(१)
एक अरसा हो गया है
ख़त पढ़े.
दूरभाषों से सतत्
संलिप्तता,
क्या लिफ़ाफ़ों पर लिखें
भूले पता,
सिर्फ़ नंबर ही
जुबानों पर चढ़े.
ना रहे आशीष
ना ही वो दुआयें,
हैं अपाहिज़ सी पड़ीं
संवेदनाएं,
भाव तक शुभकामनाओं
के बढ़े.
कौन रखता याद
अब नाते भला,
घोंटकर संवेदनाओं
का गला,
सिर्फ़ सुविधा से नये
रिश्ते गढ़े.
(२)
काग नहीं बैठा मुड़ेर पर
बहुत दिनों से.
रिश्ते बोझिल हुए
किंतु ढ़ोना मजबूरी,
दूरभाष की वज़ह
डाकियों से है दूरी,
वैसे भी संबंध बचे हैं
इनों गिनों से.
लुप्त हुआ शीशम जंगल से
बांस मरे हैं,
दुखी धावड़ा,सागवान के
घाव हरे हैं,
नहीं बुलाती वनपाखी अब
शालवनों से.
सूख रही हैं रस्म रिवाज़ों
वाली नदियाँ,
इस पीढ़ी का दर्द उठायेंगी
अब सदियाँ,
भूल गए आशीष मांगना
वृद्ध जनों से.
(३)
दुख नहीं देखा किसी
ने भी नदी का.
क्या न सहती धूप,बरखा
और जाड़े,
कुछ न ओढ़े,है पड़ी
ये तन उघाड़े़,
ढ़ो रही अभिशाप जाने
किस सदी का.
छिल गयी है देह कंकर
पत्थरों से,
और कर्कट ही मिला
आकर घरों से,
पढ़ रही जैसे पहाड़ा
त्रासदी का.
घाट पर होती सियासी
कुश्तियों ने,
खूब नोंचा तट पे बसती
बस्तियों ने,
हो गयी पर्याय मानो
द्रौपदी का.
(४)
सुर्खाबों के पंख हुए सुख,
दुख परछाई है.
ताल,झील,पोखर पीले से,
अरसे से बीमार,
कुयें कुयें से उठती खांसी
नदियों चढ़ा बुखार,
खेतों की ऐंड़ी में जैसे
फ़टी बिवाई है.
डाल डाल रोया है सेमल
मन पलाश अकुलाये,
और धूप ने पत्थर इतनी
जोरों से बरसाये,
भरी दोपहर लुटी छांव की
जमा कमाई है.
हुई धौंकनी सांस,लुहारों
जैसी लगती काया,
बुरे दिनों के हाथों चिट्ठी
देकर के बुलवाया,
हुआ अदालत वक्त न जाने
कब सुनवाई है.
रत्नदीप खरे
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