अनूठा नवगीत संग्रह -धूप भरकर मुट्ठियों में
श्री मनोज जैन मधुर नवगीत विधा को समृद्ध करने के प्रयास में संलग्न हैं। वे इस विधा के सुपरिचित नाम हैं । पिछले दिनों मुझे उनका नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में ' पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।
इस संग्रह में लोकमंगल की भावना ही प्रधान है ।लोकमंगल के साथ ही श्री मधुर मानव के सन्मार्ग पर चलने की कामना करते हैं :-
चलो सब शपथ लें
नए साल में हम।
किसी को यहां पर न
न कोई छलेगा
नहीं चाल कोई
सियासी चलेगा
मिलाएं न काला
कभी दाल में हम
चलो सब शपथ लें
नए साल में हम।
रचनाओं में रचनाकार की स्वयं की अपनी छाप है। वह किसी वाद का पिछलग्गू नहीं है । कुंठा से मुक्त है ।
वह कहता है -
कुछ नहीं दें
किंतु हंसकर
प्यार के दो बोल बोलें
हम धनुष से झुक रहे हैं
तीर से तुम तन रहे हो
हैं मनुज हम तुम
भला फिर
क्यों अपरिचित बन रहे हो
हर घड़ी शूभ है
चलो मिल
नफरतों की गांठ खोलें
प्यार के दो बोल बोलें।
अध्यात्म के प्रति रचनाकार की गहरी रुचि है :-
दृष्टि है इक बाहरी तो
एक अंदर है
बूंद का मतलब समंदर है ।
अध्यात्म की एक और कविता बहुत प्रभावी बन पड़ी है :-
ब्रह्म वंशज हम सभी हैं
ब्रह्ममय हो जाएंगे
बैन सुन अरिहंत भाषित
शिव अवस्था पाएंगे।
विद्या और ज्ञान की परिणति विनय में ही होती है । यह विनय श्री मधुर की रचनाओं में यत्र तत्र मिलती है :-
छन्दों का ककहरा अभी तक
हमने पढ़ा नहीं ।
अपनी भाषा का मुहावरा
हमने गढ़ा नहीं ।
लेखक की पर्यावरण के प्रति चिंता इन पंक्तियों में प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है:-
अश्क खून के
आंखों से
रुलवाएगा पानी ।
नदिया सूखी पोखर सूखा
बूढ़ी झील गई ।
भूल हमारी
धरती का रस
पूरा लील गई ।।
सबसे अच्छी बात यह है कि संग्रह के नव गीतों में नए प्रतिमान स्वाभाविक रूप से आये हैं कहीं पर भी नए प्रतिमानों को कृत्रिम रुप से नहीं लाया गया है उदाहरणार्थ:---
1-हम सुए नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलोगे रट जाएंगे
हम ट्यूब नहीं है डनलप के
जो प्रेशर से फट जाएंगे
2-बैठ गया आंगन में
कुंडलिया मार
गिरगिट से ले आया
रंग सब उधार
3-पूछकर तुम क्या करोगे
मित्र मेरा हाल
पीर तन की खींच लेती
रोज थोड़ी खाल
4-पी गए
हमको समझ तुम
चार कश सिगरेट
आदमी हम
आम ठहरे
बस यही है रेट
कतिपय आह्वान परक रचनाएं बड़ी सशक्त बन पड़ी हैं -
1-सोया है जो तन के अंदर
उसे जगाओ जी
अब चेहरे पर नया मुखौटा
नहीं लगाओ जी
गाल बजाने से क्या होना
बदलो जीवन सारा
नए रूप में देख सकोगे
संवेदन की धारा
परिवर्तन का बीड़ा पहले
स्वयं उठाओ जी
2- बोल कबीरा बोल
शंख फूंक दे परिवर्तन का
धरती जाए डोल
कहीं-कहीं मापनी में
एकाध शब्द का बदलाव आया है उसका कारण यही प्रतीत होता है कि कवि ने अर्थ की प्रभावुकता को महत्व दिया है उसकी समझ में शायद शब्द बदल देने से अर्थ के उत्कर्ष में कमी हो जाती। कहीं-कहीं मात्रा गिराने का सहारा लिया गया है। कुछ लोग इसे अस्वीकार कर सकते हैं। मेरी विनम्र सम्मति में-मात्रा गिराना, विचलन, विपथन आदि की छूट लेने का अधिकार सभी रचनाकारों को समान रूप से मिलना चाहिए। मधुर जी को भी यह छूट लेने का अधिकार है ।
नवगीत के शिल्प पर उनकी रचनाएं खरी उतरती हैं। काव्य में रसात्मकता है । कथ्य में भाव संयोजन है। शब्द विन्यास उत्तमोत्तम है ।
भाषा एवं नवीन दृष्टिकोण से नवता है।
विषय वस्तु के संदर्भ में कह सकते हैं कि उनके चिंतन का स्तर ऊंचा है। विचारों में औदात्य है, लोक मंगल की कामना है । 80नवगीतों का यह संग्रह अनूठा, आकर्षक और पठनीय है ।
सफल, सार्थक सृजन के लिए श्री मनोज जी मधुर, साधुवाद के पात्र हैं। पूरा विश्वास है कि गीत -नवगीत के क्षेत्र में वे इसी ऊर्जा और समर्पण के भाव से अपना योगदान देते रहेंगे ।
उनके सुदीर्घ यशस्वी जीवन की कामना के साथ ---------राजेन्द्र शर्मा 'अक्षर '
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें