कविता
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खे रहा है
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नर्मदा के शाँत
जल में खे रहा है
नाव कोई।
याद में आया
उभरकर इस बहाने,
वह पुराना
गाँव कोई।
एक पनिहारिन,
घड़ों के साथ,
नदी तट पर,
नहाने रोज आती थी।
संतुलन साधे
लचकती
शाख-सी लगती,
भरे घट ले
कहीं वह,दूर जाती थी।
निस्सीम-सा
विस्तार
है उस पार,
लग रहा जैसे कि मिलने
उठ रहा है
पाँव कोई।
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