जीवन खूँटे से बाँधे हैं
छुट्टे आदमखोर ।
उन्मादी बन फिरें बावले,
लाज शर्म पी ली ।
रग-रग टीसे देह देश की ,
आह ! पड़ी नीली ।
समरसता में रोज़ पलीता
लगा रहे पुरजोर ।
सर्प नेवलों की यारी ने
दुर्गति कर डाली ।
गुलशन दहका, कलियों को खुद,
मसल रहा माली ।
लोकहितों को जो पानी दें
उनको दण्ड कठोर ।
बस्ती-बस्ती ख़ौफ़ ,
भेड़िये घूम रहे खूनी ।
लगा धर्म के तिलक ,
द्वेष की
रमा रहे धूनी ।
मानवता के माथे कालिख
पोतें रह-रह ढोर ।
2
मौन रहना हम सभी का
अब भयानक है !
न्याय की पलटी तराजू
सत्य की हँस डाँड़ मारे ,
वंचितों का स्वर बने जो
दण्ड के खोले किवारे ।
न्याय के अन्याय से कब
सच गया छक है !
बाँटते संकेत पर भय
तान बन्दूकें दरोगे ,
और रख झूठी दलीलें
फैसले दें श्याम चोगे ।
कोई भी उम्मीद
इनसे झूठ
नाहक है ।
डंक जहरीले चुभातीं
नव पनपती आस्थाएँ ,
और पुजती जा रहीं हैं
मुँह सिले फिर भी शिलाएँ ।
आग है,
धर्मांधता के हाथ
चक़मक है !
3
तालियों की,
थाप के शुभ स्वर ।
हर सगुन के
काज आये
द्वार पर किन्नर ।
सगुन के गीत गाते ,
दें
बधाई लो बधाई ।
ब्याह,गौने ,जच्चगी में
नाचते
छम छम ।
नयन रंजन कर रहे
जन ,
देख तन के खम ।
जिए लल्ला जिए जच्चा,
दुआएँ दे रहे माई।
बोलते ,
लगते बहुत बरजोर
हैं सारे ।
चल रहे
लचका कमर नर
देह से हारे ।
हिकारत से
गये देखे
सहे हर साँस रुसवाई ।
मारता कहकर
शिखंडी
जग इन्हें ताना ।
कौन है
हम-आप में
इंसान जो माना ।
उद्धारकों की
आँख की
छँटती नहीं काई ।
जी रहे जीवन
कटी ,
सबसे अलग धारा ।
दर्द है अनकथ
हुई , ऐसी
इन्हें कारा।
सहारा नेग का केवल
नाचकर ,
जोड़नी पाई ।
4
क्या-क्या देख रहीं हैं आँखें
क्या-क्या और देखना बाकी !
चलें धर्म की ओट
यहाँ पर सिर्फ़ द्वेष के
गोरखधंधे ।
कर असत्य की पैरोकारी
सच भूले
आँखों के अन्धे ।
पीस रहे
समरसता सारी
फेर-फेर कर उल्टी चाकी ।
पत्रकारिता हुई बेहया ,
लोकतंत्र
के मुँह पर गाली ।
कर सत्ता की अंध चाकरी ,
अर्थी अपनी
स्वयं निकाली ।
सारे अमले
बिके हुये जब
पीछे कैसे रहती खाकी ।
अव्वल हैं नकटौरे में वो ,
जिनके हाथों
बागडोर है ।
उजियारे को सौंप अमावस
कहें सुहाना
सुखद भोर है ।
लोकतंत्र की
नाव पलटकर
पार लगाई कहे पताकी ।
5
ढोलकी की थाप गुम है ,
कोख भी कुछ
कसमसाई ।
है विकट संताप बखरी
वंश का वारिस
न आया ।
सोच में जच्चा , न सोहर
कंठ कोई
गुनगुनाया ।।
झूठ मुँह फूटी नहीं है ,
जन्म बिटिया पर
बधाई ।
सब पढ़ेंगे सब बढ़ेंगे ,
मुँह चिढ़ाता
रोज स्लोगन ।
भेद की है भीति ऊँची ,
रोपता है खेत
बचपन ।।
आखरों संग हैं अपरिचित ,
क्या इकाई
क्या दहाई ।
नित्य ही होती बलत्कृत ,
राह में
हर रोज ' मीना '।
और आरोपी विचरते ,
खोलकर
बेलौस सीना ।।
न्याय उनके हित खड़ा
ले मुट्ठियों में
नून राई ।
देह का यह चाक घूमा ,
है कटा जीवन
अलोना ।
पृष्ठ जो पलटें विगत , है
आखरों का स्वाद
नोना ।
उम्र भर ठहरी अमावस ,
फेर मुँह बैठी
जुन्हाई ।
- अनामिका सिंह
परिचय -
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नाम- अनामिका सिंह
०९ अक्टूबर १९७८
जन्मस्थान -इन्दरगढ़ जिला कन्नौज
शिक्षा - परास्नातक (विज्ञान ), बी.एड.
संप्रति -शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश में कार्यरत
अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में नियमित नवगीत प्रकाशन
सम्पादन ' सुरसरि के स्वर ' ( साझा छंद संकलन )
संपादन साहित्यिक पत्रिका 'अंतर्नाद ' एवं ‘ कल्लोलिनी’
प्रकाशित पुस्तक : ' न बहुरे लोक के दिन ' नवगीत संग्रह
सम्पादक / संचालक वागर्थ ( नवगीत पर एकाग्र साहित्यिक समूह )
पता -
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अनामिका सिंह
स्टेशन रोड गणेश नगर , शिकोहाबाद- जिला -फिरोजाबाद (283135)
yanamika0081@gmail.com
सम्पर्क सूत्र-9639700081
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