धूप भरकर मुठ्ठियों में
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किसी भी रचनाकार का साहित्यिक सृजन मनुष्य के जीवन का आनन्द और उसकी वेदना दोनों को एक साथ समाहित करते हुए चलता है। वह लोक की अनुभूति को समग्र रूप से अपने अन्तस में आत्मसात करता हुआ फिर अपने संवेदनशील मानस से उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का मूल्यांकन करता हुआ लोकहित आधारित उस यथार्थ बोध पर अपनी लेखनी से अपने मन्तव्य को चित्रित करता है और इस प्रकार अपनी रचनाधर्मिता को एक स्वरूप प्रदान करता है। रचनाकार जिन बातों से प्रभावित और उद्वेलित होता है उन्हें अपनी कल्पनाशीलता से अपने सृजन में स्थान देता हुआ दिखाई देता है। इस प्रकार रचनाकार का सृजन संसार उसके व्यक्तित्व और चिन्तन का भी परिचायक होती है।
वर्तमान समय के नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर एवं चर्चित नवगीतकार श्री मनोज जैन मधुर का पहला नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' के बाद उनका दूसरा नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' लगभग एकसाल पहले प्रकाशित हुआ है रचनाएं संग्रहित है। उनके काव्य में संघर्षों मान्यताओं अपेक्षा, उपेक्षा और संवेदनाओं की दृष्टि का विस्तार बहुत दूर दूर तक है। रचनाकार इन सभी बातों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाल रहा है।
मनोज जी के प्रथम गीत वाणी वंदना में कवि अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए प्रार्थना करते हुए सर्वजन कल्याणार्थ भाव में लोक मंगल के लिए भी प्रार्थना करते हुए कहता है ;
हे माँ! तेरे लाल करोड़ों
वरदान हस्त सबके सिर धर दो
हरो निराशा सबके मन से
भरो कोष प्रज्ञा के धन से
इसी प्रकार प्यार के दो बोल बोलें गीत में वैमनस्यता की अन्त:ग्रन्थि को निर्मूल करने के लिए
धूप भरकर मुठ्ठियों में
द्वेष का तम तोम घोलें …का आह्वान करता है।
मनोज जी के इस नवगीत संग्रह के कई गीतों में आध्यात्मिक चेतना के स्वर प्राय: मुखरित होते दिखाई देते हैं। जैसे;
बूँद का मतलब समन्दर है गीत में -
"कंज सम भव-पंक में
खिलना हमारा ध्येय है
सत्य, शिव, सुंदर, हमारा
सर्वदा पाथेय है"
भव भ्रमण की वेदना गीत में
"भव भ्रमण की वेदना से
मुक्ति पाना है
अब हमें निज गेह
शिवपुर को बनाना है"
भाषा की शैली अभिधार्थ है तो कहीं कहीं व्यंजनात्मक भी है। जैसे ;
"हम बहुत कायल हुए हैं
आपके व्यवहार के
आँख को सपने दिखाये
प्यास को पानी
इस तरह होती रही
हर रोज मनमानी"
कवि अपनी स्वतन्त्र चेतना की स्वाभिमान धारण करना पसंद करता है। हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के गीत में इस भाव को यह कहकर प्रकट भी करता है कि
" हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलेंगे रट जायेंगे"...
उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं"
इसी चेतना का एक अन्य स्वर ;
" तार कसते हृदय झनझनाने लगे
आपके हाथ के हमतँबूरे नहीं"
विभक्त नवगीतों की पंक्तियाँ जो विराट अर्थ लिए हुए हैं और मन को छू जाती हैं उनका बिना भूमिका के मैं उल्लेख करना चाहता हूं, जैसे ;
सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्माण के स्वर
" काश! हम होते
नदी के तीर वाले वट
हम निरन्तर भूमिका
मिलने मिलाने की रचाते"
" चांद सरीखा मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ
धीरे धीरे सौ हिस्सों में
बँटते देख रहा हूँ….
नई सदी की परम्परा से
कटते देख रहा हूँ "
परम्पराओं का अनुकरण करते हुए कवि कहता है-
" ढूँढ रहा हूँ मैं साखी को
तुलसी वाली परिपाटी को
जिन राहों पर चला निराला
शीश लगाने उस माटी को"
साहित्यिक विद्रूपताओं पर सीधा प्रहार करते हुए
" नकली कवि कविता पढ़कर जब
कविता-मंच लूटता है
असमय लगता है धरती पर
तब ही आकाश टूटता है…
आचरण अनोखे देख देख
अंतस का क्रोध फूटता है"
आलोचकों के पक्षधर आलोचनाधर्म पर व्यंग्य का भाव
" पारिजात को बबूल
कहना तू छोड़ दे
हीरे को हीरा कह
एक नया मोड़ दे…
समदर्शी बनकर यदि
धर्म जो निभाएगा
पारस को छू ले तू कुंदन हो जाएगा"
अध्यात्म का एक अन्य राग -
" पावन शिखर सम्मेलन को
शत शत नमन
शत शत नमन"
कवि की दृष्टि अपने आसपास के शिल्प कलाओं पर भी है -
भीम बेटा का हर पत्थर
कहता एक कहानी
उँगली दाँतों तले दबाता
आकर हर सैलानी…
काश अहिल्या की आँखों सा
हम बरसाते पानी"
आत्म नीरसता में भी सरस भावाभिव्यक्ति का एक अद्भुत चित्र-
चंदन सम शीतलता बाँटी
जीवन भर दुख के नागों को
मधुर शब्द स्वर रोज दिए हैं
आमन्त्रित कर नव रागों को"
विषमताओं पर कटाक्ष का स्वर -
"पाँव पटकते ही मगहर में
हिल जाती क्यों काशी
सबके हिस्से का जल पीकर
सत्ता है क्यों प्यासी"
कवि ने राजनीति पर भी अपनी दृष्टि बनाये रखता है -
राजनीति की उठापटक औ' धींगामुश्ती में
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है….
प्रेम और सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखने के लिए कवि के बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्त होते हैं -
नेह के ताप से
तम पिघलता रहे
दीप जलता रहे….
हर कुटी के लिए
एक संदीप हो
प्रज्ज्वलित प्रेम से
प्रेम का दीप हो
काव्यात्मक साहित्यिक सृजन में कुछ भी लिखे जा रहे काव्य में नीरसता से क्षुब्ध कवि अपने व्यंग्य से प्रहार करता दिखाई देता है -
कथ्य यहाँ का शिल्प वहाँ का
दर्शन ठूँस कहाँ कहाँ का
दो कौड़ी की कविता लिखकर
तुक्कड़ पंत हुआ
नवगीत संग्रह की अधिकांश नवगीतों में कवि के हृदय की वेदना के शब्द मुखरित होते हैं, किन्तु साथ ही हृदय का आनन्द और मंगल कामना के स्वर भी अपने नवगीतों में पिरोता हुआ दिखाई देता है -
खूबसूरत दिन, पहर, हर पल हुआ
तुम मिले तो सच कहें
मंगल हुआ …..
लाभ शुभ ने धर दिए हैं
द्वार पर अपने चरण
विश्व की हर स्वस्ति ने
आकर किया मेरा वरण
प्रश्न मुश्किल जिंदगी का
हल हुआ
निश्चित रूप से हमारे प्रिय नवगीतकार मनोज जैन 'मधुर' अपने दूसरे नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' मानवीय संवेदनाओं के विविध रूपों को लेखनीबद्ध किया है। उनसे अभी और अधिक सशक्त सृजन की आशायें गीत नवगीत साहित्य प्रेमियों के हृदय में अपेक्षित है। मनोज जी को बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' भोपाल
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