गुरुवार, 28 जुलाई 2022
कृति चर्चा : मनोज जैन
"हिंदी हाइकु कोश"
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अनुभव सम्पन्न कोशकार डॉ.जगदीश व्योम जी के संपादन में दुनियाभर के हाइकुकारों पर एक महत्वपूर्ण काम हुआ है।
"हिंदी हाइकु कोश"
संपादक
डॉ. जगदीश व्योम
निशात प्रकाशन,
दिल्ली
मूल्य @1100/-
728, पृष्ठों में 1075, हाइकुकारों की 6386, श्रेष्ठ हाइकु कविताओं से सुसज्जजित "हिंदी हाइकु कोश" एक सामान्य पाठक से लेकर विद्या के अध्येयता तक हाइकु से सम्बंधित अधिक से अधिक आधिकारिक जानकारी देता है।
कोश की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है की वह अपने पाठक को अधिक से अधिक विधा से जुड़ी सम्यक जानकारी प्रदान करे। चाहे वह सृजन की हो या हाईकुकारों के नए पुराने संग्रह या सन्दर्भग्रन्थ की हो या फिर विधा के उद्भव और विकास की!
फ़ौरीतौर पर देखनें पर यह कहा जा सकता है की सम्पादक डॉ जगदीश व्योम जी ने अपनी पूरी लगन और निष्ठा से कोश पर काम किया है।
अभी मैंने सम्पादकीय और वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश भट्ट जी का आलेख ही पढ़ा है जो हाइकु से जुड़ी रोचक जानकारियाँ देता है।
कोश के पाठक नवीनतम और अद्यतन जानकारियों से अवश्य अपने आप को समृद्ध करेंगे।
बानगी के तौर पर कुछ हाइकु देखें
1
कंक्रीट -वन
नभचुम्बी भवन
रिश्ते निष्प्राण !
-अनामिका सिंह
2
अंकुर नहीं
जीवन ही जीवन
बीजों से फूटे
-कमलेश भट्ट कमल
3
कड़ी धूप में
छतरी बने पेड़
सभी के लिए
-डॉ. कुँअर बेचैन
4
ठंडे पर्वत
रुई पहनकर
ठिठुर रहे
-डॉ.मिथिलेश दीक्षित
5
बचे रहना
सुख से समझौते
महँगे होते
-पूर्णिमा वर्मन
6
शिखर पर
चिड़िया बैठी, बोली
चढ़ो ऊपर
-डॉ कमलकिशोर गोयनका
7
होगा सबेरा
जमीन पे लाएँगे
रात के ख़्वाब
-हरेराम समीप
8
लोभ का प्रेत
नदी हुई है रेत
उदास खेत
-घनश्याम मैथिल अमृत
कोश में शामिल दुनियाभर के सभी हाइकुकारों को बहुत बहुत बधाइयाँ। एक और अच्छी बात, कोश का प्रूफ बहुत कुशलता से चैक किया गया है।
डॉ.Jagdish Vyom जी को अनन्त बधाइयाँ।
प्रस्तुति
मनोज जैन
प्रोफे ममता सिंह के तीन गवगीत
1
गीत
जाने कब हो भोर
मन का पंछी व्याकुल बैठा
जाने कब हो भोर ।
आशा और निराशा के दो
पलड़ो में मैं झूलूँ
पंख कटे हैं फिर भी मन है
आसमान को छू लूँ।
कैसे बाँधू गति चिंतन की
चले न कोई जोर।
टूट गई मोती की माला
निकला धागा कच्चा
इस दुनिया में ढूँढे से भी
मिला न कोई सच्चा
कोयल बनकर कौआ बैठा
मचा रहा है शोर।
सम्बन्धों के मकड़जाल में
फँस गई अब तो जान
उस पर रिश्ते गिरगिट जैसे
होती नहीं पहचान।
तड़़प रहा है कैदी मनवा
देखे अब किस ओर।
प्रो0 ममता सिंह
मुरादाबाद
2
गीत ----
महँगी है मुस्कान
दर्द यहाँ पर सस्ता यारो।
महँगी है मुस्कान।।
जीवन की आपाधापी में,
संगी साथी छूटे।
मृगतृष्णा से बाहर आकर,
कितनों के दिल टूटे।
कस्तूरी पाने को फिर भी।
भटक रहा इंसान।।
मक्कारी में मिला झूठ ही,
राज़ दिलों पर करता।
सच की खातिर लड़ने वाला,
चौराहों पर मरता।
मोल चवन्नी के ही देखो।
बिकता है ईमान।।
फुर्सत किसको है जो अपने,
मन के अंदर झांके।
घर में रक्खा आईना भी,
धूल यहाँ पर फांके।
मुश्किल है ऐसे में *ममता*।
खुद की भी पहचान।।
प्रोफेसर ममता सिंह
मुरादाबाद
3
गीत ----
डूब रहा संसार
आज रंग में भौतिकता के,
डूब रहा संसार ।
सम्बन्धों में गरमाहट अब,
नज़र नहीं है आती
आने वालो की छाया भी
बहुत नहीं है भाती।
चटक रही दीवार प्रेम की,
गिरने को तैयार।
होता खालीपन का सब कुछ,
होकर भी आभास।
लगे एक ही छत के नीचे,
कोई नहीं है पास।
आभासी दुनिया ने बदला,
जीने का ही सार ।
खुले आम सड़कों पर देखो,
मौत कुलाचें भरती।
बटुये की कै़दी मानवता,
कहाँ उफ़्फ भी करती।
खड़ी सियासत सीना ताने,
बनकर पहरेदार।
प्रोफेसर ममता सिंह
मुरादाबाद
मंगलवार, 19 जुलाई 2022
चोट तो फूल से भी लगती है : विनोद श्रीवास्तव आलेख मनोज जैन
चोट तो फूल से भी लगती है : विनोद श्रीवास्तव
"धार पर हम दो" की नौका में (सह सवार विनोद जी और स्वयं मैं) बात उन दिनों की है जब हिंदी के चर्चित नवगीतकार कवि वीरेन्द्र आस्तिक जी, हिंदी पट्टी के कुछ नवगीतकारों को लेकर बड़ा काम करने जा रहे थे। यद्धपि उन दिनों उनके इस काम की सुगबुगाहट नवगीतकारों के मध्य पूरे देश में थी, पर जब 2010 में आस्तिक जी ने अपने नेतृत्व में "धार पर हम" रूपी नौका में जिन 16 नवगीत कवियों को एक साथ बैठने का सुअवसर दिया, उनमें से कानपुर के प्रख्यात कवि विनोद श्रीवास्तव जी भी एक थे, और वह अपनी विशेषताओं के चलते अन्य कवियों से हटकर भी थे। कविवर विनोद श्रीवास्तव जी से मेरे परिचय का आरम्भ यहीं से होता है।
विनोद जी के "धार पर हम" भाग दो में प्रस्तुत आठ नवगीतों को पढ़कर उनसे मिलने की इच्छा बलवती हो उठी। दैवयोग से लखनऊ की चर्चित मासिकी 'राष्ट्रधर्म' द्वारा घोषित नवगीत वर्ष में मेरी पुस्तक "एक बूँद हम" का चयन राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान के लिये किया गया। लखनऊ प्रवास से लौटते हुए कानपुर की चर्चित संस्था 'मान सरोवर'की सरस काव्य गोष्ठी में भागीदारी और वहाँ के कुछ चर्चित साहित्यकारों से भेंट के इस निमित्त का सुयोग सन 2013 में दादा आस्तिक जी के माध्यम से जुटा।
इस क्रम में दादा आस्तिक जी ने जिन दो साहित्यिक विभूतियों से भेंट के लिए समय नियत किया, उनमें से पहले थे डॉ विमल जी, जिन्हें मैं चलती-फिरती यूनिवर्सिटी कहना ज्यादा पसन्द करूँगा, और दूसरे थे नाद ब्रह्म के साधक विनोद श्रीवास्तव जी !
दोनों विभूतियों से आस्तिक जी की अत्यन्त निकटता के चलते मुझे जो स्नेह मिला वह शब्दातीत है। मिलने से पहले विनोद जी का जो काल्पनिक स्केच मेरे मस्तिष्क ने बना रखा था , विनोद जी ठीक उससे उलट थे।
आस्तिक जी ने हम दोनों का परिचय
कराया। परिचय के ठीक बाद विनोद जी ने एक प्रश्न दागा। "क्या, आप भी नवगीत गाते हैं" ? पता नहीं, विनोद जी ने मेरी सबसे बड़ी कमजोरी कैसे ताड़ ली ! मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए मैंने तहत में अपना एक नवगीत उनके समक्ष रखा और कार्यालयीन व्यस्तता के चलते इस भेंट ने चाय के उपरान्त विराम ले लिया। तदुपरांत कवि से पुनः भेंट का अन्तराल लम्बा भले ही रहा हो पर है रोचक!
मरुप्रदेश राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर, हरवर्ष गीतों पर एकाग्र कुंभ का सरस आयोजन "गीत चाँदनी" के नाम से करता आ रहा है। 4,अक्टूबर 2014 के गीतोत्सव के इस आयोजन में मुरादाबाद से दादा माहेश्वर तिवारी जी, महाकाल की नगरी उज्जयिनी से कविवर हेमन्त श्रीमाल , गाज़ियाबाद से विजय किशोर मानव जी के साथ भोपाल से मुझे भी इस साहित्यिक कुंभ यानि गीत चाँदनी के इस कवि सम्मेलन में विशम्भर कौशिक जी के आदेश पर कीर्तिशेष सुरेन्द्र दुबे जी ने अपने संचालन में पाठ हेतु मुझे भी आमन्त्रित किया गया था।
मैंने कानपुर से पधारे कविवर विनोद श्रीवास्तव जी के मुखारविंद से उच्चरित ध्वनि जिसकी तुलना यदि ब्रह्मनाद से की जाय तो भी अतिशयोक्ति ना होगी। उनके जादुई पाठ का प्रभाव और असर पूरे नौ साल के अन्तराल पर भी मेरी स्मृति में जस का तस है। उन्होंने पाठ का आरम्भ जिस मुक्तक से किया वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
धर्म छोटे बड़े नहीं होते
जानते तो लड़े नहीं होते
चोट तो फूल से भी लगती है,
सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।
काश ! वर्चस्ववादी ताकतें इस मुक्तक का अनुसरण कर पातीं । कट्टर धर्मावलम्बियों को स्वधर्म से विरक्त किए बिना मनुष्यत्व के प्राकृतिक धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित करता यह मुक्तक बेहद संदेशप्रद है।
विनोद जी की अद्भुत पाठ शैली की विशेषता यह है कि इन्हें इनका श्रोता बड़ी संजीदगी से सुनता है जितनी गम्भीरता से विनोद जी रचते हैं श्रोता भी इनके लिखे हुए को वैसा ही मान देता है। जहाँ तक मैंने विनोद जी के पूरे पाठ के दौरान महसूस किया यह मुक्तक पूरे पाठ का मंगलाचरण
है इस मुक्तक को माध्यम बना कर कवि अपने श्रोताओं को नाद ब्रह्म रूपी सस्वर पाठ से मानव धर्म का बोध बड़े सरल शब्दों में कराते हैं; एवं आधुनिक मनुष्य को मानव बड़े शालीन तरीके से मानव धर्म का सन्देश देकर सच्चा इन्सान बनाने में अपने कवि धर्म का सम्यक निर्वहन करते हैं।
प्रसंगवश विनोद जी से एक छोटी सी मुलाक़ात का ज़िक्र किये बिना बात पूरी नहीं होगी। विनोद जी ने न तो बहुत लिखा है और न ही मैंने विनोद जी को बहुत पढ़ा है। यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि वे न तो पूरी तरह साहित्यक हैं न ही पूरी तरह मंचीय । प्रकारान्तर से कहें तो उन्होंने दोनों जगह एक कुशल नट की तरह सम्यक संतुलन साधा हुआ है। उनके हिस्से में कुल जमा दो पुस्तकें दर्ज हैं
भीड़ में बाँसुरी (१९८७), अक्षरों की कोख से (२००१) यह मेराअपना दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि मैं अपने प्रिय कवि के इन दोनों संग्रहों से अभी तक नहीं गुजरा पर उनके व्यक्तित्व की सघनता और गहराई के चलते मैंने उन्हें यूट्युब पर और विभिन्न फेसबुक पेज एवम् सोशल मीडिया के माध्यम से भी आंशिक जानने की पूरी कोशिश की । मैं इस कोशिश में किसी हद तक सफल भी रहा हूँ।
विनोद जी मितभाषी हैं वह सामान्य वार्ता लाप में भी शब्दों को बेबजह जाया नहीं करते उन्हें जो कहना होता उसे वह अपने गीतों में बोलते हैं
15 जुलाई 2016
काव्यालोक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, लालगंज रायबरेली में सुने उनके दो प्रतिनिधि गीतों की अमिट छाप मेरे मस्तिष्क पर अब भी देखी जा सकती है।
विनोद जी के नवगीत मर्मस्पर्शी गहरी व्यंजना से समृद्ध होते हैं उनके पाठ को सुनने का मतलब है एक न भूलने वाला अनुभव। उनके गीतों का कथ्य शिल्प और बिम्ब-विधान अद्भुत है एक ऐसी अन्तर्लय जो सहज ही मन को आबद्ध कर लेती है
एक खामोशी
एक खामोशी
हमारे बीच है
तुम कहो तो
तोड़ दूँ पल में।
सिरफिरी तनहाइयों का
वास्ता हमसे न हो
जो कहीं जाए नहीं
वह रास्ता हमसे न हो।
एक तहखाना
हमारे बीच है
तुम कहो तो
बोर दूँ जल में।
फूल हैं, हैं घाटियाँ भी
पर कहाँ खुशबू गई
क्यों नहीं आती शिखर से
स्नेहधारा अनछुई।
एक सकुचाना
हमारे बीच है
तुम कहो तो
छोड़ दूँ तल में।
रूप में वय प्राण में लय
छंद साँसों में भरे
और वंशी के सहारे
हम भुवन भर में फिरें।
एक मोहक क्षण
हमारे बीच है
तुम कहो तो
रोप दूँ कल में।
2
नदी के तीर पर ठहरे
नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुज़रे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती।
हवा को हो गया है क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं'
घरों में गूँजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं।
धुएँ के शीर्ष पर
ठहरे
धुएँ के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती
नक़ाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है।
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती।
कहाँ मंदिर कहाँ गिरजा
कहाँ खोया हुआ काबा
कहाँ नानक कहाँ कबिरा
कहाँ चैतन्य की आभा।
अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुज़रे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती।
तिथि से गणना करें तो विनोद जी मुझसे तीस वर्ष ज्येष्ठ हैं, परन्तु वह अपने इस अनुज को सदैव एक मित्र के जैसा आदर देते हैं।
सोशल मीडिया के सबसे चर्चित नवगीतों पर एकाग्र फेसबुक समूह वागर्थ में उनके गीतों पर चर्चा करने कराने का यश मेरे हिस्से में दर्ज है। भाई साहब शतायु हों विनोद जी की प्रस्तुति वाचिक परम्परा के स्वर्णकाल की याद दिलाती है।
मनोज जैन
संचालक वागर्थ समूह
106, विट्ठल नगर
गुफामन्दिर रोड भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806
रविवार, 3 जुलाई 2022
नवगीत मनोज जैन के दो नवगीत प्रस्तुति वागर्थ
एक
गङ्गा नहाते हैं
_________
मित्र बैठो
पास मेरे
चार 'कश!' 'सिगरेट' के
मिलकर लगाते हैं।
मन मुआफ़िक चल रहा सब
दिन दहाड़े तंत्र हमको
लूट लेता है।
जो सुरक्षा में खड़ा है,
कौन उसको लूटने की
छूट देता है।
'धुएँ' के 'छल्ले' उड़ाओ
फिक्र छोड़ो
इस तरह आदर्श
गाते हैं।
लोग उन्मादी हुये हैं
इन्हें अपने काम के ही
रंग दिखते हैं।
कुछ सयाने इन्हें बहका
नियति में इनकी जबरिया
जंग लिखते हैं।
मान लो अपनी कठौती
'ऐश-ट्रे है
और हम
गङ्गा नहाते हैं।
दो
मानवतावादी चिंतन की
___
एकाकी
चिंतन है प्यारे!
यह तो कोई बात नहीं है।
आर्यावर्ते जंबूद्वीपे
भरतखण्ड में केवल, केवल,
हम ही हम हों।
खुशियाँ सारी रहें हमारी
रहें हमारी,औरों के हिस्से
में ग़म हों।
सच्चाई में
सपना बदले
इतनी अभी बिसात नही है।
एक सोच कहती आई है
सदियों-सदियों सिर्फ हमारी
केशर क्यारी।
रंग धरा का हो केसरिया,
हो केसरिया,सोच रहा हर
भगवाधारी।
मानवतावादी
चिंतन की
प्यारे कोई जात नहीं है।
उन्मादी, कुत्सित चिंतन को,
जन गण मन में,मत पलने दो,
मत पलने दो।
कठमुल्लापन छोड़ो भाई,
नई पौध को, मत छलने दो,
मत छलने दो।
आशा के
सूरज को रोके
ऐसी कोई रात नहीं है।
मनोज जैन
कृति चर्चा में इस बार : राजेन्द्र शर्मा अक्षर जी
अनूठा नवगीत संग्रह -धूप भरकर मुट्ठियों में
श्री मनोज जैन मधुर नवगीत विधा को समृद्ध करने के प्रयास में संलग्न हैं। वे इस विधा के सुपरिचित नाम हैं । पिछले दिनों मुझे उनका नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में ' पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।
इस संग्रह में लोकमंगल की भावना ही प्रधान है ।लोकमंगल के साथ ही श्री मधुर मानव के सन्मार्ग पर चलने की कामना करते हैं :-
चलो सब शपथ लें
नए साल में हम।
किसी को यहां पर न
न कोई छलेगा
नहीं चाल कोई
सियासी चलेगा
मिलाएं न काला
कभी दाल में हम
चलो सब शपथ लें
नए साल में हम।
रचनाओं में रचनाकार की स्वयं की अपनी छाप है। वह किसी वाद का पिछलग्गू नहीं है । कुंठा से मुक्त है ।
वह कहता है -
कुछ नहीं दें
किंतु हंसकर
प्यार के दो बोल बोलें
हम धनुष से झुक रहे हैं
तीर से तुम तन रहे हो
हैं मनुज हम तुम
भला फिर
क्यों अपरिचित बन रहे हो
हर घड़ी शूभ है
चलो मिल
नफरतों की गांठ खोलें
प्यार के दो बोल बोलें।
अध्यात्म के प्रति रचनाकार की गहरी रुचि है :-
दृष्टि है इक बाहरी तो
एक अंदर है
बूंद का मतलब समंदर है ।
अध्यात्म की एक और कविता बहुत प्रभावी बन पड़ी है :-
ब्रह्म वंशज हम सभी हैं
ब्रह्ममय हो जाएंगे
बैन सुन अरिहंत भाषित
शिव अवस्था पाएंगे।
विद्या और ज्ञान की परिणति विनय में ही होती है । यह विनय श्री मधुर की रचनाओं में यत्र तत्र मिलती है :-
छन्दों का ककहरा अभी तक
हमने पढ़ा नहीं ।
अपनी भाषा का मुहावरा
हमने गढ़ा नहीं ।
लेखक की पर्यावरण के प्रति चिंता इन पंक्तियों में प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है:-
अश्क खून के
आंखों से
रुलवाएगा पानी ।
नदिया सूखी पोखर सूखा
बूढ़ी झील गई ।
भूल हमारी
धरती का रस
पूरा लील गई ।।
सबसे अच्छी बात यह है कि संग्रह के नव गीतों में नए प्रतिमान स्वाभाविक रूप से आये हैं कहीं पर भी नए प्रतिमानों को कृत्रिम रुप से नहीं लाया गया है उदाहरणार्थ:---
1-हम सुए नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलोगे रट जाएंगे
हम ट्यूब नहीं है डनलप के
जो प्रेशर से फट जाएंगे
2-बैठ गया आंगन में
कुंडलिया मार
गिरगिट से ले आया
रंग सब उधार
3-पूछकर तुम क्या करोगे
मित्र मेरा हाल
पीर तन की खींच लेती
रोज थोड़ी खाल
4-पी गए
हमको समझ तुम
चार कश सिगरेट
आदमी हम
आम ठहरे
बस यही है रेट
कतिपय आह्वान परक रचनाएं बड़ी सशक्त बन पड़ी हैं -
1-सोया है जो तन के अंदर
उसे जगाओ जी
अब चेहरे पर नया मुखौटा
नहीं लगाओ जी
गाल बजाने से क्या होना
बदलो जीवन सारा
नए रूप में देख सकोगे
संवेदन की धारा
परिवर्तन का बीड़ा पहले
स्वयं उठाओ जी
2- बोल कबीरा बोल
शंख फूंक दे परिवर्तन का
धरती जाए डोल
कहीं-कहीं मापनी में
एकाध शब्द का बदलाव आया है उसका कारण यही प्रतीत होता है कि कवि ने अर्थ की प्रभावुकता को महत्व दिया है उसकी समझ में शायद शब्द बदल देने से अर्थ के उत्कर्ष में कमी हो जाती। कहीं-कहीं मात्रा गिराने का सहारा लिया गया है। कुछ लोग इसे अस्वीकार कर सकते हैं। मेरी विनम्र सम्मति में-मात्रा गिराना, विचलन, विपथन आदि की छूट लेने का अधिकार सभी रचनाकारों को समान रूप से मिलना चाहिए। मधुर जी को भी यह छूट लेने का अधिकार है ।
नवगीत के शिल्प पर उनकी रचनाएं खरी उतरती हैं। काव्य में रसात्मकता है । कथ्य में भाव संयोजन है। शब्द विन्यास उत्तमोत्तम है ।
भाषा एवं नवीन दृष्टिकोण से नवता है।
विषय वस्तु के संदर्भ में कह सकते हैं कि उनके चिंतन का स्तर ऊंचा है। विचारों में औदात्य है, लोक मंगल की कामना है । 80नवगीतों का यह संग्रह अनूठा, आकर्षक और पठनीय है ।
सफल, सार्थक सृजन के लिए श्री मनोज जी मधुर, साधुवाद के पात्र हैं। पूरा विश्वास है कि गीत -नवगीत के क्षेत्र में वे इसी ऊर्जा और समर्पण के भाव से अपना योगदान देते रहेंगे ।
उनके सुदीर्घ यशस्वी जीवन की कामना के साथ ---------राजेन्द्र शर्मा 'अक्षर '