कविवर विजय किशोर मानव जी के पाँच नवगीत
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1
नवगीत
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।
माथे मिले लकीरों वाले
हाथ चोट खाए
क्या तक़दीर लिखी है मालिक
हम तो भर पाए;
खुली हवा में उड़ें
कहाँ ऐसे नसीब अपने
गुम चाभी के ताले हैं
बाहर की सांकल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।
ढोते पेट छिल गए कन्धे
भूख कि दूब हरी,
भीड़ों में लगती है
अपनी देह पुआल भरी;
सूरज रहे किसी का
हमको क्या लेना-देना
आँख खुली जब से
हम हैं दड़बे में काजल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।
2
पाकर जल उधार का,
सारा गाँव डुबो दे
मुझको ऐसी नदी नहीं बनना।
पीठों पर हों घाव
आदमी इक्के के
मरियल घोड़े हों,
न्याय माँगते बटमारों से
हंसों के कातर जोड़े हों;
जिसका हंसना फिर-फिर
सूखी आँख भिगो दे
मुझको ऐसी सदी नहीं बनना।
गुलदस्ते हैं चमन यहाँ के
सहमी ख़ुशबू डरे बिखरते,
नागफनी की पौ-बारह है
भरे पड़े हैं गमले घर-घर के;
जिसका खिलना
काँटों का संसार संजो दे
हमको ऐसी कली नहीं बनना।
3
घर पड़ोसी का जला, हम चुप रहे
घर पड़ोसी का जला
हम चुप रहे
गांव पूरा चुप रहा कोई नहीं बोला।
दस्तकें देता रहा
पहरों खड़ा कोई
चीख़-चुप्पी से लिपट कर
रातभर रोई
खिलखिलाया खूब
ज्वालामुखी रह-रह कर
एक पिंजरे ने
अकेले यातना ढोई
धुएँ में घुट-घुट मरी मैना मगर
सभ्य पालनहार ने पिंजरा नही खोला।
4
जलती आँखें,
कसी मुट्ठियाँ
भटक गई या हुई पालतू
इस इमारतों के
जंगल में
ऐसी दौड़
कि सर ही सर हैं
पाँवों के नीचे कंधे हैं
या तो आदमखोर नजर है
या फिर लोग निपट अंधे हैं
कौम कि
जैसे भेड़ बकरियाँ
पैदा होते हुई फ़ालतू
होने चली जिबह मकतल में
जिसे पा गए
उस पर छाए
सब में गुण हैं अमरबेल के
सीढ़ी अपनी, साँप और के
ऐसे हैं कायदे
खेल के
मिली जुली
हो रहीं कुश्तियाँ
ऊपर वाले, देख हाल तू
कोई नियम नहीं दंगल में
5
गाँव छोड़ा शहर आए
उम्र काटी सर झुकाए
ढूँढ ली खुशियाँ
इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में
माँ नहीं सोई
भिगोकर आँख रातों रात रोई
और हर त्योहार बापू ने किसी की
बाट जोही
मीच आँखे सो नहीं पाए
बाँध कर उम्मीद
पछताए
हाँ हुजूरी में
सलामों में
खो गए बेटे निजामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में
घर नहीं कोई
यहाँ दरबार हैं या हैं दुकानें
जो हँसी लेकर चले उस पर पुती हैं
सौ थकानें
कामयाबी के लिये सपने
बेच डाले रात दिन
अपने
सिर्फ कुछ खोटे छदामों में
खो गए रंगीन शामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में
विजय किशोर मानव
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