पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह
पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं
जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह
वीरेन्द्र जैन
किसी ऐसे नवगीत संग्रह पर लिखने की गुंजाइश ही कहाँ बचती है जिसकी भूमिका नवगीत के प्रमुख कवि यश मालवीय ने लिखी हो, कवर पर नचिकेता, इन्दीवर, डा, ओम प्रकाश सिंह, डा. अनिल कुमार की टिप्पणी हो, तथा प्राक्थन में गीतकार ने अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तार से अपनी बात कही हो। जय चक्रवर्ती का संग्रह ‘ज़िन्दा हैं अभी सम्भावनाएं ‘ पाकर अच्छा लगा और समीक्षा के आग्रह पर कृष्ण बिहारी नूर की वह पंक्ति याद आ गयी “ मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नही “ ।
साथी जय चक्रवर्ती पत्र पत्रिकाओं में खूब छपते हैं और पढे जाते हैं, क्योंकि वे अपने समय को लिखते हैं। नवगीत इसी आधार पर अपने को गीत से अलगाता है कि वह अतीत को नहीं वर्तमान को गाता है। नचिकेता जी उसे समकालीन गीत कहते हैं। वे एक गीत में खुद ही अपने संकल्प को घोषित करते हुए कहते हैं कि –
लिखूं कि मेरे लिखे हुए में
गति हो यति हो लय हो
पर सबसे ऊपर मेरे हिस्से का लिखा समय हो
प्रस्तुत संग्रह में उन्होंने अपने समय की दशा को बहुत साफ साफ चित्रित किया है और ऐसा करते हुए उन्होंने प्रकट किया है कि लेखक सदैव विपक्ष में खड़े होकर देखता है जिससे उसे व्यवस्था की कमियां कमजोरियां नजर आ जाती हैं। जूलियस फ्यूचक ने कहा है कि लेखक तो जनता का जासूस होता है।
सत्ता के झूठ और पाखंडों को कवि अपनी पैनी दृष्टि से भेद कर देखता है-
ढोंग और पाखंड घुला सबकी रग रग में
आडम्बर की सत्ता, ओढे धर्म-दुशाले
पूर रही सबकी आँखों में भ्रम के जाले
पसरा है तम ज्ञान- भक्ति के हर मारग में
धूर्त छली कपटी बतलाते, खुद को ईश्वर
बिना किये कुछ बैठे हैं, श्रम की छाती पर
बचा नहीं है अंतर अब साधू में, ठग में
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धर्म गुरुओं के साथ साथ यही काम राजनेता भी कर रहा है-
झांकता है हर समय हर पृष्ठ से, बस एक मायावी मुखौटा
बेचता सपने, हकीकत पर मगर, हरगिज न लौटा
निर्वसन बाज़ार, आडम्बर पहिन कर रोज हमको चूमता है
थाहता जेबें हमारी, फिर कुटिल मुस्कान के संग झूमता है
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नगर में विज्ञापनों के घूमने का अब हमारा मन नहीं करता
आजकल अखबार पढने को हमारा मन नहीं करता
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व्यंजना में लिखे कुछ गीत , खुद के बहाने सामाजिक दुष्प्रवृतियों पर चोट करते हैं-
झूठ हम आपादमस्तक, झूठ के अवतार हैं हम
झूठ दिल्ली, झूठ पटना, झूठ रोना झूठ हँसना
बेचते हैं रोज हम जो झूठ है हर एक अपना
आवरण जनतंत्र का ओढे हुए अय्यार हैं हम
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बात बात पर करते यूं तो मन की बातें
मगर जरूरी जहाँ, वहाँ हम चुप रहते हैं
मरते हैं, मरने दो, बच्चे हों किसान हों, या जवान हों
ये पैदा होते ही हैं मरने को, हम क्यों परेशान हों
दुनिया चिल्लाती है, हम कब कुछ कहते हैं
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भागते रहते सदा हम, चैन से सोते न खाते
रात दिन आयोजकों के द्वार पर चक्कर लगाते
छोड़ कर कविता हमारे पास है हर एक कविता
भात जोकर भी, हमारे कारनामों से लजाते
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तुमने जैसे दिखलाए हैं, क्या बिल्कुल वैसे होते हैं
अच्छे दिन कैसे होते हैं?
तब भी क्या कायम रहती है अँधियारों की सत्ता
क्रूर साजिशों में शामिल रहता, बगिया का पत्ता पत्ता
याकि परिन्दे हर डाली पर आतंकित भय से होते हैं?
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वर्तमान की समीक्षा करते हुए हमारे पास भविष्य की वैकल्पिक योजनाएं होनी चाहिए किंतु कभी कभी हम वर्तमान की आलोचना में अतीत में राहत देखने लगते हैं, या नगर की कठिनाइयों से दो चार होते हुए उस गाँव वापिसी में हल ढूंढने लगते हैं जहाँ से भाग कर हमने नगर की ओर रुख किया था। गाँव लौटे लोगों को जिन समस्याओं से सामना करना पड़ता है उसके लिए भाई कैलाश गौतम का गीत ‘ गाँव गया था, गाँव से भागा” सही चित्रण करता है। जय चक्रवर्ती के गीतों में ऐसा पलायन कम ही देखने को मिलता है, पर कहीं कहीं मिल जाता है। वर्तमान राजनीति और उससे पैदा हुयी समस्याओं पर भी वे भरपूर लिखते हैं और ऐसा करते हुए वे रचना को अखबार की कतरन या नेता का बयान नहीं बनने देते, उसमें गीत कविता को बनाये रखते हैं। इस संकलन में उनके बहुत सारे गीत इस बात पर भी केन्द्रित हैं कि इस फिसलन भरे समय में वे अपने कदम दृढता से जमा कर संघर्षरत हैं। ऐसे संकल्प का अभिनन्दन होना ही चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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