राम सेंगर
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राम सेंगर के नवगीत समाज व सत्ता की जनविरोधी प्रवंचनाओं में स्वस्तित्व हेतु संघर्ष करते हाशिए में पड़े आम आदमी की त्रासद पीड़ाओं को अपने कथ्य में प्रभावशाली किन्तु बिल्कुल अलग धज से रखते हैं। विविध विषयों को केन्द्र में रखकर रचे गए आपके नवगीतों के कथ्य की सम्प्रेषणीयता का परास व्यापक है। आपके गीत बँधे-बंधाएँ छंद प्रारूपों को तोड़, शब्दप्रयोग के अलग प्रतिमान रचते हैं,जिनकी विशिष्ट कहन नवीन छंद ,सुगठित कथ्य,अलहदा शब्द विन्यास जीवंत दृश्य उपस्थित करती है,जिसकी व्याप्ति अन्यत्र विरल है।
संपादक
आलाप
【1】
पानी है भोपाल में
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भैंस कटोरा ताल में.
हम भी क्या हैं
आधे पागल
छलका डाली
पूरी छागल
अटक गयी है प्यास हलक़ में
पानी है भोपाल में
ऊधो कहते
माधो सुनते
अपनी-अपनी
तानी बुनते
बहस छिड़ी जीने-मरने पर
पान दबे हैं गाल में
धींगामुश्ती का
आलम है
गुल चिराग है
पगड़ी ग़ुम है
फुदक रही है एक चिरैया
बहेलिया के जाल में
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【2】
दिल रखने को
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दिल रखने को
नहीं छिपायी
मन की कोई झोल
कोशिश की धड़कनें समेंटीं
था कुछ और न पास
जाने किस खोये को
हरदम-
करते रहे तलाश
पुनरभ्यासों में सुने-सहे
सारे बोल-कुबोल
सालों-साल
रहे ठहरे
जिन अपरिचयों के बीच
उन्हें अंततः
खुले गटर में
आये हमीं उलीच
ख़लल-खोट से
लड़ी-निभी को
रखा हर तरह खोल
समझ निरापद
घुस अतीत में
की राहत की खोज
लेकर लौटे
उम्मीदों पर
नये दुखों का बोझ
अमंगलों ने हौंस जगायी
दुनिया गयी न डोल
इसी हाल में हर बवाल से
हुए रहे दो-चार
यही लतीफ़ा
जिजीविषा है
लदे-फँदे की पार
लबाड़ियों के चित्तराग में
मिले न इसकी तोल
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【3】
बात न कोई बात
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हार गये हैं
बात न कोई बात है
नयी परिस्थिति की
रौनक का साथ है
कालमेघ ने-
बुद्धि भाव की
आँच को
बुझा दिया यह झूठ है
फिर-फिर हरा हुआ है
पूरा सूखकर-
मन झाऊ का ठूँठ है
सहज धर्म की-
सर्पकुंडली खुल रही
बीती दुःस्वप्नों की
काली रात है
एक जुझारू
आत्मजयी हुंकार का
भीतर हाँका चल रहा
सिर पर पांँव धरे
भागेंगे दैत्यक्षण-
प्रण यकीन में पल रहा
डर का हौवा-
गीदड़ ख़ामख़याल का
अपने आगे
इसकी कौन विसात है
【4】
नये दौर में
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उम्मीदों के फूल संँजोकर
नज़र गड़ाये हैं भविष्य पर
नये दौर में सब कुछ खोकर
रिश्ते-नाते ढोंग-धतूरे
हों जैसे बारिश के घूरे
सामाजिकता को चलते हैं
किसी तरह कंधों पर ढोकर
अपसंस्कारी हर मंडी है
लड़की यह बेबरबंडी है
लुभा रही ग्राहक के मन को
पतहीना नंगी हो-होकर
गीदी गाय गुलेंदा खाये
बेर-बेर महुआ तर जाये
ज़ज़्बे को रौंदा चक्के ने
रख डाला विवेक को धोकर
काजी के मूसल में नाड़ा
पंडित मठ में नंगा ठाड़ा
धर्म हुआ कुत्तों की बोटी
विहंँस रहा मन ही मन जोकर
भरे मूत का चुल्लू पस में
जबरा-मूढ़ लड़ें आपस में
भभका मार रही बरसों से
सड़े हुए पानी की पोखर
मरे लोक विश्वास अभागे
प्रगति काल के पंचक लागे
सोच शुभाशुभ की मिथ्या है
घुने बीज मिट्टी में बोकर
गरज-बावरा अपनी गाये
हाय पड़ी कैसी यह हाये
ऊंँट चढ़े कुत्ते ने काटा
समय मारता ऐसे ठोकर
लम्बा सांँप, गोह है चौड़ी
कहीं न दीखे हर की पौड़ी
जहांँ मिले राहत कुछ मन को
गमछा सिर पर रखें भिगोकर
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【5】
छिलें भले पगथलियाँ
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इतना विष !
इतना अपमान !!
मिट्टी का पुतला
औचित्य-अनौचित्य सब बिसारता
धधकते अवे की
समाधि तोड़-ताड़ कर
प्रकटेगा बाँहें फैला
सीना तान !
जीवन के पिछवाड़े
तेरे अँधियारे के
इस खूनी पंजे में
दबे-दबे अब न कसमसाना.
बिलकुल नामुमकिन है
इस बूचड़खाने के मिर्चीले भभके में-
मितली को
और अब दबाना.
खेत समझता
पट्टेदारों की चालाकी-
अंधी-बहरी इस पंचायत पर
मारेंगे कुल्ला तेज़ाब का-
करलें जो चाहे
सरपंच या प्रधान !
इतना विष !
इतना अपमान ! !
ठूँठ नहीं समझेंगे
आँख की इबारत को-
अर्थेतर बातों में
अब न उलझना
किसी बहाने.
छिलें भले पगथलियाँ
भिंचे हुए होंठों से
पंजों पर दौड़कर
पा ही लेंगे कहीं ठिकाने.
वक़्त आत्मरक्षा के लिए बहुत थोड़ा है-
निकल भगें किसी तरह
बच-खुचकर-
पूरी जलमग्न हुई जाती है
क्या मालुम कब लेले
प्राण यह खदान !
इतना विष !
इतना अपमान !!
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- राम सेंगर
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