कीर्तिशेष डॉ. ताराप्रकाश जोशी जी के
नवगीत
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एक
साँझ हुई चल पंख समेटें
उमर-उड़ान कहाँ थम जाए,
चल, अछोर छाया में लेटें !
रूप निहारे, रंग निहारे
आकृति - आकृति अंग निहारे,I
जो छवि भाये सो छवि ओझल
दुनिया के सब संग उधारे,
पल दो पल की आँख - मिचौनी
चल अदीठ आभा से भेंटें !
तरुवर से क्या ? कोटर से क्या ?
नदिया से क्या ? पोखर से क्या ?
मैं अपनी हंसिनिया के बिन
मुझको मानसरोवर से क्या ?
यह नभ छोटा जैसे जीवन
चल अशेष के पृष्ठ पलेटें !
कूजन चुप है, कलरव चुप है,
जंगल चुप है, अर्णव चुप है,
केवल सूनापन मुखरित है
यात्राएँ चुप, अनुभव चुप हैं,
सात सुरों का क्या पतियारा
चल, अनादि के तार उमेठें
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दो
सूनापन जाए तो सोऊँ !
यह बैठा है, कैसे बोलूँ
अपना बिस्तर कैसे खोलूँ
यह उलझन जाए तो सोऊँ !
यह जब से आया, गुमसुम है
इसका मौन बड़ा निर्मम है
दुखता दिन जाए तो सोऊँ !
यह मुझसे मिलता - जुलता है
छाया - सा हिलता - डुलता है
अपनापन आए तो सोऊँ !
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तीन
कोई और छाँव देखेंगे
कोई और छाँव देखेंगे
लाभों घाटों की नगरी तज
चल दे और गाँव देखेंगे
सुबह सुबह के
सपने लेकर, हाटों हाटों खाए फेरे
ज्यों कोई भोला बंजारा
पहुँचे कहीं ठगों के डेरे
इस मंडी में ओछे सौदे
कोई और
भाव देखेंगे
भरी दुपहरी गाँठ गँवाई,
जिससे पूछा बात बनाई
जैसी किसी गाँव वासी की
महानगर ने हँसी उड़ाई
ठौर ठिकाने विष के दागे
कोई और
ठाँव देखेंगे
दिन ढल गया
उठ गया मेला, खाली रहा उम्र का ठेला
ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर खेला रह जाए अनखेला
हार गए यह जनम जुए में कोई और
दाँव देखेंगे
किसे बताएँ इतनी पीड़ा,
किसने मन आँगन में बोई
मोती के व्यापारी को क्या,
सीप उम्रभर कितना रोई
मन के गोताखोर मिलेंगे कोई और
नाव देखेंगे
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चार
तेरे मेरे बीच
तेरे मेरे बीच कहीं है
एक घृणामय भाईचारा
सम्बन्धों के महासमर में
तू भी हारा मैं भी हारा
बँटवारे ने भीतर-भीतर,
ऐसे-ऐसी डाह जगाई
जैसे सरसों के खेतों में,
सत्यानासी उग-उग आई
तेरे मेरे बीच कहीं है
टूटा-अनटूटा पतियारा
अपशब्दों की बंदनवारें,
अपने घर हम कैसे जायें
जैसे साँपों के जंगल में
पंछी कैसे नीड़ बनायें
तेरे मेरे बीच कहीं है
भूला-अनभूला गलियारा
आहत सोये जर्जर जागे
जीवन ऐसी एक व्यथा है
जैसे किसी फटी पोथी में
लिखी हुई प्रतिशोध कथा है
तेरे मेरे बीच कहीं है
झूठा-अनझूठा हरकारा
बचपन की स्नेहिल तस्वीरें
देखें तो आँखें दुखती है
जैसे अधमुरझी कलियों से
ढलती रात ओस झरती है
तेरे मेरे बीच कहीं है
बूझा-अनबूझा उणियारा
जय का तिमिर महोत्सव तेरा
क्षय का अग्नि-पर्व है मेरा
तेरे घर शापों का डेरा
मेरे घर शापों का फेरा
तेरे मेरे बीच अभी है
डूबा-अनडूबा उजियारा ।
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पांच
मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो
कोई चलता कोई थमता
दुनिया तो सडकों का मेला
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो
पल-पल दिखते पल-पल ओझल
सारे सफर पडावों के छल
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो
क्या राजाघर क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति-निरति हो
ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल-साँकल
जैसे दावानल में हँस दे
कोई पहली-पहली कोंपल
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो
डॉ० तारा प्रकाश जोशी
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कीर्तिशेष डा तारा प्रकाश जोशी जी का
जन्म- २५ जनवरी १९३३
शिक्षा-
हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि (स्वर्ण पदक के साथ) राजस्थान विश्व विद्यालय से डॉ रांगेय राघव के साहित्य में मानववाद विषय पर पीएच. डी.
कार्यक्षेत्र-
लेखन एवं भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी
प्रकाशित कृतियाँ-
गीत संग्रह- कल्पना के स्वर, शंखों के टुकड़े, समाधि के प्रश्न, जलते अक्षर
उपन्यास- जयनाथ, जल मृगजल
नाटक- द्वापर के आँसू, दूधा, त्रेता का परिताप
पुरस्कार एवं सम्मान-
राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोच्च ‘साहित्य मनीषी’
सम्मान
अक्तूबर २०२० में आपका निधन हो गया।
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