुंग शिखर होना,
   एकीकृत प्रतिरूप कई
     जीवन्त-मुखर होना;

अपने चिन्तन में दरपन से
    चटके हुए कबीर!!
अब तो लगता है जैसे
    घट-घट के हुए कबीर!!

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