रघुविन्द्र यादव के दोहों में – वैचारिक संघर्ष
सितम्बर-1966 में नीरपुर, नारनौल (हरियाणा) में जन्में श्री रघुविन्द्र यादव ने छंद और विशेषतः दोहा छन्द पर कार्य कर जो ख्याति प्राप्त की है वह श्लाघनीय और सर्वविदित है। समकालीन दोहे रचने में इनका विशेष दखल है। इनके द्वारा अब तक कई दोहा-संग्रह प्रकाशित हुये हैं. जिनमें प्रमुख हैं – नागफनी के फूल, मुझमें संत कबीर, आये याद कबीर, वक्त करेगा फैसला आदि। इसके अतिरिक्त कई श्रेष्ठ दोहा संकलनों का सम्पादन भी आपने किया हैं, जिनमें प्रमुख हैं – आधी आबादी के दोहे, आधुनिक दोहा, दोहे मेरी पसंद के,दोहों में नारी, हलधर के हालत, नयी सदी के दोहे आदि। रघुविन्द्र यादव के दोहे शृंगार , विरह आदि विषयों से दूर वर्तमान में मानव समाज की पीड़ा को लिपिबद्ध करते हैं। उनकि प्रतिबद्धता समाज के उस वर्ग के प्रति है जो रात-दिन श्रम करके भी सामान्य जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहा है ।
गधे पँजीरी खा रहे, कुत्ते खाएँ खीर।
जंगल के मालिक धरें, आखिर कब तक धीर।।
जमीन से जुड़ा व्यक्ति अपनी जड़ों को कभी नहींं भूलता ।
इस जुड़ाव की तीव्रता रघुविन्द्र यादव जी की वैचारिकी में स्पष्ट परिलक्षित होती है ।
कृषि प्रधान देश होते हुये भी किसानों की माली हालत किसी से छिपी नहींं । उनकी समस्याएँ और कष्टप्रद स्थिति
कवि को ज़ेहनी तौर पर मथती रहती है , नतीजा वे स्वयं एक संकलन ही वे कृषकों पर केन्द्रित कर देते हैं और
कृषकों की समाज में स्थिति को जन-जन तक पहुँचाने के अपने प्रयास में लगभग 47 दोहाकारों के दोहों का संग्रह ‘हलधर के हालात’ का सम्पादन भी करते हैंं । कृषकों की इस त्रासद स्थिति पर वे स्पष्ट कहते हैं कि भारत अब मात्र कहने को कृषि प्रधान देश रह गया है ।
सच ही तो है कि कृषकों के हितों पर सत्ता की नीयत और दमनकारी गतिविधियों को अभी हम सबने हाल ही में देखा । बजाय हित संरक्षण करने के नीति नियंता झाँसे देने वाली नीतियाँ बनाकर जमकर शोषण अवश्य कर रहे हैं । सरकारें इनके लिए अल्पकालिक दोमुही योजनाएँ बनातीं हैं।
सत्यता को समझने के लिए उनका एक दोहा ही पर्याप्त है
भूख, गरीबी, बेबसी, घर में सुता जवान।
शासन सुध लेता नहीं, मरते रोज किसान।।
केवल कृषक ही नहीं दोहों में स्त्री विमर्श पर 360 डिग्री विवेचन है । महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार, ,बलात्कार , लैंगिक विभेद , पितृसत्ता की जकड़न आदि तमाम बिन्दुओं पर वे अपनी विचारों में स्पष्ट अंकित करते हैं ।
रावण लूटें आबरू, मूक खड़े हैं राम।
सीताओं का हो गया, जीना आज हराम।।
रघुविन्द्र यादव के दोहे नज़ाकत नफ़ासत से इतर पारदर्शी संवाद करते हैं।आपके दोहे बहुत अलंकारिक न होकर सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करने को विवश करते हैं ।
गंगू पूछे भोज से , यह कैसा इन्साफ़।
कुर्की मेरे खेत की , कर्ज सेठ का माफ़ ।।
उनके विचारों की कड़ियाँ सामाजिक विसंगतियों , सत्ता की थेथरई , सर्वहारा की दारुण स्थितियों पर बार- बार आकर जुड़ती हैं ।
बुलबुल ने आकाश में, जब-जब भरी उड़ान ।
बाजों ने प्रतिबन्ध के , सुना दिये फरमान ।।
चोर लुटेरे हो गये , सारे मालामाल ।
वर्ग कमेरा भूख से , अब तक है बेहाल ।।
बस्ती में रावण बढ़े , सड़कों पर मारीच ।
घिरी हुई है जानकी , फिर दुष्टों के बीच ।।
इस संक्रामक दौर में आज जब कुछ लेखक खुलेआम दरबारी राग गा रहे हैं , कुछ बेहद शाब्दिक समन्वय के साथ , संतुलन बनाकर ऐसा लेखन कर रहे हैं जिससे पाठक ही दिग्भ्रमित है कि लेखक आवश्यक मुद्दे के पक्ष में खड़ा है या विपक्ष में , कुल मिलाकर शब्दों का ऐसा घालमेल जिससे लेखक की वैचारिक तटस्थता का सटीक आकलन नहींं किया जा सकता , ऐन उसी समय रघुविन्द्र यादव की वैचारिक दृष्टि एकदम स्पष्ट है , उन्हें जो कहना है वो कहकर ही रहते हैं ।
कोई संकोच , कोई खौफ़ उन्हें उनकी वैचारिक तटस्थता से विस्थापित नहींं करता ।
बात चाहे न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति की हो , या चुनावी दौर में सोलह कलाएँ बदलते जनप्रतिनिधियों की वो सब की असलियत और किरदारों पर दो टूक लिखते हैं ।
धन के बल पर आज फिर , हुआ पराजित न्याय ।
अरी व्यवस्था कोढ़ का, कुछ तो ढूँढ उपाय ।।
जनसेवा की आड़ में , करने को व्यवसाय ।
बन जाते हैं भेड़िये,वोटों खातिर गाय ।।
आपके जनधर्मी तेवर के दोहे न सिर्फ़ अपने स्वरूप और उसकी अंतर्वस्तु से ही नहीं प्रभावित करते बल्कि
उनमें अभिव्यक्ति की सहजता, भावों की गहनता, मार्मिकता और सम्प्रेषण की त्वरा भी देखने लायक है
थोड़े में बहुत कह जाना ही आपके दोहों की विशेषता है ।
आज जब आधी आबादी अपने ही घर-परिवार , सड़क , कार्यस्थल पर महफूज़ नहींं है , समाज उसे मात्र मादा भर की दृष्टि से नापता जोखता है , जहाँ नवजात से लेकर मृत्यु की कगार पर खड़ी बुजु़र्ग महिलाओं से हो रहे बलात्कार हमें विचलित नहीं कर रहे , कुछ अप्रिय घटित हो जाने पर उसे धार्मिक खाँचों में फिट कर या पहनावे आदि पर छींटाकशी कर सत्ता और समाज के ठेकेदार अपनी निकृष्ट दलीलें देकर कुंठित मानसिकता का परिचय देते हैं बजाय पीड़ित के पक्ष में खड़े होने के , ऐसे में वो कहते हैं
घर से निकलीं तितलियाँ, खतरों से अनजान ।
बीच बाग में कर गये,भँवरे लहूलुहान।।
कहीं भेड़िये घात में , कहीं शिकारी जाल ।
है हिरनी के भाग्य में , मरना सदा अकाल ।।
है नारी के भाग्य में , दर्द , घुटन , अवसाद ।
अपने जिसको लूटते, कहाँ करे फरियाद ।।
अनैतिकता के इस भयावह संक्रामक समय में भ्रष्टाचार, शोषण, बलात्कार, लूटपाट अपहरण और हत्या जैसे जघन्य अपराधों की निर्लज्ज और मनबढ़ पताकाएँ फहराई जा रही हैं । आम जन और संसाधनों पर माफ़ियाओं का एकछत्र राज्य है । सुधार ग्रह अपराध के अड्डे बन गए हैं। सत्ता , पूँजीवाद और प्रशासन की गलबहियाँ आम जनमानस के हितों की गर्दन मरोड़ रही हैं ।
अपराध के गठजोड़ से जनता संत्रस्त ही नहीं, भयभीत भी है और कौतुक की बात यह कि इसी जनता का कुछ मनबढ़ और उन्मादी हिस्सा सरेआम अपराधों को अंज़ाम दे
रहा है । यह सब घटित होते देखकर भी वे जिन पर गण के हितों का दारोमदार है वे ही आँखें बंद कर लेते हैं या यों कहा जाये कि वे भी या वे ही इन स्थितियों के क्रियान्वयन में संलग्न होते हैं । तब सच कहने और प्रतिरोध करने का नैतिक साहस और दायित्व लेखकों का ही रहा है । सो इस भूमिका का निर्वहन रघुविन्द्र यादव जी अपने दोहों , ग़ज़लों के जरिये बख़ूबी निभा रहे हैं —
शिल्प की बात की जाये तो 13,11 पुष्ट मात्रिक विन्यास में आपके दोहों का स्थापत्य सुस्पष्ट वैचारिक बुनियाद और संवेदना से बना है । दोहों का कथानक और वैचारिकी यथार्थपरक है । हाँ , सौन्दर्य और प्रकृति प्रेमी पाठक कुछ मायूस अवश्य हो सकते हैं , क्योंकि आपके दोहों में न ही प्रकृति झूम-झाम गा रही है , न ही प्रेयस-प्रेयसी अभिसाररत हैं । न ही मिलन का उच्छवास है न ही विरह का अवसाद ! है तो सिर्फ़ जन की बात , न्याय की बात , विसंगतियों पर बात , हाकिम की तानाशाही पर बात , आधी आबादी के जमीनी सच पर बात । पारिवारिक विघटन पर बात , भौतिकता वादी युग में बुजुर्गों की त्रासद स्थिति पर बात ।
यह बात ऐसे ही अनवरत जारी रहे ,
यह सततता यों भी आवश्यक है कि जन जो सुप्तावस्था में हैं ,जागरूक हों , पाठक मनन करें और सत्ता स्तुति करने वाले साहित्यकार प्रेरणा लें , क्योंकि चार चने भले ही भाड़ नहींं फोड़ सकते किन्तु मुँह का स्वाद अवश्य बदल सकते हैं ।
- अनामिका सिंह
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